चेतना कि शिखर यात्रा 1 गुरुदेव के जीवन पर लेखों की श्रृंखला लेख ३
लेख नंबर 2 में हमने आपकी पृष्ठ भूमि बनाने का प्रयास किया था। अपने लेखों में हम बार बार पिछले लेखों को पढने save करने ,शेयर करने के तरीके बता रहे हैं अगर फिर भी कोई भी आशंका है तो हम फिर रिपीट कर रहे हैं :
आशा है आपकी स्मृति अभी भी परिपक्व होगी क्योंकि आज का लेख अत्यंत ध्यान से अध्यन करना चाहिए। हमारे परिजनों ने यह बातें कई बार पढ़ी होंगी ,देखी होंगी ,सुनी होंगीं लेकिन हम इन्ही दिव्य क्षणों को चेतना के स्तर पर प्रस्तुत कर रहे हैं ,यह फील करने के लिए परिजनों से निवेदन है कि अपनी मनः स्थिति को उसी दिशा में ले जाने का प्रयास करें।
तो आओ देखें गुरुदेव के तीन जन्मों की newsreel :
15 वर्षीय बालक राम 18 जनवरी 1926 सोमवार वाले दिन अपनी प्रातः संध्या में मग्न थे। यह वसंत पर्व का पावन दिन था । जब बालक राम अपनी जप साधना के अंतिम चरण में पहुँचते हैं तो अचानक बिजली सी कौंधी,ऐसी बिजली जिसने उस आंवलखेड़ा वाली कोठरी में चकाचौंध करने वाला प्रकाश भर दिया । प्रकाश चमकता हुआ था लेकिन उसकी प्रखरता शांत-शीतल हो गयी। इस प्रकाश से ऐसे लगा जैसे हज़ार सूर्य एक साथ चमक उठे हों। जब प्रकाश स्थिर हो गया तो उसमें से कोठरी में एक सौम्य आकृति प्रकट हुई। लम्बी जटाएं ,शरीर अत्यंत कृष लेकिन देदीप्यमान ( चमकता हुआ मानव जैसा , क्षीण ज़रूर परन्तु बल में पूर्ण समावेश था।) यह आकृति फौलाद की बनी लगती थी। शरीर कहीं कहीं बर्फ से ढका हुआ दीखता था। बालक राम जो पहले भयभीत हो गए थे फिर हर्षित हुए। उल्हास में उठ कर प्रणाम करने लगे तो दिव्यमूर्ति ने श्रीराम के भाव पढ़ लिए। संध्याकर्म में अभी प्रदक्षिणा कर्म बाकी थ। उन्होंने बैठे रहने का संकेत किया। बालक राम उस आकृति को निहारते रहे ,ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सविता देवता ऋषि रूप में प्रकट हुए हों। आकृति निकट आई, ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि वे कुछ कदम आगे चल कर आई हो । यह प्रतीत हो रहा था कि दूरी अपनेआप घट कर कम हो गयी है। समीपता इतनी बनी कि बैठे- बैठे ही हाथ बढ़ा कर चरण छू लें। चरण स्पर्श की आवश्यकता ही नहीं पड़ी ,सिर अपने आप चरणों में झुक गया। उस आकृति ने अपना हाथ श्रीराम के सिर पर रख दिया। इस स्पर्श से जो अनुभूति हुई उसे अक्षरों में कहने की कई मनीषियों ने कोशिश की है पर कोशिश के बाद चुप कर गए हैं। कबीर ने इस स्थिति को ” गूंगे केरी सरकरा “कहा है जिसका अर्थ है स्वाद तो आता है परन्तु कहना कठिन है। उस आकृति के स्पर्श ने श्रीराम के लिए एक अलग नया संसार खोल के रख दिया ऐसा संसार जिसमें वाणी की आवश्यकता नहीं हुई। समय जैसे ठहर गया हो। मार्गदर्शक सत्ता ने पिछले कई जन्मो की यात्रा करा दी।
” यह यात्रा स्मृतियों में उतरकर नहीं शुद्ध
चेतना के जगत में प्रवेश कर सम्पन्न हुई। “
यह एक चलचित्र की तरह चल रहा था। श्रीराम ने अपने आप को वाराणसी में गंगा घाट की सीढ़ियों पर सिकुड़ते हुए देखा। स्वामी रामानंद स्नान करके सीढ़ियों के ऊपर आ रहे थे कि अचानक किसी के ऊपर उनका पावं पड़ा ,यह कबीर ( 15 वीं शताब्दी ) थे। कबीर ने कहा मैं धन्य हो गया मुझे गुरुमंत्र मिल गया। कबीर को low cast होने के कारण दीक्षा देने से इंकार हो गया था। कबीर के जीवन के कई और भी प्रसंग समक्ष आते रहे ।
फिर एक अंतराल के बाद इतिहास की दृष्टि से 100 वर्ष बाद वाला समय आता है। कोठरी में बैठे श्रीराम ने अपने आप को उस साधु की भूमिका में बैठे पाया जो महाराष्ट्र की भूमि से संबधित था। उस साधु का नाम था समर्थ रामदास । अम्बाद महाराष्ट्र में जन्मे समर्थ गुरु रामदास (1608 -1681 ) मराठा योद्धा छत्तरपाति शिवाजी के गुरु थे । शिवाजी की माता जीजाबाई भगवान राम और कृष्ण की बड़ी भक्त होने के कारण बेटे में भी वही संस्कार भरने में सफल हुई। शिवाजी समर्थ गुरु रामदास को मिलने के बहुत ही इच्छुक थे। एक बार उन्होंने सारा दिन उनकी प्रतीक्षा की लेकिन मिलना सफल न हो सका। शिवाजी वापिस आ गए लेकिन उनकी गुरूजी को मिलने की इच्छा चलती ही रही। इसी इच्छा में शिवाजी भवानी माँ के मंदिर में गए और वहीँ पे बहुत रात हो गयी। उनको बहुत ज़ोरों की नींद आ रही थी और वह मदिर में ही सो गए । स्वप्न में साधु वेशभूषा में समर्थ गुरु रामदास आए लेकिन जब शिवाजी प्रातः उठे तो उनके हाथ में नारियल था। ऐसे होते हैं गुरु। गुरु अपने भक्त के पास स्वयं आते हैं। परिजनों को विदित ही होगा उसके बाद शिवाजी ने कितनी वीरता दिखाई थी। समर्थ गुरु रामदास जगह -जगह जाकर लोगों में अलख जगाने लगे। एक बार समर्थ गुरु भिक्षा मांगने गए और बोल रहे थे “जय जय रघुवीर समर्थ । ” शिवाजी ने सुना और उन्हें कुछ नहीं सूझा। झट से कागज़ निकला और उस पर लिखा ” आज से सारा राज्य आपका है “। यह संकल्प गुरु ने देखा और कह दिया
” हाँ आज से यह राज्य मेरा ही है ,तुम
इसे मेरी धरोहर मन कर सम्भालो “
स्मृति की परतें पलटती हैं और बालक श्रीराम अपने आप को कलकत्ता के आस पास पाते हैं। यह बात उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की है। बालक श्रीराम का नाम उस वक़्त रामकृष्ण था और दक्षिणेश्वर काली मंदिर में यह किशोर अपने बड़े भाई के साथ आ कर ठहरा। परिजन यह भांप गए होंगे कि इस वक़्त रामकृष्ण परमहंस जो स्वामी विवेकानंद जी के गुरु थे उनकी बात चल रही है। रामकृष्ण परमहंस ( 1836 -1886 ) ने भी नरेंद्र का चुनाव विश्व शांति के लिए ही किया था और उन्हें विश्वगुरु बना दिया। हमारे गुरुदेव भी युग निर्माण की बात कर रहे हैं।
पूजा की कोठरी में बैठे श्रीराम इन दृश्यों की यात्रा करते चुपचाप बैठे रहे। स्मृतियों से बाहर आए और सामने प्रसन्न प्रसन्न मुद्रा में खड़ी मार्गदर्शक सत्ता को निहारा। स्मृतियों से बाहर लौटते हुए चेतना ( internal power ) क्लांत सी हो रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कहीं बहुत दूर से यात्रा करके आ रहे हों बल्कि उस से भी कई गुना ज़्यादा थकान महसूस हो रही थी। हो भी क्यों न। मार्गदर्शक सत्ता 1926 में बालक श्रीराम को तीन जन्मो का दृष्टान्त वर्णित कर रहे हैं। सबसे पहला जन्म संत कबीर का था। उनके जन्म वर्ष में कुछ भ्रांतियाँ है पर फिर भी अगर 1400 भी लगाया जाए तो 526 वर्ष बनते हैं। इतने वषों की यात्रा कुछ मिनटों में ही वर्णित करना सच में क्लांतता ( थकावट ) तो आएगी ही। बालक श्रीराम की यात्रा कोई ऐसी वैसी यात्रा नहीं थी यह अंतर्यात्रा सूक्ष्म और दिव्य विस्तार में प्रवेश की यात्रा थी लेकिन जब वह वास्तव में लौटे तो थकान ने घेर लिया। मार्गदर्शक सत्ता ने दायाँ हाथ आगे बढ़ाया, अंगूठा भृकुटि ( दोनों भोंहो के बीच ) के बीच रखा और चारों उँगलियाँ सिर के उस भाग पर रखीं जिसे योगीजन ब्रह्मरंध कहते हैं। इस स्पर्श ने श्रीराम की थकावट को दूर कर दिया और दृश्य बिल्कुल बदल गया। श्रीराम के सामने मार्गदर्शक सत्ता खड़ी थी और दिव्य गंध की अनुभूति हो रही थी। मार्गदर्शक सत्ता ने कहा
” जो कबीर था, जो रामदास था और जो रामकृष्ण था वही तुम हो
यह अंतर्दर्शन थकाने या चमत्कृत करने के लिए नहीं है।”
मार्गदर्शक सत्ता ने यह संकेत शायद परावाणी से किया है इसका अनुमान लगाना कठिन है क्योंकि परावाणी में होंठ हिलते नहीं हैं। अब तो परिचय इतना प्रगाढ़ हो गया कि अटपटा प्रश्न पूछने का भी संकोच नहीं हुआ। बालक श्रीराम (हमारे गुरुदेव ) ने साधना में बैठे बैठे ही पूछ ही लिया
” हम तो आपको खोजते हुए नहीं आए थे
आपने हमें क्यों ढूंढा और यह अचानक
साधना का आदेश क्यों दे रहे हैं “
श्रीराम के अधरों पर मुस्कान खिल उठी। मार्गदर्शक सत्ता ने कहा
” गुरु ही शिष्य को ढूंढ़ता है ,शिष्य गुरु को नहीं
यह तुम्हारा दिव्य ( divine ) जन्म है ,हम इस
जन्म में भी तुम्हारा साथ देंगें “
उपासना का जो निर्धारण कर्म था वह पूर्ण कर लिया ,विसर्जन और समर्पण शेष रह गया क्योंकि मार्गदर्शक सत्ता का आदेश आज से परन्तु अभी से ही प्रारम्भ होना था। हमारे गुरुदेव के मन में कुछ जिज्ञासायें थी जिनका उत्तर कुछ मिला कुछ नहीं। एक तो यह कि यह मार्गसत्तायें कहाँ रहती हैं ,दिव्य आत्मा द्वारा उत्तर खुद ब खुद ही मिलते रहे । यह आत्माएं दुर्गम हिमालय के हृदय ऋषि क्षेत्र में रहती हैं। दूसरा प्रश्न कि इनकी आयु कितनी होगी तो इसका उत्तर में यही कहा गया है कि कोई 600 – 700 वर्ष के लगभग है। लेकिन 2500 वर्ष भी कहा गया है। इन विषयों पर शोध हो रहा है।