वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव द्वारा किये गए दो जल उपवास की विस्तृत जानकारी 5

10 मई 2022 का ज्ञानप्रसाद-गुरुदेव द्वारा किये गए दो जल उपवास की विस्तृत जानकारी 5 

आज के ज्ञानप्रसाद में पढ़ने को बहुत कुछ रोचक  तो मिलेगा ही लेकिन हम यह भी देखेंगें कि  अरणि मंथन से प्रकट की गयी अग्नि ने पंड्या जी की शंका का निवारण तो किया ही, वहां बैठे सभी की आँखें खुली की खुली रह गयीं थीं। आज के लेख का समापन मौनी बाबा के तांडव नृत्य से होगा। दिव्य आत्मा गायत्री साधक  मौनी बाबा पर आधारित Full length लेख कल का ज्ञानप्रसाद होगा। लेख की लम्बाई को देखते हुए हमें शंका है कि हम किसी प्रकार की  भूमिका लिख पायेंगें। इंटरनेट पर मौनी बाबा नाम से कई entries appear होती हैं इसलिए  सही जानकारी प्राप्त करने के लिए  सावधानी बरतने की आवश्यकता है। 

इन्ही शब्दों के साथ आइये चलें आज की पाठशाळा में। 

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जून के तपते दिन थे। सुबह से ही सविता देव अपनी प्रखरता बिखेर रहे थे। उनका उदय हुए अभी कुछ ही मिनट हुए होंगे। पूर्व दिशा में उठते हुए उन्होंने थोड़ा झांका ही था, जैसे वह भी अरणि मंथन से अग्नि प्रकट होने के साक्षी बनना चाह रहे हों। सबसे पहले  सिद्धलोक से लाई अग्नि प्रज्वलित की गयी। आचार्यश्री ने मुख्य कुंड के नैऋत्य (Southwest) दिशा में  स्थित कुंड पर अपना आसन लगाया। बांई ओर माताजी बैठी। प्रत्येक कुंड पर दो-दो दंपत्ति बैठे थे। आचार्यश्री और माताजी, दोनों ने शमी और पलाश की सूखी हुई लकड़ियां पकड़ी। हाथ बढ़ा कर कुंड तक पहुँच गये थे। कुंड में रची गई समिधाओं से हाथ की समिधा का स्पर्श कराया और ऋग्वेद के प्रथम मंडल के प्रथम सूक्त का पाठ करने लगे। पाठ करते-करते ही उन्होंने लकड़ियों को रगड़ा। लोग उत्सुक हो कर देख रहे थे। अरणियों के रगड़ते ही कुछ पल के लिए लपट उठी। चकमक पत्थर की रगड़ और पेट्रोल से अचानक जल उठने वाले लाइटरों से जैसी लौ उठती है, वैसी ही छोटी सी लौ निकली थी। 

चकमक पत्थर का नाम सुनते ही हमारी स्मृति लगभग 6 दशक पीछे चली गयी जब हमें स्कूल में विज्ञान की बेसिक कक्षाओं  में Friction के प्रयोग पढ़ाये जाते थे। हमें याद आ गया कि यह वही पत्थर है जिसे हमारे टीचर Flint कहकर, रगड़ कर चिंगारिया निकालते  थे। जब तक दियासिलाई का अविष्कार नहीं हुआ था इन्ही पत्थरों को रगड़ कर आग पैदा की जाती थी।  

जब गुरुदेव द्वारा रगड़ से लपट निकली और उपस्थित लोगों ने देखा तो उनकी आंखें खुली की खुली रह गईं। वे खुले  नेत्रों से देखते चमत्कृत हो गए। लकड़ियों से प्रकट हुई शिखा ने अग्निकुंड में रखी समिधाओं का स्पर्श किया होगा कि लपटें चेत गईं। उसके तुरंत बाद घृत की आहुतियाँ दी गई।

अखंड अग्नि की स्थापना के बाद अरणि मंथन के प्रयोग में ही कर्मकाण्ड दोहराये गये। अब प्रमुख कुंड पर आचार्यश्री और माताजी बैठे। दूसरे कुंडों पर चार-चार दंपत्ति बिठाये गये। उस दृश्य को देखकर लोग अत्यंत प्रभावित हुए थे। जो साधक उस  पहली पारी में नहीं बैठ पाये थे, वे भी यज्ञशाला के बाहर खड़े इक्क्ठे स्वरों में निर्धारित वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। सूर्योदय से पहले आरंभ हुआ यज्ञ करीब सवा दो घंटे चला।

अखण्ड अग्नि की स्थापना और तीन दिन तक चलने वाले समारोह में यज्ञ अग्निहोत्र का पहला सत्र पूरा होने के बाद मंदिर में साधना उपचार चले। गायत्री मां की प्रतिमा अभी ढकी हुई थी। वहां घी का पंचमुखी दीपक जलाया गया। घियामंडी में अखंड ज्योति की भांति पंचमुखी दीपक की देखभाल भी माताजी के ज़िम्मे ही थी। दीप भी उन्ही ने जलाया। थोड़े से कार्यकर्ता साधकों की उपस्थिति में चर्चा करते हुए माताजी ने शेष तीन दिन के कार्यक्रम बता दिये थे। कार्यक्रमों की सामान्य रूपरेखा तो पहले ही बताई जा चुकी थी। माताजी ने साधना उपासना से संबंधित कार्यक्रमों के बारे में बताया। प्राण प्रतिष्ठा समारोह में साधकों के लिए खिचड़ी और दलिये का प्रबंध किया गया था। माताजी जब भोजन के बारे में बता रही थी तो साधकों ने कहा कि इसकी क्या आवश्यकता है, सभी लोग तो उपवास कर रहे हैं। माताजी ने कहा: 

“एक समय का भोजन भी उपवास की श्रेणी में आता है। साधकों को इन तीन दिनों में काफी भागदौड़ करना है। इसलिए पूर्ण निराहार कोई न रहे।” 

साधकों ने उस निर्देश को चुपचाप मान लिया। मंदिर के सामने साधकों ने अखण्ड जप शुरु किया। चौबीस-चौबीस साधकों की पारियाँ बनाई गई। समारोह में महिलाएँ भी बड़ी संख्या में आई थीं। कुछ रुढ़िवादी लोगों के लिए यही बड़े आश्चर्य की बात थी कि जिस गायत्री मंत्र को वे सिर्फ पुरुषों के लिए ही आराध्य मानते थे, उसका जप महिलाएं करें। गायत्री मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में वे बराबरी से हिस्सा लें, यह भी उनके लिए आश्चर्य का एक कारण था। महिलाएं भी मंदिर के सामने अखंड जप में बैठी थीं। 

खुले में आवास:

साधकों को ठहराने के लिए धर्मशाला में व्यवस्था की गई थी। लेकिन प्रायः सभी ने मना कर दिया। गायत्री मंदिर और यज्ञशाला के बीच का स्थान और पास की बगीचियों से अच्छा कोई स्थान उन लोगों को सूझ नहीं रहा था क्योंकि आचार्यश्री का सानिध्य जो मिल रहा था। खुले में सोना खतरे से खाली नहीं था। वृंदावन मार्ग की वह जगह निर्जन में पड़ती थी। निर्जन होना समस्या नहीं थी। ढाई तीन सौ लोग जहाँ हों, वह जगह अपने आप जन संकुल हो जाती थी। मुख्य समस्या उपद्रवी अराजक तत्वों की संभावित शरारतें थीं। वे परेशान करने के लिए कुछ भी कर सकते थे। ।

पहले दिन ही उनके कारनामे सामने आए। सोये हुए साधकों के बीच में तीन चार उठाईगीर घुस आए। शाम नौ बजे तक भजन कीर्तन और प्रवचन आदि चलते रहे। बाद में जब साधक सोने लगे तो उठाईगीर लोग भी उनके बीच में जा पसरे। साधकों को जैसे ही नींद लगी, वे हाथ की सफाई दिखाने लगे। ज्यादा कुछ हाथ साफ नहीं कर पाये, क्योंकि साधकों ने नकदी और मूल्यवान वस्तुएं कार्यालय में जमा कर दी थीं। उनके पास रोजमर्रा के लिए काम चलाऊ कुछ रुपये और कपड़े लत्ते ही बचे थे। लेकिन चोर भी अपनी तरह के ही थे। उन्होंने कपड़ों को भी नहीं बख्शा। चार पांच लोगों के कपड़े और पास में जो नकदी थी वह ले उड़े। सुबह पता चला तो बात फैल गई। लेकिन इस घटना को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। जिनका सामान गया था उनमें से एक राममूर्ति दीक्षित से आचार्यश्री ने पूछा कि आपका जो नुकसान हुआ है, बताइए। गायत्री मंदिर से मदद करायेंगे।

राममूर्ति दीक्षित ने उत्तर दिया, “गायत्री मंदिर से मदद क्यों कराएंगे साहब। हम माखनचोर की नगरी में आए हैं। यहाँ मदद  की उम्मीद क्यों करें? माखनचोर की मण्डली  ने ही  अपना सहज कर्म किया है।” 

इतना कह कर दीक्षित और दूसरे लोग फी-फी कर हंस दिये। बात आई गई हो गई। किसी ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाने की बात छेड़ी। एक दूसरे साधक जगतसिंह का कहना था कि गया हुआ सामान वापस आने से रहा, पुलिस आयेगी,अपने ही भाईयों से पूछताछ करेगी। थोड़ी देर के लिए ही सही, रंग में भंग तो होगा ही। बात इससे आगे नहीं बढ़ी। चोरी की घटना पर अफसोस वहीं पूरा हो गया। उस रात साधक सावधान होकर सोये। उन्होंने बारी-बारी से पहरा भी दिया। 

शाम के सांस्कृतिक कार्यक्रम में यह घटना एक अलग ढंग से शामिल हुई। स्वामी प्रेमानंद ने अपने व्याख्यान में इसका जिक्र किया। उन्होंने कहा राम जब वनवास में थे तो वहाँ के कोल भील जाति के परिजन  उनके दर्शन करने आये। उनमें कुछ लोग व्यवसाय से चोर लूटेरे  भी थे। आर्थिक दृष्टि से वे बहुत दरिद्र थे। राम की महिमा सुनकर वे बोले, ‘हमारे पास आपकी सेवा के लिए कुछ नहीं है। लेकिन हम आपकी सेवा ज़रूर  करना चाहते हैं। बहुत सोच विचार के बाद एक ही बात सूझी है कि हम लोग आपके यहाँ चोरी नहीं करेंगे। हमारी ओर से यही बड़ी सेवा होगी। 

“नाथ हमार यही सेवकाई, किए न बासन वसन चुराई।’ अपने क्षेत्र में आये लोगों को हम बखाते नहीं हैं।”

सुनकर भगवान मुसकराये बिना न रह सके। प्रवचन सुन रहे लोग भी खिलखिलाकर हंस दिये। 21 जून की शाम को मंच पर मौनी बाबा ने ‘तांडव नृत्य’ प्रस्तुत किया। यह एक सांस्कृतिक कार्यक्रम था। लेकिन बहुत सजीव था। मौनी बाबा आश्रम धर्म के अनुसार गृहस्थ थे। उनका असली नाम पंडित दुर्गाप्रसाद था लेकिन मौन उनकी जीवनचर्या में शामिल हो गया था। वे रविवार को मौन व्रत रखते थे, सूर्योदय और सूर्यास्त के समय भी एक घड़ी (करीब चौबीस मिनट) मौन रखते थे, भोजन के समय भी नहीं बोलते थे। उन्होंने एक नियम यह भी बना रखा था कि कोई बात बुरी लगेगी या किसी स्थिति में गुस्सा आयेगा तो उसे बोलकर व्यक्त नहीं करेंगे। शोक, विषाद और रोष के क्षणों में चुप रह जायेंगे। अपने इन व्रतों के बारे में उन्होंने कम ही लोगों को बताया था। संपर्क में आने वाले लोग उनके व्यवहार से ही जानते थे कि वे चुप रहते हैं। इसीलिए उनका नाम ‘मौनी बाबा’ हो गया था।

‘तांडव नृत्य’ उनका अपना ही रचा हुआ संयोजन था। आधा घंटा तक तांडव की विभिन्न मुद्राएं अभिनीत की। यह कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए उन्होंने शिव का वेष धारण नहीं किया। सिर पर जटाएँ और लंबी दाढ़ी मूंछ रखे हट्टे कट्टे शरीर के मौनी बाबा ने कस कर धोती बांधी हुई थी। कमर से ऊपर कुछ नहीं पहना था। गले में रुद्राक्ष की माला पहनी हुई थी। रूप नहीं धारण करते हुए भी वे अपने अभिनय से शिव की उपस्थिति का आभास करा रहे थे। नृत्य के समय बज रहे वाद्यों ने भी वातावरण को सजीव कर दिया। नृत्य जब अपने उभार पर था तो पास ही बसे गांव जयसिंहपुरा से लोग उठकर आ गये। कुछ तो यह समझे थे कि दशहरा मनाया जा  रहा है। गंगा दशहरा था भी सही लेकिन ग्रामीणों की अपनी समझ के अनुसार दशहरे के समय होने वाले राम-रावण युद्ध की प्रतीती हो रही थी।

शब्द सीमा के कारण आज का लेख यही पर समाप्त करने की आज्ञा चाहते हैं और आप प्रतीक्षा कीजिये कल आ रहे मौनी बाबा का full length लेख।  जय गुरुदेव। 

To be continued: 

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण के साथ इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन  ऊर्जा का संचार कर दे  और यह ऊर्जा आपके दिन को  सुखमय बना दे। धन्यवाद् जय गुरुदेव। हर लेख की भांति यह  लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। 

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9  मई 2022, की 24 आहुति संकल्प सूची: 

(1 )अरुण वर्मा -26 , (3) सरविन्द कुमार-24,   संध्या कुमार-25  

इस सूची के अनुसार और हमारी दृष्टि में तीनों ही सहकर्मी  गोल्ड मैडल विजेता हैं उन्हें हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई।

सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनका हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद्

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