वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

शांतिकुंज हरिद्वार स्थित विश्व की एकमात्र यज्ञशाला

हे प्रभो जीवन यज्ञमय

20 अप्रैल 2023 का ज्ञानप्रसाद 

शांतिकुंज पर आधारित लेख श्रंखला में आज के  ज्ञानप्रसाद में  यहाँ की  unique यज्ञशाला के बारे में जानने का प्रयास है। संयोग कहें यां गुरुकृपा अभी  कल ही DSVV द्वारा प्रकाशित  अर्धवार्षिक “यज्ञ ज्योति 3 ” पत्रिका हमारे हाथ लगी जिस पर  आज का लेख आधारित  है। अखंड ज्योति की भांति “यज्ञ ज्योति” भी सही मायनों में मानव जीवन को ज्योति प्रदान कर रही है। ओंकार जी की क्रांतिकारी वाणी में, शांतिवन कनाडा  की  दिव्य भूमि से भी जीवन को यज्ञमय बनाने  का सन्देश दिया जा रहा है।   

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जल्दी से विश्व शांति के लिए प्रार्थना  करें और आरम्भ कर दें आज की दिव्य पाठशाला। 

“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥”

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शांतिकुंज की एकमात्र  यज्ञशाला :  

विश्व की एकमात्र यज्ञशाला जहाँ आहुतियां जनकल्याण एवं लोकमंगल के भाव से दी जाती हैं। एक  ऐसी यज्ञशाला जहां : 

*विगत 50 वर्षों से अधिक समय से प्रतिदिन यज्ञ हो रहा है। 

*प्रतिदिन औसतन 1500 से अधिक व्यक्ति यज्ञ करते हैं। 

*न किसी की जाति पूछी जाती है और न ही किसी का मजहब, अनिवार्यता है तो केवल भारतीय वेशभूषा। 

*यज्ञ का संचालन महिलाओं द्वारा होता है। 

*हिमालय से लाई गई अखंड अग्नि प्रज्वलित है। 

*प्रतिदिन का व्यय वर्तमान (2023) में  लगभग ₹27000 है किंतु प्रत्येक व्यक्ति के लिए संपूर्ण यज्ञ निशुल्क है। 

*उपस्थित अथवा अनुपस्थित लोगों के जन्मदिन और विवाह दिन पर उनके दीर्घ जीवन एवं उज्जवल भविष्य के लिए आहुति दी जाती है। 

*राष्ट्रीय आपदाओं अथवा संकट के समय विशिष्ट वेद मंत्रों से आहुतियों का क्रम संचालित होता है। 

*शांतिकुंज को “तीर्थ” कहने के पीछे का कारण भी यज्ञ ही है। ऐसा कहा जाता है कि यदि किसी स्थान पर लगातार 30 वर्षों तक यज्ञ किया जाए तो वह स्थान तीर्थ बन जाता है। परम पूज्य गुरुदेव ने गायत्री तपोभूमि मथुरा में 1958 में सहस्त्र कुंडीय महायज्ञ किया जिसके लिए अग्नि हिमालय में स्थित दिव्य स्थान त्रियुगीनारायण से लाई गई थी। ऐसा माना जाता है कि त्रियुगीनारायण में प्रज्वलित अग्निकुंड के चारों ओर ही भगवान महादेव एवं देवी पार्वती ने सात फेरे लिए थे। वही अग्नि अखंड रूप में शांतिकुंज की यज्ञशाला में प्रज्जवलित है। 

*इस यज्ञशाला में प्रयुक्त की जाने वाली हवन सामग्री का निर्माण भी शांतिकुंज में ही 18 जड़ी बूटियों को मिलाकर किया जाता है। 

यदि यज्ञ से सम्बंधित संपूर्ण संस्कृति,फिलॉसोफी और विज्ञान को समझना हो तो इस “विशिष्ट प्रयोगशाला” से श्रेष्ठ स्थान कोई नहीं हो सकता। गुरुदेव  ने कर्मकांड को पूर्ण भावार्थ के साथ ऐसी व्याख्या प्रदान की है कि प्रत्येक चरण के साथ उसके सार्थक स्वरूप को समझा जा सके। यही कारण है कि  यज्ञ के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ता जाता है। 

वर्तमान(2023) में 27 कुंडों से सुसज्जित इस यज्ञशाला के निर्माण में प्रथम चरण में केवल  9 ही कुंड थे। जैसे जैसे साधकों की संख्या बढ़ती गयी, कुंडों की संख्या पहले 18 और फिर 27 कर दी गयी । आश्चर्य तो इस बात का भी होता है कि इतने लोगों के प्रतिदिन यज्ञ करने पर भी किसी प्रकार की अनुशासनहीनता नहीं होती। लोगों को न तो पंक्तिबद्ध होने के लिए किसी प्रकार के निर्देश की आवश्यकता होती है और न ही यज्ञशाला के आसपास किसी प्रकार की कोई भगदड़ होती है । 

यज्ञशाला का निर्माण इस प्रकार किया गया है कि यज्ञ की अग्नि के साथ-साथ उदीयमान सूर्य की रश्मियों का लाभ भी यज्ञ करने वालों को मिल सके। यज्ञ करने वाले व्यक्तियों को मानसिक संतोष एवं आत्मबल तो मिलता ही है, अनेकों शारीरिक व्याधियों का निवारण भी यज्ञ के माध्यम से अनुभव किया जाता रहा है। ऐसे अनेकों व्यक्ति हैं जिन्होंने  लगातार यज्ञ करने से त्वचा संबंधी, श्वांस संबंधी एवं अन्य शारीरिक विकार दूर हुए बताए हैं । 

यज्ञ करने वालों की संख्या की दृष्टि से तो यह यज्ञशाला अनूठी है ही साथ ही साथ इसे “यज्ञ क्रांति” का उद्घोष स्थल भी माना जा सकता है। जैसे गोमुख से निकलकर माँ गंगा  संपूर्ण जगत को लाभान्वित करती है ठीक उसी प्रकार संपूर्ण विश्व में गुरुदेव  द्वारा चलाई गई यज्ञ की क्रांति का उद्गम स्थल इस यज्ञशाला को कहा जा सकता है। यज्ञशाला की अखंड अग्नि से बड़े-बड़े यज्ञ, यहां तक कि अश्वमेध यज्ञ जैसे अनेकों अनुसंधान संपन्न हुए हैं। इस दिव्य और भव्य यज्ञशाला की पावन ज्योति असंख्यों को लाभान्वित करती आई है और आगे भी इसी प्रकार करती रहेगी।

मुंबई बनेगी मुद्गल की नगरी:

2024 में विशाल अश्वमेध यज्ञ का आयोजन भारत की औद्योगिक राजधानी मुंबई में होना निश्चित हुआ है। यह यज्ञ राष्ट्र को  समर्थ बनाने के लिए किया जा रहा है  हमारे देश का सौभाग्य है कि यहां की संस्कृति में अनेक यज्ञ परंपराओं ने जन्म लिया। प्राणियों का पोषण करने के लिए भूत यज्ञ, व्यक्ति यदि शिथिल हो जाए तो  रुद्र यज्ञ, अनाचार-अनीति-असुरता को मिटाने के लिए चंडी यज्ञ, राजनैतिक अनुशासन लाने के लिए राजसूय यज्ञ और राष्ट्र को संगठित, शक्तिशाली और गौरवशाली बनाने के लिए अश्वमेध यज्ञ किया जाता था। चन्द्रगुप्त के पुत्र समुद्रगुप्त द्वारा संपन्न हुए अंतिम अश्वमेध यज्ञ के  1500 वर्ष बाद अश्वमेध परम्परा को गायत्री परिवार ने फिर से जागृत  किया ।

यदि अश्वमेध के शाब्दिक अर्थ को देखें तो “अश्व का अर्थ घोड़ा” और “मेध का अर्थ बलि” होता है ,लेकिन यहाँ न तो कोई घोड़ा छोड़ा जाता है और न ही कोई चक्रवर्ती सम्राट बन रहा है। गायत्री परिवार के अश्वमेध यज्ञ का उद्देश्य ऐसे प्रकाशपुंज और प्राणवान व्यक्तित्वों का निर्माण करना है जिनकी उपस्थिति से अज्ञान का अँधेरा दूर भागेगा। विज्ञान में अश्व को Horse power से  भी जोड़ा गया है। अश्व यानि शौर्य,पराक्रम, ज़िम्मेदारी एवं मेधा का अर्थ है परिष्कृत बुद्धि।  साफ़ ज़ाहिर है कि अगर शौर्य और परिष्कृत बुद्धि दोनों एक इंसान में मिल जाते हैं तो वह कुछ भी कर सकता है। जब समझदारी और बहादुरी एक साथ  मिल जाते हैं तो “राष्ट्रं वै अश्वमेध:” अर्थात यज्ञ के राजा अश्वमेध का जन्म होता है । नागरिकों के व्यक्तित्व में इन दोनों का जागरण और प्रकाश उत्पन्न करना ही अश्वमेध का उद्देश्य है।

मुंबई अश्वमेध यज्ञ का उद्देश्य मुंबई को मुद्गल की नगरी बनाना है। महाभारत युद्ध समाप्त होने पर भगवान श्रीकृष्ण ने महाराजा युधिष्ठिर को वातावरण को स्वच्छ करने के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था। इस यज्ञ से सम्बंधित महर्षि मुद्गल और नेवले की रोचक कहानी से हम सब परिचित हैं। इस कहानी की विस्तृत चर्चा तो कहीं और करना ही उचित होगा लेकिन इतना ज़रूर कह दें कि महर्षि मुद्गल के आसुओं से नेवले का आधा शरीर सोने का हो गया था। नेवले ने भगवान को बताया कि वह जगह-जगह इस आशा के साथ धार्मिक अनुष्ठानों में घूम रहा है कि वैसी धरती का स्पर्श मिले तो बाकी शरीर भी सोने का हो जाए लेकिन हमेशा निराश हुआ। उसने भगवान श्रीकृष्ण से इसका कारण पूछा तो भगवान ने उत्तर दिया कि बाकी सभी लोग तो मात्र यज्ञ को कर रहे है लेकिन महर्षि मुद्गल यज्ञ को जी रहे थे ।

जब मनुष्य के जीवन में संवेदना, करुणा और मानवता आ जाती है तो वह यज्ञ को जीने वाला बन जाता है।अश्वमेध द्वारा मुंबई को मुद्गल की नगरी बनाने का उद्देश्य है और यज्ञ में भागीदारी करने वाला हर व्यक्ति संवेदना की आहुति प्रदान करने को संकल्पित है। 

एक करोड़ साधकों का मंत्र दान :  

मुंबई  अश्वमेध यज्ञ में एक करोड़ साधकों तक पहुंचने का लक्ष्य है। उनके अंशदान और समयदान का संकल्प लेना है। एक साधक से मात्र 51 रूपये का अंशदान लिया जाये तो यज्ञ की सभी व्यवस्थाएं आसानी से हो सकती हैं। इस आयोजन के लिए एक नए तरीके का दान लेना है और वह है “मंत्र दान।” एक करोड़ साधकों से आवाहन है कि 2024  तक राष्ट्र कल्याण के लिए एक बार 24000 गायत्री मंत्र का अनुष्ठान अवश्य करे और उसकी पूर्णाहुति मुंबई अश्वमेध में आकर करें । यदि हम इसमें  सफल होते है तो इससे बड़ा कोई दान नहीं हो सकता। हमें इसे “साधकों का अश्वमेध” बनाना है।

साहस और आत्मविश्वास जगे:

मुंबई अश्वमेध गायत्री परिवार का  एक मात्र उद्देश्य या अंतिम पड़ाव नहीं है। गायत्री परिवार के युग निर्माण आंदोलन का एक कदम मात्र है। लक्ष्य अंतिम व्यक्ति तक पहुंच कर उसके जीवन को बदलना है। इसी लक्ष्य को लेकर हमें इस यज्ञ के माध्यम से जन-जन तक पहुंचना है । केवल मुंबई ही नहीं, देश विदेश के प्रत्येक व्यक्ति तक संदेश पहुंचा कर इससे जोड़ना है। हमें आत्मविश्वास जगाना है और गर्व के साथ, साहसी बन कर इस कार्य को करना है। आत्मविश्वास ही ईश्वर विश्वास है। हमें  मुर्गे की तरह आवाज लगानी है और जन-जन तक संदेश पहुँचाना  है कि नया युग आने वाला है, जिसकी शुरुआत भारत की आध्यात्मिक भूमि से हो रही है। अब केवल  स्वयं को बदलने की जरूरत है। इसके लिए गायत्री, पूज्य गुरुदेव और वंदनीय माताजी की चेतना को एक करोड़ लोगों तक घर-घर में देव स्थापना के माध्यम से पहुंचाना है। यह साहसियों का अश्वमेध बने और हम जलती हुई मशाल की तरह संकल्पवान बनकर यज्ञ के भाव को जन जन  तक पहुंचा दें।

यज्ञ की फिलॉसोफी:  

भारतीय ऋषियों, मनीषियों और अध्यात्मवेत्ताओं ने भारतीय संस्कृति की कुछ परंपराओं को गंभीर ज्ञान विज्ञान के साथ प्रतिष्ठित किया, उनमें यज्ञ को सर्वाधिक दिव्य, पावन और आवश्यक माना। यज्ञ को भारतीय संस्कृति का मेरुदंड कहा जा सकता है और यह माना जा सकता है कि भारतीय संस्कृति का भवन इसी के आधार पर खड़ा है।  यह संस्कृति इतनी  महत्वपूर्ण है कि जब इस पर संकट आता है तो भगवान को स्वयं इसकी रक्षा के लिए  धरती पर आना पड़ता है। हमारे  सभी ग्रन्थ यज्ञ के भौतिक और आध्यात्मिक लाभों के वर्णन से भरे हुए हैं। शतपथ ब्राह्मण कहता है “यज्ञो वै विष्णुः” अर्थात “यज्ञ ही भगवान विष्णु है और प्रकृति की सारी व्यवस्था का संचालन यज्ञ ही करता है ।” 

गायत्री परिवार, भारतीय संस्कृति और यज्ञ का संबंध इतना घनिष्ठ है कि परम पूज्य गुरुदेव ने पहला उद्घोष ही यही किया था 

“देव संस्कृति की निर्माता गायत्री माता, भारतीय संस्कृति के निर्माता यज्ञ पिता”

जब हम गायत्री और यज्ञ को माता पिता मानते हैं तो इस रिश्ते को समझने की आवश्यकता है।  

मनुष्य को सद्बुद्धि देकर शुभ विचार और शुभ भाव देने की जिम्मेदारी गायत्री माता की है,माता भी तो यही करती है। शुभ कर्म करने, सत्प्रवृत्तियों के अनुकरण हेतु प्रेरित करने की जिम्मेदारी यज्ञ पिता की है। यज्ञ के माध्यम से मनुष्य के अंदर छिपी हुई दिव्यता, पवित्रता और महानता की  चिंगारी को हवा देकर मशाल बनाने का उद्देश्य है। यज्ञ का संबंध हमारी  जीवन  यात्रा के साथ बना हुआ है। माता के गर्भ के अंदर से ही जब आत्मा शरीर को  धारण करके जीवन यात्रा आरम्भ करती है तो  पुंसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, यज्ञोपवीत, विवाह संस्कार की यात्रा यज्ञ से ही होती है, यहाँ तक कि जीवन यात्रा का समापन (अंतिम संस्कार) भी यज्ञ के द्वारा ही होता है। अंतिम समय में तो आयु और पूरे शरीर को ही यज्ञ को समर्पित कर देते है।

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आज  की  24 आहुति संकल्प सूची  में 10  युगसैनिकों ने समयदान देकर अपनी भागीदारी रजिस्टर कराई है। सरविन्द  जी  ने सबसे अधिक अंक प्राप्त करके  गोल्ड मेडल प्राप्त किया है। बहुत-बहुत बधाई। 

(1) सरविन्द कुमार-47,(2)चंद्रेश बहादुर-26 ,(3) सुजाता उपाध्याय-24 ,(4)रेणु श्रीवास्तव-37, (5)संध्या कुमार-43 ,(6 ) वंदना कुमार-24 ,(7 )अरुण वर्मा-41, (8) पुष्पा सिंह-25,(9 )स्नेहा गुप्ता-24, (10 )निशा भारद्वाज -25

सभी विजेताओं को हमारी  व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।

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