3 नवंबर 2022 का ज्ञानप्रसाद :चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1 चैप्टर 7 और पेज 376
आज का ज्ञानप्रसाद compile करने के लिए हमने बहुचर्चित पुस्तक “चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1 चैप्टर 7 एवं अन्य कईं ऑनलाइन sources की सहायता ली है। इस ज्ञानप्रसाद में परम पूज्य गुरुदेव की प्रथम पत्नी आदरणीय सरस्वती देवी के साथ विवाह, ताई-गुरुदेव संवाद, गुरुदेव- सरस्वती देवी संवाद बहुत ही संक्षेप में वर्णित किये हैं। लेख का दुःखद अंत सरस्वती देवी के निधन के साथ होता है।
परम पूज्य गुरुदेव जैसे विशाल व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना किसी भी लेखक के लिए लगभग असंभव सा ही है, इस लेख में हमारी लेखनी से जो कुछ भी लिखना संभव हो पाया केवल परम पूज्य के मार्गदर्शन के कारण ही है। आशा करते हैं कि ब्रह्मवेला में प्राप्त हो रहे इस दिव्य ज्ञानप्रसाद से आप रात्रि में आने वाले शुभरात्रि सन्देश तक ऊर्जावान रहेंगें।
आप सभी को हमारे ज्ञानप्रसाद का नवीन फॉर्मेट पसंद आ रहा है, उसके लिए ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। आज का लेख देखने में तो 11 पन्नों का है लेकिन शब्द कोई अधिक नहीं हैं। हमने पढ़ने की सुविधा तो ध्यान में रखते हुए FONT साइज बड़ा किया है।
कल शुक्रवार का दिन वीडियो का होता है, तो आप प्रतीक्षा करिए ज्ञानवर्धक वीडियो की, लेकिन अमृतपान से पहले आज की 24 आहुति संकल्प सूची भी तो देख लें।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 7 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है ,अरुण वर्मा जी फिर से रेस में सबसे आगे हैं और गोल्ड मैडल विजेता हैं।
(1)वंदना कुमार-30,(2 ) विदुषी बंता-27, (3 ) रेणु श्रीवास्तव-32 ,(4) सुजाता उपाध्याय-29, (5 )अरुण वर्मा -43,(6) संध्या कुमार-28,(7)प्रेरणा कुमारी-28
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गुरुदेव अपनी मार्गदर्शक सत्ता के निर्देश अनुसार नियत कार्यों में जुट गये थे। जौ के आटे से बनी रोटी और गाय के दूध से बने मठा का प्रबंध तो ताई ( गुरुदेव माँ को ताई कहते थे ) कर ही देती साथ में अखंड दीप में घी वगैरह डालना और देखभाल भी माँ ही करती। माँ को तो एक ही रट लगी थी कि श्रीराम का विवाह हो जाए। बेटे का स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना ,पोस्टर वगैरह चिपकाने,रात-रात देर तक घर से बाहिर रहना अच्छा नहीं लगता था। कौन माँ नहीं चाहेगी कि उसके बेटे की गृहस्थी जल्दी से जल्दी बस जाए। उन दिनों लड़के की 16 -17 वर्ष की आयु marriageable age समझी जाती थी और कन्या अगर 8 -10 वर्ष की हो जाए तो समझा जाता था कि वह बहुत सयानी हो गयी है। अगर यह आयु निकल गयी तो फिर किसी से भी उसका विवाह कर देते थे।
माँ ने अपने रिश्तेदारों, सगे सम्बन्धियों को श्रीराम के लिए लड़की खोजने के लिए कहा। एक दो जगहों से रिश्ते आए भी।
माँ को इस प्रकार अधीर होते देख
श्रीराम बोले: अभी क्या जल्दी है माँ ? इस आयु में विवाह करना धर्म के विरुद्ध होगा।
माँ ने कहा: तुम्हारी उम्र के सभी लड़कों का विवाह हो गया है, तुम भी करो।
श्रीराम ने कहा, अभी कुछ समय रुक जाओ,माँ।
माँ ने पूछा: कितनी देर?
श्रीराम ने उत्तर दिया: यही कोई एक वर्ष भर।
माँ ने जब कारण पूछा तो
श्रीराम कहने लगे: मालवीय जी महाराज कहते हैं कि लड़कों का विवाह 16 वर्ष की आयु से पहले नहीं होना चाहिए। ठीक तो यही है कि 20-22 वर्ष में होना चाहिए पर 16 वर्ष की मर्यादा तो निभानी ही चाहिए।
मालवीय जी का सन्दर्भ सुन कर माँ चुप हो गयी और पूछा: कन्या की उम्र कितनी होनी चाहिए।
श्रीराम ने उत्तर दिया: कम से कम 12 वर्ष, हम जानते हैं कि आपको अखंड दीप और गो सेवा के लिए बहू की ज़रूरत है पर शास्त्र की मर्यादा का पालन भी तो होना चाहिए।
ताई को इसके आगे कोई तर्क नहीं सूझा। फिर सोचकर बोलीं : ”लड़की तो देखी जा सकती है न ?
श्रीराम ने कहा: वह सब आप देखो, लड़की आप को चाहिए,आप देखें और तय करें।
मालवीय जी ने इस बाल विवाह की प्रथा के विरुद्ध बहुत काम किया है। बाल विवाह में लड़का -लड़की दोनों जवानी से पहले ही बूढ़े हो जाते हैं। श्रीराम ने विवाह की सम्मति इस कारण दी थी कि साधना सहचरी बन सके, न कि सामान्य लोगों की तरह घर-गृहस्थी बसाने के लिए या परिवार बढ़ाने के लिए।
साधना सहचरी का आगमन:
सितंबर 1927 में श्रीराम ने 16 वर्ष की आयु पूरी की, ननिहाल पक्ष से बरसौली ( अलीगढ ) से पंडित रूपराम शर्मा की कन्या का रिश्ता आया, नाम था सरस्वती देवी। ताईजी वधू देखने गयी। बरसौली पहुँच कर उन्होंने वधू को पूछा, “गो सेवा कर लेती हो बेटी।” सरस्वती ने लज्जा के मारे मुंह नीचे कर लियाऔर कुछ नहीं बोली। रूपराम जी ने कहा, “बिल्कुल ठीक प्रश्न किया है आपने, गो सेवा के इलावा सरस्वती को कुछ भी अच्छा नहीं लगता ” ताई ने और कुछ नहीं पूछा। उनका मानना था कि लड़कियां किसी भी वातावरण में ढाली जा सकती हैं। ससुराल में परायापन ही बिगाड़ देता है। रूपराम जी अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ आंवलखेड़ा श्रीराम को देखने आए। पैतृक सम्पदा की कोई कमी न थी। श्रीराम की गो सेवा और पूजा पाठ प्रवृति और निष्ठा तो उनको बहुत ही पसंद आई। रूपराम जी को पूजा कक्ष बहुत ही पसंद आया और कहने लगे हमारी बिटिया को भी पूजा पाठ बहुत पसंद है। रूपराम जी को भी श्रीराम का स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना पसंद नहीं आया, उन्होंने कहा, “यह बड़ा ही जोखिम का काम है अगर कुछ हो गया तो बिटिया क्या करेगी।” इस पर ताई ने कहा, “होने को तो कुछ भी,कहीं पर भी हो सकता है,इसमें मालवीय जी और गाँधी जी का साथ है। ”
ऐसा कहने पर रूपराम जी को सांत्वना मिली और उन्होंने अपनी आपत्ति वापिस ली और श्रीराम को अपना जामाता बनाना स्वीकार कर लिया। सारी रस्में जल्द ही सम्पन्न कर ली गयीं और कार्तिक पूर्णिमा को 12 व्यक्ति बारात लेकर आए और बहुत ही सादे समारोह में विवाह सम्पन्न हुआ। रूपराम जी बहुत ही समृद्ध थे एवं कई गांवों को एक साथ भोजन करवा सकते थे पर विवाह से पहले ही ताई ने यह बात स्पष्ट कर दी थी कि कोई फिज़ूल खर्च न किया जाए। दहेज़ में दो गायें और वर वधू को दो -दो जोड़े कपड़े दिए गए थे। शास्त्रों में ऐसे विवाह को “ब्रह्म विवाह” कहा जाता है।
ब्रह्म विवाह को गूगल सर्च के अनुसार आदर्श विवाह की संज्ञा दी है- ऐसा विवाह जिसमें दोनों पक्ष राज़ी हों,कोईं दहेज़ न लिया जाए और सारे संस्कार शास्त्रों के अनुसार सम्पन्न किये जाएँ।
आंवलखेड़ा आकर विवाह संस्कार और अन्य रस्म रिवाज़ पूरे करने में चार दिन लग गए थे। इस अवधि में निर्धारित जप पूरा न होने के कारण तीन दिन श्रीराम ने और कोई काम नहीं किया। स्नानादि के इलावा पूजा गृह में से बिल्कुल बाहिर नहीं निकले। ऐसी थी बालक श्रीराम की ( हमारे गुरुदेव ) की संकल्प शक्ति। चौथे दिन जप पूरा होने के बाद सहधर्मिणी की ओर देखा। वधु बनकर आई सरस्वती प्रणाम तो प्रतिदिन कर लेती थी पर चरण स्पर्श का सौभाग्य आज चार दिन के बाद ही मिला था क्योंकि श्रीराम को जप संख्या की चिंता थी। जब भी कभी किसी काम से पूजागृह से बाहर आए तुरंत ही काम करके अंदर चले जाते।
सरस्वती ने आकर चरण स्पर्श किया और नीचे धरती पर बैठ गयी। श्रीराम ने कहा, ”नीचे मत बैठो।” उन्होंने आसन बिछाया और आसन पर बिठाया और फिर पूछने, “लगे यहाँ सब ठीक लग रहा है न, कोई असुविधा तो नहीं है। हमारे भाग्य में आपका दम्पति होना लिखा था सो हो गया लेकिन आगे चल कर बहुत ही कष्ट उठाने पड़ सकते हैं। भगवान ने हमें अतयंत आवश्यक कार्य सौंपे हैं। हम घर गृहस्थी को ठीक प्रकार संभाल न पाएं, तुम पर भी ध्यान देने में चूक हो जाये इसके लिए मन को तैयार रखना। सरस्वती ने कहा, “पिताश्री ने हमें विदा कर दिया, यह भी तो भगवान की इच्छा ही है। हमें नहीं पता क्या कष्ट आने वाले हैं। अपना धर्म निभाएं यही सबसे बड़ी प्रसन्नता है।” श्रीराम ने पूछा, “क्या है आपका धर्म?” उधर से उत्तर आया, “आपके चरणों की सेवा करना। आप तपस्वी हैं, भगवान के प्रिय हैं। यह हमारा सौभाग्य है किआपके रूप में हमें अपने आराध्य मिल गए।” पत्नी से ऐसा आश्वासन सुन कर श्रीराम के मन का बोझ कुछ कम हुआ। वह तो सोच रहे थे कि मुझ जैसे पति को निभाना बहुत ही कठिन होगा।
मित्रो हम इन अविस्मरणीय पलों का एक newsreel की शक्ल में रूपांतरण करने का प्रयास कर रहे हैं। हर छोटी से छोटी घटना का वर्णन करना अपना धर्म समझते हैं ताकि जो भी इनको पढ़े उसे अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त हो।
श्रीराम और सरस्वती बातें कर रहे थे तो सामने से ताई जी आ रही थीं। ताई जी को आता देखते ही नववधू उठ कर खड़ी हो गयी। ताई ने बहू के माईके जाने की बात की। श्रीराम बिना कुछ कहे बाहर चले गए और अपनी बाल सेना के सदस्यों को ढूंढने लगे। विवाह के कारण वह भी इधर उधर हो गए थे।
सरस्वती देवी का देहांत:
सरस्वती घर का सारा काम करती और श्रीराम का हाथ भी बटाती। जब आंवलखेड़ा से मथुरा आ गए तो स्वतंत्रता संग्राम में श्रीराम तो दिन रात व्यस्त रहते। सरस्वती सारा दिन घर का काम भी करती,अखंड ज्योति पत्रिका में भी अपना सहयोग देती।अधिक काम से थकावट सी भी महसूस होने लगी। आराम की आवश्यकता होने पर भी काम करती रहती। इसी बीच उन्हें ज़ोरों की खांसी उठने लगी। जब श्रीराम को इतनी ज़ोर की खांसी का पता चला और इलाज करवाया गया तो पता चला कि उन्हें क्षय रोग ( TB ) है। उन दिनों इसका इतना उपचार नहीं था। मथुरा में कोई अच्छा उपचार नहीं था। पास वाले कस्बे हाथरस में एक चिकित्सा केंद्र का पता लगा तो श्रीराम तीनो बच्चों ओमप्रकाश ,दया और श्रद्धा को ताई के पास छोड़ कर सरस्वती को हाथरस ले गए।
हमने गूगल सर्च में इन बच्चों के बारे में जानना चाहा पर केवल ओमप्रकाश जी का ही पता चला। उनका 2019 में देहांत हुआ।
सरस्वती देवी का करीब दो मास इलाज चला,15 दिन तो चिकित्सा केंद्र में ही रही। श्रीराम ने पूरी तरह सेवा की। कपडे भी धोते ,दवाई भी देते,तीमारदारी भी करते। इलाज के बाद सरस्वती देवी मथुरा आ गयी ,दवाइयां और खाने के निर्देश का पूरी तरह पालन करने की सलाह दी गयी।
1942 में परिवार पर जैसे वज्रपात हुआ हो। सरस्वती देवी एकदम बीमार हो गयी। हाथरस से आने के बाद ठीक ही थी सारे काम कर रही थी। अखंड दीप की देखभाल करना ,अखंड ज्योति पत्रिका पर लेबल लगाने , गायत्री आरोग्य केंद्र की औषधियों की पिसाई इत्यादि सब कार्य कर ही रही थी । पर अचानक ही स्वास्थ्य कैसे बिगड़ गया किसी को कुछ नहीं अंदाज। दोपहर को मामूली सी तकलीफ हुई वह भी कोई चिंताजनक न थी, पेट दर्द हुआ तो किसी को बताया ही नहीं। दो दिन बाद जब दर्द बहुत तेज हुआ तो श्रीराम को बताया। तीसरे पहर दर्द और तेज हो गया। श्रीराम वैद धनीराम को बुला कर ले आए। उनके बारे में यह प्रसिद्ध था कि रोगी से पूछे बिना नाड़ी देख कर रग-रग बता देते थे। उन्होंने बताया कि पेट में एक फोड़ा हो गया हैं और जल्द ही फूटने वाला है। अब ईश्वर स्मरण के इलावा कोई उपाय नहीं है , इनकी विदाई की तैयारी करें। चिकित्सा के नियम अनुसार अशुभ आशंका व्यक्त करना अनैतिक है पर श्रीराम के करीबी होने के कारण धनीराम जी उनको अँधेरे में नहीं रखना चाहते थे। इतना अशुभ समाचार सुन कर परिवार में सन्नाटा सा छा गया। तीनों बच्चों की मनोदशा का अनुमान ही लगाया जा सकता है। श्रीराम ने सभी को संभाला। वैद्य जी भी विचलित हो गए ,श्रीराम कहते, “अगर आप भी विचलित हो जायेंगें तो कैसे चलेगा।” श्रीराम ने सरस्वती को पूछा, “कैसा लग रहा है ? सब ठीक हो जायेगा, चिंता न करें। रातके नौ बज गए होंगें ,ताई जी बच्चों को संभाल रही थीं। श्रीराम सरस्वती के बिस्तर के पास कोई पुस्तक पढ़ रहे थे। बीच-बीच में उनको देख लेते। रात के 11 बजे का समय होगा सरस्वती को पेट में ज़ोर से दर्द हुआ,वह उठीं और पूछने लगी, “ओम ,दया और श्रद्धा कहां हैं। श्रीराम ने कहा, “सो रहे हैं।” थोड़ा उठीं और कहने लगीं, “ताई को प्रणाम करने को मन हो रहा है।” सुन कर साथ वाले कमरे से ताई आ गयीं और सरस्वती ने चरण स्पर्श के लिए उठने का प्रयास किया लेकिन उठ नहीं पाईं। श्रीराम को कहने लगी, “आपसे क्या कहूं,अगर कोई अमर्यादा हो गयी हो तो क्षमा करना।” कुछ रुक कर बोली, “इन बच्चों को कभी भी माँ की कमी न होने देना ,यह तीनो बच्चे माँ के भरोसे ही हैं। यही उनके अंतिम शब्द थे।
मित्रो सरस्वती देवी -पूज्यवर की पहली सहधर्मिणी- तीन बच्चों -एक लड़का और दो लड़कियों को छोड़ कर 1942 में इस दुनिया से विदा ले गयीं। लगभग 15 वर्ष के साथ का दुःखद अंत ऐसे हुआ।