आज 17 मई 2021 का ज्ञानप्रसाद – परमपूज्य गुरुदेव अरविन्द आश्रम पांडिचेरी में -पार्ट 1

आज का लेख बहुत ही संक्षिप्त है। यह लेख हमने लगभग मूलरूप में ही हमारे सहकर्मी आदरणीय विवेक खजांची जी द्वारा फेसबुक पर शेयर हुए लेख में से तैयार किया है। विवेक भाई साहिब का हम ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं कि उन्होंने श्री अरविन्द के ऊपर इतना विस्तृत ज्ञान दो भागों में हम सबके के लिए प्रस्तुत किया। कुछ दिन पूर्व जब हमने इन लेखों को देखा तो उनसे बात करके हमें पता चला कि यह लेख उनके लगभग 6 -7 मास के अथक परिश्रम और वर्षों पुराने गूढ़ ज्ञान का परिणाम है। हम विवेक जी के इस अद्भुत योगदान को नतमस्तक हैं। आशा करते हैं कि हमारे सहकर्मी विवेक जी के इस प्रयास से अवश्य प्रेरणा लेंगें और ऑनलाइन ज्ञानरथ में अपने लेख लिख कर योगदान देंगें।
तो चलते हैं लेख कि ओर।
परमपूज्य गुरुदेव , ईष्ट प्रेरणा तथा श्रीअरविन्द के सूक्ष्म अध्यात्मिक संप्रेषण के आकर्षण से पांडिचेरी पहुंचे थे। इस यात्रा में सूक्ष्म भावपक्ष का ही अधिक प्राबाल्य था न कि भौतिक यात्रा का। वर्ष 1937 में किसी समय पूज्य गुरुदेव ने दक्षिण भारत के पांडिचेरी की यात्रा सम्पन्न की थी। उस समय गुरुदेव की आयु 26 वर्ष रही होगी।
पांडिचेरी, कभी अगस्त्य ऋषि की तप साधन स्थली रहा है। पौराणिक आख्यानों में पांडिचेरी , ‘ मेदापुरी’ अर्थात् ज्ञान का नगर, नाम से अभिहित है। तमिल भाषा में पुंडुचेरि का अर्थ है , नया नगर। आधुनिक पांडिचेरी की स्थापना फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टर François Martin, ने की और 138 वर्ष फ़्रांसिसी राज्य के उपरांत 1 नवम्बर 1954 को भारत सरकार द्वारा केंद्रीय शासित प्रदेश घोषित किया गया। सामान से भरे लकड़ी के विशाल जहाजों के आगमन पर दिशा प्रकाश निर्देशन के लिए बंगाल की खाड़ी के तट पर 1836 में Light House निर्मित किया गया था। Puducherry Railway Co. की व्यवस्थापना में वर्ष 1879 में यहां रेलमार्ग का निर्माण किया गया थ। इसी रेलमार्ग से पूज्य गुरुदेव का पांडिचेरी नगर में आगमन हुआ था। जिस समय पूज्य गुरुदेव , पांडिचेरी पहुंचे उस समय तक वह नगर फ्रैंच साम्राज्य के अधिकार क्षेत्र में था। उसका भारत तथा ब्रिटिश शासन से कोई सम्बन्ध न था। उस काल में खाद्य पदार्थ, फ्रांस से समुद्री मार्ग द्वारा डिब्बा बंद कनस्तरों व लकड़ी के चौकोर बॉक्स में आया करते थे। वे कम मूल्य के हुआ करते थे। स्थानीय रहवासी जिनकी संख्या सीमित थी वे वहीं आहार ग्रहण किया करते थे और मछली का भोज्य पदार्थों में उपयोग किया करते थे। वहां के खेतों में केवल प्याज का उत्पादन हुआ करता था।
1910 में श्रीअरविन्द का पांडिचेरी में आगमन हुआ और 1926 में अरविन्द आश्रम अपने स्थापना काल से क्रमशः प्रति वर्ष विस्तारित होता रहा। आश्रम के स्वयं के कृषि समुदाय, धान्य खेत , गौशाला , हरित तृण के मैंदान तथा फल – सब्जियों के सुन्दर और व्यवस्थित बागीचे थे। आश्रम में कार्यों को सुव्यवस्थित रखने के लिए यांत्रिक मशीनों का भी उपयोग किया जाता था। आत्मिक प्रगति के लिए आश्रम में सात्विक निरामिष आहार की ओर ध्यान दिया जाता था एवम् गाय के दूध को प्रमुख रूप से स्थान दिया जाता था। आश्रम का वातावरण गहन आध्यात्मिक नीरवता से सम्पन्न – योग, ध्यान , साधना व स्वाध्याय से पूरित था। भारत तथा भारत के बाहर अन्य देशों से यौगिक जीवन के अनुरागी ही आश्रम में आया करते थे तथा उनकी संख्या भी बहुत कम थी।
श्रीअरविन्द के निकट आगत पूज्य गुरुदेव ने आश्रम में प्रवेश किया। आश्रम स्थित Reception में रजनी भाई नामक एक चालीस वर्षीय भद्र व्यक्ति ने पूज्य गुरुदेव का आतिथ्य – सम्मान किया था। उन्होंने पूज्य गुरुदेव के निवास, जलपान तथा भोजन की व्यवस्था की थी। आश्रम में प्रथम दिन पूज्य गुरुदेव की “श्रीमां” के रूप में ख्यात मां मीरा अल्फांसा से भेंट हुई। श्रीमां ने उन्हें प्रसन्नतापूर्वक ‘ योगी ‘ सम्बोधन के पवित्र शब्द से सम्बोधित किया था। उन्होंने पूज्य गुरुदेव से अनेक आध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप किया था। एक दिन ठहरने के पश्चात दूसरे दिन प्रातः पूज्य गुरुदेव की भेंट श्रीअरविन्द से हुई। शुभ्रवर्ण के श्रीअरविन्द, व्यवस्थित और लम्बे घने श्वेत केश व दाढ़ी से युक्त थे। उनका मुखमण्डल , ऋषि सदृश ज्ञान और ईश्वरीय प्रेम से संयोगित था। वे मध्यम कद के योगी थे जिनकी दृष्टि , प्रतिक्षण मानवता को आनंदित रखने हेतु योग के साथ समन्वय करा देने के लिए आतुर रहा करती थीं। अधिकांशतः वे एकान्त वास किया करते। श्रीअरविन्द ने पूज्य गुरुदेव का ससम्मान स्वागत किया, किन्तु नि: सन्देह पूज्य गुरुदेव ने ही पहले उनका अभिवादन किया होगा। यहां अवश्य ही अनुमान होता है कि पूज्य गुरुदेव ने , खादी वस्त्र का कुर्ता और एक धोती पहना होगा जिसका कुछ भाग उनकी कमर में बंधा रहता था। प्रथम दर्शन – स्पर्शन में ही पूज्य गुरुदेव ने महायोगी के मुख से कुछ, आश्रम जीवनधारा अनुसार , योग – ध्यान आदि के विषय में सुनने की इच्छा व्यक्त की होगी।
श्रीअरविन्द ने पूज्य गुरुदेव का ध्यान पूर्वक निरीक्षण किया। अंतःकरण का तीव्र रूप में अध्ययन करने में अभ्यस्त श्रीअरविन्द ने पूज्य गुरुदेव की अनेक जन्मों की उच्च आध्यात्मिक परिणति स्वरूप जीवनों को अपने गहन ध्यान के कछ ही क्षणों में देख लिया। उन्हें यथार्थ अनुभव हुआ कि जिस समष्टि की साधना करने का उपदेश वर्षों पूर्व उन्हें जिन महापुरुष से प्राप्त हुआ था अब वे ही महापुरुष वर्तमान में नूतन देह धारण कर सामने प्रस्तुत हुए हैं , एवम् जिस ‘ अतिमानस (सुपरमैन) के अवतरण ‘ के जन्म की वे वर्षों से धैर्यपूर्वक गूढ़ साधनाओं द्वारा प्रतीक्षा कर रहे थे वह समय एवम् उस विषय के सम्पूर्ण इन्द्रिय व शारीरिक – मानसिक अवयवों के गठन, पूज्य गुरुदेव में, ब्रह्मज्ञ – ब्रह्मनिष्ठ शक्ति के रूप में विद्यमान हैं। साथ ही उन्होंने पूज्य गुरुदेव के व्यवहार में शालीनता और सादगी को लक्ष्य किया, अतः उन्होंने पूज्य गुरुदेव से अपने यौगिक अनुभवों की बातें कहना आरम्भ की :
वे महापुरुष , श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव थे एवम् वर्तमान में वे ही नूतन देह धारण कर , श्रीअरविन्द के समक्ष पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के रूप में प्रकट हुए थे।
श्रीअरविन्द , आश्रम जीवन में (तप साधन से ) ऐसा वातावरण उत्पन्न करने में संलग्न थे कि वहां आए लोगों में अनायास ही दिव्य भाव का प्रस्फुटन हो जाए। इस विषयक वार्तालाप को उन्होंने आरम्भ करते हुए, पूज्य गुरुदेव से कहा ,
” एक ऐसी आध्यात्मिक प्रयोगशाला का निर्माण हो जिसमें ऐसे व्यक्ति (नर – नारीगण ) तैयार किए जाएं जो कि बाह्य स्वरूप से अत्यन्त साधारण दिखाई दें किंतु आन्तरिक स्तर पर वे ईश्वर के दिव्य अनुदान – वरदानों को संभालने में समर्थ और ऊर्जावान हों। वैयक्तिक तथा संघगत रूप से आध्यात्मिक विद्या शिक्षण के लिए ऐसे प्रयत्न हों कि चारों ओर दिव्य चेतना का आविर्भाव होता हुआ दिखाई पड़े। कुछ क्षण बाद उन्होंने पूज्य गुरुदेव से तत्कालीन समय में दक्षिण प्रदेश में मठ-मंदिर-प्रासादों में व्याप्त जाति , उंच – नीच , धनी और दरिद्र आदि रूढ़िवादी विचारों की सीमा को बीते प्राचीन काल की व्यवस्थाएं – पुरानी भाषाएं कहकर संभाषण किया। पश्चात उन्होंने कुछ विचार करते हुए कहा,
” आज के युग में गुफा -कंदराओं में बैठकर साधना नहीं की जा सकती। आने वाले वर्षों में जीवन और जटिल होगा , तब और कठिन समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। परिवार के प्रति थोड़ी उदासीनता साधना में अपरिहार्य हो सकती है किन्तु मोह और आसक्ति में न डूब जाया जाए और उसकी उपेक्षा भी न की जाए। मनुष्य जब आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करता है तो पारिवारिक सम्बन्ध झड़ने लगते हैं। नए सम्बन्ध विकसित होने लगते हैं । पुराने सम्बन्धों में बंधे रहने का अर्थ है सामान्य प्रकृति से बंधे रहना।”
श्री अरविन्द के साथ पूज्य गुरुदेव का यह संभाषण लगभग चालीस मिनिट चला था। जान पड़ता है कि यह वार्तालाप अंगरेजी – हिन्दी मिश्रित भाषा में हुआ था। पूज्य गुरुदेव ने श्रीअरविन्द के साथ हुए अपने वार्तालाप को अपनी स्मृतियों के आधार पर 1968 में लिखा था। पूज्य गुरुदेव ने एक स्थल पर लिखा है :
” प्रकृति का निरीक्षण करने से यहीं जान पड़ता है कि उसका उद्देश्य मानव-चेतना को अधिकाधिक विकसित करना ही है, वर्तमान समय में यह चेतना अपूर्ण है और उस पर ज्ञान की अपेक्षा अज्ञान का प्रभाव ही अधिक है। अहंकार के कारण द्वंद-भाव या विरोध की उसमें उत्पत्ति हो जाती है पर यह स्थिति अन्तिम नहीं है इसके पश्चात् एक ऐसी स्थिति अवश्य होनी चाहिए जिसमें यह द्वंद और विरोध न हो और एक अनुकूल समन्वय पाया जाए। यह उद्देश्य कोई अपूर्व या अनहोनी बात नहीं है मनुष्य जाति के इतिहास में अनेक आध्यात्मिक वीरों ने प्रयत्न करके इस स्थिति को प्राप्त किया है। मानव चेतना के भीतर कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं जिनसे प्रगट होता है कि मनुष्य एक दिन ‘ अतिमानवता ‘ की स्थिति (सुपरमैन) को अवश्य प्राप्त कर लेता है इस ‘ अतिमानवता ‘ को हम देवत्व की स्थिति भी कह सकते हैं “
हम अपने पाठकों को बताना चाहेंगें कि श्रीमाता (जन्म नाम मिर्रा अलफासा) (1878-1973) श्री अरविन्द की शिष्या और सहचरी थी। श्रीमाँ फ्रासंसी मूल की भारतीय आध्यात्मिक गुरु थी। हिँदु धर्म लेने से पहले तक उनका नाम था मीरा अलफासा। श्री अरविँद उन्हें माता कहकर पुकारा करते थे इसलिये उनके दुसरे अनुयायी भी उन्हे श्रीमाँ कहने लगे। मार्च 29 1914 में श्रीमाँ पण्डीचेरी स्थित आश्रम पर श्री अरविँद से मिली थीँ और उन्हे भारतीय गुरुकूल का माहौल अच्छा लगा था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय उन्हे पण्डिचेरी छोड़कर जापान जाना पड़ा था। वहाँ उनसे विश्वकवि रविन्द्रनाथ टैगोर मिले और उन्हे हिन्दुधर्म की सहजता का एहसास हुआ। 24 नवम्बर 1926 को मीरा आलफासा पण्डिचेरी लौट कर श्रीअरविँद की शिष्या बनी । श्रीमाँ के जीवन के आखरी 30 वर्ष का अनुभव The Agenda नामक पुस्तक में लिखा गया है। श्री अरविन्द उन्हे दिव्य जननी का अवतार कहा करते थे। उन्हे ऐसे करने का जब कारण पूछा गया तो उन्होनें इस पर The mother नाम से एक प्रबन्ध लिखा था। 12 दिसंबर 2007 को लंदन स्थित श्री अरविन्द के निवास को English Heritage Blue Plaque से सम्मानित किया गया। इसी निवास पर रह कर श्री अरविन्द ने विश्व राजनीति का अध्यन किया और ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा भारत में अन्याय का चिंतन मनन किया।
क्रमश : to be continued
________________________________________________
आज के लेख में मातृमंदिर को थोड़ा vertically stretched दिखाया गया है जिससे इसकी आकृति अंडाकार दिखाई दे रही है , ऐसा हमें केवल फोटो की dimensions की विवशता के कारण करना पड़ा। मंदिर की श्रद्धा को हम सदैव नतमस्तक रहेंगें और कोई भी समझौता नहीं करेंगें। -ऑनलाइन ज्ञानरथ