24 अक्टूबर 2022 का ज्ञानप्रसाद – चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 6
आज सप्ताह का प्रथम दिवस सोमवार है और आप सभी इस ब्रह्मवेला के दिव्य समय में ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद की प्रतीक्षा कर रहे होंगें, तो लीजिये हम प्रस्तुत हो गए उस ज्ञानप्रसाद को लेकर जिसे परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन में लिखा गया। आशा करते हैं कि यह ज्ञानप्रसाद हमारे समर्पित सहकर्मियों को रात्रि में आने वाले शुभरात्रि सन्देश तक अनंत ऊर्जा प्रदान करता रहेगा।
ज्ञानप्रसाद के अमृतपान से पूर्व आइए दीपावली के पावन पर्व को समर्पित मर्यादा पुरषोतम( पुरुष-उत्तम) भगवान् श्रीराम के चरणों में शीश नवाते हुए समस्त विश्व में ज्ञान के आलोक के विस्तार कामना करें। दीपावली का एक एक दीपक हमारे अन्तःकरण के अन्धकार को मिटाकर प्रकाश से भर दे -ऐसी कामना करते हैं। कैसा संजोग है कि आज का लेख भी राम भक्त समर्थ गुरु रामदास को ही समर्पित है।
वर्तमान लेख श्रृंखला का उद्देश्य तभी पूर्ण होगा जब हम अंतर्मन से स्थिर होकर आंवलखेड़ा स्थित कोठरी में पूज्यवर के सानिध्य में बैठेंगें। दादा गुरु द्वारा चलचित्र की भांति वर्णन किया गया तीन जन्मों का वृतांत बहुत ही आलौकिक था। इस वृतांत में दादा गुरु तीन जन्मों की, तीन गुरु-शिष्यों की, तीन क्षेत्रों की कथा तो वर्णन कर ही रहे थे, साथ में अन्य कई और गुरुओं के रिफरेन्स भी दे रहे थे। रामानंद और संत कबीर, समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी, तोतापुरी और रामकृष्ण परमहंस -तीन गुरु-शिष्यों का वर्णन “बलिहारी गुरु आपुनो” को सार्थक करता है। उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र और बंगाल में घटित 600 वर्ष का यह जीवन चलचित्र दर्शाने में दादा गुरु को लगभग 6 घंटे का समय लगा, गुरुदेव अचेत से बैठे सब कुछ देखते रहे। गुरुदेव के माता जी जिन्हे वह ताई कह कर संबोधन करते थे, घबरा रही थी कि बालक श्रीराम की प्रातः संध्या आज इतनी लम्बी क्यों हो गयी। माँ जो ठहरी। इस वृतांत के बाद मार्गदर्शक सत्ता ने गुरुदेव को कैसे वापिस लाया,कठोर निर्देश देकर पालन करने को कैसे कहा, ताईजी की क्या प्रतिक्रिया थी इत्यादि सभी प्रश्नों के उत्तर आने वाले लेखों में मिलने की सम्भावना है। गुरुदेव के मार्गदर्शन में हम अथक परिश्रम करके एक ऐसा कंटेंट लाने का प्रयास करेंगें जिससे आपकी आत्मा तृप्त हो जाएगी।
हम पहले भी लिख चुके हैं, आज फिर निवेदन कर रहे हैं कि अगर आप यह सोच रहे हैं कि गुरुदेव के तीन जन्मों का कथा बहुचर्चित है, हम तो इसे कई बार पढ़ चुके हैं, ऑडियो में सुन चुके हैं ,वीडियो में देख चुके हैं, तो इन लेखों को पढ़ने का कोई लाभ नहीं, इन लेखों में ऐसा क्या नया होगा जो हम नहीं जानते हों, तो शायद यह सोच अनुचित हो। हमने इन्हीं पन्नों को browse करके कितनी ही बार देखा तो पता चला कि अभी जानने के लिए बहुत कुछ बाकी है।
आप से निवेदन है कि हर लेख का भूमिका portion अवश्य पढ़ा करें जिसमें लेख की summary का वर्णन होता है।
तो चलते हैं दादा गुरु और बालक श्रीराम के दिव्य सानिध्य में उस कोठरी में और जानते हैं समर्थ गुरु रामदास जी के बारे में लेकिन उससे पहले हम आदरणीय प्रेमशीला मिश्रा बहिन जी की बेटी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए गुरुदेव से प्रार्थना करेंगें। बेटी को डेंगू ने जकड़ लिया है और बहिन जी बहुत ही घबराहट में हैं। यह समय है परिवार की भावना और समर्पण व्यक्त करने का, दुःख में सहभागिता दर्शाने का। बहिन जी हम सब एक समर्पित परिवार हैं,बेटी शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएगी।
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कुछ अंतराल के बाद इतिहास की दृष्टि से 100 वर्ष बाद का समय शुरू होता है। देश के हिसाब से महाराष्ट्र में और काल के हिसाब से औरंगजेब के आततायी शासन का युग। उस समय किसी भी व्यक्ति या समूह को अपनी आस्था के अनुसार जीने की सुविधा नहीं थी। अपने विश्वासों के लिए मूल्य चुकाना पड़ता था। वह मूल्य धन के रूप में भी हो सकता था और दंड के रूप में भी। विभिन्न धर्म संप्रदाय, खासकर साधना और विद्या की भारतीय धाराएँ इतनी दुर्बल और कुंठित हो गई थीं कि आपस में ही लड़ने-भिड़ने लगी थीं। आत्मनाश करने में जुटी हुई थी। अन्धकार और निराशा से भरे उस युग में महाराष्ट्र में एक संन्यासी का उदय हुआ जिसका नाम था रामदास। भगवान् राम की 12 वर्ष उपासना करने के कारण ही उनका नाम “रामदास” पड़ा। वे प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में उठकर प्रतिदिन 1200 बार सूर्य नमस्कार करते, उसके बाद गोदावरी नदी में खड़े होकर राम नाम और गायत्री मंत्र का जाप करते थे। दोपहर में केवल 5 घर की भिक्षा मांग कर वह प्रभु रामचंद्र को भोग लगाते थे। उसके बाद प्रसाद का भाग प्राणियों और पंछियों को खिलने के बाद स्वयं ग्रहण करते थे। दोपहर में वे वेद, वेदांत, उपनिषद्, शास्त्र ग्रन्थोंका अध्ययन करते थे। उसके बाद फिर नाम जप करते थे। उन्होंने 12 वर्षों में 13 करोड राम नाम जप किया। ऐसा कठोर तप
दादा गुरु पूजा की कोठरी में श्रीराम के सामने उस साधु की जीवन लीला के विभिन्न दृश्यों को एक चलचित्र की भांति प्रस्तुत कर रहे हैं। युवा रामदास विवाह मंडप में बैठे हैं, पास ही वधू, सप्तपदी शुरू होने से पहले पुरोहित कर्मकांड के लिए तैयार है। पंडित जी ने कहा, “वर-वधू सावधान रहें आगे की क्रियाएँ होश के साथ,उनका अर्थ समझते हुए संपन्न करो।” “सावधान” के उद्घोष ने रामदास की चेतना को अलग ही तरह से झकझोर दिया। अंतरात्मा ने कचोटा कि देश और धर्म तो भीषण परिस्थितियों से गुज़र रहा है और तुम्हें घर गृहस्थी बसाने की पड़ी हुई है। रामदास विवाह मंडप छोड़कर भाग निकले, सावधान हो गए, संन्यास जीवन अपनाया, परशुराम की तरह शास्त्र और शस्त्र दोनों की शिक्षा का प्रचार किया।
सावधान हुए रामदास
समर्थ गुरु रामदास (सन् 1608 से 1692) के रूप में विख्यात हुई इस विभूति ने पंचवटी (नासिक) में बारह वर्ष तक गायत्री साधना की।नासिक और पंचवटी वस्तुत: एक ही नगर हैं। गोदावरी के दक्षिणी तट पर स्थित नगर के मुख्य भाग को नासिक कहा जाता है और गोदावरी के उत्तरी तट पर जो भाग है वह पंचवटी कहलाता है।
साधना के बाद वे तीर्थयात्रा के लिए निकल गए। देश और समाज की समस्याओं और उस समय की परिस्थितियों को समझा और महाराष्ट्र वापस लौट आए। वहाँ उन्होंने शरीर, मन और आत्मा तीनों दृष्टि से बलवान युवकों को संगठित करने की योजना बनाई और उसे कार्यान्वित किया । जहाँ भी जाते हनुमान मंदिर की स्थापना और मंदिर के साथ अखाड़े बनाते । इनमें किशोर और युवकों को व्यायाम करने, कुश्ती लड़ने, मल्ल युद्ध करने और हथियार चलाने का अभ्यास कराया जाता। उन अखाड़ों की परंपरा देश में आज भी अवशिष्ट है। लोग उन्हें “रामदासी अखाड़ों” के रूप में जानते हैं।
एक दृश्य में समर्थ रामदास संन्यास वेश में अपनी माँ से मिलने जाते हैं। जब से वह विवाह मंडप से उठकर भागे थे तब से माँ ने रो-रोकर अपना बुरा हाल कर लिया था। आँखों की रोशनी जाती रही। कोई भी प्रसंग उठता, तो अपने लाड़ले को याद करती। साधना और तीर्थयात्रा से लौटने के तुरंत बाद समर्थ रामदास ने माँ को ढूँढा, उनके चरणों में प्रणाम किया। माँ ने आहट से ही पहचान लिया कि बेटा आया है। समर्थ पुत्र के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और माँ देखने लगी। बेटा दिखाई देने लगा। पुलकित होकर माँ ने कहा,
“लगता है बेटा तूने कोई भूत सिद्ध कर लिया है और उसी की शक्ति से तुमने मेरी आँखों की ज्योति वापस ला दी। बता तो सही कौन है वह भूत।”
समर्थ रामदास माँ का आशीर्वाद पाकर निकल पड़े। साधु संन्यासियों और गृहस्थों को संगठित करने में लगे। उनके मार्गदर्शन में जिन शूरवीरों ने स्वतंत्रता और राष्ट्र के गौरव की पुनर्स्थापना के लिए संघर्ष छेड़ा था, उनमें “छत्रपति शिवाजी” का नाम सबसे ऊपर है। शिवाजी को दीक्षित करने, राष्ट्र के उद्धार में लगाने, अधर्म को नष्ट करने के लिए सभी संभव उपाय करने की प्रेरणा देने वाले अनेक दृश्य मानस पटल पर उभर आए। एक दृश्य में वे शिवाजी के पास भिक्षा माँगने गये। छत्रपति उस समय साम्राज्य की स्थापना कर चुके थे। गुरु ने अलख जगाई। ‘जय-जय रघुवीर समर्थ,’ पुकार सुनकर शिवाजी दौड़े आए, सोचने लगे कि गुरु की झोली में क्या अर्पित करूँ। क्षण भर में ही तय कर लिया। कागज़ कलम उठाकर “संकल्प पत्र” लिखा और कहा कि पूरा राज्य आज से आपका। आप ही शासन कीजिए। यह कह कर संकल्प ग्रहण कर लिया।
गुरु ने कहा,
“हाँ आज से यह राज्य मेरा ही है, तुम इसे मेरी धरोहर मानकर संभालो। इसे बढ़ाओ, समृद्ध करो और राष्ट्र के जागरण में अपनी आहुति दो।”
इसके बाद धर्म के अनुसार किसी राज्य को कैसे चलाया जाय उसके लिए एक प्रवचन। वह प्रवचन केवल शिवाजी के लिए ही नही बल्कि सभी शासकों के लिए धर्मविधान है। इस प्रवचन में सभी देवों को नमस्कार किया गया है। यह प्रार्थना समर्थ रामदास की कृति ‘दासबोध’ में भी है।
इस प्रवचन के स्वर उस सीन में गूंज रहे थे,ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे स्वयं श्रीराम ही गा रहे हों । प्रस्तुत है प्रवचन की कुछ पंक्तियाँ:
“हे गजवंदन (गणेश जी) तुम्हें प्रणाम है। तुम्हारी महिमा का कोई पार नहीं है। हे विष्णु ! तुम धन्य हो। तुम्हीं ने सृष्टि की रचना की तुम सबका पालन करते हो। शिव को प्रणाम है, जो निरंतर रामनाम का जप करते हैं उनके लिए तुम्हारी देन का अंत नहीं है। हे इंद्रदेव! तुम धन्य हो। तुम धर्म-अधर्म सब जानते हो। मुझे भी उसे मानने समझने की शक्ति दो। हे परम बलवान हनुमान ! तुम धन्य हो। हमें भी बल के उपासक बनाओ। क्षेत्रपाल तुमने बहुत से लोगों को मुक्ति मार्ग पर प्रेरित किया है। हे पांडुरंग! तुम्हारे यहाँ सदा भगवत्कथा की धूम मची रहती है। रामकृष्ण आदि अवतारों की महिमा अपार ही है। उन्हीं के कारण बहुत से लोग उपासना में तत्पर हुए हैं। लेकिन इन सब देवताओं का मूल यह अंतरात्मा है। भूमण्डल के सब लोग इसी को प्राप्त होते हैं। यही अनेक शक्तियों के रूप में प्रकट हुआ और सब वैभवों का भोग करने वाला है।’
प्रार्थना लम्बी है। उसमें अपने भीतर निहित और बाहर जगत् में व्याप्त विविध शक्ति रूपों के आध्यात्मिक पक्ष को संबोधित किया गया है।
प्रार्थना संपन्न होने के बाद समर्थ रामदास अपनी लीला का संवरण करते हैं। उनके अवतरण का उद्देश्य ही दिव्य जीवन के आंतरिक सत्य को उजागर करना था। अपने कर्त्तव्य कर्मों के पालन, धर्म सेवन और लोक कल्याण की विभिन्न गतिविधियों के दृश्य दिखाई दिये।
इसी बीच सीन बदलता है और एक नया दृश्य दिखाई देता है जो कलकत्ता के आसपास का है। समय उन्नीसर्वी शताब्दी के ठीक पूर्वार्ध का था। यह दृश्य था दक्षिणेश्वर मंदिर में अपने बड़े भाई के साथ आकर ठहरे एक किशोर का जिसका नाम था रामकृष्ण यानि रामकृष्ण परमहंस। मन मसोस कर इस दिव्य विभूति को दर्शाता सीन कल वाले ज्ञानप्रसाद के लिए स्थगित करने की विवशता को हमारे परिजन अवश्य समझेंगें, ऐसा हमारा अटल विश्वास है।
हर लेख की भांति यह लेख भी बहुत ही ध्यानपूर्वक कई बार पढ़ने के उपरांत ही आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है, अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि रह गयी हो तो हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से निवेदन है कि कोई भी त्रुटि दिखाई दे तो सूचित करें ताकि हम ठीक कर सकें। धन्यवाद्
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 17 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है , संध्या कुमार, सरविन्द कुमार, सुजाता उपाध्याय और पूनम कुमारी गोल्ड मैडल विजेता हैं।
(1 )अरुण वर्मा-39,(2)संध्या कुमार-54 ,(3)वंदना कुमार-34 ,(4)सरविन्द कुमार-54 ,(5) रेणु श्रीवास्तव-33,(6) अरुण त्रिखा,(7)अनिल कुमार मिश्रा-29,(8) नीरा त्रिखा-29,(9)अशोक तिवारी-27,(10)गोवाराम मनाता-25,(11)पुष्पा सिंह-27,(12)सुजाता उपाध्याय-55,(13) कुमुदनी गौरहा-29,(14) लता गुप्ता-33,(15)पूनम कुमारी-54,(16 )विदुषी बंता-28,(17 ) प्रेरणा कुमारी-31
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं। जय गुरुदेव