वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

साधना में गुरुदेव को माता जी का आभास होना

साधना में गुरुदेव को माता जी का आभास होना

गुरुदेव की एक वीडियो हमने देखी थी जिसमें गुरुदेव- बता रहे हैं कि ” मैं और माता जी एक ही हैं अर्धनारीश्वर की तरह। आप माता जी से बात करेंगें तो हम से बात हो जाएगी ,हमसे बात करोगे तो माता जी से बात हो जाएगी। इसी एक- शरीर को व्यक्त करती है यह घटना।

गुरुदेव साधना में बैठे थे,दादा गुरु के निर्देश अनुसार सुबह की साधना 5 -6 घंटे की होती थी। विवाह से पहले ही गुरुदेव वंदनीय माता जी को अपने पास बैठे अनुभव करते थे। 1943 के मई मास का कोई दिन होगा , गुरुदेव की अनवरत साधना और तल्लीनता के कारण उनकी तप अग्नि इतनी प्रचंड थी कि उनका वर्ण (रंग ) तपे हुए स्वर्ण जैसा होगया था। आसन से उठते हुए उन्हें भी अपने व्यक्तित्व में यह आंच अनुभव होती थी। जिन दिनों यह स्थिति बनना आरम्भ हुई असुविधा तो हुई थी लेकिन बाद में अभ्यास हो गया। आसन से उठने के बाद वह हाथ मुंह धोते ,सिर और शरीर पर जल छिडकते और कुछ देर तक तुलसी और गाए के पास खड़े रहते। उस दिन उठने लगे तो कुछ अनुपम अनुभूति हुई। उन्हें प्रतीत हुआ की पूजा कक्ष में उनके इलावा कोई और भी है। वह अकेले नहीं हैं ,किसी और साधक ने भी समर्पण किया है। उन्होंने आस पास देखा, कोई भी तो नहीं है। लेकिन अगले दिन जब साधना से उठने लगे तो फिर वही अनुभव हुआ कि समर्पण के मन्त्र कोई और भी साथ -साथ दोहरा रहा है। स्वर कंठ में ही गूंजा और ध्वनि नहीं हुई ,यह पश्यन्ति स्तर तक ही व्याप्त हुआ। पश्यन्ति वाणी में आवाज़ नहीं आती है लेकिन अगर कोई चेतना के उच्च शिखर पर होता है तो उसे इसका आभास होता है। हमारे गुरुदेव इसी दशा में ही तो हैं। अगले दिन यानि तीसरे दिन यह प्रतीति और स्पष्ट हुई। ऐसे लग रहा था कि आस पास कोई दुबली पतली कन्या बैठी है और साथ साथ में मन्त्र उच्चारण कर रही है और समर्पण का संकल्प करते हुए पृथ्वी पर जल छोड़ रही है। इन तीन दिनों में यह प्रतीति भी हुई कि साधना के अंतिम क्षणों में जो ऊष्मा ( गर्मी ) का आभास होता था वह शांत शीतल हो गई। कहीं यह उस किशोरी की उपस्थिति का प्रभाव तो नहीं है। गुरुदेव ने इस घटना पर अधिक ध्यान न दिया और वह अपनी साधना में मग्न रहे। उस वक़्त माता जी की आयु 17 वर्ष होगी।

माताजी का परिवार के नए सदस्यों के साथ घुल मिल जाना :

वंदनीय माता जी को नया घर बिलकुल अपना सा ही लगा ऐसा प्रतीत हो रहा था पता नहीं कितने वर्षों से इस घर में रह रही हों। आते ही घर में घुलमिल गयीं ,बच्चे थोड़ा कतराते और झिझकते थे। तीनो बच्चे ओम ,श्रद्धा और दया दाएं बाएं से तक झांक कर लेते। उस दिन ताई ने बच्चों को घेर कर ज़बरदस्ती बहू के पास भेजा। बहू चटाई पर बैठी थी ,घर का काम कर रही थी। पहले ओम को भेजा फिर श्रद्धा और दया को ,तीनो बच्चे डरे ,सकुचाये पास जाकर खड़े रहे। ताई अंदर से देख रही थीं -बच्चों को खड़े देख कर बोलीं – ओम देख क्या रहा है ,नई माँ के पैर छू। उनकी रौबीली आवाज़ सुन कर बच्चे पास चले गए ,माता जी ने तीनो को पास ले लिया और बिठा कर सिर पर हाथ फेरा ,पढ़ाई ,नाम अदि पूछे। ओम उस वक़्त 10 -12 वर्ष के होंगे। ताई जी ने निर्देश दिया -यह तुम्हारी नई माँ है इन्हे माँ ही कहना। ताई ने यह निर्देश ज़ोर से इस लिए कहा था क्योंकि तीनो बच्चे सरस्वती जी ( गुरुदेव की पहली पत्नी ) को और गुरुदेव को चाचा चाची कह कर सम्बोधित करते थे। कुछ देर तक बच्चे माता जी के पास बैठे रहे। माता जी बच्चों को कह रही थीं -अब ज़िद मत करना ,अगर कोई चीज़ चाहिए होगी तो मुझे कहना,दादी को तंग मत करना। ताई जी यह सब बातें अंदर से सुन रही थीं -बाहर आकर कहने लगीं -बहू , बच्चों को अपने तरीके से रहने दे , सारी ज़िम्मेदारिआं अपने ऊपर मत ले ,उन्हें दादी से भी उलझे रहने दो। कुछ ही दिनों में बच्चे नई माँ से घुल मिल गए और ओम दादी माँ के पास सोते ,बेटियां माँ के पास। जो भी ज़रूरत होती माँ को ही बताते ,खेल कूद और घूमने का दायित्व दादी माँ के पास ही रहा। सभी मिलजुल कर काम सँभालते ,बच्चे दादी माँ को भारी काम नहीं करने देते।

नव वधु (वंदनीय माता जी ) ने घर की सारी ज़िम्मेवारिआं अपने ऊपर लेनी शुरू कर दीं। सबसे पहले अखंड दीप की देखभाल संभाली ,बच्चों के परिचय से भी पहले। गुरुदेव के साथ परिचय तो कितने ही दिन बाद हुआ था। यज्ञ और पूजा में बैठते तो प्रतिदिन थे पर एक दूसरे को कनखियों से ही देखते। जब परिचय हुआ तो अनुभव किया कि श्रीराम केवल पति ही नहीं इष्ट आराध्य भी हैं। ऐसा लगा जैसे बचपन से जिस शिव की आराधना करती आयी हैं वही इष्ट लौकिक जीवन में इस रूप में सामने आए हैं।
श्रीराम ने जो पहली बात भगवती देवी से की तो कहा था बच्चों को माँ का प्यार तो देना है आगे चल कर हज़ारों लोगों तक भी पहुंचना है ,यह लोग भी हमें तलाशते हुए आएंगें ,उन सबको भी तुमने माँ का स्नेह देना है। भगवती देवी अपने आराध्य को अवाक् देखती रही ,उसके सामने खड़े पुरष को एक प्रकाश पुंज की तरह देखती रही। मन ही मन कहा –

यह मेरे केवल जीवन साथी ही नहीं हैं ,मेरे गुरुदेव हैं ,मेरे परब्रह्म हैं।
इन भावों को उभरते ही मन में शिव स्तुति गूंजने लगी –
नमामि शमीशान निर्वाणं रूपं –
यह शिव स्तुति माता जी नियमित रूप से गाया करती थी।

भगवती देवी जी की ज़िम्मेदारियाँ दिनोदिन बढ़ रही थीं। अखंड ज्योति पत्रिका का काम भी बढ़ रहा था। पाठकों की संख्या भी बढ़ रही थी। परमार्थ औषधालय का कार्य और परिजनों को परामर्श आदि कितने ही कार्य थे। श्रीराम तो अपने साधना ,यज्ञ इत्यादि में व्यस्त रहते। बहु
के आने से पूर्व ताई जी के पास लोग परामर्श लेने आते। 3 -4 लोग तो घर की समस्यों को भी लेकर आते। ताई जी को साधारण परामर्श देने के बजाय भगवान की सीख देनी ही अच्छी लगती। धीरे -धीरे यह कार्य भी भगवती देवी जी ने अपने ऊपर ले लिया। आगे चल कर माता जी ने ही तो परिजनों की समस्याओं का समाधान करना था। इन सभी स्थितियों को देखते हुए चूना कंकर वाला मकान छोटा लगने लगा। बड़े मकान की तलाश होने लगी। डेम्पियर पार्क में एक बारह कमरों का मकान देखा ,उसका किराया 8 रुपए था। इस दोमंज़िला मकान में गुरुदेव ने योजनात्मक सुविधांए सोच ली थीं। लेकिन जब श्रीराम उस मकान को देखने गए तो लोगों ने बताया कि इस मकान के कुछ विवाद चल रहे हैं। इस मकान के दो दावेदार हैं और दोनों लड़ते भिड़ते रहते हैं। श्रीराम की ख्याति को देख कर कुछ लोगों ने कहा अगर आप चाहें तो इन दोनों का झगड़ा खत्म हो सकता है। श्रीराम ने मध्यस्ता में रूचि न दिखाई और इस हवेली का विचार छोड़ दिया। श्रीराम चाहते थे कि कोई बड़ी खुली जगह मिले। वह अपने कार्य क्षेत्र के विस्तार को देखते हुए इस प्रकार की योजना बना रहे थे । श्रीराम चाहते थे कि सभी योजनाएं एक ही बिल्डिंग में से चलें। कुछ और मकान भी देखे अंत में घीया मंडी रोड वाला मकान जो सड़क के किनारे पर था पसंद आया। इस मकान में 15 कमरे थे और 15 रुपए किराया था। गुरुदेव को यह हवेली पसंद आ गयी और सपरिवार इस में आवास करने का मन बना लिया। इस हवेली की एक समस्या थी कि इसमें ” भूतों का वास था ” गुरुदेव को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने बिलकुल कोई भी चिंता फिक्र न दिखाई। वह कहने लगे -हम भूतों को समझा लेंगें।

यह वही हवेली है जहाँ वर्तमान अखंड ज्योति संस्थान स्थित है। अखंड ज्योति पत्रिका का विश्व भर का सारा प्रबंधन इसी हवेली से नियंत्रित होता है। 1971 में पूज्यवर के शांतिकुंज हरिद्वार जाने से पूर्व इसी आवास में गुरुदेव लगभग तीन दशक तक रहे । इसी हवेली में नियमित महापुरश्चरण एवं अखंड दीप प्रज्वलित रहा। यह दीप आजकल शांतिकुंज में सुशोभित है। हम नवंबर 2019 को इस हवेली को देखने गए थे और इस पर दो वीडियोस भी बनाई थीं। हम चाहेंगें कि इस लेख को यहीं पे विराम दें और आप इन वीडियोस को देखें। ईश्वर शरण पांडे जी, चुतर्वेदी बाबूजी और योगेश कुमार जी गायत्री परिवार के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं इन वीडियोस को रिकॉर्ड करने में उनका सहयोग वंदनीय है।

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