
आज का लेख केवल दो पन्नों का है। यह पार्ट 1 है और पार्ट 2 कल प्रस्तुत किया जायेगा।
इस पार्ट 1 में गुरुदेव के जन्म के पूर्व उनकी माता जी , आदरणीय दानकुंवरि देवी जी के साथ कुछ विलक्षण घटनाएं हुई थीं। आज के लेख में उन्ही घटनाओं का चित्रण करने का प्रयास है । पार्ट 2 में हम गुरुदेव के जन्म के तुरंत बाद हुई विलक्षणताएँ का चित्रण करेंगें। भगवान श्रीकृष्ण के जन्म समय कारावास में माता देवकी और पिता वासुदेव जी के साथ कितनी ही विलक्षण घटनाएं हुई थी हमारे सूझवान पाठक भली भांति जानते है। यह तथ्य कितना पुरातन और सत्य है कि आशंका का कोई मतलब ही नहीं है। इस तरह के तथ्य और घटनाएं हमारे गुरुदेव कि दिव्यता को प्रमाणित करती हैं। तो आइये चलें ज्ञानरथ की आज की यात्रा की ओर।
विलक्षणता का एक और उदाहरण तब मिला जब हवेली में मधुमक्खियां आकर भिनभिनाने लगीं। इनसे ताई जी को असहजता भी हुई। जिस तेज़ी से वह भिनभिनाती आयीं सप्ताह भर में ही उन्होंने तीन -चार छत्ते बना दिए। परिवार में सभी को असुविधा भी हुई परन्तु एक बात बहुत ही विलक्षण हुई। यह मधुमक्खियां किसी को काट नहीं रही थीं। घर वालों ने मक्खियों के उड़ाने का उपाय सोचा। गांव में तो एक ही उपाय होता है। आग जला कर धुआँ करना। जब ताई जी को पता चला कि मधुमक्खियों को उड़ाने का प्रयास किया जा रहा है तो उन्हें अच्छा नहीं लगा। हालाँकि सबसे अधिक असुविधा उन्हें ही होती थी और अंदर बाहिर भी वहीँ चलती -फिरती थीं। उन्होंने डाँटते हुए कहा – अगर यह मधुमक्खियां किसी को काट नहीं रही हैं ,अपने घरों में शांति से रह रही हैं तो आप उन्हें क्यों हानि पहुंचा रहे हो। ताई जी के डांट -डपटने पर सब शांत हो गए। गुरुदेव के पिता पंडित रूप किशोर शर्मा जी कहीं बाहिर गए हुए थे ,8 -10 दिन बाद लौटे तो उन्होंने ने भी ताई का समर्थन किया। मधुमक्खियों के इस प्रकार छत्ते बनाने का आध्यात्मिक तथ्य समझया। कहने लगे ” इस तरह मधुमक्खियों के छत्ते बनना शिव का संकेत है। जब कोई दिव्य आत्मा आने वाली होती है तो यह शिव का वरदान है। उनके भेजे हुए प्राणी फूलों की सुगंध और मधु संचित कर
ला रहे हैं। यह शिव का अनुग्रह और आने वाली आत्मा का आश्वासन भी है।
जय गुरुदेव
आंवलखेड़ा स्थित एक पुरानी हवेली गुरुदेव व उनके परिवार का निवास था। जलेसर रोड पर स्थित यह हवेली हमें पिछले ( 2019 ) वर्ष ही देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हम तो केवल अन्तः करण में guess ही कर सकते थे कि यह हवेली उस समय कैसी होगी क्योंकि हम एक शताब्दी से अधिक की बात कर रहे हैं। गुरुदेव का जन्म 1911 में हुआ था। हमारे लिए तो आंवलखेड़ा की धरती किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है – हो भी क्यों न- यह हमारे गुरु की जन्मस्थली है ,वह गुरु जो हमें अपने बच्चो की तरह स्नेह देते हैं। हम आग्रह करते हैं कि हमारे पाठक इसी चैनल के वीडियो सेक्शन में आंवलखेड़ा पर आधारित videos देख कर पुण्य के भागीदार बने।
गुरुदेव के माता पिता ,चाचा ,ताऊ सभी इक्क्ठे एक joint family की तरह रहते थे। संयुक्त परिवार होने के कारण सम्बन्धियों -स्वजनों का आना जाना बना ही रहता था। घर ने खासी चहल -पहल रहती थी गुरुदेव के पिता जी पंडित रूप किशोर शर्मा जी उस समय पचपन वर्ष के थे। उनकी पत्नी माता दानकुंवरि देवी को सभी ताई कहते थे। रूप किशोर जी परिवार में सबसे बड़े थे और ताई सब का पूरा ख्याल रखती थीं। उन्हें जेठानी या सास के बजाय माँ , बड़ी बहन अधिक समझते थे। यह उनका वात्सल्य ही था जो सभी उन्हें इतना आदर सम्मान देते थे। रात्रि के चौथे पहर उठती और देर रात तक सभी का ध्यान रखने में व्यस्त रहतीं।
1911 में ताई को मातृत्व का आभास हुआ। पहली संतान का गर्भ में प्रवेश हुआ। उन्हें विलक्ष्ण से अनुभव होने लगे। अक्सर होता है कि पहली संतान के समय माँ को भय लगता है लेकिन उन्हें कोई भय न महसूस हुआ और न ही कुछ अटपटा। गांव की बड़ी -बूढ़ी स्त्रियों से बात की तो कहने लगीं :
” देवता प्रसन्न हो रहे हैं। यह प्रतीतियां वही करवा रहे हैं “
एक सुबह की घटना :
जैसा हम पहले बता चुके हैं ताई जी रात्रि के चौथे पहर उठ कर देर रात्रि तक सभी की देखभाल में रहती थीं ,कोई थकावट नहीं ,शरीर में हमेशा स्फूर्ति रहती थी। परन्तु उस दिन पता नहीं क्या हुआ। स्नान इत्यादि से निवृत होकर आगे का सोच रही थीं कि झपकी लग गयी। आँखें खुद ही बंद हो गयीं , याद ही नहीं रहा कि चूल्हे पर दूध चढ़ाया हुआ है। इतनी गहरी झपकी लगी कि ऐसा लगा नींद लग गयी हो और कोई सपना देख रही हों।
ताई का सपना :
सपना किसी अज्ञात प्रदेश के वन का है। वह उस निर्जन वन में अकेली हैं। चारों ओर सूर्य की स्वर्णिम आभा बिखरी है। पूर्व दिशा में तप्त अग्नि पिंड की तरह सिंदूरी लाल रंग का गोला ( सूर्य ) उदित हो रहा है। वातावरण में सुगंध ने ताई को अभिभूत ( मुग्ध ) कर दिया। सूर्य पिंड प्रखर होता जा रहा था। पिंड के मध्य में एक नारी की आकृति झलक दिखा रही थी। स्वर्णिम कांति से युक्त वह आकृति हंस पर बैठी है , उस आकृति के दाएं हाथ में कमंडल और बाएं हाथ में पत्राकार पोथी थी। ताई जी उस समय स्पष्ट देख नहीं पाईं कि कौन सा ग्रन्थ है। वह समझीं कि भागवत है क्योंकि पतिदेव इसी शास्त्र का पाठ और कथा करते थे। यह आकृति कुछ थोड़ी देर बाद ही लुप्त हो गयी। दूध उबल गया था और कुछ तो चूल्हे में भी गिर गया। गिरने की आवाज़ से सपना टूट गया।
ताई ने यह सपना पतिदेव को भी सुनाया ,उन्होंने कहा वह भागवत नहीं है वेद है। ताई को यह दृश्य एक बार और भी दिखाई दिया था। दोपहर में खाना वगैरह समाप्त होने पर परिवार जनों का कुशलक्षेम पूछ कर कुछ देर के लिए बैठी थीं।
दूसरा सपना :
ताई जी ने भाव समाधि की दशा में देखा कि वह एक सरोवर के किनारे खड़ी हुई हैं। इस सरोवर में कमल खिले हुए हैं। एक बड़े कमल पर वही आकृति विराजमान है जो उस दिन सविता मंडल में देखी थी। पूर्व दिशा से विमान उड़ते दिखाई दिए ,उनमें बैठी दिव्य सत्ताएं पुष्प बरसा रही थीं।
इस बार भी पतिदेव से पूछा तो उन्होंने कहा :
यह आपके अंतर्जगत में हो रही हलचल के संकेत हैं। इन संकेतों को चेतना में होने वाले परिवर्तन भी कह सकते हैं। जब किसी पुण्य आत्मा को शरीर धारण करना होता है और वह गर्भ में प्रवेश कर चुकी होती है तो इस तरह के स्वप्न स्वाभाविक हैं। ताई जी के स्वप्न के अतिरिक्त और भी विचित्र घटनाएं देखने को मिलीं। ताई जी बताती थीं कि अचानक घर में सुगंध फैल जाती थी। ऐसा लगता था जैसे कई अगरबत्तियां जलाई हों यां हवन हो रहा हो। यह सुगंध धीरे -धीरे सारी हवेली में फैल जाती थी। हवेली में अचानक ही कई गायों का आना सब को बहुत ही अचंभित करता था। अपनी गायें तो होती ही थीं परन्तु आस पास से 8 -10 गायें और भी आ जाती और रात भर हवेली में ही रुक जातीं। ढूंढने पर जब पंडित जी की हवेली में से मिलतीं तो सभी को बहुत ही अचम्भा होता। साधारण समय में प्रायः पराये पशुओं को भगा दिया जाता परन्तु ताई जी के स्वभाव में विलक्षण परिवर्तन आया। उन्होंने गायों को भगाने के बजाय उनकी सेवा करनी आरम्भ कर दी , उन्हें चारा -पानी देना आरम्भ कर दिया।
मधुमक्खियों के छत्ते :