वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

मध्य प्रदेश के छोटे से गांव ” करनी ” का प्रेरणादायक यज्ञ

ऑनलाइन ज्ञानरथ के समर्पित सहकर्मियों को सुप्रभात एवं शुभदिन

17 अक्टूबर 2020 का ज्ञानप्रसाद

आज का लेख है तो बहुत ही छोटा सा परन्तु इसमें बहुत ही ज्ञान छुपा है। आशा है आप सभी इस लेख को पढ़कर अपने जीवन में उतारेंगे और अपने आस पास के परिजनों में शेयर करके उन्हें भी ऑनलाइन ज्ञानरथ के लेखों से अवगत करवायेंगें ताकि उनके जीवन भी यज्ञमयी बने। हम सबने गुरुदेव के साहित्य में कई बार सुना होगा – अपने जीवन को यज्ञमयी बनायें। जब आप इस लेख को पढेंगें तो यज्ञमयी बनाने का अर्थ समझ आ जाना चाहिए।

मध्य प्रदेश के छोटे से गांव ” करनी ” का प्रेरणादायक यज्ञ – बहिनों का सहयोग सराहनीय रहा

बात मध्य प्रदेश के एक छोटे से रमली नमक गांव की है। इस गांव की जनसँख्या 2011 की जनगणना के अनुसार केवल 1800 है। केवल 400 घरों वाला यह छोटा सा गांव गुरुदेव ने क्यों चुना और क्यों लीलापत जी को यहाँ यज्ञ कराने के लिए भेजा अपनेआप में ही एक प्रश्न है। देखने वाली बात है की इस गांव की महिलाओं ने किस प्रकार एक उदाहरण स्थापित किया – अन्नपूर्णा का भोजनालय। आपको उत्सुकता हो रही होगी ऐसा क्या कर दिया इस छोटे से गांव की महिलाओं ने जो इतना उदाहरणीय बन गया। यह केवल लीलापत जी की प्रेरणा ही थी जिसके कारण हम यह कहानी पढ़ रहे हैं।

तो आप पढ़िए इस गांव की महिलाओं के पुरषार्थ के बारे में और हम फिर लौट कर आते हैं


एक बार गुरुदेव ने लीलापत जी को पाँच कुण्डीय यज्ञ में ग्राम रमली भेजा । वहाँ की पालवाच्छादित यज्ञशाला
बहुत ही यादगार थी। पेड़ों के खंभे थे और उनके पत्तों से यज्ञशाला ढकी हुई थी । बड़ा ही शानदार यज्ञ हुआ । आसपास के गाँवों की बड़ी भारी भीड़ इकट्ठी हो गई। यज्ञ प्रवचन में शाम हो गई । अंधेरा हो गया । रमली ग्राम के आस पास के गांवों की जनता भी वहीं ठहर गई । वहाँ के यज्ञ के प्रबंधकों ने शाम के भोजन की व्यवस्था नहीं की थी क्योंकि कार्यक्रम दोपहर को ही समाप्त होना था, परन्तु आस पास के गाँवों से आशा से अधिक लोग आ गए थे जिससे कार्यक्रम शाम तक चलाना पड़ा और आस पास से आए हुए लोगों को रात्रि विश्राम के लिए रमली में ही रुकना पड़ा । अचानक रुकी इस भीड़ को देखकर वहाँ के कार्यकर्ता भयभीत हुए कि इनके भोजन का इन्तजाम यकायक कैसे करेंगे, कौन इतना भोजन इतने कम समय में बनाएगा । यह समस्या लीलापत जी के पास रखी गई । उन्होंने कहा- सारे गाँव की बहनें अपने -अपने घरों से भोजन बनाने के बर्तन तथा भोजन सामग्री लेकर आएँ । जो भी सब्जी हो उसे लेकर आएं और आटा भी साथ लाएँ तथा खेतों के पत्थरों से चूल्हा बनाकर भोजन तैयार करें। दूसरे गांवों के जो लोग आए हैं उनको भोजन कराएँ । जिसके घर में जो भी आटा दाल सब्जी थी लेकर आए और भोजन बनाना आरंभ किया। कुछ बहनें घरों में चक्की से आटा पीसने लगीं । थोड़ी ही देर में भोजन बनकर तैयार हो गया, वहाँ के भाई बहिनों का उत्साह देखकर लीलापत जी और बाकि सभी नतमस्तक हो गए । ऐसा यज्ञ किसी ने आज तक नहीं देखा था । दो दिन तक ऐसा ही क्रम चला । कहीं मक्की की रोटी बन रही थी, कहीं गेहूं की, कहीं बाजरे की और कहीं तिनाजे की रोटी बन रही थी । जिसके घर में दलिया था, वो दलिया बनाकर खिला रहे थे। उस यज्ञ में चंदा इकट्ठा नहीं हुआ था सारे गाँव के श्रम और सहयोग से यज्ञ सफल हुआ ।

आगे चलने से पहले हम आपके साथ एक बात शेयर करना चाहते हैं। यह बात इस छोटे से गांव की है लेकिन ठीक इसी तरह हमारे कनाडा में भी जब गायत्री परिवार द्वारा किसी कार्यक्रम का आयोजन होता है तो महिलाएं इसी तरह किचन का पूरा कण्ट्रोल संभालती है। आने वालों को कुछ भी पता नहीं होता खाना कहां से आता है ,कौन बनाता है ,कैसे एक -एक आइटम पूरे systematically उपलब्ध होती है। हम तो हमेशा ही इन महिलाओं को नतमस्तक होते हैं और हमने तो इनको अपने ह्रदय में अन्नपूर्णा के विशेषण से सुशोभित भी कर दिया है। वैसे तो गायत्री परिवार के हर सँस्थान में माता जी का चौका प्रचलित है लेकिन अगर कोई परिजन इसको प्रतक्ष्य देखने का इच्छुक हो तो शांतिकुंज जा सकता है।

तो आइये आगे चलें :

वापस लौटकर जब लीलापत जी ने गुरुदेव को यज्ञ के बारे में बताया तो गुरुदेव बोले

” हम ऐसे ही यज्ञ चाहते हैं ।”

गुरुदेव का मन कम खर्च वाले यज्ञ करने का रहता था । गुरुदेव यज्ञों में अधिक खर्च करना पसंद नहीं करते थे । यदि कोई यज्ञों में अधिक खर्च करता था तो गुरुदेव उससे बहुत नाराज होते थे । गुरुदेव कहते थे यज्ञ से हम शिक्षण देते हैं कि हमें जीवन कैसे जीना चाहिए । जो कुछ अपने पास है उसमें से समाज को भी कुछ देना चाहिए । ठीक उसी प्रकार जैसे यज्ञाग्नि में जो कुछ डालते हैं वह अपने पास नहीं रखती है , वायुभूत बनाकर सारे संसार में वितरण कर देती है। यही है यज्ञमयी जीवन। यज्ञों के विषय में गुरुदेव कहते हैं :

” जो व्यक्ति यज्ञ करता है और कर्मकांड को ही महत्व देता है, परन्तु उसके शिक्षण को ग्रहण नहीं करता , वह चाहे जितना मर्ज़ी अधिक खर्च करे और कितना ही बड़ा यज्ञ करे उससे समाज को कोई लाभ नहीं होगा । धर्माचार्यों ने यज्ञ को इतना खर्चीला बना रखा है कि यज्ञ में अनाप-शनाप रुपया खर्च कराते हैं । यह उचित नहीं है । हम कम से कम खर्च में यज्ञ कराना चाहते हैं ।

” यज्ञ के साथ ज्ञान-यज्ञ अनिवार्य है । जो यज्ञ के साथ ज्ञान-यज्ञ नहीं करता वह समाज को भ्रमित करता है और अपने अहंकार की पूर्ति करता है । ज्ञान यज्ञ का अर्थ है ज्ञान का विस्तार ,ठीक उसी तरह जैसे हम सब समर्पण से ज्ञान रथ चला कर ज्ञान का प्रसार कर रहे हैं। यज्ञ कम से कम खर्च में होने चाहिए । “

गुरुदेव ने आगे कहा

” रमली वालों ने यज्ञ के महत्व को समझा उनको हमारा पूर्ण आशीर्वाद है । बेटा ऐसे ही यज्ञ कराना । खर्चीले यज्ञों का विरोध करना।”।
गुरुदेव ने तो यज्ञों में दक्षिणा की प्रथा भी एक अद्भुत तरीके से चलाई थी। रूपए पैसे की जगह यज्ञ में एक बुराई छोड़ने और एक अच्छाई अपनाने का संकल्प लिया जाता है। यही है गुरुदेव की दक्षिणा।

सभी सहकर्मियों को आश्विन नवरात्रि की हार्दिक शुभकामना। कोरोना संकट के समाधान एवं आप सबके परिवार की सुरक्षा की कामना करते हुए आज के ज्ञान प्रसाद को विराम।

जय गुरुदेव

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