21 सितम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद :दादा गुरु ने पूज्यवर को दी गुरुपूर्णिमा की गुरुदक्षिणा https://drive.google.com/file/d/1QdR29v1N6UoS-eZAuYCTxIZTfmsFoYBp/view?usp=sharing
हम सब बॉलीवुड से भलीभांति परिचित हैं। बॉलीवुड की फिल्में अक्सर ढाई -तीन घंटे की होती हैं और इनमें एक मध्यांतर यानि interval होता है। 1970 में आयी राज कपूर जी की फिल्म मेरा नाम जोकर पांच घंटे की थी और इसमें 2 मध्यांतर थे। हमें तो समझ ही नहीं आ रहा कि हमारी फिल्म में जिसका आंखों देखा हाल ( live show ) आप आजकल के ज्ञानप्रसाद में देख रहे हैं कितने मध्यांतर होंगें। अगर शब्दों की सीमाबद्धता न हो तो हम तो खाना -पीना, सोना तो क्या सबकुछ ही भूल जाएँ और लिखते ही जाएँ – अपने मित्र और सहकर्मी सविंदर पल जी की तरह। परमपूज्य गुरुदेव की हिमालय यात्रा एक ऐसा रोचक और दिव्य टॉपिक है कि इसको लिखते-समय ,पढ़ते-समय पूरी तरह डूब कर ही आनंद और आत्मिक तृप्ति का आभास होता है। ऐसी फीलिंग हमारे कुछ समर्पित पाठकों ने भी व्यक्त की, जब उन्होंने हमें मैसेज किये “जय गुरुदेव, लेकिन इसको आराम से तस्सली से पढ़ेंगें – इस ज्ञानप्रसाद का ज्ञानपान चलते-चलाते करने वाला नहीं है।” आँखों देखा हाल का चित्रिण करने में हम कितने सफल हुए कमेंट करके अवश्य बताएं और अगर आपके ह्रदय को छुए तो औरों को भी ज्ञानपान करवाएं – आखिर हमारे गुरु का प्रसाद सभी को मिलना चाहिए। इस आँखों देखा हाल को और lively बनाने के लिए हम कैलाश मानसरोवर क्षेत्र का एक वीडियो लिंक दे रहे हैं जिसमें आप देख सकते हैं परमपूज्य गुरुदेव किस क्षेत्र में गए थे -केवल हम सबके लिए -अपने बच्चों के लिए।
तो चलते हैं लेख की ओर :
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आज के लेख को हमने दादा गुरु द्वारा दर्शाये गए विराट स्वरुप में सम्माहित विश्व की समीक्षा , गुरु -शिष्य समर्पण और विश्वभर में फैले गायत्री परिवार का मार्गदर्शन करने के निर्देश को आधार बनाया है । लगभग 6 दशक पूर्व दिए गए निर्देशों का आज 2021 में भी पूर्णरूप से पालन किया जा रहा। गायत्री परिवार का प्रत्येक सदस्य गुरुदेव के निर्देश का पालन करना अपना कर्तव्य ही नहीं अपना धर्म समझता है।
तो आइये सुनें उस दिव्य गुरु -शिष्य वार्तालाप को :
जब मार्गदर्शक सत्ता ने गुरुदेव के सिर से अपना हाथ हटाया तो गुरुदेव बिल्कुल मौन होकर दादा गुरु को टकटकी लगा कर देख रहे थे। कोई प्रश्न और जिज्ञासा नहीं ,केवल तृप्ति और शांति का भाव था। दादा गुरु कहने लगे :
” यह जो दिव्य रूप आपने देखा है वह परमसत्ता है जो अपनी अनंत भुजाओं से समस्त लोकों को आलिंगन कर रही है। अपने लाखों हाथों से वह इस सृष्टि का निर्माण कर रही है ,पोषण कर रही है और संहार भी इन्ही भुजाओं से होता है। सूर्य और चन्द्रमा जैसे उस परमसत्ता के नेत्रों में एक साथ भस्म कर देने वाला तेज और दाहक ताप को शांत करने वाली सौम्य शीतलता प्रदान करने की क्षमता है। कल -कल बहते झरनों का मधुर संगीत और उनके सहित वेगवती नदियों की धाराएं उस परमसत्ता के ही स्फुलिंग ( sparks ) हैं। “
दादा गुरु थोड़ा रुककर मौन हुए तो गुरुदेव ने जिज्ञासा भरे नेत्रों से नतमस्तक होकर उनके चरणों की ओर देखा ,जैसे पूछ रहे हों अब आगे क्या आदेश है। दादा गुरु कहने लगे :
” सर्वशास्त्रमयी मंत्र -गायत्री मंत्र जिसने तुम्हारी चेतना को इस शिखर तक पहुँचाया है , उसके माध्यम से इस विराट विश्व की, विशाल पुरष की आराधना करो। विश्वरूप परमसत्ता के रोम -रोम को इन अक्षरों से सजाओ। “
जब हमने गूगल से सर्वशास्त्रमयी का अर्थ जानना चाहा तो सबसे उचित अर्थ जी हमें मिला वह था –सभी शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न। तो गायत्री मन्त्र ही सब शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न है।
गुरुदेव फिर नतमस्तक हुए ,यह उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने का प्रतीक था। दादा गुरु फिर कहने लगे :
” महाकाल एक बार फिर अवांछनीय को नष्ट करने का संकेत कर चुका है। इस नष्ट और ध्वंस से जो स्थान रिक्त होगा उसे भरने के लिए सृजन की देवी गौरी तैयार हो गयी है। जाओ और जागृत आत्माओं को नियंता के इस सन्देश से अवगत कराओ। ”
यही है गायत्री परिवार का दिव्य सन्देश जो हमारे पूज्यवर को दादा गुरु ने दिया और हमारे गुरुदेव ने समस्त विश्व में फैले हम सब बच्चों को दिया। ऑनलाइन ज्ञानरथ का प्रत्येक सहकर्मी सोई हुई आत्मााओं को जगाने में और जागृत आत्माओं को अपने गुरु के इस सन्देश /निर्देश से अवगत कराने का यथाशक्ति- यथासंभव प्रयास कर रहा है। सभी सहकर्मियों को हमारा नमन वंदन। जब गुरुदेव दादा गुरु के साथ इन सारी लीलायों और संदेशों का आनंद उठा रहे थे उन्हें याद ही नहीं रहा कि आषाढ़ मास का शुक्ल पक्ष आरम्भ हुए दो सप्ताह हो गए हैं और आज गुरु पूर्णिमा की वेला है। आकाश में पूर्णचन्द्र खिला हुआ था। बिना किसी पूजा ,उपचार और कर्मकांड सम्पन्न किए गुरुदेव ने दादा गुरु के समक्ष आत्मनिवेदन किया कि मुझे आज सारी रात्रि आप के सानिध्य में व्यतीत करनी है। इसके लिए कोई शब्दों का उपयोग तो नहीं किया परन्तु दादा गुरु ने इस निवेदन को पढ़ लिया। कहने लगे :
” एक रात्रि क्यों ? यह चेतना तो सम्पूर्ण जीवन भर तुम्हे प्रतिनिधित्व प्रदान करता रहेगा। यहाँ से मिलने वाले सभी निर्देशों का समर्पण भाव से पालन करना ही तुम्हारी गुरुपूर्णिमा की दक्षिणा है।
जब दादा गुरु ने ” यह चेतना “ का सम्बोधन किया था तो अपनी ओर संकेत किया था। अब का निर्देश तो यही था कि अभी कुछ समय हिमालय में ही व्यतीत करना है। मन में बिल्कुल शांति और आश्वासन का भाव था। आगे की यात्रा के लिए कोई मार्गदर्शक की आवश्यकता नहीं थी। कोई पता नहीं था आगे कहाँ जाना है,किस दिशा में जाना है । संवाद और सम्पर्क यहीं पर समाप्त हुआ और दादा गुरु यहाँ से प्रस्थान कर गए।
हमारे पाठकों को गुरु -शिष्य समर्पण के स्तर का आभास तो अवश्य ही हो गया होगा और साथ में ही इस परीक्षा की कठिनता का भी जिसमें दादा गुरु इस बियाबान क्षेत्र में गुरुदेव को अकेले छोड़ कर चले गए। प्राचीन शिक्षक इस स्तर के कठिन कार्यपालक ( hard task master ) होते थे। और इसी कारण शिष्य की योग्यता भी चरम स्तर की होती थी। इसका अर्थ कदापि यह नहीं निकलता कि आज के शिष्य में किसी प्रकार की कमी है। जब हम देख रहे हैं कि गुरु -शिष्य का मिलन गुरु पूर्णिमा के पावन दिवस को हो रहा है तो विश्वास कर सकते हैं कि यह मिलन भी दादा गुरु ने ही नियत किया होगा। विधि का विधान अटल है , ऐसा कहना ग़लत नहीं होगा
दादा गुरु के जाने के उपरांत गुरुदेव ने कैलाश मानसरोवर की ओर प्रस्थान किया। रास्ता देखा नहीं था ,न किसी से पूछा जा सकता था। वहां कोई था भी तो नहीं। दादा गुरु ने तो अंतरात्मा से इस तरफ जाने का निर्देश दिया था। तापस ऋषि तो चले गए थे ,हवन कुंड भी ठन्डे हो चुके थे। कालीपद नाम के गुरुभाई जो नंदनवन से गुरुदेव को लेकर आए थे, उन्होंने ज़्यादा बात तो की नहीं थी पर इतना शायद कहा था राक्षसताल होते हुए मानसरोवर पहुंचा जा सकता है। यह रास्ता करीब 50 मील दूर है परन्तु है बहुत ही दुष्कर। कोई संकेत नहीं ,यह भी पता नहीं किस दिशा में जाना है और इस समय कहाँ पर हैं। दादा गुरु ने भी जाते समय कोई संकेत नहीं दिया था। इसी उधेड़बुन में गुरुदेव उसी दिशा में चल पड़े जिस तरफ दादा गुरु गए थे।
इस तरफ जा रहे थे तो लगा कि रास्ता भटक गए हैं किसी ने कहा तो नहीं ,मन में ही ऐसा प्रबोध उठा। गुरुदेव तिब्बत की सीमा तक पहुँच गए थे,लेकिन यह नहीं पता कि कहाँ पर हैं। कुछ दूर चलते हुए इक्का -दुक्का युवक दिखाई दिए। यहाँ तक पहुँचने में प्रबल सामर्थ्य होना चाहिए ,पर गुरुदेव कैसे पहुँच गए ,यह तो दादा गुरु का सामर्थ्य ही है। उन युवकों से पूछा- “कैलाश मानसरोवर जाना है ,क्या ठीक जा रहे हैं ?” उन्होंने कहा – “नहीं आप कैलाश मानसरोवर से अलग रास्ते की तरफ निकल आये हैं। यह मार्ग थोड़ा भिन्न है पर इस रास्ते से भी आप कैलाश मानसरोवर पहुँच सकते हैं।”
तिब्बत का ज्ञानगंज:
गुरुदेव इन युवकों की बातें अनमने मन से सुन रहे थे ,जैसे कुछ समझ ही न आ रहा हो। युवकों ने कहा- आप एक ऐसे क्षेत्र में आ गए हैं यहाँ हर किसी का प्रवेश नहीं हो सकता। जो ऋषि सत्ताएं इस प्रदेश की व्यवस्था कर रही हैं वहीँ आत्मएं उन्हें आमंत्रित करती हैं और जिन्हे वह आमंत्रित करती हैं वहीँ यहाँ पहुँच सकते हैं और कोई कदापि नहीं। वे युवक इसी प्रदेश के निवासी थे और उन्होंने अपना परिचय ” ज्ञानगंज के योगाश्रम के साधक “ के रूप में दिया। ज्ञानगंज योगाश्रम का उल्लेख और स्थानों पर भी आया है। योग साधना के मार्ग पर बहुत आगे बढ़ चुके यतियों के अनुसार यह क्षेत्र परलोक (supernatural ) साधना स्थली है। यहाँ निवास करने वाले योगी दूसरे साधकों की सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। कहते हैं इस सिद्धभूमि की स्थापना प्राचीन काल में हुई थी। मध्यकाल में महृषि महातपा के शिष्य स्वामी ज्ञानानंद ने सिद्धयोगियों के लिए यह क्षेत्र तीर्थ की तरह बनाया हुआ है। उन युवा साधकों की चर्चा करते -करते गुरुदेव ज्ञानगंज आश्रम की सीमा में पहुंचे। उन्ही ने बताया कि महातपा की आयु लगभग 1500 वर्ष है। किसी भी तरह की आवश्यकतायें उन्हें नहीं होती ,वे दिव्य देहधारी हैं ,किसी भी स्थान पर वे किसी भी गति से जा सकते हैं। आश्रम के कई साधकों की आयु 150 वर्ष के भी अधिक है।
कैलाश मानसरोवर की यात्रा कई दिशाओं और रास्तों से की जा सकती है और इस यात्रा में लगभग डेढ़ महीने का समय लगता है। कम से कम 400 मील पैदल य घोड़े /याक की पीठ पर पूरी करनी होती है। यह विवरण चेतना की शिखर यात्रा 2, 2004 वाले एडिशन के आधार पर दिए जा रहे हैं लेकिन आजकल (2021) कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए 12 -15 दिन के कई पैकेज उपलब्ध हैं। इन पैकेज की जानकारी ऑनलाइन उपलब्ध है।
हमारे परमपूज्य गुरुदेव गोमुख, नंदनवन,कलाप, सिद्धक्षेत्र ,ज्ञानगंज से होते हुए भूलते -भूलते दो माह बाद पहुंचे थे। यह दूरी उन्होंने अधिकतर अकेले ही पूरी की थी ,कभी कभार कोई मिल भी गया था।
हमारे सहकर्मियों ने पहले वाले लेख में ज्ञानगंज को जानने की जिज्ञासा जताई थी , हमने तो इसको व्यक्तिगत निर्णय पर छोड़ दिया था। इस तरह के सिद्धाश्रम विभिन्न नामों से कई जगह पर हैं। ज्ञानगंज के रहस्य पर कई तरह की पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं ,कई तरह की वीडियो बन चुकी हैं ,सिद्ध करने के कई तरह के क्लेम ( claim ) आ चुके हैं। यहाँ तक कि अमरीकन राष्ट्रपति फ्रेंक्लिन रूज़वेल्ट से लेकर हिटलर तक जिसने अपना आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास किया था, कहीं न कहीं ज्ञानगंज के साथ जुड़े हुए थे। रूज़वेल्ट ने तो अपने गुप्त वेकेशन (vacation ) स्थान का नाम ही शांगरिला रख दिया था। US नेवी के एयरक्राफ्ट का नाम भी शांगरिला है। इधर टोरंटो में तो एक लक्ज़री होटल का नाम भी शांगरिला है। शांगरिला ( शंबाला ) का अर्थ ” धरती का स्वर्ग ” है। आज तक सभी के प्रयास कुछ भी पक्का कहने में असमर्थ ही साबित हुए हैं। हम अपने व्यक्तिगत भाव केवल इतना ही कह कर विराम करेंगें कि ज्ञानगंज या किसी और सिद्धाश्रम को अध्ययन करना अतयंत मनोरंजक है लेकिन इस मनोरंजन की आंधी में हमारे लक्ष्य का खो जाना स्वाभाविक है। इसलिए इसका यह निर्णय अपने पाठकों पर ही छोडते हुए कल राक्षसताल और मानसरोवर की यात्रा पर चलेंगें। जय गुरुदेव
हम कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें।
To be continued .