22 दिसंबर 2020 का ज्ञानप्रसाद अपने सूझवान और समर्पित सहकर्मियों के समक्ष
हिमालयवासी त्रिकालदर्शी परमसिद्ध विशुद्धानन्द जी महाराज के लेख के बाद हमारे ह्रदय में बार -बार जिज्ञासा उठ रही थी कि ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान ऊपर कुछऔर रिसर्च की जाये और कुछ प्रेणादायक लेख अपने सहकर्मियों समक्ष प्रस्तुत किये जाएँ l हमारे कुछ सहकर्मियों ने भी कमेंट किये कि ब्रह्मस्त्र अनुष्ठान पर और लेख लिखे जाएँ I इसी उधेड़ बुन में हमने 1957 ,1958 वर्षों की सारी अखंड ज्योति पढ़ डाली I इतना कुछ अध्यन करने के बाद निष्कर्ष यही निकला कि परिजनों को इन वर्षों की अखंड ज्योति खुद पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाए क्योंकि इतना विस्तृत साहित्य कुछ दो चार लेखों में लिख पाना असंभव सा दिखता है I अखंड ज्योति के यह वाले अंक इतने ज्ञान वर्धक हैं कि इनको मिस करना ठीक नहीं होगा परिजनों को स्वयं जानना चाहिए कि गुरुदेव का यह प्रयास किस स्तर का था और कैसे दैवी सत्ता ने उनकी सहायता की, इतने समर्पित साधक, दो लाख से अधिक साधकों का समर्पण 1024 यज्ञ कुंड, आठ यज्ञ नगर इत्यादि इत्यादि .
लेकिन इस निष्कर्ष के बावजूद ह्रदय ने पुकारा कि गुरुदेव का सन्देश अवशय हीआपके समक्ष प्रस्तुत होना चाहिए I इतना प्रेरणा से भरपूर मार्गदर्शन हम सबको अवश्य मिलना चाहिए I दिसंबर 1958 वालेअंक में से कुछ चुने हुए पन्नों का सार आपके समक्ष प्रस्तुत है इसआशा के साथ कि आपकी सुबह आपको नई ऊर्जा प्रदान करेगी I हम प्रयास करेंगें कि आपको सूक्ष्म रूप में तपोभूमि ले चलें I तो चलें फिर !!
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परमपूज्य गुरुदेव के closing remarks :
आचार्य श्रीराम जी ने अपने 3 -4 दिनों के सारगर्भित भाषणों में कहा-
“हमको त्यागी, तपस्वी निःस्वार्थ जन सेवक चाहियें जो जन-जन के मन-मन में सच्ची सेवा और त्याग का महात्म्य बतावें। जब हमारा समाज स्वार्थ में डूबे हुए लाखों साधुओं को रबड़ी मालपुआ खिलाता है तो क्या निःस्वार्थिओं को रोटी भी नहीं मिलेगी? अवश्य मिलेगी, और इसकी जिम्मेदारी हम लेते हैं। जो व्यक्ति कुछ करने की क्षमता रखते हों और जिनका स्वास्थ्य ठीक हो वे धर्म-प्रचार में लगने को तैयार हो जायें I हम उन्हें सिखायेंगे, पढ़ायेंगे, संगीत, भाषण आदि की शिक्षा देकर भारतीय संस्कृति का प्रचारक बनायेंगे। आप हमारे साथ काम करने के लिये अपना समय दें, फिर कार्य करने की व्यवस्था करना हमारा काम है I पर हमें ऐसे एक-दो नहीं हजारों, लाखों जन-सेवक चाहियें। देश में धर्म की जागृति का कार्य करना बड़ा जरूरी है I देश ऐसे आदर्श बलिदानियों की माँग करता है जो शंकराचार्य की तरह भगंदर का फोड़ा होते हुये भी समस्त भारतवर्ष में एक कोने से दूसरे कोने तक धर्म प्रचार करते हुए भ्रमण करते रहे। हमको ऐसे प्रचारक चाहियें जो ऋषि दयानन्द की तरह समाज में नवीन जागृति का मंत्र फूंक दें। हमको शिवाजी जैसे वीरों की आवश्यकता है जो धर्म रक्षा हेतु सदैव प्राणों को हथेली पर लिये रहें। हम आपका स्वागत करते हैं और यही कहते हैं कि धर्म के लिये कुछ कुर्बानी करो। हमारी यह भूख कुछ आदमियों से तृप्त होने वाली नहीं है- यह ऋषि जमदग्नि की भूख है- लाखों आदमियों के बलिदान की भूख है।”
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(नवभारत टाइम्स 28 नवम्बर 58) इसी तरह की reports अमर उजाला और सैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित हुईं थीं
वास्तव में, महायज्ञ की तैयारी में हजारों कार्यकर्ता पिछले एक वर्ष से ही व्यस्त थे। देश विदेश में जप, हवन, एवं मन्त्र लेखन के मौन-यज्ञ स्थान-स्थान पर हो रहे थे। कौन जाने कितने करोड़ मन्त्र इस बीच में लिखे गये? कितने ही अरब पाठ हुये होंगे गायत्री मंत्र के, कितने ही मौन तपस्वियों ने वनों में, गिरि कन्दराओं में उद्यानों में, मन्दिरों में, घरों में और अपने घरों के किसी शान्त-नीरव से कोनों में अपनी साधना पूर्ण की। इस महायज्ञ के ‘होता’एवं यजमान का गौरवपद प्राप्त करने के हेतु सवा लाख जप और 52 उपवास करने की मूक-तपस्या कितने ही महान आत्माओं ने की। अकेले गायत्री-तपोभूमि पर ही हजारों व्यक्ति समय निकाल कर आते रहे
और अपनी तपस्या पूरी की। यह सभी प्रयत्न वर्तमान महायज्ञ की आधार शिला थे। इसी पावन आधार पर महायज्ञ की सफलता अवलम्बित थी।
आदिशक्ति गायत्री माता की प्रेरणा से ‘मानवों ने, मानव द्वारा , मानव के लिये” इस महायज्ञ की आदि से अन्त तक तैयारी करना प्रारम्भ कर दिया था। महीनों पहिले से सैंकड़ों तपस्वी, श्रमदान करके यज्ञस्थली का निर्माण करने में लगे थे। 1024 सुन्दर यज्ञ-कुण्डों का निर्माण करना, कई मील तक वन्य भूमि को साफ सुथरा करके, नवीन नगरों के लिये स्थान निकालना, और लाखों आगन्तुकों के निवास के लिये तम्बू डेरा जमाना आदि वृहत कार्यों का अनुमान करना ही कठिन है। किन्तु यह ‘कठिन” आसान हो गया।
श्रमदान का वास्तविक स्वरूप मुस्करा उठा आठ नवीन नगरों के रूप में :
(1) नारद नगर, (2) व्यास नगर, (3) विश्वामित्र नगर, (4) दधीचि नगर, (5) वशिष्ठ नगर, (6) पातंजलि नगर, (7) याज्ञवलक्य नगर, (8) भारद्वाज नगर।
मथुरा से वृन्दावन की सीमा तक तीन मील लम्बे इन नगरों में जब विद्युत शिखाएं जगमगा उठीं तो ऐसा प्रतीत होता था मानो, तारागण इस महायज्ञ की छटा बढ़ाने आकाश से उतर आये हैं।
ब्रज की इसी पावन रंगस्थली पर किसी शरद् की मधुर रात्रि में, योगेश्वर भगवान कृष्ण ने महारास रचाया था। उस समय भी ब्रज की धरती इसी भाँति जगमगा उठी होगी। ठीक उसी प्रकार, लाखों तपधारियों के पदार्पण से यह पुनीत धरती प्राणवान हो उठी। गायत्री-परिवार के लगभग समस्त सदस्य, सदस्याएं जब जहाँ 20 नवम्बर की रात्रि तक एकत्रित हो उठीं तो एक अनिर्वचनीय आनन्द की सृष्टि हुई। समुद्र मन्थन करके मानो समस्त भूगर्भा मणियों को किसी एक ही स्थान पर एकत्रित कर दिया गया हो। आत्मीयता, स्नेह एवं मधुरतम भावनाओं के उच्छवास से वातावरण सुरभित हो उठा।
सब जानते हैं कि श्री जमुना जी मथुरा नगरी की माला हैं। किन्तु 22 नवम्बर को इस नगरी का अभिषेक हुआ तपस्वियों की उस अपरिमित लंबी प्रभातफेरी से जो वेदमाता गायत्री का जय-जयकार करती हुई, नगर की प्रमुख सड़कों पर रत्माला की भाँति शोभायमान थी। और उसी दिन प्रातः वेला में जब हजारों महिलायें सिर पर मंगलघट रखकर, जमुना जल लेकर, स्वामी घाट से यज्ञ नगर तक मंगल गान करती हुई निकलीं साक्षात् कला एवं संस्कृति ही साकार हो उठीं प्रतीत हो रही थीं।
” यह घटना भी नगर के इतिहास में बेजोड मानी गई।”
वैदिक विवाहों की परम्परा का रूप उस समय कितना निखर गया जब तपोभूमि के पावन यज्ञ मंडप में देवोत्थान एकादशी की गोधूलि वेला में आधुनिक अभिशापों (दहेज तथा जेवर) से रहित पाणिग्रहण संस्कार हुये, इसे साँस्कृतिक पुनरुत्थान का प्रथम सोपान का यदि हम ‘आदि’ कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी।
मथुरा नगरी के ही नहीं वरन् समस्त संसार के सुहावने प्रभात ने योगीराज श्री कृष्णचन्द्र की गोचर भूमि में असंख्य तपोनिष्ठ एवं विश्वकल्याण की भावना से प्रेरित व्यक्तियों द्वारा वेद मन्त्रों का उच्चारण सुना I
23 नवम्बर को प्रातःकाल मथुरा वृन्दावन मार्ग पर जाने वाले जन-समूह का कोई अनुमान लगाना मानव शक्ति के परे था। ‘गायत्री माता की जय हो’ ‘विश्व का कल्याण हो’ आदि जयघोषों से नभ मंडल गूंज उठा था। गायत्री तपोभूमि पर जन समुदाय की श्रद्धा का रूप गोस्वामी तुलसीदास के केवट तथा निषाद की याद दिलाता था। गायत्री महायज्ञ की मुख्य यज्ञ वेदिका का संचालन करते हुये श्रद्धेय आचार्य जी साक्षात वशिष्ठ जैसे प्रतीत होते थे जो असंख्य दशरथों की पुत्रोत्पत्ति की कामना के समान अपने श्रद्धालु परिवार की शुभेच्छा कर रहे थे।
“कितना विशाल व्यक्तित्व था, कितने महान संकल्प का श्री गणेश था जो ‘इदं गायत्री इदं नमम’ की शुभ कामना के साथ शुरू हुआ।”
मध्याह्न में भोजन की व्यवस्था का रूप देखते ही बनता था, ऐसा प्रतीत होता था माने प्राचीन आर्य कौटुम्बिक पद्धति साक्षात अपने विराट रूप में उतरी हो। पूर्णतया शुद्ध एवं संयमित भोजन को करने के लिये जब सहस्रों पारिवारिक जन बैठते थे तो उसी प्रकार सुख होता था जैसे बड़े नेत्रों को देखकर नेत्रों को सुख होता है। दाल, चावल, रोटी, शाक, चना (उबला हुआ) एवं हलुआ का सम्मिश्रण, शुद्ध, सात्विकता एवं शक्ति का महान योग था। बिना किसी भेद भाव एवं बन्धन के सामूहिक भोजन का रूप तो इस युग में हुआ है और न भविष्य के विषय में कहा ही जा सकता है।
24 नवम्बर की प्रातः ने उस प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना की पुनः याद दिला दी, जब गुरु गोविन्द सिंह ने पाँच आत्म दानी अपने महान संस्थान खालसा के लिये माँगे थे । आदरणीय आचार्य जी के आह्वान पर उनको चार पारिवारिक वीरों ने अपने आप को दान दे दिया। क्या यह वही रूप नहीं हैं जो आज एक करोड़ में आपके सामने महान सिख सम्प्रदाय की स्थिति में हैं। निस्संदेह श्रद्धेय आचार्य प्रवर का मिशन सफल होगा और यह महान त्यागी जिन्होंने अपनी विषम परिस्थितियों के बावजूद महान संकल्प किया है प्रकाश स्तंभों के समान ज्योतिर्मान होंगे।
25 नवम्बर को यज्ञ वेदिका पर जब उपाध्यायों का दीक्षान्त समारोह हुआ तब प्राचीन गुरुकुल का रूप दैदीप्यमान हो उठा। प्रतिज्ञा निःसन्देह महान थी।
“हम दृढ़ संकल्प होकर प्रतिज्ञा करते हैं कि सामाजिक कुरीतियों को नष्ट करके एक नवीन युग का निर्माण करेंगे”
अन्त में महान ऐतिहासिक दिवस 26 नवम्बर आ पहुँचा, जब जन-समुदाय महान सागर के समान प्रधान यज्ञ वेदिका की ओर उमड़ पड़ा। मथुरा के प्रमुख केन्द्र चौक बाजार से लेकर यज्ञ मण्डप एवं विश्वामित्र नगर तक एक इंच स्थान भी खाली दिखाई नहीं पड़ता था। राजा साहूकारों से लेकर मजदूर तथा किसानों तक की एक ही भावना थी
“ इस प्रकार का पुण्य आयोजन कभी नहीं मिल सकता।”
विशाल यज्ञ वेदी पर यज्ञ करने वालों की संख्या हजारों में थी। अनुमानतः “ दो लाख व्यक्तियों” का जन समुदाय इस आयोजन में भाग ले रहा था।
इस एक समारोह में नाना प्रकार के अनेक उत्सव आयोजित किये गये। मथुरा के विद्वान पंडितों का एक पंडित- सम्मेलन हुआ। ब्रज की रासलीला दिखाई गई। संध्या को शोभा यात्रा निकली। आचार्य जी पैदल ही अनेक विद्वानों एवं तपस्वियों के साथ थे। माता जी और उनकी शिष्याओं का समूह भी इस शोभा यात्रा का एक प्रमुख अंग था। स्थान-स्थान पर पुष्प वर्षा हुई तथा आचार्य जी की आरती की गई।
अन्त में, शान्तिपाठ के साथ, यह प्रोग्राम समाप्त हुआ और 26 नवम्बर की रात्रि के पश्चात् लाखों नर नारियों का प्रवाह क्रमशः नगर से बाहर की ओर होने लगे
इति श्री
परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्री चरणों में समर्पित
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One response to “तपोभूमि में 1958 के ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान पर एक अद्भुत लेख”
जय गुरुदेव।आपका बहुत बहुत धन्यवाद डॉ साहब।अब 1957एव58की अखंड ज्योति अवश्य ही स्वाध्याय करेंगे।मैं पुरानी अखंड ज्योति अक्सर पढ़ता हूं। धन्यवाद आपका कि आपने महत्वपूर्ण अंकों की जानकारी दी।