युगतीर्थ शांतिकुंज है महाकाल का घोंसला – परमपूज्य गुरुदेव के शब्दों में

11  फरवरी 2021  का ज्ञानप्रसाद 

आज का ज्ञानप्रसाद हमने फरवरी  2021 माह की अखंड ज्योति पत्रिका से चुना है।  हम सभी शांतिकुंज जाते हैं ,वहां का दिव्य वातावरण भी अनुभव करते हैं,  गायत्री मंदिर के पास  ऋषि क्षेत्र में भी  जाते हैं।  नवयुग की गंगोत्री बड़े- बड़े sign  बोर्ड भी देखते हैं। कितने सौभाग्यशाली हैं हम सब !!! आज इस लेख में परमपूज्य गुरुदेव गुजरात से आए कार्यकर्ता को बता रहे हैं  कि   शांतिकुंज को  “ महाकाल का घोंसला”  की संज्ञा क्यों दी गयी  है।    

युगतीर्थ शांतिकुंज है महाकाल का घोंसला – परमपूज्य गुरुदेव के शब्दों में 

मनुष्य के व्यक्तित्व के तीन ही प्रमुख आयाम हैं: विचार, भावनाएँ एवं कर्म। मन का कार्य सोचने-विचारने का है, अंतरंग भावनाओं के निष्पादन का कार्य करता है तो वहीं शरीर कर्मों को करने का निमित्त बन जाता है। महापुरुषों  के व्यक्तित्व में ये तीनों ही आयाम शिखर पर उपस्थित होते  हैं। यह ही कारण था कि परमपूज्य गुरुदेव का सामीप्य पाते ही चंचल-से-चंचल व्यक्ति का मन शांत हो जाता था। भावनाएँ सकारात्मक हो उठती थीं एवं कर्म, ईश्वर को समर्पित होने की पुकार करने लगते थे। 

ऐसा ही कुछ उस दिन गुजरात से आए एक कार्यकर्ता को अनुभव हुआ जब वे परमपूज्य गुरुदेव से मिलने उनके कक्ष में पहुँचे। प्रातःकाल का समय था। होली के निकट के दिन थे इसलिए वातावरण में अभी भी थोडी शीतलता  व्याप्त थी। परमपूज्य गुरुदेव आधी बाँह का  स्वेटर पहने अपनी छत पर एक कुरसी पर बैठे थे। यह घटना संभवतया सन् 1974 या 75 की रही होगी। वे कार्यकर्ता परमपूज्य गुरुदेव से उन दिनों से जुड़े हुए थे, जब पूज्य गुरुदेव ने मथुरा में सहस्रकुंडीय गायत्री महायज्ञ को संपन्न किया था। तब से वे निरंतर परमपूज्य गुरुदेव से मिलने मथुरा आया-जाया करते थे।

उन सज्जन ने परमपूज्य गुरुदेव को देखते ही उनके चरण छूकर उनसे आशीर्वाद लिया। वे अंतिम बार परमपूज्य गुरुदेव से तब मिले थे जब पूज्य गुरुदेव मथुरा में ही थे। उस  दिन वे पहली बार हरिद्वार, शांतिकुंज पूज्य गुरुदेव से मिलने पहुंचे थे। उन्हें देखते ही गुरुदेव ने प्रेम से उनके सिर पर हाथ रखा और उनसे घर के सभी सदस्यों की कुशलक्षेम के विषय में पूछा। फिर गुरुदेव ने प्रेम से पूछा: 

“बेटा! बहुत दिनों के बाद मिलने आया। घर में सब ठीक तो है न।  वे बोले “जी गुरुदेव! आपके आशीर्वाद से सब ठीक हैं। मथुरा की तुलना में हरिद्वार थोड़ा ज्यादा दूर है, इसलिए जल्दी न आ सका। यह आप मथुरा छोड़कर इतनी दूर हरिद्वार क्यों आ गए गुरुदेव?”

उनकी इस बात पर परमपूज्य गुरुदेव थोड़ा मुस्कराए फिर गंभीर होकर बोले:

“बेटा! भगवान का घर थोड़ा दूर भी हो तो वहाँ जाने का कष्ट उठाना सौभाग्य में गिना जाता है और यह शांतिकुंज दिखने में छोटा-सा आश्रम है  पर वस्तुस्थिति में भगवान महाकाल का साक्षात् निवास स्थान है।”  पूज्य गुरुदेव थोड़ा रुके व फिर कहने लगे “यह शांतिकुंज जो है, यह ऋषि परंपरा के पुनर्जागरण का केंद्र स्थान है बेटा! जब हम पहली बार हिमालय गए थे और सूक्ष्म शरीरधारी ऋषिसत्ताओं से हमारी भेंट हुई थी तो उनमें से प्रत्येक ने अपनी पीड़ा व्यक्त की थी कि उनके द्वारा प्रारंभ की गई आर्ष परंपराएँ लुप्तप्राय हो गई हैं। उन्हीं परंपराओं को पुनर्स्थापित करने के लिए इस शांतिकुंज आश्रम का निर्माण हमने कराया है।”

पूज्य गुरुदेव ने आगे कहना प्रारंभ किया:

“तुम्हें याद है न कि गायत्री मंत्र के मंत्रद्रष्टा ऋषि कौन हैं ?” उन कार्यकर्ता के मुँह से निकला-“जी गुरुदेव! महर्षि विश्वामित्र।” पूज्य गुरुदेव बोले-“बेटा! उन्हीं ऋषि विश्वामित्र की तपस्थली यह शांतिकुंज क्षेत्र है। सप्त सरोवर के क्षेत्र में कभी सप्तर्षियों ने तपस्या की थी। उसी ऋषि परंपरा के आधुनिक प्रतीक के रूप में यह शांतिकुंज का आश्रम है। महर्षि विश्वामित्र की तरह यहाँ से गायत्री महामंत्र को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया जा रहा है। ऋषि व्यास की परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए ही हमने आर्ष साहित्य का अनूदन किया और फिर प्रज्ञापुराण भी लिखा। ऋषि परशुराम की परंपरा की पुनर्स्थापना  के क्रम में दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन के कार्य यहाँ से चलाए जा रहे हैं। महर्षि भगीरथ की तरह से ही शांतिकुंज आज नवयुग की गंगोत्तरी बनकर ज्ञानगंगा को घर-घर पहुँचा रहा है।”

वे कार्यकर्ता अवाक् होकर परमपूज्य गुरुदेव की इन बातों को मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। परमपूज्य गुरुदेव आगे बोले: 

“बेटा! महर्षि चरक की आयुर्वेद की परंपरा भी यहाँ प्राण पाती आज दिखती है तो महर्षि जमदग्नि की परंपरा का पुनर्जीवन हमने यहाँ संस्कारों की परिपाटी को पुनः चलाकर दिया है। देवर्षि नारद द्वारा चलाई गई परंपरा लोकरंजन से लोक-मंगल के कार्यों द्वारा बन पाएगी तो तुम यहाँ आर्यभट व वाराहमिहिर के ज्योतिर्विज्ञान को  आदिगुरु शंकराचार्य के सांस्कृतिक पुनरुत्थान को, कणाद के अथर्ववेदीय ज्ञान को और सूत-शौनक के लोक-शिक्षण के प्रयासों को भी मूर्तरूप पाता देख सकोगे।”

गुजरात से आए कार्यकर्ता ने तो मात्र यात्रा में बढ़ी दूरी की दृष्टि से वह उत्तर दिया था। उनको अनुमान भी न था कि उनके इतने छोटे से उत्तर का इतना गंभीर एवं अन्तर्चक्षु  खोल देने वाला उत्तर परमपूज्य गुरुदेव प्रदान करेंगे। पूज्य गुरुदेव के द्वारा दिए गए उत्तर को सुनकर वे स्वयं को सौभाग्यशाली अनुभव कर रहे थे। परमपूज्य गुरुदेव ने अंतिम निर्देश के रूप में आगे कहना आरंभ किया और बोले:  

“बेटा! शांतिकुंज में हमारी कार्यपद्धति मथुरा की तुलना में बहुत ज्यादा बड़ी है, इसलिए यहाँ उतार-चढ़ाव भी ज्यादा रहेंगे। हो सकता है कि हमें मानवता की रक्षा के लिए असुरता का आक्रमण भी अपने ऊपर लेना पड़े।”

उन कार्यकर्ता को तब यह भान भी न हुआ कि परमपूज्य गुरुदेव का इशारा बाद की घटनाओं की ओर था। वे तो मात्र शांतिकुंज की स्थापना के पीछे उपस्थित दिव्यचेतना के भाव को अनुभव करके ही स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। शांतिकंज महाकाल का घोंसला है-उस दिन इस बात का साक्षात् अनुभव करने का अवसर उनको मिला।

जय गुरुदेव 

परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माताजी के श्री चरणों में समर्पित 

________________________________________________

एक निवेदन :

हमने ज्ञानरथ में ज्ञानप्रसाद वितरित करना प्रारम्भ तो किया है परन्तु नियमितता का अभाव  लग रहा है।  इसका केवल एक ही कारण है – हमारा स्वास्थ्य और रिकवरी।  हम अपने सभी  सहकर्मियों की  भावनाओं के अनुसार ही कार्य कर रहे हैं।  सभी ने एक साथ ही कहा है कि  अपना स्वास्थ्य देख कर ही कार्य करना।  बढ़िया से बढ़िया लेख ढूंढने ,उनको कई बार पढ़ना , सरल करना ,एडिट करना और फिर आपके कमैंट्स को भी ध्यानपूर्वक अध्यन करके समयानुसार उत्तर देना।  इन सभी कार्यों को परमपूज्य गुरुदेव ही सम्पन्न करवा रहे हैं। गुरुदेव ने अपने साहित्य में संपर्क साधना पर बहुत ही ज़ोर दिया है। उसी संपर्क साधना के अंतर्गत हम आपके सभी कमैंट्स का आदर करते हुए उत्तर देने का प्रयास करते हैं।  आपकी अंतरात्मा से निकले शब्द हमारे अंतःकरण को छू जाते हैं और स्नेह और प्रेम की गंगा घर-घर में पहुँचाने में सार्थक होते हैं।  गुरुदेव से जब भी कोई मिलने आता था तो वह उससे उसके बारे में ,उसके परिवार के बारे में ,उसकी नौकरी ,काम वगैरह का पूछते थे।  यही आत्मीयता का सन्देश उनका साहित्य देता है। हम उन सभी परिजनों का हृदय से आभार व्यक्त करते हैं जो हमें कमेंट करके और कई बार फ़ोन से भी अपने बारे में सूचित करते रहते हैं।  गुरुदेव ने  गायत्री परिवार का नाम ऐसे ही परिवार नहीं रखा था – प्रत्येक गायत्री परिजन से मिल कर ऐसे ही लगता है  कि  यह कोई हमारे परिवार का ही सदस्य है।  

_______________________________________

ज्ञानरथ के समर्पित सहकर्मियों की निष्ठां को हमारा नमन और हम विश्वास करते हैं कि  हमारे लेख अधिक से अधिक परिजनों के अंतःकरण को छूने में सफल हो सकें। 

Advertisement

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s



%d bloggers like this: