वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव के जीवन की पहली गुरुदीक्षा 

23 मई 2022 का ज्ञानप्रसाद -गुरुदेव के जीवन की पहली गुरुदीक्षा 

लेख का आरम्भ करने से पहले ही हम अपने सहकर्मियों से क्षमाप्रार्थी हैं कि शब्द सीमा के कारण 24 आहुति संकल्प सूची प्रकाशित नहीं की जा सकी । आज का ज्ञानप्रसाद चेतना की शिखर यात्रा 2 पर आधारित गुरुदेव के जीवन की पहली गुरुदीक्षा के बारे में है। आइए हम सब इस लेख की दिव्यता का अमृतपान करें।

*********************** 

तपोभूमि मथुरा की प्राणप्रतिष्ठा में परमपूज्य गुरुदेव ने घोषणा की कि अभी तक उन्होंने किसी को गुरु के नाते दीक्षा नहीं दी है। अभी तक वह केवल सत्यधर्म की दीक्षा ही देते आए हैं। अब अगले दिन प्रातः वह “अपने जीवन की पहली गुरुदीक्षा देंगे। जो लेना चाहें, वे उस दिन उपवास रखें। स्वयं वे भी निराहार रहेंगे “ तथा अपने समक्ष साधकों को बिठाकर यज्ञाग्नि को साक्षी मानकर दीक्षा देंगे। दीक्षा का यह प्रारंभिक दिन था व इसके बाद अनवरत क्रम चल पड़ा। गुरुदेव ने यही दिन दीक्षा के लिए क्यों चुना। ऐसा एक साधक ने पूछा था और उन्होंने कहा कि 24 लाख के चौबीस महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति व चौबीस दिन के जल- उपवास की समाप्ति पर उनमें अब पर्याप्त आत्मबल का संचय हो चुका है तथा अब वह अपनी परोक्षसत्ता के संकेत पर अन्यों को अपने मार्ग पर चलने की विधिवत् आध्यात्मिक प्रेरणा दे सकते हैं। ब्रह्मवर्चस् संपन्न गुरुदेव ने पूर्णाहति के अगले दिन से दीक्षा देना आरंभ किया। परमपूज्य के माध्यम से उनके महानिर्वाण तक स्थूल एवं सूक्ष्म रूप में लगभग पाँच करोड़ से अधिक व्यक्ति ज्ञानदीक्षा, प्राणदीक्षा, संकल्पदीक्षा आदि ले चुके थे। गुरुदेव ने कहा कि आदिशक्ति की प्राणप्रतिष्ठा के साथ “प्रथम मंत्र दीक्षा” भी यहीं संपन्न होगी। वहां गिने चुने लोग ही थे। वे कौतूहल से देखने लगे कि प्रथम दीक्षा किसे मिलती है? वेदमाता की प्रतिमा के सामने आराधना व्यवस्था देख रही वंदनीय माताजी इस घोषणा के सुनते ही यज्ञशाला में आ गई थीं। उन्होंने कहा, 

“मैं आपकी प्रथम शिष्य होने का सौभाग्य प्राप्त करना चाहती हूँ। आपकी अर्धांगिनी होने के नाते यह मेरा विनम्र अधिकार भी है।”

माता जी ने शांत, संयत और संतुलित भाव से अपनी बात कही थी। वहां बैठे और आसपास खड़े, यज्ञ के प्रबंध में लगे लोग उनकी बात सुन कर जहां के तहां स्थिर हो गए। माता जी का यह निवेदन अचानक सा था। लोग समझ रहे थे कि पहले से कोई सूची बनी होगी। उसके अनुसार बारी-बारी से नाम लिया जाएगा और मंत्र दीक्षा होगी। कुछ लोग घोषणा से इसलिए भी सन्न रह गए कि उन्हें माता जी पहले से ही दीक्षित लग रहीं थीं। अमरेली से आये निरंजन भट्ट ने कहा भी था कि माता जी तो पहले ही मंत्रदीक्षा ले चुकी होंगी। हम लोग यही समझ रहे थे। कितनी आश्चर्य की बात है। 

अभिनव आरंभ :

परमपूज्य गुरुदेव ने यज्ञ भगवान और गायत्री माता को इस दीक्षा के अधिष्ठातृ देव और शक्ति बताया। कहा कि 

“आज का आयोजन आरंभ है। इसके बाद दीक्षा, साधना, व्रत, दक्षिणा और आत्मकल्याण के मार्ग पर साधकों को अनवरत प्रवेश मिलता रहेगा। माता जी लौकिक दृष्टि से हमारी धर्मपत्नी हैं लेकिन असल में वे मातृसत्ता की प्रतिनिधि हैं। धर्मपत्नी के रूप में उनके लौकिक दायित्व पूरे हए। वह और हम अपनी मार्गदर्शक सत्ता के संकेतों निर्देशों का पालन करते हुए ही महाकाल की आराधना करेंगे। यहां उन्होंने दीक्षा ली। यह ठीक है। उन्होंने हमें गुरु के स्थान पर चुना। वह हमारे लिए श्रद्धा और वात्सल्य का साकार रूप है। जिस तरह आप उन्हें माता के रूप में देखते है, हमारे लिए भी वे मां के समान ही हैं।”

गुरुदेव ने इस घोषणा के बाद यज्ञशाला के बाहर व्यवस्था में लगे एक कार्यकर्ता को ‘पहाड़ियाजी’ नाम लेकर पुकारा। वह कार्यकर्ता पुकार सुनते ही हाथ का काम दूसरे को सौंप कर दौड़ते हुए यज्ञशाला में आये। पहाड़िया जी उस समय गेट के पास बनी कुइयां से पानी खींच रहे थे। यह पानी वहाँ आये साधकों के लिए भोजन बनाने और पीने के काम आता था। लोगों ने पिछले तीन दिन से उन्हें सुबह शाम इसी काम में निरत देखा था। न प्रवचन सुनने गये, न यज्ञ अग्निहोत्र में बैठ पाये। हर घड़ी वह पानी के इंतजाम में ही लगे रहे। यह पहला अवसर था जब उन्होंने अपना काम छोड़ा और उस जगह से हटे।

गुरुवर ने कहा, 

“आओ पहाड़ियाजी। तुम भी दीक्षा लो। यहां आकर बैठो।” 

उन्होंने यज्ञकुंड के पास की जगह का इशारा किया। पहाड़िया जी वहां बैठ गये। यज्ञशाला की परिक्रमा पार करते हुए उनके हाथ गुरुदेव की ओर प्रणाम की मुद्रा में जुड़े हुए थे। बैठते हुए भी करबद्ध ही थे। पवित्रीकरण आचमन आदि षटकर्म संपन्न करते हुए उन्होंने ‘ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति’ आदि मंत्र सुने, आशीर्वाद ग्रहण किया और आचार्यश्री से व्रत लेकर शेष जीवन उन्हीं के काम में लगाने का संकल्प लिया। 

व्रतेन दीक्षामाप्नोति का अर्थ है मनुष्य को उन्नत जीवन की योग्यता व्रत से प्राप्त होती है, जिसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा से दक्षिणा यानि जो कुछ किया जा रहा है, उसमें सफलता मिलती है। इससे श्रद्धा जागती है और श्रद्धा से सत्य की यानि जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति होती है, जो उसका अंतिम निष्कर्ष है।

आचरण की शुद्धता को कठिन परिस्थितियों में भी न छोड़ना, निष्ठापूर्वक पालन करना ही व्रत कहलाता है। वस्तुतः विशेष संकल्प के साथ लक्ष्य सिद्धि के लिए किए जाने वाले कार्य के नाम व्रत है।

पहाड़िया जी का पूरा नाम बद्री प्रसाद पहाड़िया था और वह बांदा (UP) के निवासी थे। पिछले 15 वर्ष से वह गुरुदेव के साथ थे। साथ क्या थे, उनके बताये काम कर रहे थे। प्राण प्रतिष्ठा समारोह से वर्ष भर पहले वह तीर्थों की यात्रा पर निकल पड़े थे। यात्रा का उद्देश्य था-गायत्री मंदिर के लिए वहां का जल और रज संग्रह करना था। बहुत से अन्य लोग भी इस काम में जुटे थे लेकिन वे अपने आसपास के तीर्थों से ही संचय करके आये थे। पहाड़िया जी ने 500 से अधिक तीर्थों का जल और वहां की रज को इकट्ठा किया था। बांदा के इस कार्यकर्ता ने वर्षों पहले पारिवारिक दायित्वों से लगभग विराम ले लिया था। सन् 1944 में उनकी पत्नी का निधन हो गया। तब उनकी आयु करीब 35 वर्ष रही होगी। स्वजन संबंधियों ने सलाह दी कि दूसरा विवाह कर लें। अभी उम्र हुई ही क्या है? सभी तरफ से आते आग्रह ने पहाड़िया जी के मन में दूसरा विवाह करने की इच्छा जगा दी। निश्चय तो नहीं किया, लेकिन मन करने लगा कि अभी आधा जीवन शेष है। बचपन के 15 वर्ष अबोध या किशोरावस्था के कच्चे खाते में डाल दें तो जीवन देखी ही क्या है? घर- गृहस्थी का जितना सुख देखा है उससे दो गुना समय अभी बाकी है। पहाड़िया जी इस हद तक सोचने के बाद फिर सकुचा भी जाते थे। मन का एक कोना उन्हें सचेत कर देता। दूसरी दिशा में सोचने लगते। थोड़ी देर बाद फिर मन का पेंडुलम उल्टी दिशा में घूमने लगता। करीब एक माह भर तक मन झूलता रहा। द्वन्द्व से बाहर आने और किसी नतीजे पर पहुँचने के लिए वह गुरुदेव के पास गए। वहां से दिशा मिली कि दूसरा विवाह नहीं करें। अपना शेष जीवन समाज के लिए लगायें। इस परामर्श को आदेश की तरह मान कर उन्होंने पलट कर नहीं देखा। इससे पहले वह कुछ दिन राजनीति में भी सक्रिय रहे थे। गुरुदेव ने उसका विरोध किया तो शांतिकुंज की स्थापना के बाद पहाड़िया जी स्थाई रूप से यहीं आकर बस गये थे। अंतिम समय तक वे आश्रम के भोजनालय की व्यवस्था में जुटे रहे थे। 

दीक्षा और यज्ञोपवीत संस्कार का विरोध: 

पहाड़िया जी के बाद गुरुदेव ने और लोगों को भी दीक्षा दी। संख्या की दृष्टि से तब बहुत लोग नहीं थे। वहां आये साधकों ने अपने छोटे बच्चों के यज्ञोपवीत संस्कार भी कराये। यज्ञशाला में 18 किशोरों के संस्कार हुए। सामूहिक यज्ञोपवीत संस्कार का चलन नया नहीं था। महामना मदन मोहन मालवीय 30-35 वर्ष पूर्व इस तरह का अभियान छेड़ चुके थे। मथुरा में इस तरह की पहल नई थी। नई नहीं रही हो तो भी विरोध के लिए काफी थी। शहर में जैसे ही पता चला कि गायत्री मंदिर में सामूहिक यज्ञोपवीत हो रहा है, तीन पंडित दौड़े चले आये। उनकी अपनी कोई सामर्थ्य या प्रतिष्ठा नहीं थी। छत्ता बाजार और विश्रामघाट के पास दो मंदिरों में पूजा पाठ करते थे। आते ही उन्होंने बवाल मचाने की कोशिश की। चिल्लाने लगे धर्म भ्रष्ट कर दिया। यज्ञोपवीत क्या इस तरह दिया जाता है? रोको रोको! वे शोरगुल मचा रहे थे कि सत्यदेव नामक एक युवा गायत्री मंदिर से बाहर निकला। उसने तीनों पंडितों से कुछ पल के लिए चुप हो जाने को कहा। यह भी कहा कि अपनी बात कहने के बाद मैं भी तुम लोगों के साथ हो जाऊंगा। पंडित पुजारी चुप हुए तो सत्यदेव ने कहा, 

“आप लोग तो हैं मंदिर के पुजारी। पूजा पाठ और कर्मकांड से ही अपनी गाड़ी चलाते हैं। इस ब्राह्मण (गुरुदेव) ने 24 वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ पर रहकर तप किया है। इससे क्या होड़ लेंगे? शोरगुल मचाएंगे तो समाज के समझदार लोग इसी ब्राह्मण की बात में वजन देखेंगे।”

सत्यदेव ने इसके बाद दूसरे ढंग से समझाया। कहा कि ज्यादा शोरगुल मचाने पर यहां पिट जाने का डर भी है, हज़ार साधक बाहर से आये हुए हैं। कौन तुम्हें मारपीट जाएगा पता ही नहीं चलेगा। वे तुम्हें सबक सिखाकर शाम को ही खिसक जाएंगे। क्यों अपनी शामत बुलाते हो? यह नसीहत काम कर गई। बवाल मचाने वाले तीनों लोग वहां से चुपचाप खिसक गये। 

शाम को वृंदावन के गोस्वामी शरण बिहारी, स्वामी परमानंद, पंडित चतुरानन, गोविंद शर्मा आदि आए। उन्होंने भी सामूहिक यज्ञोपवीत पर आपत्ति की। कहा कि यज्ञोपवीत का एक विधि विधान है। कम से कम तीन दिन तक समारोह होता है। धूमधाम से संस्कार कराया जाता है। उससे बटुक को उपवीत का महत्त्व पता चलता है। वह मर्यादा समझता है और प्राणपण से उसे निबाहता है। गुरुदेव ने इन आक्षेपों का निराकरण दो टूक शब्दों में कर दिया। उन्होंने कहा,

“वैसी धूमधाम से कितने लोग संस्कार करा पाते हैं। ब्राह्मणों में भी उसका चलन घटता जा रहा है जबकि यज्ञोपवीत सनातन धर्म मानने वालों का प्रतीक चिह्न है,उनकी पहचान है। हम कोई आसान उपाय नहीं खोजेंगे तो यज्ञोपवीत परम्परा ही लुप्त हो जाएगी। सामूहिक दीक्षा का प्रचलन पहले भी रहा है। आश्रमों में ऋषि जब बालकों को अपने संरक्षण में लेते थे। उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार करते थे, तब सैंकड़ों छात्रों को एक साथ उपवीत धारण कराया जाता था। हमें उस परंपरा को अपनाने से हिचकना नहीं चाहिए।” 

गुरुदेव की इन बातों ने विद्वानों को निरुत्तर कर दिया। उन्हें इस समाधान को काटने के लिए कोई तर्क नहीं सूझ रहा था। इसलिए वे चुप हो गये। उनके चेहरे पर विरोध और द्वेष के भाव साफ झलक रहे थे। चलते चलते गुरुदेव ने कहा कि आप हमारी पद्धति में कहीं कोई दोष हो तो बताइए। आपके हमारे बीच मतभेद हो सकते हैं लेकिन उद्देश्य दोनों के समान हैं -सनातन धर्म का पुनरुद्धार। 

उठते उठते उन्होंने कहा कि उद्देश्य तो सही है लेकिन मार्ग शास्त्र सम्मत भी तो होना चाहिए न, इस बारे में चर्चा के लिए हम शीघ्र ही मिलेंगे।

हम अपनी लेखनी को यहीं विराम देने की आज्ञा लेते हैं धन्यवाद् जय गुरुदेव।

Advertisement

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s



%d bloggers like this: