वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आइए ईश्वर से वार्तालाप करें ,स्वर्ग-नरक सब यहीं पर है।

28 जून 2022 का ज्ञानप्रसाद-आइए ईश्वर से वार्तालाप करें -स्वर्ग- नरक सब यहीं पर है।  

आज का ज्ञानप्रसाद इतना काम्प्लेक्स है कि इसे किसी शब्द सीमा या लेख सीमा में बांध पाना कठिन ही नहीं असंभव है। हर किसी की अपनी व्यक्तिगत धारणा है, विश्वास है,आस्था है। सैकड़ों ग्रन्थ इस विषय पर प्रकाशित हो चुके हैं लेकिन हम अखंड ज्योति और कुछ सीमित गूगल लिंक्स  को ही आधार मानकर आने वाले लेखों पर चर्चा करेंगें। हमारे सहकर्मियों का बहुत ही सहयोग रहेगा क्योंकि कमैंट्स तो एक assignment की तरह हैं हीं लेकिन उन कमैंट्स का  ज्ञान एक group discussion का रूपांतरण  है।  

लेख आरम्भ करने से पूर्व बताने चाहेंगें कि आज  आदरणीय ईश्वर शरण पांडेय जी से फ़ोन करके पता चला कि आदरणीय इंदुरानी जी घर आ गयी है लेकिन ऑक्सीजन पर ही हैं। स्थिति बहुत ही गंभीर है और गुरुसत्ता के आशीर्वाद की ही आशा की जा रही है, शायद कोई चमत्कार हो जाये। 

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स्वर्ग और नरक नाम के कोई नगर, ग्राम देश या स्थान कही भी नहीं है। सौरमण्डल के ग्रह-उपग्रहों को खोज लिया गया है। इस निखिल ब्रह्माण्ड के तारकों, महासूर्यों और आकाश गंगाओं की विशाल  जानकारियों में अब तक ऐसे किसी लोक के अस्तित्व की सम्भावना नहीं दिखती। 

तो क्या स्वर्ग-नरक का अस्तित्व मात्र कल्पना भर है ? इतना बड़ा ग्लोब है। आखिर कहीं तो स्वर्ग नगरी होती होगी, हमने कुछ समय पूर्व एक लेखशृंखला  भी लिखी थी जिसका शीर्षक था “क्या स्वर्ग इस धरती पर ही था ?” 28 मार्च 2022  को सम्पन्न हुई 9 भागों की इस लेख श्रृंखला में हमने हिमालय के कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों का विस्तृत वर्णन किया था। गंगोत्री ,यमनोत्री, बद्रीकैलाश आदि इन स्वर्गीय क्षेत्रों  को आज के लेख से कनेक्ट करने का प्रयास करें तो शायद संभव न हो पाए क्योंकि इन स्थानों की स्वर्गीय अनुभूति, जिसे नकारना शायद संभव न हो, किसी अन्य सन्दर्भ में चित्रित की गयी थी। अवश्य ही इन स्थानों पर देवताओं का वास होता होगा यां अभी भी है, लेकिन एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि हम में से किसी ने भी कभी  साक्षात् भगवान के दर्शन किये हैं। समय -समय पर भगवान अलग- अलग रूपों में इस धरती पर आकर मानव का कल्याण करते रहे हैं, कभी मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु  श्रीराम के रूप में तो कभी बांकेबिहारी मुरली मनोहर के रूप में। भगवान का वास स्वर्ग में होता है यां ऐसा कहें कि जहाँ भगवान वास करते हैं स्वर्ग वहीँ स्थापित हो जाता है। बचपन से हमारे माता पिता, हमारे बुज़ुर्ग हमें भगवान के दर्शन करने के लिए मंदिरों में लेकर जाते रहे हैं और एक अबोध बच्चे की तरह हम उन सुन्दर- सुन्दर प्रतिमाओं में भगवान को ढूंढते आये हैं। सदैव यही जिज्ञासा रही कि इन प्रतिमाओं में से कभी न कभी तो भगवान प्रकट होकर निकल आयेंगें और यहीं पर होगा स्वर्ग एवं भगवान् का निवास । हम तो ठहरे अबोध,अनजान लेकिन विश्वगुरु स्वामी विवेकानंद जिन्होंने समस्त विश्व को ज्ञान दिया, अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस को यही जिज्ञासा भरा प्रश्न था “ क्या आपने भगवान् को देखा है ?” अर्जुन भी भगवान् से कुछ इसी प्रकार का आग्रह कर रहा था कि मुंझे भगवान का दर्शन करना है। इस पर भगवान्  कहते हैं कि इन चर्मचक्षुओं से तो संभव नहीं है। इसके लिए दिव्य चक्षु चाहिए।  भगवान् ने अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान किए, उसी के प्रभाव से अर्जुन ने एक विराट विश्व ब्रह्माण्ड के दर्शन किये। दिव्य चक्षु अर्थात दिव्य दर्शन, तत्वदर्शन और विवेक। अगर हमारे पास उस स्तर का विवेक है, तत्वज्ञान है तो हम भी प्रतक्ष्य ईश्वर को देख सकते हैं और जान सकते हैं कि यह विश्व उसी ईश्वर का ही रूप  है और उसके अंतराल में सन्निहित विश्वात्मा की परमात्मसत्ता को  सहज ही “अनुभव” किया जा सकता है। 

कुछ समय पहले तक तो हम भगवान के विराट स्वरूप की केवल कल्पना करते हुए mental picture ही बना सकते थे लेकिन आज टेलीविज़न के युग में  बी आर चोपड़ा जैसे मंझे हुए  डायरेक्टर घर बैठे ही इस विराट ब्रह्माण्ड के दर्शन करवा देते हैं। हमारा रिफरेन्स बहुचर्चित megaserial  महाभारत से है।       

तो हमारे प्रश्न का कुछ उत्तर तो इस प्रकार मिला है कि ईश्वर के दर्शन पाना, ईश्वर से वार्तालाप करना एक कल्पना है, एक भावना है ,एक उच्स्तरीय अनुभव है जिसके लिए ज्ञान एवं दिव्य चक्षुओं का होना बहुत ही अनिवार्य है। कहाँ से आयेंगें दिव्य चक्षु, कौन प्रदान करेगा यह दिव्य चक्षु, कौन कराएगा स्वर्ग की यात्रा- इन्ही प्रश्नों का उत्तर ढूंढने का प्रयास करेंगें आगे आने वाले लेखों में।

एक और बात जो हम सब अनुभव करते आ रहे हैं,हमें पढ़ाई  गयी है ,वह यह  है कि ईश्वर कहीं बाहिर नहीं है। ईश्वर का वास हमारे मन में ही है, हमारे ह्रदय में ही है। आज भी हम शांतिकुंज जाते हैं तो विश्व के एकमात्र मंदिर “भटका हुआ देवता” में  “अहं शिवोहम”  के दिव्य शब्दों को देखकर समझ पाते हैं कि यह मानव विराट ब्रह्माण्ड का ही अंश है ,शिव का ही रूप है। तो फिर हम बाहिर क्या ढूढ़ रहे हैं। जब ईश्वर हमारे  अंदर ही वास कर रहे हैं तो  कहाँ  पे वास् कर रहे हैं ? दिल में ,दिमाग में ,गुर्दे में, किसी और organ में यां सम्पूर्ण शरीर में। 

संत कबीर भी यही कह गए  हैं :   

“मौको कहाँ ढूंढे  है रे बन्दे मैं तो तेरे पास में,

ना तीर्थ  में ना मूर्त  में, ना एकान्त निवास में,

ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काशी कैलाश मेें ,

मौको कहाँ ढूंढे  है रे बन्दे मैं तो तेरे पास में, 

ना मैं जप मे ना मैं तप में, ना मैं व्रत उपवास में ,

ना मैं क्रिया कर्म में रहता, ना ही योग सन्यास, 

मौकोे कहाँ ढूंढे  है रे बन्दे मैं तो तेरे पास में, 

नहीं प्राण में, नहीं पिण्ड में, ना ब्रह्मांड आकाश में, 

ना मैं भृकुटी भंवर गुफा में, सब श्वासन की श्वास में, 

मौको कहाँ ढूंढे  है रे बन्दे मैं तो तेरे पास में, 

खोजि होय तो तुरंत मिलि हौं, पल भर की तलाश में,

कहैं कबीर सुनो भाई साधो, मैं तो हूं “विश्वास” में।,

मौको कहाँ ढूंढे  है रे बन्दे मैं तो तेरे पास में। 

मन मंदिर, दिल एक मंदिर, घर एक मंदिर  जैसे टाइटल से बॉलीवुड ने मूवीज़  भी बनाई लेकिन उन मूवीज़  का वर्तमान प्रसंग के साथ कोई सम्बन्ध है कि नहीं लेकिन यह वाक्य मनुष्य जितनी  आसानी से बोलता है, उसके लिए इन वाक्यों को  जीवन मे उतारना  उतना ही मुश्किल होता है। हम रोज़ सुबह जल्दी उठ कर स्नान करके फल-फूल लेकर मंदिर जाते हैं , लेकिन हम  यह भूल जाते  हैं  कि  यह शरीर भी तो प्रभु ने ही बनाया है और ज्ञानिओं ने इसे एक  एक “मानव मंदिर” कहा  है, एक ऐसा मंदिर जहाँ  आत्मारूपी परमात्मा विराजमान हैं। कहने का अर्थ यह हुआ कि मंदिर जाने से पूर्व भगवान की प्रतिष्ठा हमारे ह्रदय मे होनी चाहिए, जिसका पूजारी मनुष्य स्वयं  है। जिस प्रकार मंदिर का पुजारी  ईंट,मार्बल के मंदिर की  सफाई करता है उसी प्रकार हमारा यह कर्तव्य बनता है कि  यह मानव मंदिर भी  सभी विकारों  से रहित साफ और सुंदर हो। सफाई के बाद ही हमारी  सेवा, पूजा, अर्चना   सार्थक होगी। जब तक ह्रदय में सफाई नहीं होगी मन में  बेठे ईश्वर हमारी प्रार्थना स्वीकार नहीं  करेंगे। जब हम सफाई की बात करते हैं तो यह सफाई  केवल स्नान करके स्वच्छ  कपड़े पहनने तक सीमित नहीं है। हमारे मन की मैल द्वेष, ईर्ष्या  है उसे  साफ करके ईश्वर  के दरबार मे जाना चाहिए। ईश्वर के सामने हमें  खुली किताब की तरह जाना  चाहिए। जिस प्रकार साफ जगह सभी को पसंद आती है, उसी प्रकार मनुष्य के मन की स्वछता भी सभी को पसंद आती है। मन की सफाई दिखाने की हमें ज़रूरत  नहीं पड़ती वह तो खुद दिखाई देती है। अच्छे विचार ही  मन की शुद्धि करते हैं। अच्छे विचार से ही मन पवित्र होता है, और मन मे बसे परमात्मा का हम अनुभव कर सकते हैं ।

अच्छे विचारों का अभ्यास करने के लिए अगर  घर के सभी बड़े-बच्चे एक साथ बैठकर एक-दूसरे को अच्छे विचारों  का महत्व समझायें  तो मन की मैल  को साफ कर सकते हैं। मन में गंदगी  रख कर मंदिरों में शीश झुकाने  की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि परमेश्वर से कुछ छुपा नहीं है, वह  तो सब जानते ही हैं । इसीलिए हमारे इस मानव मंदिर को   जितनी  बाहरी  देखभाल की ज़रूरत  है उससे अधिक  अंदर से  देखभाल की ज़रूरत  है। मन में  प्रेम की आवश्यकता का अपना स्थान है।  जहां  प्रेम होता है वहीँ   प्रभु है। प्रेम न कहीं  पैदा होता है और न कहीं  बिकता है। यदि प्रेम कहीं  पैदा हुआ होता या फिर कहीं  बिकता होता तो कोई भी उसे खरीदा जा  सकता था। प्रेम स्थूल- सूक्ष्म, जड़-चेतन, किसी भी वस्तु,व्यक्ति, या फिर भाव के प्रति कभी भी हो सकता है। प्रेम के बिना मनुष्य का जीवन तथा पशु-पक्षी का जीवन व्यर्थ है। प्रेम रूपी मन ही आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है। यदि हमारा मन प्रेम से भरा होगा तो हमारे अंदर  द्वेष, क्रोध आदि जो शरीर के शत्रु है उनका  हमारे मन पर कोई असर नहीं होगा। जब मन साफ और प्रेम से भरा हो तो शरीर भी प्रफुल्लित रहेगा, और शारीरिक पीड़ा या फिर मानसिक पीड़ा का हमारे जीवन पर कोई असर नहीं होगा। जीवन को सफल बनाने के लिए पवित्र ह्रदय, पवित्र विचार एवं पवित्र आचार करना आवश्यक है, इसी से ही मानसिक शांति और शारीरिक शांति मिलती है।

शुभ कर्मो से मन की शांति मिलती है। शुभ और पुण्य कर्म कभी भी व्यर्थ नहीं जाता। किसी न किसी स्वरूप मे हमे अच्छे कर्मो का फल अवश्य मिलता है। इसीलिए हमें  शुभ और पुण्य कर्म करने  चाहिए। जब हम कर्म करने के लिए स्वतंत्र है, तो फिर बुरे कर्म करके उसका बुरा फल क्यों भोगें।  इस के बदलेमें  हमें  हमेशा मीठे फल मिलें, अच्छे और पुण्य कर्म करके इस जीवन को धन्य और सफल बनाना चाहिए। हमारा शरीर एक खेत है, हमारा मन कृषक, और पाप-पुण्य बीज हैं । इस में  हम जैसे  बीज डालेंगे वैसे ही बीज पकेंगे। इसी तरह से हम जैसे  कर्म करेंगे, फल भी वैसा ही मिलेगा। जो कोई बुरे कर्म करके सुख की इच्छा रखता हो तो वो कैसे मिलेगा? जब  बीज ही बबूल का  बोया है तो कांटे ही मिलेंगे, उस पर आम नहीं उगेंगे।

क्रमशः जारी

To be continued 

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27  जून  2022  की 24 आहुति संकल्प सूची: 

(1 ) संध्या कुमार-25, (2 ) अरुण वर्मा-26, (3 ) सरविन्द कुमार-31, (4 ) रेणु श्रीवास्तव -28     

इस सूची के अनुसार सरविन्द कुमार जी गोल्ड मैडल विजेता हैं, उन्हें हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनको हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद।


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