23 मार्च 2021 का ज्ञानप्रसाद
ऑनलाइन ज्ञानरथ के सहकर्मी, हमारे सहकर्मी देख रहे होंगें कि अपने लेखों के साथ -साथ हम आपको उन दिव्य स्थानों के दर्शन भी करवा रहे हैं जिन्हें देखने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है और हमने ही अपने कैमरे से शूट किया। यह सभी चित्र जो हम आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं परमपूज्य गुरुदेव से साथ जुड़े हुए हैं और हम उनके समक्ष नतमस्तक हैं। आज के दोनों चित्र परमपूज्य गुरुदेव की जन्मस्थली आंवलखेड़ा के हैं। हम अनुरोध करेंगें कि इसी संदर्भ में हमारे चैनल पर अपलोड हुई videos भी देख लें।
तो आओ आज के ज्ञान प्रसाद का मंगलपान करें और अविश्वसनीय लेकिन सम्पूर्णतय सच्चे तथ्यों की यात्रा पर चलें। केवल 16 पन्नों की पुस्तक ऋषियुग्म की झांकी -पार्ट 1 में से लिए गए यह अद्भुत संस्मरण बहुत ही प्रेरणादायक और मार्गदर्शित हैं।
गुरुदेव के नींव के पत्थर :
वे परिजन जो पूज्य गुरुदेव के साथ मथुरा से जुड़े और फिर उनके बुलाने पर शान्तिकुञ्ज भी आ गये, यहीं के हो कर रह गये। जिन्हें गुरुदेव ने नींव के पत्थर कहा है उनके पास इतने संस्मरण हैं कि यदि सबको प्रकाशित किया जाय तो वाङ्गमय के 108 खण्ड भी कम पड़ जायेंगे। उनके निजी जीवन के अनुभवों को तो वे प्रकट भी नहीं करना चाहते। यदि कभी करते भी हैं तो उन्हें प्रकाशन में लाना नहीं चाहते। वे उन क्षणों को याद कर भाव-विभोर होकर बस यही कहते हैं :
“यह तो गूंगे का गुड़ है। जो स्वाद हमने चखा है, उसे बयान करने के लिये शब्द नहीं हैं। बेटा! हमारा जीवन सफल हो गया। हम तो जन्म- जन्मांतरों के लिये अपने गुरु के ऋणी हो गये हैं। हर जन्म उनके साथ रहें, बस यही तमन्ना है।”
एक बात जो सब कोई कहते हैं, वह यह कि गुरुदेव का जीवन- व्यवहार अति सरल और सादगी भरा था। उनके सादे वेश को देखकर पहली नज़र में तो हर कोई आश्चर्य से भर जाता था कि यही वे उच्च कोटि के संत हैं जिनसे मैं मिलने आया हूँ। संत इतने सरल भी होते हैं। जाने कौन सा चुंबक था, क्या आकर्षण था उनके भीतर कि फिर उस क्षण भर की मुलाकात में ही वह उनका होकर रह जाता था। सादगी के आवरण में वे स्वयं के अलौकिक स्वरूप को छिपाये रहते थे। उनके साथ रहते हए हमने अपनी आराध्य सत्ता के विभिन्न रूपों का दर्शन किया है। कभी- कभी हँसी-मजाक करते हुए या सहज बातचीत के क्रम में वे अपने आप को प्रकट भी करते थे। अचानक कुछ ऐसे वाक्य बोल जाते कि हमें लगता कि कहीं वे अवतारी चेतना तो नहीं। परंतु जब तक हमारा ध्यान उनके संकेतों की ओर जाता, वे बात पलट देते थे। जब कभी किसी परिजन पर कष्ट पड़ा या हृदय से किसी ने उन्हें पुकारा तब उन्होंने उसे अपने भगवत् स्वरूप के दर्शन भी कराये हैं।
प्रस्तुत हैं कुछ ऐसे परिजनों के संस्मरण जो उनके साथ लंबे समय तक रहे हैं।
गुरुजी जब युग निर्माण की नींव रख रहे थे, तब उन्होंने स्वयं को सरलता व सादगी के आवरण में इस प्रकार छिपा कर रखा कि उनके साथ रहने वाला भी जान नहीं पाया कि वह साक्षात् भगवद् चेतना के साथ है और जब लोगों ने उन्हें पहचानना प्रारंभ किया तब उन्होंने स्वयं को एक कमरे में कैद कर लिया। अपने जीवन काल के अंतिम कुछ वर्षों में गुरुजी ने सबसे मिलना छोड़ दिया था।
गुरुदेव के साथ हरिद्वार आने वाले व शान्तिकुञ्ज के निर्माण कार्य की देखरेख करने वाले पहले कार्यकर्ता श्री रामचंद्र जी थे। सन् 1968 में रामचंद्र जी मथुरा आये थे। उसी समय गुरुजी ने हरिद्वार में शान्तिकुञ्ज के लिये जमीन ली थी। उन्होंने रामचंद्र जी से कहा, “तुम हमारे काम के लिये शान्तिकुञ्ज चलो।” रामचंद्र जी बोले, “गुरुजी, वहाँ रहने की कुछ व्यवस्था हो जाये, तब तो मैं जाऊँ।” तब गुरुजी बोले, “बनने पर तो बहुत लोग पहुँच जायेंगे। तुम बनाने में हमारा सहयोग करो।”
कैदी जेल में रहता है ?
रामचंद्र जी गुरुजी के साथ हरिद्वार आ गये। यहाँ आकर एक झोंपड़ी बनाई गई। जिसमें रामचंद्र जी रहने लगे। उसमें केवल एक खाट डालने जितनी ही जगह थी। उन दिनों गुरुजी मथुरा में ही रहते थे। गुरुजी के जीवन में इतनी सादगी थी कि शान्तिकुञ्ज के निर्माण कार्य की देखरेख करने जब भी आते उसी झोपड़ी में उनके लिये खाना बनता। रामचंद्र जी बाहर खाट बिछा देते। गुरुजी वहीं बैठ कर खाना खा लेते। सोने के लिये सप्तऋषि आश्रम चले जाते।
एक बार रामचंद्र जी ने कहा, “गुरुजी, कम से कम दो खाट पड़ने लायक जगह तो बना दो। आप बाहर बैठते हैं तो अच्छा नहीं लगता। गुरुजी बोले, “कैदी जेल में रहता है न, तो इसको जेल मान लो।” इस प्रकार कितनी सरलता से उन्होंने सामंजस्य बिठा कर चलने की बात समझा दी। इतनी सरलता थी उनके व्यक्तित्व में।
गुरुदेव की साइकिल
अपने निजी खर्च के संबंध में वे बड़े कठोर रहते थे। यह सन् 1968-69 की बात है। शान्तिकुञ्ज अभी बन ही रहा था। चारों ओर जंगल था। ईंट लाने, ठेकेदार से बात करने व अन्य बहुत से कार्यों के लिये शहर जाना पड़ता था। उन दिनों इस क्षेत्र में आवागमन का कोई साधन नहीं था। गुरुजी के मन में आया एक साईकिल खरीद लेते हैं। अपने साथ ज्यादा पैसा वे लाये नहीं थे अतः आधा पैसा स्वयं दिया व आधा पैसा रामचंद्र जी से लिया और साईकिल खरीद ली गई। उसी साईकिल से रामचंद्र जी के साथ साईकिल पर पीछे बैठ कर ईंट भट्रे वाले के पास चले जाते। जहाँ भी जाते नकद सामान ही खरीदते थे। उधार कभी नहीं करते थे। न ही किसी से अनावश्यक सेवा ही लेते। एक बार एक भट्ठे वाले के पास ईंट का आर्डर दिया और पैसा भी दिया। भट्ठे वाले ने कहा, “हम आपको स्कूटर पर छोड़ देते हैं।” इस पर गुरुजी बोले, “नहीं, नहीं, हमारी तो रामचंद्र जी की साईकिल ही ठीक है।”
प्रारंभ में जब बगीचा लगाया गया तो रामचंद्र जी के साथ स्वयं सब नर्सरियों में जाते थे। वहाँ से पौध आदि खरीद कर लाते थे। बगीचा लगाने में उनकी मदद भी करते। स्वयं कुदाली लेकर गड्ढे भी बनाते। बारिश के दिनों में निकर पहन लेते और सिर पर पॉलीथीन की थैली लपेट लेते। वे गड्ढे खोदते जाते
और रामचंद्र जी बताया करते थे कि मैं, उनमें पौधे रोपता जाता।
अब तो आ गये, अब कहाँ जाओगे?
श्री देवराम पटेल जी बताते हैं कि मथुरा में, मैं जब शुरू- शुरू में आया तो एक दिन मैंने उनके पैर पकड़ लिये। मुझे पता नहीं चला कि क्या हुआ। मैं बहुत देर तक उनके पैर पकड़े रहा। जब बहुत देर हो गई तो गुरुजी बोले अब छोड़ दे और मुझे उठाया। फिर बोले, अब तो आ गये, अब कहाँ जाओगे? बात साधारण थी पर थी बड़ी ही अलौकिक, क्योंकि उसके बाद मैं उन्हीं का हो गया। साधारण में भी कितनी असाधारण बात कह दी थी उन्होंने, इसका रहस्य तो वे ही जानते थे। 1969 में मैंने उनके दर्शन किये, 1969 में ही मैंने मथुरा में नौ दिन का सत्र किया। 1970 में तीन माह का समयदान और सन् 1971 में शान्तिकुञ्ज आ गया। शान्तिकुञ्ज आया तो फिर यहीं का हो गया।
तो मित्रो ऐसे हैं पूज्यवर के संस्मरण , क्या आप ,हम सब विश्वास कर सकते हैं कि इस साधरण से दिखने वाले महापुरष ने पूरे विश्व को बदलने का संकल्प लिया और विशाल योजना जिसका नाम “युग निर्माण योजना” है की रचना की। जिन लोगों को किसी बात का संशय है उन्हें केवल अपनी दृष्टि को ठीक मार्ग पर ,ठीक दिशा देने की आवशयकता है। युग परिवर्तन तो हो ही रहा है ,और यह सच भी है कोई युग एक जैसा कभी नहीं रहा। सतयुग ,द्वापर ,त्रेता ,कलयुग आदि आते ही रहे हैं लेकिन उन्हें गति देने के लिए हर बार कोई न कोई मसीहा उस परमसत्ता के सन्देश लेकर आता ही रहा।
इन्ही शब्दों के साथ अपने लेख को विराम देने की आज्ञा लेते हैं और आपको सूर्य भगवान की प्रथम किरण में सुप्रभात कहते हैं।
जय गुरुदेव
परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्री चरणों में समर्पित