9 नवम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद,12. हमारा घर ही है योग साधना की प्रयोगशाला -सरविन्द कुमार पाल
परमपूज्य गुरुदेव के कर-कमलों द्वारा रचित “सुख और प्रगति का आधार आदर्श परिवार” नामक लघु पुस्तक का स्वाध्याय करने उपरांत 12 वां लेख।
परिवार निर्माण पर आधारित लेखों में आज की कड़ी का विषय बहुत ही महत्वपूर्ण है – हमारा अपना घर ही योग साधना की लेबोरेटरी है ,प्रयोगशाला है।
साधना के लिए लोग तीर्थ स्थानों पर जाते हैं ,अनुष्ठान करते हैं ,पहाड़ों पर जाकर तपस्या आदि करते हैं, लेकिन आज के लेख में परमपूज्य गुरुदेव ने इतने सरल तरीके से समझा दिया है कि परिवार में रह कर ही योग साधना का पुण्य प्राप्त किया जा सकता है। गुरुदेव ने परिवार को ,हमारे घर को एक प्रयोगशाला का नाम दिया है -क्यों दिया है यह नाम ? आइये देखते हैं। बेसिक विज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि लेबोरेटरी में किये जाने वाले प्रयोग के तीन मुख्य स्टैप होते हैं -EXPERIMENT(प्रयोग) , OBSERVATION(अवलोकन, जो हमें दिखा ) और INFERENCE (निष्कर्ष )I हम जो भी प्रयोग करते हैं ,उससे जो हमें प्राप्त होता है उसी से निष्कर्ष निकालते हैं। घर- परिवार में भी तो यही कुछ कर रहे हैं ,प्रतिदिन नए -नए प्रयोग कर करके ,अपनी धारणाएं बना रहे हैं। जिस प्रकार लेबोरेटरी में काम करने की कुछ मान्यताएं होती हैं ,ठीक उसी तरह परिवार की भी कुछ मान्यताएं होती हैं जिनका पालन करना हम सबका कर्तव्य है। इन मान्यताओं के कारण ही इस सारी क्रिया को योग साधना कहा गया है। आज के लेख में आपको 16 सूत्री मार्गदर्शन का सौभाग्य भी प्राप्त होगा। आशा करते हैं कि हम दोनों भाइयों के अल्प ज्ञान और अथक परिश्रम के पुष्पों से गुंथी हुई माला आपके परिवार में एक नई ऊर्जा का संचार करने में सहायक होगी और आप कमेंट रुपी आहुतियां अर्पित कर पुण्य प्राप्त करेंगें।
आज का ज्ञानप्रसाद वितरित करने से पहले हम निवेदन करते हैं कि बहुत से यूट्यूब सहकर्मियों को कल वाला लेख मिलने में कुछ कठिनाई आयी थी। अगर आप ऐसे सहकर्मियों में से हैं तो इस लेख का अध्यन करके कमेंट करके हमें बताने का कष्ट करें ,बहुत कृपा होगी।
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परमपूज्य गुरुदेव ने योग साधना की प्रयोगशाला – अपना घर बताया है और कहा है कि योग साधना की इससे उत्तम जगह अन्यत्र कोई नहीं है। परिवार में एक व्यवस्था व क्रम में रहने वाले व्यक्तियों में अनुशासन की भावना का रहना अति आवश्यक है क्योंकि परिवार समाज की इकाई है और समाज की सुव्यवस्था और सुख-शांति उसके सदस्यों की अनुशासन-निष्ठा पर निर्भर करती है। अनुशासन एक ऐसा गुण है जो परिवार में रहते हुए ही सीखा जा सकता है।
अनुशासन का अर्थ है “सह-आस्तित्व के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए कुछ अनिवार्य नैतिक नियमों का पालन करना।
यह नियम मनुष्य के व्यक्तित्व और जीवन को सजाते-सँवारते हैं। घर के सभी सदस्यों में अनुशासन की भावना हो इसके लिए घर के बड़े सदस्यों को अनुशासन की ओर से विशेष सतर्क रहना चाहिए। बच्चों में जीवन की यह आधारशिला उपदेशों से नहीं रखी जा सकती,बल्कि यह स्वयं के आचरणों द्वारा ही बच्चों के सम्मुख “आदर्श” प्रस्तुत कर बनाई जा सकती है। सादगी, समानता, घर के प्रत्येक सदस्य में परिवार के प्रति उत्तरदायित्व की भावना, प्रेम, आत्मीयता, त्याग, उदारता व अनुशासन-निष्ठा जैसे सद्गुण जिस परिवार के सदस्यों में होंगे, उस परिवार में दुख-क्लेश कोसों दूर रहेंगें। आर्थिक अभाव और सामयिक समस्याओं के होते हुए भी उस परिवार के सदस्यों में स्थापित स्नेह और आत्मीयता के सूत्र उन विपत्तियों से जूझने का बल प्रदान करेंगे।
यही तो है परिवार संस्था की योग साधना है
परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को छोड़कर सामान्य श्रेणी के सभी सहकर्मियों के लिए गृहस्थ योग की साधना को बहुत ही उपयुक्त, उचित, सुलभ एवं सुख-साध्य समझा गया है क्योंकि गृहस्थ योग की साधना भी राजयोग, जपयोग व लययोग की ही श्रेणी में आती हैं। सही तरीके से इस महान व्रत का अनुष्ठान करने पर मनुष्य, जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। जैसे कोलतार पोत देने पर हर वस्तु काली और कलई पोत देने पर सफेद हो जाती है उसी प्रकार योग की, साधना की, परमार्थ की व अनुष्ठान की दृष्टि रखकर कार्य करने से वे सभी कार्य साधनामय व परमार्थप्रद हो जाते हैं। अहंकार, तृष्णा, भोग, मोह आदि का भाव रखकर काम करने से अच्छे काम भी घटिआ परिणाम उपस्थित करने वाले होते हैं। घर-परिवार की संस्था सुचारु रूप से चलाने में भावनाएँ यदि उच्चकोटि की,पवित्र,निस्वार्थ और प्रेममय रखी जाएँ तो निसंदेह यह काम अति सात्विक व सदगति प्रदान करने वाला बन सकता है। अपनी आत्मा ही अपने को ऊपर-नीचे व उन्नति-अवनति की ओर ले जाती है। यदि आत्मनिग्रह (SELF- CONTROL), आत्मत्याग व आत्मोत्सर्ग के साथ अपने जीवनक्रम को चलने दिया जाए, तो इस सीधे-साधे तरीके की सहायता से ही मनुष्य परम पद को प्राप्त कर अपने जीवन को कृतार्थ कर सकता है। स्वयं का कायाकल्प करने का सबसे उत्तम मार्ग यही है। परिवार संचालन के संबंध में दो दृष्टिकोण हैं –
1.एक दृष्टिकोण ममता, मालकी, अहंकार और स्वार्थ का है।
2.दूसरा दृष्टिकोण आत्मत्याग, सेवा, प्रेम और परमार्थ का है।
पहला दृष्टिकोण बंधन, पतन, पाप और नरक की ओर ले जाने वाला है तथा दूसरा दृष्टिकोण मुक्ति, उत्थान, पुण्य और स्वर्ग को प्रदान करता है क्योंकि शास्त्रकारों व संत पुरुषों ने जिस गृहस्थ या परिवार की निंदा की है, बंधन बताया है और छोड़ देने का आदेश दिया है , वह आदेश प्रथम दृष्टिकोण के संबंध में है। परमार्थमय दृष्टिकोण का गृहस्थ या परिवार तो बहुत ही उच्चकोटि की “आध्यात्मिक साधना” है और उसे हमेशा सभी ऋषि, मुनि, महात्मा, योगी तथा देवताओं ने अपनाया है, इसी उच्चकोटि की आध्यात्मिक साधना से आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त किया है। इस साधनामयी मार्ग को अपनाने से गृहस्थ य परिवार में न तो किसी को बंधन में पड़ना पड़ा और न ही नरक को जाना पड़ा। यदि गृहस्थ या परिवार बंधनकारक व नरकमय होता तो उससे पैदा होने वाले बालक पुण्यमय कैसे होते ? बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, महात्मा, योगी, यती व देवता इस मार्ग को क्यों अपनाते ? परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि निश्चय ही गृहस्थ धर्म एक परम पवित्र, आत्मोन्नतिकारक व जीवन को विकसित करने वाला एक धार्मिक अनुष्ठान है, एक आध्यात्मिक साधना है। गृहस्थ या परिवार का कुशल नेतृत्व करने वाले व्यक्ति को ऐसी हीन भावना मन में लाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है कि वह अपेक्षाकृत नीचे स्तर पर है , आत्मिक क्षेत्र में पिछड़ा हुआ य कमजोर है।
परमपूज्य गुरुदेव आगे लिखते हैं कि जीवन का परम लक्ष्य आत्मा को परमात्मा में मिला लेना या विलय कर देना है।
व्यक्तिगत स्वार्थ को प्रधानता न देते हुए लोकहित की भावना से काम करना ही आध्यात्मिक साधना है।
इस साधना को क्रियात्मक जीवन में लाने के लिए भिन्न-भिन्न तरीके हो सकते हैं और उन तरीकों में से एक बहुत ही सर्वश्रेष्ठ तरीका “गृहस्थ योग” भी है। अपने जीवन को उच्च, उन्नत, सुसंस्कृत, व्यवस्थित, संयमित, नियमित, सात्विक, सेवामय व परमार्थमय बनाने की सर्वश्रेष्ठ प्रयोगशाला अपना घर ही हो सकता है। घर से उत्तम और कोई जगह हो ही नहीं सकती। देवता भी ऐसी जगह के लिए लालायित रहते हैं और ऐसी जगह अत्यंत भाग्यशाली को ही मिलती है। जिसको यह जगह मिल जाती है वह उसका सदुपयोग कब, कैसे और कितना करता है ,यह इस्तेमाल करने वाले के ऊपर निर्भर होता है। इसके सदुपयोग के लिए हम सब स्वतंत्र हैं और ब्रह्माण्ड की कोई भी शक्ति इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इसलिए परम पूज्य गुरुदेव ने लिखा है कि स्वाभाविक दृष्टिकोण से देखा जाए तो प्रेम, उत्तरदायित्व, कर्त्तव्यपालन, आश्रय, स्थान, स्थिर क्षेत्र व लोकलाज आदि अनगिनत कारणों से यह क्षेत्र ऐसा सुविधाजनक हो जाता है कि आत्मत्याग और सेवामय दृष्टिकोण के साथ काम करना इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक सरल हो जाता है।
गृहस्थ योग साधना के 16 सूत्रीय मार्गदर्शन :
गुरुदेव ने गृहस्थ योग साधना के विषय में बहुत ही श्रेष्ठ विश्लेषण लिखा है कि गृहस्थ योग के हर साधक के मन में यह विचारधारा हमेशा चलती रहनी चाहिए कि
1.यह परिवार मेरा साधना क्षेत्र है, इस परिवार के साथ हिल-मिलकर रहना मेरी “उपासना” है।
2. इस वाटिका को सब प्रकार से सुन्दर, सुरभित और पल्लवित बनाने के लिए सच्चे हृदय से सदा शक्तिभर प्रयत्न करते रहना मेरा “कर्मकांड” है।
3.भगवान ने जिस वाटिका को सींचने का भार मुझे दिया है उसे ठीक तरह सींचते रहना मेरी “ईश्वर परायणता” है।
4. घर का कोई भी सदस्य ऐसा हीन दर्जे का नहीं है जिसे मैं तुच्छ समझूं , उपेक्षा करूं य उसकी “सेवा” से जी चुराऊँ।
5. मैं मालिक, नेता, मुखिया य कमाऊ होने का अहंकार नहीं करता हूँ, यह मेरा “आत्मनिग्रह” ( self -control ) है।
6. हर एक सदस्य के विकास में अपनी सेवाएँ लगाते रहना मेरा परमार्थ है, बदले की जरा-सी भी इच्छा न रखकर विशुद्ध कर्त्तव्य भाव से सेवा में तत्पर रहना मेरा “आत्मत्याग” है।
7.अपनी सुख-सुविधाओं की परवाह न करते हुए औरों की सुख-सुविधा बढ़ाने का प्रयत्न करना मेरा “तप” है।
8. घर के हर सदस्य को सद्गुणी, सदाचारी एवं धर्मपरायण बनाकर विश्व की सुख-शांति में वृद्धि करना मेरा “यज्ञ” है।
9. सबके हृदयों पर मौन उपदेश हो, अनुकरण से सुसंस्कार बने,अपना आचरण पवित्र एवं आदर्शमय रखना मेरा “व्रत” है।
10. धर्म उपार्जित अन्न से जीवन निर्वाह करना और कराना यह मेरा “संयम” है।
11. प्रेम, उदारता, सहभागिता, सक्रियता, सहकारिता, सहानुभूति व सद्भावना से ओतप्रोत रहना, औरों को रखना, प्रसन्नता, आनंद और एकता की वृद्धि करना मेरी “आराधना” है।
12. मैं अपने गृह-मंदिर में भगवान की चलती-फिरती प्रतिमाओं के प्रति अगाध “भक्ति-भावना” रखता हूँ।
13. सद्गुण, सत स्वभाव और सत आचरण के दिव्य श्रृंगार से इन प्रतिमाओं को सुसज्जित करने का प्रयत्न ही मेरी “पूजा” है।
14. मेरा साधन सच्चा है, साधना के प्रति मेरी भावना सच्ची है, अपनी आत्मा के सम्मुख मैं सच्चा हूँ।
15. सफलता-असफलता की ज़रा भी परवाह न करके सच्चे “निष्काम कर्मयोगी” की भाँति मैं अपने प्रयत्न की सच्चाई में संतोष अनुभव करता हूँ।
16. मैं सत्य हूँ, मेरी साधना सत्य है, मैंने सत्य का आश्रय ग्रहण किया है, उसे सफलता पूर्वक निबाहने का हर सम्भव प्रयत्न करूंगा।
आनलाइन ज्ञान रथ परिवार के सभी सहकर्मी गृहस्थ योग साधक हैं। अतः हमारा आपसे करबध्द अनुरोध है कि हम सबको इस मार्गदर्शन को भली भाँति हृदयंगम कर लेना चाहिए , दिन में कई बार दोहराना चाहिए। हो सके तो छोटे से कार्ड पर स्पष्ट शब्दों में लिखकर अपने पास रख लेना चाहिए और जब भी समय मिले, एक-एक शब्द का चिंतन-मनन करते हुए पढ़ना चाहिए। एक सुन्दर चित्र की भाँति इसे अपने कमरे में भी लगाया जा सकता है। प्रातःकाल की मधुर वेला में निद्रा त्यागने पर पलंग पर पड़े-पड़े ही कई बार इन संदेशों को दोहराना चाहिए और निश्चय करना चाहिए कि आज दिन भर इन भावनाओं को अधिक से अधिक मात्रा में पूर्ण करने का यथासम्भव प्रयास करेंगे।आपकी सुवजिधा के लिए हमने मैं को COMMAS डाल कर अलग से दिखाने का प्रयास किया है।
इन्ही शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देते हैं जय गुरुदेव।
कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।