
आज का लेख कल वाले लेख का दूसरा पार्ट है। कल हमने जन्म से पूर्व गुरुदेव के माता जी की अनुभूतिआँ चित्रित की थीं। आज वाले लेख में जन्म के बाद वाली विलक्षणताओं का चित्रण है। तो चलें फिर आंवलखेड़ा की पावन भूमि की दिव्य हवेली में जिस में उस महान आत्मा ने जन्म लिया और और बाल लीलायें कीं। शत शत नमन है उस माटी को।
गुरुदेव का जन्म :
हमारे पूज्यवर का जन्म 20 सितम्बर 1911 आश्विन कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को प्रातः 9 बजे हुआ। पितृपक्ष चल रहा था। सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार इन दिनों में शरीर छोड़ना और जन्म लेना दोनों ही विलक्षण हैं। कहते हैं पितृपक्ष में शरीर छोड़ने वालों
की आत्मा सीधे पितृलोक चली जाती हैं अथवा नया शरीर धारण कर लेती हैं। उनकी एक -आध सूक्ष्म वासना शेष रह जाती है जिसे पूरा करने के लिए वे शरीर धारण करती हैं। पितृपक्ष में जन्म लेने वाले मानव अपनी वंश -परम्परा के मेधावी पूर्वज होते हैं। वे अपनी परम्परा को आगे बढ़ाने ,उसे समृद्ध करने ,गौरव बढ़ाने यां पिछले जन्मो में जिन लोगों का उपकार रह गया हो उसे चुकाने के लिए आते हैं। पितृपक्ष ,जन्मकुंडली और जन्म से पूर्व होने वाली घटनाओं के आधार पर आंवलखेड़ा के पंडितों ने कहा :
” पंडित रूप किशोर शर्मा जी के घर योगी यति आत्मा प्रकट हुई है। पचपन वर्ष की आयु में उनका सौभाग्य उदित हुआ है। “
शिशु का जन्म घर में ही नहीं ,आस पास के गांवों में भी चर्चा का विषय बन गया। आंवलखेड़ा में उस समय केवल 30 -40 घर ही थे। गायों का आना , मधुमक्खियों का छत्ते बनाना सभी स्थानों पर चरितार्थ होने लगा। जन्म होने पर पंडित जी जिन जिन घरों में कथा कहने के लिए जाते थे वहां से भी लोग आए। गांव वालों का आना तो सहज ही लगा परन्तु गांव में साधु सन्यसियों का आना जाना बढ़ गया। पहले कभी इक्का दुक्का ही आते थे परन्तु अब तो चार -पांच सन्यासी प्रतिदिन आने लगे। जिस दिन जन्म हुआ उस दिन 10 बजे तो एक ऊँचा लम्बा तेजस्वी सन्यासी हवेली के बाहर आकर खड़ा हो गया। बच्चे की रुदन सुनकर उसने बच्चे को देखने की इच्छा व्यक्त की। ताई जी को यह अच्छा नहीं लगा और दिखाने में संकोच हुआ परन्तु पंडित जी के समझाने पर मान गयी। बच्चे को देख कर सन्यासी ने दोनों हाथ ऊपर उठा कर दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया और वापसी का रुख लिया।
कोठरी में नया वातावरण :
ताई जी बताया करती थीं कि गुरुदेव के जन्म पर कोठरी में मधुर संगीत गूंजने लगा। मन्त्रों का पाठ और रामायण की धुन सुनाई देती रहती थी। हो सकता है यह ताई जी का आंतरिक अनुभव यां फीलिंग हो ,लेकिन सन्यासियों का सहसा घर के द्वार पर आकर रुके रहना , चुपचाप खड़े रहना, प्रसूति गृह को टकटकी लगा कर देखते रहना ,बच्चे की रोने की आवाज़ को सुन कर चले जाना ,अवश्य ही सन्यासियों और गुरदेव के बीच प्रगाढ़ सम्बन्ध का संकेत है।
” अवश्य ही हिमालय से दिव्य ऋषि सत्तायें अपनी नवजात संतान को देखने आयी हैं ”
बालक श्रीराम ( हमारे गुरुदेव ) का नामकरण संस्कार :
बालक 16 दिन का हो गया। सूतक निवारण के उपरांत नामकरण की व्यवस्था की गयी। सूतक के कारण नवरात्रि की पूजा नहीं हुई थी , हाँ संध्या वंदन और पूजा- पाठ नियमित चलता रहा। नामकरण के लिए विजयदशमी का दिन निश्चित किया गया। गांव के सभी लोग आए , सुबह से लोग आ जा रहे थे। उस दिन एक और विलक्षण घटना हुई जिससे ताई जी और पंडित जी दोनों कुछ विचलित हुए। जो भी आया उसने देखा द्वार पर एक सन्यासी खड़ा है ,कुछ देर बाद वहां एक साध्वी भी आ गयी। दोनों में कोई संवाद नहीं हुआ , दोनों कुछ देर अविचल खड़े रहे। जब नामकरण संस्कार शुरू हुआ तो दोनों अंदर आ गए। ताई जी की गोद में लेटे बच्चे को दोनों अपलक देखते रहे। ताई जी की दृष्टि उन पर पड़ी तो वह सहम गयीं और शिशु को पल्ले से ढकने लगी। सन्यासी साधु महाराज ने कहा
” रहने दो माई, हमें भी लाल को देख लेने दो ,जी भर कर देख लें , अपनी ओर अंगित करते कहा – पता नहीं फिर हम लोग रहें या न रहें “
ताई जी को लगा कि बच्चे के बारे में कुछ कह रहे हैं। उन्हें गुस्सा आ गया ,साध्वी को तो डांट भी दिया था। ताई जी का गुस्सा थम ही नहीं रहा था। पंडित जी के मुंह से अनायास ही निकल आया – रहने दो श्रीराम की माँ ,तुम्हारे बच्चे का कोई अनिष्ट नहीं हो सकता ,वह कुशल मंगल ही रहेगा। पंडित जी का कहना था की सन्यासी और साध्वी कहने लगे – पंडित जी हम चलते हैं लेकिन हमारी एक बात मानना , बच्चे का नाम श्रीराम ही रखना जो पिता के मुंह से अपने आप निकला है। यह प्रभु की इच्छा है। इसके बाद ताई जी कुछ नहीं बोलीं। वह दोनों नामकरण संस्कार तक ऐसे ही खड़े रहे। शिशु के नामकरण में पिता और सन्यासियों की अनियोजित सहमति थी।
एक और घटना :
किसी और दिन की बात है कि एक वृद्ध सन्यासी लगभग डेढ़ घंटा हवेली के सामने खड़े रहे। ताई जी उस सन्यासी को भी देख कर बहुत घबराई थीं और बड़बड़ाती हुई बाहिर निकल गयी थीं। कातर भाव से उन्होंने कहा – मेरे बच्चे पर नज़र क्यों गड़ाते हो ,इसने आपका क्या बिगाड़ा है। सन्यासी ने आश्वस्त किया :
” हम बच्चे का अमंगल करने नहीं करने आए हैं और हम केवल दर्शन करने आए हैं। ऐसी भावना थी कि हिमालय से एक सिद्ध आत्मा आपकी गोद में आयी है। हमें किसी तरह से पता चला तो देखने आ गए।”
ताई ने सन्यासी का मन रखने के लिए नन्हे शिशु की एक झलक दिखाई और मुड़ते हुए बोली -अब मैं किसी को अपने लाड़ले को देखने नहीं दूँगी। इतना कह कर ताई जी अंदर जाकर अपने इष्ट द्वारकाधीश से के आगे बैठ गयी और कितनी देर तक रोती रही। सन्यासियों की बातों से ताई जी के मन में संशय हो रहा था कहीं उनका बीटा भी सन्यासी न बन जाये और उनसे बिछड़ न जाये। भक्त ने भगवान से क्या माँगा यह तो उनका निजी संवाद है परन्तु यह अवश्य माँगा की उनका बेटा कभी भी उनसे दूर न हो।
इसी तरह समय बीतता चला गया। बेटे की तोतली वाणी और हाथ -पांव चलने से माता -पिता बहुत ही प्रसन्न होते। श्रीराम के जन्म के तीन वर्ष उपरांत परिवार में एक कन्या का जन्म हुआ। नाम रखा गया किरणदेवी। थोड़ी देर बाद एक और बहिन आयी ,उसका नाम गुरुदेव के अग्रज नाम ( first name ) से ही लिया गया और राम देवी नाम दिया। ताई जी बेटे की पूरी तरह से ख्याल रखतीं थीं और कभी भी किसी के भरोसे नहीं छोड़ती। बेटियों के जन्म के बाद कुछ समय तो बंटना स्वाभाविक था परन्तु संयुक्त परिवार होने के बावजूद ताई जी पुत्र को केवल पिता के संरक्षण में छोड़ती।
हमारे पाठकों ने इस लेख के माध्यम से महसूस कर लिया होगा कि गुरुदेव के बाल्यकाल में कैसी -कैसी विलक्षणताएँ हुईं और हिमालय से ,ऋषि सत्ताओं से उनका जन्म -जन्मान्तरों का सम्बन्ध है।
आज का लेख यहीं पर पूर्ण -इतिश्री
जय गुरुदेव