वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव के लेवल के 100 व्यक्ति ही तैयार हो जाएँ। 

21 जुलाई 2022 का ज्ञानप्रसाद – गुरुदेव के लेवल के 100 व्यक्ति ही तैयार हो जाएँ। 

आज कोई और विषय पर चर्चा करने से पहले हम अपने सहकर्मियों के  साथ, अपने परिवार के साथ,अनंत प्रसन्नता शेयर करना चाहेंगे जो हमें तब मिली जब आदरणीय चिन्मय पंड्या जी के साथ साक्षात् भेंट हुई। बड़े सौभाग्य की बात है कि  108 कुंडीय यज्ञ और शांतिवन आश्रम का भूमि पूजन चिन्मय जी की उपस्थिति में हो रहा है। इस दिव्य  भेंट की 6 फोटो आपके साथ शेयर कर रहे हैं।  कल वाले ज्ञानप्रसाद में इसी आगमन पर एक संक्षिप्त सी वीडियो अपलोड करने  का प्रयास है और शनिवार के स्पेशल सेगेमेंट में चिन्मय जी के संक्षिप्त कनाडा प्रवास की और बातें होंगीं। 

पिछले तीन दिनों से चल रही ज्ञानप्रसाद श्रृंखला में पात्रता, उपासना ,साधना ,आराधना की पृष्ठभूमि इस लिए बनाई गयी थी कि गुरुदेव eligible candidates की selection करके अपनी तपशक्ति का प्रत्यावर्तन (transfer) कर सकें। गुरुदेव चाहते थे कि जीवन भर कठिन तप से अर्जित की गयी शक्ति को कुछ योग्य हाथों में सौंप कर मुक्त हो जाएँ। उनकी इच्छा थी कि अपने लेवल के 100 व्यक्ति ही तैयार हो जाएँ जो उनके सन्देश को और व्यापक स्तर तक ले जाएँ।  आज के ज्ञानप्रसाद में तरह तरह के उदाहरणों के साथ इसी बात पर चर्चा होगी। 

तो आरम्भ करते हैं आज का ज्ञानप्रसाद। 

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प्रगति का मूल है पात्रता। मात्र दूसरों के अनुदान पर कभी कोई बड़ा प्रयोजन पूरा नहीं होता। चूहे से शेर बनाने वाली कथा हम पहले भी आपके समक्ष रख चुके आज फिर चर्चा कर रहे हैं क्योंकि आत्मिक प्रगति के लिए हमें चूहे से शेर बनना ही पड़ेगा। इससे कम  कुछ भी acceptable नहीं है। कथा इस तरह की है कि एक बियाबान  कठिनतम कुटी में रहने वाले सिद्ध पुरुष ने  चूहे को शत्रु के डर से बचाने के लिए चूहे को  क्रमशः चूहे से बिल्ली, बिल्ली से कुत्ता, कुत्ते से शेर बनाया था, पर जब वह हर स्थिति में शत्रु के डर की शिकायत ही करता रहा तो सिद्ध पुरुष ने झुंझलाकर उसे फिर चूहे का चूहा बना दिया था। हर क्षेत्र में यही सिद्धान्त लागू होता है। हम कई लेखों में आत्मबल और प्रतक्ष्य प्रमाण की चर्चा कर चुके हैं। गायत्री साधना की  बात तो बड़े ही  उच्च स्तर की बात है,केवल गायत्री मन्त्र जपने से ही साधक में जो बदलाव आते हैं उन पर  विश्वास करने के सिवाय और कुछ कहा  भी नहीं जा सकता।    

परमपूज्य गुरुदेव ने माता गायत्री  का, पिता  हिमालय का और समर्थ मार्गदर्शक का निरंतर  अनुदान प्राप्त किया है। इसी अनुदान  के आधार पर गुरुदेव  तुच्छ से महान बने।  यह अनुदान उन्हें भाग्यवश, किसी के उपकार से नहीं मिले वरन् उन्होंने  अपनी पात्रता के बलबूते पर खरीदे हैं। ईश्वरीय अनुदान प्राप्त करने वाले, दैवी वरदान से लाभान्वित होने वाले, प्रायः सभी महामानवों ने जो कुछ पाया है वह उनकी आत्म-साधना का ही परिणाम था। भगवान को, देवताओं को सिद्ध पुरुषों को न कोई प्रिय है,न अप्रिय। न उन्हें किसी के साथ पक्षपात होता है, न द्वेष। न वे प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं न निन्दा से अप्रसन्न। उनका स्तर बहुत ऊँचा होता उनकी दृष्टि  बहुत पैनी होती हैं। पात्रता का एकमात्र वह आधार होता है जिसे पाकर उनकी अनुकम्पा अपनेआप  ही बरस पड़ती है। भगवान का प्यार और अनुग्रह पात्रता के विकास के बिना आज तक कभी किसी ने प्राप्त नहीं किया है। यह एक अटल सत्य है ,सनातन सत्य हैं जिसे कभी भी झुठला नहीं  सकते। माता पिता से बढ़कर बच्चों से  स्नेह और प्यार कौन कर सकता है क्योंकि वह उनके दिल के टुकड़े जो होते हैं, उन्ही के अंग जो  होते हैं। लेकिन जब परिश्रम और पात्रता बीच में आ जाती है तो न चाहते हुए भी कुछ फर्क तो आ ही जाता है। अधिक योग्य को ,जिसकी पात्रता  अधिक होती है अधिक ध्यान मिलता है ,केयर मिलती है।   

अखंड ज्योति के जुलाई 1972 के अंक में गुरुदेव  प्रत्यावर्तन अनुदान  की घोषणा का चुके थे । गाय दिन भर घास चरती है और उससे बनने वाला दूध शाम को घर आकर बछड़े को दस मिनट में पिला देती है। बछड़ा उसे पीकर पुष्ट और तृप्त होता है। पर यह सम्भव तभी होता  है जब बछड़ा उसी गाय का हो। भैंस का कटरा, कुतिया का पिल्ला यदि गाय के थनों से लगा दिया जाय तो बेकार का विग्रह ही खड़ा होगा। न दुध स्रवित होगा न पीने के इच्छुक की आकाँक्षा पूरी होगी। प्रत्यावर्तन का लाभ प्राप्त करने के लिये उस प्रकार की “एकता” आवश्यक है जिसमें दाता और ग्रहीता( ग्रहण करने वाला)  एक ही लेवल पर खड़े हो सकें। यदि असाधारण भिन्नता रही तो फिर कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा। 

गुरुदेव ने  अखंड ज्योति के मई,जून 1972 के अंकों में प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन किया था। जुलाई के अंक में गुरुदेव “अपनों से अपनी बात” सेक्शन में लिखते हैं कि    अब हम  स्थिति में हैं कि अपने तप की एक प्रखर चिंगारी  देकर अधिकारी आत्माओं को ज्योतिर्मय बना सकें। इस प्रकार का अनुदान दोनों पक्षों के लिए अति आनन्द का कारण बनता है। दाता गृहीता के और गृहीता दाता के प्रति कृतज्ञ  होता है। बछड़ा अनुग्रहीत होता है कि उसे माता का स्नेह और दूध अनायास ही मिला। गाय प्रसन्न होती है कि उसके थनों का तनाव दूर हुआ। पुत्र को पिता से लाभ है और पिता की तृप्ति पुत्र से होती है। पत्नी पति के बिना अधूरी है और पति पत्नी के बिना अधूरा  रहता  है।

इस पारस्परिक प्रत्यावर्तन में एक ही प्रधान अवरोध है, “सजातीयता का अभाव।” विजातीय पदार्थ एक दूसरे से मिलते नहीं, जैसे तेल और पानी।  रक्त दान तभी सफल होता है जब गृहीता और दाता  का रक्त एक ही ग्रुप  का हो। अलग ग्रुप  के रक्त का प्रत्यावर्तन तो उलटी प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकता है।

रामकृष्ण परमहंस के अनेक शिष्य थे। अपने को अनुयायी सेवक, भक्त, शिष्य कहने वालों की संख्या हजारों तक पहुँच गई थी। लेकिन भीड़ इक्क्ठी करने से कुछ भी  काम नहीं चला। इसी भीड़ से ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार में भी परहेज़ रहा है ,सदैव समर्पित सहकर्मियों की तलाश रही जिनमें कुछ देने का प्रवृति हो, न कि लेने की। परमहंस निरन्तर व्याकुल रहते थे  कि कम से कम एक व्यक्ति तो ऐसा मिल जाय जिसे अपनी जीवन भर की अर्जित कमाई हस्तान्तरित करके मन  में सन्तोष किया जा सके। बड़ी कठिनाई से वह केवल   एक ही  विवेकानन्द ढूँढ़ सकने में सफल हुए। जब सत्पात्र मिल गया तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा, ठिकाना तो क्या वह तो ख़ुशी से नाचने झूमने लगे थे।  शिष्य को कुछ कहने माँगने की आवश्यकता न पड़ी। गुरु का अजस्र अनुदान बरसता ही चला गया। छत्रपति शिवाजी को समर्थ गुरु रामदास ने भोलेपन में या मस्ती की लहर में ही अपना सञ्चित तप उड़ेल नहीं दिया था वरन् अपने हजारों शिष्यों में से ढूँढ़ते-ढूंढ़ते इस हीरे को पाया और जब उनकी मर्जी का पत्थर मिल गया तो ऐसी प्रतिमा गढ़नी आरम्भ कर दी कि उसे देखने वाले अवाक रह गये। शिवाजी की मूर्ति गढ़ने में रामदास को कितनी प्रसन्नता हुई होगी इसका अन्दाज अनुमान कोई बिरला ही लगा सकता है। परम पूज्य गुरुदेव को ढूंढते- ढूढ़ते तो उनके मार्गदर्शक घर तक ही आ गए थे। जब उन्हें ग्रहीता मिल गये तो दादा गुरु ने सारा जीवन उनको कैसे तराशा ,हम सब जानते हैं। 

लाटरी पाने के इच्छुक कितने ही रहते हैं, किसी अमीर के दत्तक (गोद लिए हुए ) पुत्र बनने की कितनों की ही इच्छा रहती है, धनीमानी के घर जन्म लेने  वाले बच्चे भाग्यवान माने जाते हैं क्योंकि उन्हें सहज ही उतना बड़ा उत्तराधिकार, सम्पदा मिल जाती है जितने का उपार्जन सम्भवतः वे कठोर श्रम करते हुए भी जिन्दगी भर में कमा न पाते। अध्यात्म क्षेत्र में भी इस प्रकार के सुख-सुविधा भरे अनुदान की पूरी-पूरी गुंजाइश है, लेकिन यह उपलब्धियाँ अनायास ही नहीं मिल जातीं। इनके लिए तप करना पड़ता है। अन्न से कोठे भर लेने में सफलता प्राप्त करने वाले किसान को एक वर्ष तक सर्दी-गर्मी, वर्षा का प्रहार, प्रकोप सहते रहने की,रात और दिन में अन्तर न करने की कठोर श्रम से पसीना  बहाने की साधना करनी पड़ती है। इस तप साधना के वरदान स्वरूप ही उसे अन्न, धन से सुसम्पन्न बनने का अवसर मिलता है। विद्यार्थी सारा मनोयोग समेट कर पाठ्य पुस्तकों में तन्मय हो जाता है। दस वर्ष तक उसी लक्ष्यवेध में एकाग्र रहता है, तब कहीं स्नातक बनने का सम्मान और उस आधार पर उच्च पद प्राप्त करता है। फल और फलों से लदा बगीचा देखने की आशा  में माली लम्बी अवधि तक अपने प्रयास में जुटा रहता है। वरदान प्राप्त करने वाले सौभाग्यशाली लम्बी अवधि तक तप करते हैं। इस सनातन प्रक्रिया का और कोई विकल्प नहीं। पात्रता की परीक्षा दिये बिना विभूतियों का वरदान जो प्राप्त कर सका हो, ऐसा व्यक्ति कहीं भी, कोई भी, कभी भी नहीं हुआ।

जिस प्रत्यावर्तन अनुदान की बात यहाँ पर हो रही है वह साधारण नहीं असाधारण है। इसे गुरुदेव की आकाँक्षा, अभिलाषाओं का सार तत्व कहना चाहिए। वह  अपने वर्तमान कार्य क्षेत्र से ऊँचे उठकर अधिक व्यापक, अधिक महत्वपूर्ण लेवल की बात कर रहे हैं । जो कार्य अब तक वे स्वयं करते रहे हैं उसकी जिम्मेदारियाँ दूसरों के कन्धों पर डालना चाह  रहे थे लेकिन  यह  तभी संभव  हो सकता है, जब उसी लेवल  के दूसरे व्यक्ति सामने आयें, जिस लेवल के  गुरुदेव स्वयं थे। गुरुदेव जितने बड़े कार्य कर सके वह उनके व्यक्तित्व की गरिमा के कारण ही सम्भव हो सका। हल्के  स्तर के लोग उतने बोझ से चरमरा जाते। आगे जो उतना बोझा उठा सके, उसका स्तर भी गुरुदेव जितना ही होना चाहिए। यह कैसे सम्भव हो, वे इसी के लिये बेतरह बेचैन थे। उनकी एक ही महत्वाकाँक्षा थी कि अपने जैसे 100 व्यक्ति पीछे छोड़कर जायें ताकि वह प्रवाह और भी अधिक तीव्र गति से बह चले जिसे वे भागीरथ की भांति  तप करके गहन cavity  से छोटे रूप में बहा कर यहाँ तक लाये।

To be continued.

इन्ही शब्दों के साथ अपनी लेखनी को आज के लिए विराम देते हैं और आप देखिये 24 आहुति संकल्प सूची। हर बार की तरह आज का लेख भी बहुत ध्यान से तैयार किया गया है, फिर भी अनजाने में हुई गलती के लिए क्षमा प्रार्थी है। सूर्य की प्रथम किरण आपके जीवन को ऊर्जावान बनाये जिससे आप गुरुकार्य में और भी शक्ति उढ़ेल सकें।

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20 जुलाई   2022, की 24 आहुति संकल्प सूची: 

(1 ) संध्या कुमार-27  , (2 ) अरुण वर्मा-40  , (3 ) सरविन्द कुमार-26, (4 ) संजना कुमारी-27, (5 ) रेणु श्रीवास्तव-26     

इस सूची के अनुसार अरुण वर्मा जी   गोल्ड मैडल विजेता हैं, उन्हें   को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनको हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद।

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