26 अक्टूबर 2022 का ज्ञानप्रसाद-मार्गदर्शक सत्ता ने गुरुदेव को रामकृष्ण परमहंस देव के संस्मरणों के दर्शन कराये।
चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 6
आज सप्ताह का तृतीय दिन बुधवार है और आप सब रंगमंच पर उन दृश्यों का दिव्य आनंद प्राप्त कर रहे हैं जिनमें दादा गुरु 15 वर्षीय किशोर श्रीराम को को पिछले तीन जन्मों की यात्रा करवा रहे हैं। एक सीन का पटाक्षेप होते ही दूसरा सीन स्वयं आरम्भ हो जाता है। बहिन वंदेश्वरी जी ने कमेंट किया है कि ऐसा लगता है जैसे हम भी गुरुदेव के साथ साथ पूजा की कोठरी में बैठे हैं, कहाँ से लाते हैं सारी जानकारी भाई साहिब ,धन्यवाद् । हमारे सभी प्रयासों का श्रेय परम पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन और सहकर्मियों की सहभगिता को जाता है। हमारी अपनी न तो कोई प्रतिभा है और न ही पात्रता।
ब्रह्मवेला में प्रस्तुत किया गया यह ज्ञानप्रसाद हमारे सहकर्मियों को रात्रि में आने वाले शुभरात्रि सन्देश तक अनंत ऊर्जा प्रदान करता रहेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।

आज के लेख में अलग-अलग धर्मों की प्रयोगशाला, रानी रासमणि का दक्षिणेश्वर का स्वप्न, तोतापुरी-रामकृष्ण परमहंस संवाद और रामकृष्ण परमहंस जी को स्वामी विवेकानंद का पूर्वाभास होने वाले दृष्टान्त बहुत ही रोचक हैं। यह दृष्टान्त तभी रोचक होंगें जब आप अक्षर ब अक्षर पढेंगें क्योंकि हमने इस कंटेंट को कठिन रिसर्च के बाद तैयार किया है।
आइये एक बार फिर अंतर्मन से स्थिर होकर आंवलखेड़ा स्थित कोठरी में पूज्यवर के सानिध्य में बैठें जहाँ दादा गुरु चलचित्र की भांति तीन जन्मों के आलौकिक दृश्य दिखा रहे हैं। हम सभी पिछले कई दिनों से तीन जन्मों की, तीन गुरु-शिष्यों की, तीन क्षेत्रों की यात्रा कर रहे हैं। रामानंद और संत कबीर, समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी, तोतापुरी और रामकृष्ण परमहंस -तीन गुरु-शिष्यों का वर्णन “बलिहारी गुरु आपुनो” को सार्थक करता है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बंगाल में घटित 600 वर्ष का यह जीवन चलचित्र दर्शाने में दादा गुरु को लगभग 6 घंटे का समय लगा, गुरुदेव अचेत से बैठे सब कुछ देखते रहे। गुरुदेव की माता जी घबरा रही थी कि बालक श्रीराम की प्रातः संध्या आज इतनी लम्बी क्यों हो गयी। इस वृतांत के बाद मार्गदर्शक सत्ता ने गुरुदेव को कैसे वापिस लाया,कठोर निर्देश देकर पालन करने को कैसे कहा, ताईजी की क्या प्रतिक्रिया थी इत्यादि सभी प्रश्नों के उत्तर आने वाले लेखों में मिलने की सम्भावना है।
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साधनाओं की प्रयोगशाला:
रामकृष्ण परमहंस देव जी विभिन्न संप्रदायों, पंथों की साधना के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि स्वरूप से मार्ग भले ही अलग हों, तात्विक दृष्टि से किसी भी धर्म-सम्प्रदाय में कोई अंतर नहीं है। खालसा पंथ की दीक्षा लेकर उसका मर्म समझा। एक दिन विचार आया कि मालुम किया जाए कि हिन्दू और मुसलमान में क्या भेद है। अपनी इष्ट-आराध्य भवानी से अनुमति माँगी, माँ ने अनुमति दे दी। टमटमा गाँव में एक सूफी साधक रहता था, उससे दीक्षा ली और साधना की विधि सीखी। तीन दिन साधना के बाद ही भाव बदल गये। उनके अंत:करण से हिन्दू का भाव गायब हो गया। उन्होंने मंदिर में जाना बंद कर काली का प्रसाद नहीं खाया। साधना के दिनों में किसी ने कहा, “इस्लाम के अनुसार जो काफिरों का वध करेगा,वह ही स्वर्ग में सुख से रहेगा। तुम भी क्या काफिरों का वध करोगे ?” रामकृष्ण देव ने कहा,
“काफिर बाहर नहीं रहते,वे हमारे भीतर ही हैं । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आदि ही हमारे भीतर रहने वाले विजातीय तत्त्व हैं। उनका विनाश करने से ही अल्लाह की मेहरबानी होती है। विद्या और शक्ति ही मनुष्य को सुख देती है। उसके सिवा कोई सुंदरी या अप्सरा नहीं है जो मनुष्य को निरंतर अगाध सुख देती हों।”
ईसाई धर्म की साधना-उपासना का मार्ग भी अपनाया। सब धर्मों और साधना परंपराओं का मर्म ज्ञान समझ लेने के बाद वे अपने स्वभाव में स्थिर हो गए। मुक्त और सिद्ध आत्माओं का वैसे अपना कोई स्वतंत्र स्वभाव नहीं होता। वे परमात्म चेतना से इस तरह ओत-प्रोत हो जाते हैं कि उनकी अपनी स्वतंत्र सत्ता कहीं दिखाई ही नहीं देती। जिस स्थिति और स्तर का साधक आता है, उसी के अनुरूप वे दिखाई देने लगते हैं। दर्पण की तरह,स्फटिक( quartz) से बने मंदिर की भाँति हो जाते हैं, जो सामने उपस्थित दृश्य या वर्ण को ही अपने स्वरूप में प्रतिबिंबित करने लगता है। रामकृष्ण देव तब विविध साधना धाराओं को ही परख रहे थे ।
पूजा की कोठरी में बैठे श्रीराम को ये दृश्य जीवंत घटनाओं की तरह दिखाई दे रहे थे।
दक्षिणेश्वर मंदिर में भिन्न-भिन्न संप्रदायों के साधक संन्यासी, फकीर, पादरी, आदि आ रहे हैं। किसी दिन 700 नागा साधुओं के प्रमुख “तोतापुरी नामक संन्यासी” आते हैं। इतिहास में उन्हें पंजाब के सिद्ध साधक दर्शाया गया है। चारों ओर उनकी बड़ी ख्याति है। पौष महीने में गंगा सागर से स्नान कर लौटते हुए वे दक्षिणेश्वर में ठहरते हैं और रामकृष्ण देव को देखकर पूछते हैं, “क्या तुम कुछ साधना करोगे ?” रामकृष्ण देव जी बड़ी ही बाल सुलभ सरलता से कहते हैं, “माँ कहेगी, तो जरूर करेंगे’” तोतापुरी ने समझा कि वे शायद अपनी जननी माता की अनुमति चाहते हैं। तोतापुरी ने कह दिया, “जाओ पूछ आओ।” रामकृष्ण माँ काली के सामने बैठकर पूछने लगे तो उधर से उत्तर आया कर लो। फिर पूछा, “कौन सिखाएगा साधना।” माँ ने उत्तर दिया, “जो तुझे वेदांत सिखाने आया है, वही साधना भी सिखाएगा।” स्वामी रामकृष्ण ने महंत तोतापुरी को सारे का सारा संवाद ज्यों का त्यों कह सुनाया, वे हँसे, फिर कहा, “हमसे उपदेश ग्रहण करना है, तो संन्यासी बनना पड़ेगा।” रामकृष्ण उसी सहजता से पूछते हैं, “संन्यासी होने के लिए क्या करना पड़ेगा।”
कोठरी में अपनी मार्गदर्शक सत्ता के दिव्य सान्निध्य में बैठे श्रीराम अनुभव कर रहे थे, जैसे रामकृष्ण के रूप में वे स्वयं ही यह संवाद कर रहे हों।
तोतापुरी जी संन्यास के बारे में समझाते हैं, उसके लिए श्राद्ध, होम, तर्पण आदि करना पड़ेगा। भगवा वस्त्र पहनना होगा और निरंतर विचरण करते रहना पड़ेगा। रामकृष्ण ने कहा,
“सब स्वीकार है लेकिन भगवा पहने बिना संन्यासी हुआ जाए,ऐसा कुछ कीजिए। मैं यह स्थान छोड़ कर अन्यत्र नहीं जा सकता। मेरी माँ जीवित है। अब उनका और कोई पुत्र नहीं। इसलिए उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता।”
तोतापुरी ने स्वीकार कर लिया। संन्यास की तैयारी होने लगी। शिखा सूत्र, कंठी, माला आदि चिह्नों का विसर्जन हो गया। चिता आरोहण और श्राद्ध तर्पण की क्रियाएँ भी संपन्न कर ली गयी, सर्वस्व त्याग का व्रत ग्रहण कर लिया। दीक्षा के बाद तोतापुरी अपने शिष्य को उपदेश देते हैं और समाधि में ले जाने का प्रयत्न करते हैं। स्फटिक की माला से एक मनका अलग निकाला और रामकृष्ण देव को पद्मासन लगाकर बैठ जाने के लिए कहा। शिष्य ने पद्मासन लगा लिया। तोतापुरी ने रामकृष्ण की आँखों के बीच भौंहों के मध्य स्फटिक का स्पर्श किया। उसे कुछ जोर से दबाया, थोड़ा सा दबाव पड़ना ही था कि रामकृष्ण देव की समाधि लग गई। वे अचेत से हो गये। नाड़ी की गति और हृदय की धड़कन यथावत् चल रही थी लेकिन उन्हें कोई बोध नहीं था। यह अवस्था देखकर तोतापुरी थोड़े डरे। उन्हें लगा कि रामकृष्ण कहीं शरीर न छोड़ दें। बड़ी सावधानी से उन्होंने साधक की देखभाल की। एक दिन बीत गया, दूसरे दिन की शाम भी ढल गयी और तीसरे दिन की सुबह हुई, तब भी रामकृष्ण की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। उन्होंने अपने प्रमुख शिष्यों से कहा तीन दिन तक यदि साधक अपनी सहज अवस्था में नहीं आता तो कठिन हो जाता है। शरीर उस आत्म चेतना को वापस धारण करने योग्य नहीं रह जाता।
लेकिन ठाकुर तो बहुत ही आगे थे:
रामकृष्ण देव के शरीर में तो कोई विकार नहीं आया, तोतापुरी शिष्य ने कहा, “श्वास-प्रश्वास उसी तरह चल रहे हैं,नाड़ी की गति भी ठीक है। शरीर में कोई विकार नहीं दिखाई देता।” तोतापुरी को चिंता नहीं थी। लेकिन वे विस्मय विमुग्ध थे। कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करें। सिद्ध गुरु अपने शिष्यों को समाधि से वापस लाने के जो भी उपाय कर सकते, कर लिए। कोई अंतर नहीं आया। थक हारकर वे शांत बैठ गये। यकायक उन्हें कुछ सूझा और अपना मुँह ठाकुर के कान तक ले गये और कहा, “ जिसकी तुम्हें प्रतीक्षा है, वह आ गया है रे।” ऐसा सुनना ही था कि रामकृष्ण इस तरह उठकर बैठ गये जैसे किसी ने झकझोर दिया हो । वे आतुर व्याकुल हो उठे और पूछने लगे, “कहाँ है वह? कहाँ है?” तोतापुरी ने कहा, “पहुँच ही रहा होगा।” इसके बाद तोतापुरी बोले,
“तुम तो मुझसे बहुत आगे हो ठाकुर। तुम महापुरुष हो। चालीस वर्ष तक कठोर साधना करके भी मैं जो स्थिति प्राप्त नहीं कर सका, तुमने उसे एक ही दिन में उपलब्ध कर लिया। तुम धन्य हो।”
तोतापुरी वेदान्ती थे। वे मूर्ति पूजा को नहीं मानते थे। अपने शिष्य की सिद्ध अवस्था से चमत्कृत होकर उन्होंने दक्षिणेश्वर मंदिर में स्थित माँ काली की प्रतिमा को प्रणाम किया। जो संदेश देकर तोतापुरी ने रामकृष्ण को समाधि से जगाया था वह नरेन्द्र ( स्वामी विवेकानंद) के बारे में था। जिस यात्रा दिन स्वामी जी रामकृष्ण जी के संसर्ग में आए, उसी दिन रामकृष्ण ने उन्हें सीने से लगा लिया था, फूटफूट कर रोए थे, जैसे वर्षों से गुम हुई संतान को पाकर माता-पिता विह्वल हो उठते हैं। स्वामी जी तब रोजगार की तलाश में थे । मोक्ष पाने की इच्छा अपने चरम पर थी,कभी कभी तो यह इच्छा भूख-प्यास से भी अधिक प्रचंड हो उठती थी। इस इच्छा की तृप्ति के लिए वे साधु संतों के यहाँ भटकते रहते थे रामकृष्ण के यहाँ पहुँचे और गुरु ने उन्हें देखते ही आँखों में भर लिया तो लगा कि खोज पूरी हुई।
इतिहास के पन्ने खोजने से पता चलता है कि स्वामी रामकृष्ण देव जी को स्वामी विवेकानंद जी का आभास लगभग 20 वर्ष पूर्व ही हो गया था। तोतापुरी के साथ हुए संवाद 1864 के हैं और स्वामी जी 1880 को आये थे।
दक्षिणेश्वर की कथा :
रानी रासमणि की कथा उस समय की है जब भारत पर अंग्रेजों का राज था। पश्चिम बंगाल में एक विधवा समृद्ध महिला रहती थी, जिसका नाम था रानी रासमनी । उसके पास पति के सुख के अलावा सारी सुख सुविधाएं थी और वह बहुत ही आध्यात्मिक थी। जब उनकी उम्र होने लगी तब उन्हें तीर्थयात्रा पर जाने को इच्छा हुई, यात्रा की शुरुआत वाराणसी से करने की सोची। उन्होंने सोचा कि वाराणसी में थोड़े समय के लिए रहकर देवी मां का ध्यान करेगी। बात उन दिनों की है जब रेल लाइन की सुविधा न होने के कारण लोग कोलकाता से वाराणसी नाव में जाया करते थे और ये नाव गंगा के रास्ते से ही जाती थी। रानी रासमनी ने भी यही रास्ते से जाने की योजना बनाई लेकिन जाने से एक रात पहले ही रानी को एक सपना आया। सपने में माँ काली प्रकट हुई और माँ ने कहा कि वाराणसी जाने की कोई जरूरत नहीं, तुम गंगा नदी के तट पर ही एक मंदिर का निर्माण करो और उसमे मेरी प्रतिमा रखो। मैं वहा आने वाले सारे भक्तों की प्रार्थना स्वीकार करूंगी। सुबह होते ही रानी की आंख खुली और उन्होंने वाराणसी जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया। उन्होंने गंगा के किनारे मंदिर बनाने के लिए जगह ढूंढनी शुरू कर दी और जगह मिलने पर मंदिर के निर्माण का काम 1847 में शुरू करवाया जो 1855 में समाप्त हुआ, यही है आज का दक्षिणेश्वर।
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शब्द सीमा के कारण आज की 24 आहुति संकल्प सूची प्रकाशित न कर पाने के कारण हम क्षमाप्रार्थी हैं। हाँ सारांश यह है कि टोटल कमैंट्स संख्या 541 है,11 विजेता हैं और संध्या कुमार बहिन जी गोल्ड मेडलिस्ट हैं। सभी के प्रयास को शब्दों में बांधना असम्भव है। जय गुरुदेव।