गायत्री मंत्र की शक्ति पर लेखों की श्रृंखला- पार्ट- 3

6 जनवरी 2021 का ज्ञानप्रसाद 

अपने  पिछले लेख में हमने  गायत्री साधना के विभिन्न स्तर बताये थे।  अब बात आती है ध्यान साधना की। 

ध्यान साधना   में हम अपनी रुचि व स्वभाव के अनुरूप साकार या निराकार ध्यान चुनते हैं। साकार  ध्यान में  मातृरूप  गायत्री महाशक्ति के उपासक प्रात:कालीन स्वर्णिम सूर्य में स्थित हंस पर बैठी गायत्री माता का ध्यान करते हैं। स्वयं को  माँ के आँचल की छाया में बैठने व उनका दुलार, भरपूर  प्यार पाने की भावना की जाती है। माँ का पय:पान करते हुए यह अनुमति करनी चाहिए कि उसके दूध के साथ मुझे सदभाव, ज्ञान व साहस-शक्ति जैसी विभूतियाँ मिल रही हैं और अपना व्यक्तित्व शुद्ध, बुद्ध एवं महान बनता जा रहा है। स्मरण रहे कि ध्यान-धारणा में कल्पित गायत्री माता एक नारी मात्र नहीं है वरन समस्त सद्गुणों, सद्भावनाओं व शक्ति-सामर्थ्य की स्रोत ईश्वरीय शक्ति हैं। निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता का ध्यान प्रातः उगते हुए सूर्य के रूप में किया जाता है। भाव किया जाता है कि आदि शक्ति की आभा सूर्य की किरणों के रूप में अपने तक चली आ रही है और हम इसके प्रकाश के घेरे में चारों ओर से घिरे हुए हैं। ये प्रकाश किरणें धीरे-धीरे शरीर के अंग प्रत्यंगों में प्रवेश कर रही हैं और इन्हें पुष्ट कर रही हैं। जिह्वा, जननेंद्रिय, नेत्र, नाक, कान आदि इंद्रियाँ इस तेजस्वी प्रकाश से पवित्र हो रही हैं और इनकी असंयम वृत्ति जल रही है। शरीर के स्वस्थ, पवित्र और स्फूर्तिवान होने के बाद स्वर्णिम सूर्य किरणों के मन-मस्तिष्क में प्रवेश की भावना की जाती है। इस तेजस्वी प्रकाश के प्रवेश होते ही वहाँ छाए असंयम, स्वार्थ, भय, भ्रम रूपी जंजाल का अज्ञान-अंधकार छंट रहा है और वहाँ संयम, संतुलन व उच्च विचार जैसी विभूतियाँ जगमगा रही हैं। मन और बुद्धि शुद्ध व सजग हो रही हैं और उनके  प्रकाश में जीवन लक्ष्य स्पष्ट होता दिख रहा है।

मन-मस्तिष्क के बाद गायत्रीशक्ति की प्रकाश किरणें भावनाओं के केंद्र हृदयस्थल में प्रवेश करती दिख  रही होती  हैं। आदिशक्ति की प्रकाशरूपी आभा के उतरने के साथ जीवन का अधूरापन समाप्त हो रहा है। उसकी  तुच्छता, संकीर्णता, को दूर करके वह अपने समान बना रही है। 

उपासक अपनी लघुता परमात्मा को सौंप रहा है और परमात्मा अपनी महानता जीवात्मा को प्रदान कर रहा है। 

इस मिलन से हृदय में सद्भावनाओं की हिलोरें उठ रही हैं। अनंत प्रकाश के आनंद भरे सागर में स्नान करते हुए आत्मा अपने को धन्य व कृतकृत्य अनुभव कर रही है।

ध्यान साधना में भावना की भूमिका

ध्यान साधना  में भावना का बहुत  ही महत्वपूर्ण  भूमिका  है। चित्त को एकाग्र, तन्मय एवं प्रेम-भावना से परिपूर्ण करके इष्टदेव के साथ एकात्म भाव, अद्वैत, विलय की स्थिति उत्पन्न करने में अन्तःकरण का आत्म-भाव का विकास होता है।  यह भाव  आत्मा के स्तर  से आना  आवश्यक है।  कई बार हम बैठे तो पूजा स्थली में होते हैं  परन्तु मन में उठ रहे  विचार कहीं के कहीं बहा  कर ले जा रहे होते हैं। ऐसे में ध्यान साधना का कोई औचित्य नहीं , इस स्थिति में  केवल हमारा  शरीर ही पूजा स्थली में होता है।  परमपूज्य गुरुदेव ने बहुत ही सरल भाषा में यह समझाने  का प्रयास किया है कि  यह आत्मा और परमात्मा के विलय का अवसर होता है। पूज्यवर कहते हैं कि साधक जो लघु है, छोटा कण है और  विभु जो सर्वव्यापक है, महान  है उसमें विलय होने का प्रयास करता है।  लघुता विभुता में परिणत होती है।  यह एक ऐसी स्टेज होती है  जिसमें साधक  पुरुष से  पुरुषोत्तम ( पुरष + उत्तम )  बनता है और नर से नारायण  बनने के लिए प्रेरित होता है।  आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर दर्शन इसी स्थिति में होता है। सीमितता असीम में परिणत हो जाती है। छोटी सीमा में केन्द्रित समत्व जब ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का रूप धारण कर लेता है तो सारा विश्व अपना परिवार, कुटुंब लगता है।  तब अहंकार मिट जाता है  इसी मार्ग पर चलते हुए जीव, ब्रह्म बन जाता है। जब सब अपने लगते हैं, सभी से समान प्रेम होता है तो प्रेम-परमेश्वर का, जड़-चेतन में सर्वत्र अपनी ही विशुद्ध आत्मा का (परमात्मा) का- दर्शन होता है। मनुष्य भी तो  उस परमात्मा का ही रूप है, अंश है, इसी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करने पर जीवनोद्देश्य पूर्ण हो जाता है। उसी भूमिका को आत्म-साक्षात्कार ( Self – realization ), ब्रह्म निर्माण, सच्चिदानन्द ( सत् +चित्+आनंद)  सुख, निर्विकल्प समाधि कहते हैं। इसी में जीव सब बंधनों से मुक्त होकर ब्रह्म-लोक का,परमपद का, मोक्ष का अधिकारी बनता है। स्वामी विवेकानंद ने  निर्विकल्प और विकल्प साधना केअंतर् को अपने साहित्य में बहुत ही सरल तरीके  वर्णन किया है।  पाठक इस  टॉपिक को गूगल  करके इस विषय  पर भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। 

यह सब जो हमने ऊपर वाली पंक्तियों में वर्णन किया तब ही सम्भव हो सकता है जब हम पूर्ण भावना से अपने आप को समर्पित करें  लेकिन  विडम्बना यह है  कि  इस  विशाल भव- रुपी  सागर  जिसे  हम  भवसागर कहते हैं  में फंसा हुआ असहाय जीव आत्म-कल्याण की बात ध्यान में आने पर भी कुछ कर नहीं पाता। श्रेय साधन के लिए उसे न एक मिनट की फुरसत मिलती है और न एक पाई खर्च करने की लोभ आज्ञा देता है।  ऐसे  मानव की आत्मा को अपनी आकाँक्षा दबाते, कुचलते, रोते, कलपते, दिन बिताने पड़ते हैं और एक-एक करके यह बहुमूल्य मानव-जीवन यों ही नष्ट-भ्रष्ट समाप्त हो जाता है। तब अन्तकाल तक केवल दुर्गति और पश्चात्ताप का उत्पीड़न सहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रह जाता है।

क्या हम सब इसी स्थिति में हैं ?

जीवों में से अधिकाँश को इसी स्तर का जीवन काटना पड़ता है। इससे उबरने के लिए अन्धी दुनिया की भेड़ चाल से प्रतिकूल दिशा में चलना पड़ता है और चलना  भी चाहिए। अन्धी  दुनिया से प्रतिकूल दिशा में चलने के लिए  बहुत बड़ा  साहस चाहिये। दुनिया ऐसे मनुष्यों  को मूर्ख  ही बताएगी।  इस स्थिति  को पार करने का  एक ही विकल्प है और वह है – उसकी समझ को उपहास, हंसी-मज़ाक और दिल्लगी मान कर अपने पथ पर निरंतर रहना।  अपना पथ खुद निर्धारित करने की क्षमता और दृढ़ता किसी विरले में ही होती है। 

यह मनस्विता, तेजस्विता, लगन और श्रद्धा जब तक अपनेआप में न हो तब तक आत्म-कल्याण के मार्ग पर देर तक और दूर तक नहीं चला जा सकता।

 श्रेयपथ पर किसी आवेश, उत्साह में थोड़ी दूर तक चले भी तो आलस्य, प्रमाद उसे अस्तव्यस्त कर देते हैं। छोटी-छोटी कठिनाइयों के अवरोध सामने आ खड़े होते हैं। तथाकथित मित्र, परिजनों के स्वार्थ में राई-रत्ती कमी आती है तो वे भी गरम होते हैं। कई तो मुर्ख बताते और उपहास करते हैं। इन अड़चनों से मन ढीला पड़ जाता है और जो कुछ थोड़ा-सा आरंभ किया था वह संकल्प शक्ति की दुर्बलता, मानसिक शिथिलता के कारण थोड़े ही दिन में समाप्त हो जाता है।

ऐसी स्थिति हमारे ऑनलाइन ज्ञानरथ के सहकर्मियों में भी देखने को आयी है।  शुरू शुरू में बहुत ही साहस ,श्रद्धा और समर्पण होता है और धीरे -धीरे यही साहस  और समर्पण कम होता जाता है। हम अपना कर्म करते रहते हैं और अपने सहकर्मियों में निष्ठां की भावना उजागर ही करते  ही रहते हैं। सहकर्मियों द्वारा दिए  गए कमैंट्स इन तथ्यों के साक्षी हैं। 

तो चलें continue  रखें ध्यान साधना की स्थिति को :

इस परिस्थिति से निपटे बिना आज तक कोई श्रेयार्थी आत्म-कल्याण के पथ पर आगे नहीं बढ़ सका। इसलिए इस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति के लिये वह आन्तरिक साहस, आत्म-बल एकत्रित करना ही पड़ता है जो इन समस्त विघ्नों को परास्त करता हुआ, अंगद के पैर की तरह अपने निश्चय पर दृढ़ बने रहने से सहायता कर सके। यह आत्मबल- यह आन्तरिक साहस प्राण शक्ति पर आधारित है। इसीलिए  साधक को प्राण-प्रक्रिया द्वारा अभीष्ट मनोबल, आन्तरिक दृढ़ता एवं अविच्छिन्न श्रद्धा का सम्पादन करना पड़ता है। इसके लिये आवश्यक प्रयत्न करने का नाम ही प्राण प्रक्रिया है।  प्राण प्रक्रिया  के  टॉपिक पर हमने इन्ही लेखों की कड़ी के पार्ट 2  में विस्तार से चर्चा की थी। 

आत्म-कल्याण के पथ पर चलने  वाले साधक को अपने सामने आने वाली कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आहार-विहार राजसी न रहने से शरीर में भी कुछ दुर्बलता भी आती है और उसकी पूर्ति भी प्राण बल से ही करनी पड़ती है। अभावग्रस्त, एकाकी ( अकेले), कष्टसाध्य, दूसरों से उपेक्षित ( बेइज़्ज़त)  जीवन खलता है और मन में उद्विग्नता( परेशानी) उत्पन्न होती है। इसके समाधान के लिए भी प्राण-बल चाहिये। फिर श्रेयार्थी का हृदय बड़ा कोमल हो जाता है। दूसरों का कष्ट देख कर मक्खन की तरह सहज ही पिघल जाता है। दया और करुणा से द्रवीभूत अन्तःकरण कुछ सहायता करना ही चाहता है। भौतिक दृष्टि से दूसरों की सहायता धनी लोग कर सकते हैं और आत्मिक दृष्टि से किसी की सहायता कर सकना प्राण-धन से सम्पन्न लोगों के लिए,सिद्ध पुरुषों के लिए- आत्मिक सम्पत्ति से सुसम्पन्न व्यक्ति के लिए ही संभव होता है। यह पूँजी केवल प्राण बल के आधार पर ही संग्रह की जा सकती है।

तो मित्रो ध्यान साधना  से कैसी स्थिति  बनती है और उस स्थिति में  अपने आप को लाने के लिए कैसी -कैसी परीक्षाओं में से गुज़रना पड़ता है हमने देखा।  यह  कार्य कोई सरल नहीं है इसीलिए इसको साधना की highest  स्टेज कहते हैं 

तोआइयेअब चलते-चलते गायत्री मंत्र का भावार्थ भी समझ लें।  अधिकतर लोग इस महामंत्र के  भावार्थ को जानते ही हैं लेकिन हमारा लेख इसके बिना  अधूरा सा ही  रहेगा।  

गायत्री  मंत्र  का अर्थ चिंतन ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। 

ॐ-ब्रह्म

भू:-प्राणस्वरूप 

भुवः-दुःखनाशक

स्वः-सुख स्वरूप 

तत्-उस

सवितुः-तेजस्वी, प्रकाशवान् 

वरेण्यं-श्रेष्ठ

भर्गो-पापनाशक 

देवस्य-दिव्य को, देने वाले को 

धीमहि-धारण करें 

धियो-बुद्धि को

यो-जो 

न:-हमारी

प्रचोदयात्-प्रेरित करे। 

गायत्री-मंत्र के इस अर्थ पर मनन एवं चिंतन करने से अंत:करण में उन तत्त्वों की वृद्धि होती है जो मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाते हैं। यह भाव बड़े ही शक्तिदायक, उत्साहदायक, सतोगुणी, एवं  आत्मबल बढ़ाने वाले हैं। इन भावों का नित्यप्रति कुछ समय मनन करना चाहिए।

1-  “भूः लोक, भुवः लोक, स्व: लोक-इन तीन लोकों में ॐ परमात्मा समाया हुआ है। यह जितना भी विश्व-ब्रह्मांड है, परमात्मा की साकार प्रतिमा है। कण-कण में भगवान समाए हुए हैं। सर्वव्यापक परमात्मा को सर्वत्र देखते हुए, मझे कुविचारों और कुकर्मों से सदा दूर रहना चाहिए एवं संसार की सुख-शांति तथा शोभा बढ़ाने में सहयोग देकर प्रभु की सच्ची पूजा करनी चाहिए।”

2- “तत्-वह परमात्मा, सवितुः-तेजस्वी, वरेण्यं श्रेष्ठ, भर्गो-पाप रहित और देवस्य-दिव्य है, उसको अंत:करण में धारण करता हूँ। इन गुणों वाले भगवान मेरे अंत:करण में प्रविष्ट होकर मुझे भी तेजस्वी, श्रेष्ठ, पाप रहित एवं दिव्य बनाते हैं। मैं प्रतिक्षण इन गुणों से युक्त होता जाता हूँ। इन दोनों की मात्रा मेरे मस्तिष्क तथा शरीर के कण-कण में बढ़ती है। इन गुणों से ओत-प्रोत होता जाता हूँ।”

3- “वह परमात्मा, नः-हमारी, धियो-बुद्धि को, प्रचोदयात्-सन्मार्ग में प्रेरित करे। हम सब की, हमारे स्वजन परिजनों की बुद्धि सन्मार्ग गामी हो। संसार की सबसे बड़ी विभूति, सुखों की आदि माता सद्बुद्धि को पाकर हम इस जीवन में ही स्वर्गीय आनंद का उपयोग करें। मानव जन्म को सफल बनाएँ।”

उपर्युक्त तीन चिंतन संकल्प धीरे-धीरे मनन करने चाहिए।

गायत्री एक दैवी विद्या है, जो परमात्मा ने हमारे लिए सुलभ बनाई है। ऋषि-मुनियों ने धर्मशास्त्रों में पग-पग पर हमारे लिए गायत्री-साधना द्वारा लाभान्वित होने का आदेश किया है।  इतने पर भी हम इससे लाभ न उठाएँ, साधना न करें तो  उसे दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है।

क्रमशः  जारी  To  be  continued 

परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्री चरणों में समर्पित 

Advertisement

One response to “गायत्री मंत्र की शक्ति पर लेखों की श्रृंखला- पार्ट- 3”

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s



%d bloggers like this: