29 सितम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद -त्रिवेणी संगम पर प्रथम गायत्री महायज्ञ में तुलाधार दम्पति का मार्मिक निधन
कल वाले लेख में परमपूज्य गुरुदेव ने दमयंती के वेणीदान को एक मास के लिए स्थगित कर गतिरोध को शांत कर दिया था। आज हम उससे आगे चलते हुए तुलाधार दम्पति एपिसोड को तो विराम दे देंगें लेकिन यह इस सीरीज का अल्पविराम होगा क्योंकि पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त। आज के लेख में आप देखेंगें कि वेणीदान जैसी छोटी सी बात पर झगड़ा करने वाले पति-पत्नी के जीवन का कैसा मार्मिक अंत हुआ, इतना ही नहीं गुरुदेव को इन सारी घटनाओं का आभास था- तो कैसे न कहें की हमारे गुरुदेव साक्षात् महाकाल हैं। आशा करते हैं कि हमारे पाठक आनंद मुनि को आनंद स्वामी जी के साथ mix नहीं करेंगें, चंडी महायज्ञ और गायत्री महायज्ञ अलग -अलग हैं
कल वाले लेख से गुरुदेव की शक्ति और भी प्रगाढ़ होने की सम्भावना है।
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जब गुरुदेव ने कहा कि वेणीदान के बजाय आप अपने सिर ही क्यों नहीं काट देते तो तुलाधार और दमयंती के पैरों तले जमीन खिसकने लगी। उन्हें डरते देख गुरुदेव ने कहा, ‘ डरो मत । मैं तुम्हें नरमेध यज्ञ के लिए कह रहा हूँ जिसका आयोजन कुछ समय बाद तपोभूमि मथुरा में किया जाएगा। नरमेध का अर्थ किसी की गर्दन काटना य बलि देना नहीं है। इसका अर्थ है अपनेआप को धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए, मानवता की रक्षा के लिए सौंप देना, अपने जीवन का दान कर देना , अपने जीवन का बलिदान कर देना है । तुम्हारे दोनों बच्चे समझदार हैं , बड़े हो गए हैं । साल डेढ़ साल में उनकी ब्याह शादी से निपट जाओ और मथुरा में आकर यज्ञ भगवान के सामने अपने आपको होम दो , अपना बलिदान दे दो ।’ उन दोनों के चेहरे पर प्रसन्नता का भाव छाने लगा था। नरमेध के बारे में अभी उनकी समझ पूरी तरह से साफ नहीं हुई थी फिर भी उन्हें संतोष का अनुभव हो रहा था। भीतर से ही प्रेरणा उठी और वे धोती-कुर्ता पहने इस युवा संत( गुरुदेव ) के चरणों में लेट गये। कहने लगे कि आप जैसा कहेंगे,हम वैसा ही करेंगे। इन शब्दों से तो उन दोनों ने अपनेआप को गुरुदेव के चरणों में समर्पित कर दिया। वाह रे भगवान ,कैसी है तेरी लीला – कैसे वाद-विवाद ,लड़ाई-झगड़े के बीच संपर्क करवाया और कैसे गुरुदेव को समर्पित हो गए। जब गुरुदेव ने वेणीदान में अपना निर्णय सुनाया था और कहा था, “ तुम दोनों लोग मुंडन के लिए झगड़ने के बजाय अपना सिर ही काट कर क्यों नहीं दे देते?” ऐसा लगता था कि गुरुदेव विनोद कर रहे हैं लेकिन हम देखेंगें कि इनका अंत कैसे हुआ था।
आप ध्यान से पढ़ते रहिये ,अभी बहुत कुछ बाकि है।
तुलाधार और दमयंती ने कई महीनों बाद बताया कि गुरुदेव में संत जैसा कोई बाहरी लक्षण नहीं दिखाई दे रहा था। एक अनजाना सा चुंबकत्व ( Magnetism ) उन्हें खींचे जा रहा था। वह आकर्षण अपने किसी बुजुर्ग व्यक्ति के सामने होने वाले दबाव जैसा अनुभव भी दे रहा था। उन्हें ऐसा लग रहा था कि गुरुदेव की बात टाली नहीं जा सकती। पति पत्नी ने एक दूसरे की आंखों में देखा और उन्हें ऐसा स्नेह और विश्वास दिखाई दिया जो पहली बार हो रहा था। तुलाधार ने कहा ‘आप आदेश देंगे तो हम अपना सिर कटाने में भी नहीं हिचकिचाएंगे। अब से हम आपके हुए।’
तुलाधार और दमयंती की मृत्यु को गुरुदेव ने जीवन से भी श्रेष्ठ कहा था।गुरुदेव कहते हैं इस दम्पति (couple ) की मृत्यु परम जीवन की उपलब्धि, जीवन मृत्यु के चक्र को पार कर सीधे मोक्ष की प्राप्ति है। गुरुदेव से मिलने के लगभग एक वर्ष बाद इनकी मृत्यु गंगा पार एक संन्यासी के डेरे पर हुई थी।
कैसे हुई थी तुलाधार और दमयंती की मृत्यु ?
संन्यासी आनंद मुनि चंडी महायज्ञ कर रहे थे। महाकुंभ में आये लोगों को आकर्षित करने के लिए उन्होंने इस महायज्ञ के बारे में कई दावे किये थे। जैसे अक्सर होता है कुंडलिनी जागरण , निस्संतान दंपत्ति को बच्चे होने, रोजगार व्यवसाय में चार चांद लग जाने जैसे चमत्कारों की बातें कही गई थीं।
यह यज्ञ झूसी गांव में हो रहा था जिसका प्राचीन नाम प्रतिष्ठानपुर है।विकिपीडिया से पता चलता है कि यह गांव नवपाषाण युग का है जिसे विदेशी आक्रमणकारियों ने जला कर रख कर दिया था। इसी कारण इसका नाम झुलसी था, समय के साथ L निकाल दिया गया और यह झुलसी से झूसी बन गया। आनंद मुनि ने पब्लिसिटी की थी कि यहाँ किये जा रहे यज्ञ में लोगों को अपार शक्ति मिलेगी। यज्ञ में शामिल होने के लिए उन्होंने याजकों से अच्छी खासी दक्षिणा भी ली थी और नौ दिन तक विशेष पूजा अनुष्ठान भी कराये थे।
महाकुंभ में गुरुदेव से भेंट के बाद तुलाधार और दमयंती इतने प्रभावित हुए थे कि गुरुदेव के काम को विस्तार देने में लग गये थे। इसी काम को करते हुए ही वे आनंद मुनि के संपर्क में आये। जब उन्होंने कुंडलिनी जागरण और लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के बारे में सुना तो यह दावे उनके गले नहीं उतरे। उन्हे लगा कि तीन चार दिन के आयोजन में भाग ले कर कोई व्यक्ति कैसे दिव्यशक्ति प्राप्त कर सकता है। दोनों ने आनंद मुनि के सामने यह शंका रखी तो उन्होंने कहा जिसे सिद्धि मिलना है, वह यज्ञ में भी मिलेगी और बिना यज्ञ के भी मिलेगी। अगर सौ लोग भी इस महायज्ञ में हिस्सा लेते हैं तो पांच -दस की मनोकामना तो स्वाभाविक ढंग से ही पूरी हो जाएगी। यज्ञ का कोई सीधा लाभ हो न हो, श्रेय तो मिल ही जायेगा और हमारा उद्देश्य तो पूरा हो ही जाएगा।
तुलाधार ने उनके उद्देश्य के बारे में पूछा तो आनंद मुनि ने हलके ढंग से कहा: अपनी वाहवाही ,पब्लिसिटी अपनी गुड्डी (पतंग) चढ़ाना यानी यश और धन अर्जित करना। तुलाधार ने इस उद्देश्य पर आपत्ति की और कहा कि सच्चाई से काम करने से भी यश ओर वैभव मिल सकता है। लोगों को धोखा देकर, लुभावनी बातें सुनाकर ,चिकनी -चुपड़ी बातों से अपनी ओर आकर्षित करना धर्म के विरुद्ध है। यह बातें आनंद मुनि के गले नहीं उतरीं और तुलाधार ने इस तरह के यज्ञ का विरोध करने की बात कही। संन्यासी के मुंह पर ही कह दिया कि वे एक बड़ा गायत्री महायज्ञ करके दिखाएंगे जिसमें सबका कल्याण होगा ।
दावे, चुनौतियां और संकल्पों का दौर पूरा हुआ। तुलाधार ने परमपूज्य गुरुदेव से परामर्श किया, गुरुदेव ने अपना गायत्री महायज्ञ का आयोजन चंडी महायज्ञ के बाद करने को कहा। गुरुदेव ने आनंद मुनि के आयोजन में सहयोग करने के लिए कहा। उन्होंने कहा: उसमें भाग भी लेना और वहाँ आने वालों को यज्ञ का सही अर्थ भी समझाना। इसके साथ ही गुरुदेव कहा कि अपनी बात कहते हुए खास ध्यान रखना है कि उसमें आनंद मुनि की आलोचना कभी न हो। तुलाधार ने गुरुदेव के निर्देशों का पालन किया। अपने आयोजन की सूचना देते हुए आनंद मुनि के कार्यक्रम के लिए भी सहयोग जुटाया। इस अभियान में जब भी मौका मिलता तो वे समझाते कि “यज्ञ का अर्थ त्याग, दान और सामूहिक भावनाओं को बढ़ाना है।” इन भावों को बढ़ाते ही दिव्य शक्तियों के अनुग्रह अनुदान बरसने लगते हैं। आनंद मुनि ने इन बातों का विरोध नहीं किया। तुलाधार दंपत्ति के प्रयासों से उन्हें लोगों का सहयोग मिल रहा था। चंडी महायज्ञ की तिथियां निकट आई, आयोजन आरंभ हुआ और करीब पांच सौ लोग उसमें सम्मिलित हुए। मौनी अमावस्या से तीन दिन पहले पूर्णाहुति होनी थी। आनंद मुनि ने इस अवसर पर मेला क्षेत्र के कई दूसरे संतों को भी बुलाया था। उन्हें निमंत्रण देते, घूम रहे तुलाधार गंगा पार जा रहे थे, साथ में उनकी पत्नी भी थी। वहाँ काफी भीड़-भाड़ थी। कहीं से दो सांड निकल आये और सींग लड़ाने लगे। उनके आपस में भिड़ने से लोगों में भगदड़ सी मच गई। तुलाधार ने आव देखा न ताव लाठी लेकर सांड़ों को खदेड़ने लगे। पति को जूझता देख पत्नी भी मैदान में आ गई। वे सांड़ों पर तड़ातड़ डंडे बरसाने लगे। सांडों पर क्या असर होना था, इस भगदड़ की चपेट में पतिपत्नी आ गये। दोनों को बुरी तरह से जख्मी हालत में , लगभग रौंदी हुई हालत में अस्पताल पहुंचाया गया। दो दिन तक सघन उपचार के बाद उनकी हालत कुछ संभली। चंडी महायज्ञ की पूर्णाहुति हुई। वे लूली-लंगड़ी हालत में उसमें सम्मिलित हुए।
चंडी महायज्ञ संपन्न होने के सप्ताह भर बाद उसी जगह गायत्री महायज्ञ होना था। उसकी तैयारियां हो चुकी थीं। मौनी अमावस्या के दो दिन बाद शुरू होने वाले गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति वसंत पंचमी के दिन तय हुई । “तुलाधार दंपत्ति ने चाहा था कि गुरुदेव इस अवसर पर आयें पर ऐसा संयोग नहीं बन सका।” गंगा किनारे हुए इस आयोजन में तीन सौ से अधिक लोगों ने भाग लिया। सप्ताह भर पहले हुई दुर्घटना में घायल तुलाधार बड़ी मुश्किल से अपनेआप को घसीटते हुए से आयोजन स्थल पर भागदौड़ कर रहे थे। यज्ञ को दान, आत्मत्याग और संगति का स्वरूप बताने के लिए वे और भी चिन्न गिना रहे थे। यज्ञ में आनंद मुनि भी आमंत्रित थे। उन्होंने तुलाधार के आयोजन को अपने कार्यक्रम से जोड़ने की कोशिश की। तुलाधार ने कहा:
‘नहीं इस आयोजन का उद्देश्य मेरा अपना ,आपका या किसी और का नहीं है। वह उद्देश्य उन गृहस्थ संत के माध्यम से आया है जो मथुरा में विराजमान हैं और जिन्हें बलिदानी साधकों की जरूरत है।’
मंच पर और व्यक्तिगत चर्चाओं में भी उन्होंने यही बात कही। वसंत पंचमी को पूर्णाहुति थी। उस दिन बारह लोगों ने अपने आपको गायत्री उपासना के प्रचार में लगाने का संकल्प लिया। तुलाधार अपनी टूटी फूटी काया लेकर यज्ञ की व्यवस्था कर रहे थे। पूर्णाहुति के बाद वे कुछ देर के लिए यज्ञशाला के पास बिछे तखत पर बैठे और बैठे ही रह गये। “उनका निधन हो गया। दूसरी तरफ उनकी पत्नी दमयंती ने भी उसी क्षण, मुहूर्त में शरीर छोड़ दिया।”
त्रिवेणी संगम पर पहला गायत्री महायज्ञ करने के बाद दंपत्ति ने जीवन यात्रा को विराम दे दिया। मथुरा में परमपूज्य गुरुदेव को इस घटना की खबर मिली और वे दौड़े चले आये। प्रयाग आकर उन्होंने तुलाधार और दमयंती के लिए शांतियज्ञ कराया।
गंगा के किनारे जिस दिन उन्होंने गुरुदेव के सामने समर्पण किया था, उस दिन से वे लगातार गायत्री के प्रचार और समाज सुधार के काम में जुट गये थे। अपने संपर्क क्षेत्र में निकल जाना, लोगों से मिलना जुलना और बातचीत से लेकर गोष्ठियों तक उन्हीं बातों पर जोर देना उनकी कार्यशैली बन गया था। वेणीदान के विवाद को महीने भर के लिए स्थगित करना था। वह ऐसा स्थगित हुआ कि बाद में उठा ही नहीं। एकाध अवसर पर विनोद में गुरुदेव ने कहा भी कि ‘तुम लोगों का वेणीदान का झगड़ा सुलझा या नहीं?‘ दोनों का उत्तर था कि ‘हम दोनों, दान कर चुके। वेणी या केश का नहीं अपने सिर का ही दान कर दिया। शांतियज्ञ के समय गुरुदेव ने इस विनोद का उल्लेख किया। यह घटना गंगा किनारे अपने आपको समर्पित करने के साल भर बाद की है।नरमेध का यह पहला संकल्प था। पति पत्नी दोनों ने गुरुदेव के अभियान में ही पूरे जीवन लगे रहने का संकल्प लिया था और वह उन्होंने निबाहा भी। यह बात अलग है कि नरमेध यज्ञ की तिथियां आते-आते दोनों का निधन हो गया। इसी अवसर पर उन्होंने स्पष्ट किया कि “तुलाधार दंपत्ति साधारण आत्मा नहीं थे। वे जीवनमुक्त स्तर के थे। पिछले जन्म में अनजाने में गौवंश के प्रति अपराध हो गया था। उसी का प्रायश्चित करने के लिए आना हुआ था। उस पाप से अब वह मुक्त हो गए हैं।”
तो मित्रो आज का लेख यहीं पर समाप्त करने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।
जय गुरुदेव