11 नवंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
पंडित लीलापत शर्मा जी द्वारा रचित 82 पन्नों की दिव्य पुस्तक “युगऋषि का अध्यात्म-युगऋषि की वाणी” का शुभारम्भ कल वाले लेख से हुआ। इस दिव्य लेख में ईश्वर को भांति-भांति की प्रतिमाओं में एक व्यक्ति की भांति पूजे जाने की चर्चा की गयी थी। इस चर्चा में व्यक्तिकरण (Personification) जैसा शब्द निकल कर आया जिसने “प्रतीक अध्यात्म” और “सार्थक अध्यात्म” के अंतर् को समझने में सहायता प्रदान की। गुरुदेव ने बताया कि मंदिर में विराजित प्रतिमाओं में दिख रहे गुणों को अपनाना एवं उन पर अपने जीवन का दारोमदार रखना ही सच्ची साधना है, इसे ही “सार्थक अध्यात्म” का नाम दिया गया। परम पूज्य गुरुदेव और पंडित लीलापत जी के बीच हो रहे इस दुर्लभ “गुरु-शिष्य संवाद” से यह बिलकुल ही नहीं समझा जाना चाहिए कि प्रतीकों का कोई महत्त्व नहीं होता। भारत देश की स्वतंत्रता से पूर्व तिरंगे ध्वज की रक्षा करने के लिए लाखों भारतीयों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। प्राण देने वाले स्वतंत्रता सैनानियों ने तिरंगें कपडे को मात्र कपड़े का टुकड़ा न समझा बल्कि उसे राष्ट्र भक्ति का प्रतिनिधि माना था। रक्षा बंधन वाले दिन कच्चे सूत का मूल्यहीन धागा कितना महत्त्वपूर्ण बन जाता है जब बहिन उसे अपने पवित्र स्नेह के रूप में भाई की कलाई पर बाँधती है। ईश्वर की छवि एवं प्रतिमा का महत्त्व और मूल्य तो अवश्य है लेकिन यह मूल्य तभी सार्थक है जब उसमें गुंथे हुए गुणों को, भावों और सामर्थ्यो को उतना ही महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान समझा जाए, याद रखा जाए और व्यवहार में लाकर उनका सम्मान किया जाए।
किसी परिश्रमी एवं अनुभवी लेखक की यह चमत्कारी कला ही है जो प्रतिमा में दर्शाये गए “सद्गुणों का व्यक्तिकरण” कर देती है। सद्गुणों, रूपों, आकारों, भावनाओं, सामर्थ्यों आदि का कोई रूप और आकार तो है नहीं लेकिन कलाकृति की उत्कृष्ता ही है जो ध्यान केंद्रित करने के लिए, सार्थक चिंतन करने के लिए, रूप और आकार का ऐसा समन्वय कर देता है कि तेजस्वी देहों का निर्माण संभव हो जाता है। गुरु-शिष्य संवाद में जो महत्वपूर्ण शिक्षा निकल कर आती है वह यह है कि कितना अच्छा हो यदि साधक अपनी आस्था भगवान के उन विभिन्न स्वरूपों पर समर्पित करने के बजाय, उनके गुणों, भावों और सामर्थ्यो पर समर्पित करे। ईश्वर में भक्त की आस्तिकता केवल इस प्रक्रिया को अपनाने पर ही सार्थक हो पाएगी।
हमारे गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने जीवन भर “चिंतन की इस चिन्मय धारा” का अनुसरण एवं प्रतिपादन किया। 82 पन्नों की छोटी सी पुस्तक, जिस पर वर्तमान लेख श्रृंखला आधारित है,में आदरणीय लीलापत शर्मा जी ने अपने लेखों एवं संस्मरणों के माध्यम से हम सब को इस प्रभावी चिंतन का स्मरण कराने के लिए,आध्यात्मिक वास्तविकताओं से अवगत कराने का अद्भुत पुरषार्थ किया है। हम जैसे अबोध शिष्यों का कर्तव्य बनता है कि इस “गुरु-शिष्य संवाद” में समाहित सरल ज्ञान को अपने दैनिक जीवन को उतारने का प्रयास करें।
ऐसा करने से हमारे परिश्रम को भी एक Moral boost मिलेगा जो आने वाले लेखों की रचना में महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करेगा।
आज से 15 वर्ष पूर्व 2010 में जब इस पुस्तक की पुनरावृत्ति हुई थी,उस समय इस पुस्तक में युवावर्ग में ईश्वर के प्रति अनास्था की बात की गयी थी, आज 2025 में जब हम यह लेख लिख रहे हैं तो पाठक आज के युवावर्ग से भलीभांति परिचित हैं। अधिक से अधिक युवा साथी अध्यात्म के गुप्तज्ञान को समझने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। हमारा विश्वास है कि ज्ञानप्रसाद लेख नास्तिक प्रवृत्ति को विराम देने में सार्थक होंगें।
चार पन्नों (लगभग 1200 शब्द) की “आत्मनिवेदन” शीर्षक वाली भूमिका से स्वयं ही अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरु-शिष्य संवाद वाली यह पुस्तक कौन सा ज्ञान लिए हुए है।
प्रतीक और सार्थक अध्यात्म का सरल सा विवरण प्रस्तुत करने के बाद पंडित जी ने गुरुदेव से गायत्री ज्ञान के बारे में जानना चाहा जिसे उन्होंने त्रिपदा गायत्री की सूक्ष्म साधना से जोड़ दिया।
पंडित जी बता रहे हैं:
परमपूज्य गुरुदेव के सानिध्य में अति निकटता के साथ चार वर्ष व्यतीत हुए। गुरुदेव जब कहीं बाहर जाते तो हमें अपने साथ ही ले जाते । गायत्री तपोभूमि में रहते हुए भी हमने उन्हें बहुत करीब से देखा और बारीकी से समझने का प्रयास किया। जितना भी प्रयास किया हर बार इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि उनके रूप में परमात्म सत्ता ही प्रकट हुई है। जब कभी उनसे इस निष्कर्ष की पुष्टि करानी चाही तो वे यही कहते कि हमारे जीवन में जो भी अद्भुत और असाधारण दिखाई देता है वह उपासना का ही परिणाम है। एक बार हमने उनके सम्मुख जिज्ञासा रखी कि गुरुदेव भारत में 80 लाख बाबा (पुस्तक लिखने के समय) हैं और घर-घर में गायत्री का जप हो रहा है, अन्य लोग दूसरे देवी-देवताओं की भी उपासना करने में लगे हुए हैं, लेकिन उपासना से जैसी उपलब्धि आपको मिली है वैसी अन्य लोगों को क्यों नहीं मिली? आप कौन सी गायत्री की उपासना करते हैं, वह हमें भी बताइए। यदि आप हमें इसके लिए उपयुक्त पात्र समझते हों तो हम भी उसी गायत्री की उपासना प्रारंभ कर दें ।
गुरुदेव बोले:
बेटा, गायत्री के दो रूप हैं एक बहिरंग(बाहरी) और दूसरा अंतरंग (अंदरूनी)। अधिकतर लोगों की उपासना बहिरंग स्वरूप तक ही सीमित रह जाते हैं। वे गायत्री के अंतरंग स्वरूप की उपासना साधना नहीं करते, अतः उपासना से प्राप्त होने वाली पूरी फलश्रुतियों से वंचित रह जाते हैं।
पंडित जी ने कहा:
गुरुदेव, हम तो गायत्री का एक ही स्वरूप समझते हैं। यह गायत्री माता जो मंदिर में हैं, हम तो उसी को समझते हैं। गायत्री के दो स्वरूप (बहिरंग और अंतरंग) हमने पहले कभी नहीं सुने । हमें पहले आप बहिरंग स्वरूप के बारे में विस्तार से बताइए। आपने तो दो रूप बताकर हमारी जिज्ञासा को बढ़ा दिया है। इसका समाधान कीजिए ।
पूज्य गुरुदेव बोले:
बेटा,बहिरंग पक्ष वह है जिसका जप लोग प्राय: करते हैं। उनका विचार है कि गायत्री माता वही है जो मंदिर में बैठी है। वह एक देवी है, जो हंस पर सवारी करती है, हाथ में कमंडल और पुस्तक लिए रहती है। उसको कोई एक चम्मच जल, फूल, चंदन और प्रसाद चढ़ा दे, दीपक अगरबत्ती जलाकर आरती उतार दे, गायत्री मंत्र की दो-चार माला सटका ले, तो गायत्री माता प्रसन्न हो जाती है और उससे वह जो कुछ माँगता है उसे मिल जाता है और माँ उसकी मनोकामना पूर्ण कर देती है, धन-दौलत दिला देती है,नौकरी में तरक्की करा देती है, मुकदमा जिता देती है, जिसके बच्चे न हों उसको बच्चा दे देती है। सारे धर्माचार्य और गृहस्थ व्यक्ति भगवान की ऐसी उपासना में ही लगे हैं। दिन रात मनुष्य मनोकामनाएँ पूरी कराने के लिए भजन करता है। भजन करके भगवान को हुक्म देता है कि मैंने आपका भजन किया, प्रसाद चढ़ाया, परिक्रमा की, अब मेरी मनोकामना पूरी करो। ऐसे मुर्ख मनुष्य का “बोओ और काटो का सिद्धांत” इतने तक ही सीमित होता है। ऐसे स्वार्थी भक्तों ने भगवान को अपना नौकर समझ रखा है, किसी ऑफिस का भ्रष्टाचारी अफसर या क्लर्क समझ रखा है, जो कुछ रुपये-पैसे लेकर सब काम कर देता है। जैसे किसी आदमी की खुशामद करें और उसकी सेवा करें, पैर दबाएँ तो वह प्रसन्न हो जाता है, उसी प्रकार भगवान भी प्रसन्न हो जाता है। प्रशंसा के गीत सुनकर जैसे राजा लोग प्रसन्न होकर उपहार दे देते थे, उसी प्रकार स्तुति, स्तवन, मंत्र और प्रार्थना सुनकर ईश्वर भी प्रसन्न होकर सबकी मनोकामनाओं को पूर्ण कर देता है।
बेटा! बहिरंग स्वरूप की उपासना ऋषियों ने प्राथमिक जानकारी के लिए अनगढ़ लोगों के लिए बनाई थी।
यह उपासना का ‘क’ से कबूतर, ‘ख’ से खरगोश तो है, लेकिन अधिकतर लोगों का दुर्भाग्य यह है कि हम इसी (क, ख) को ही सब कुछ समझ लेते हैं। इससे आगे कदम बढ़ाना ही नहीं चाहते, अगली कक्षा में
एडमिशन लेना ही नहीं चाहते। जब हम कहते हैं कि अब फिजिक्स, कैमिस्ट्री, गणित भी पढ़ना है तो मना कर देते हैं। बस एक सरल सा काम पकड़ लिया है, माला सटका लो, आरती उतार लो, खुशामद कर लो और मनचाही मुराद पूरी करा लो ।
पंडित जी ने कहा:
गुरुदेव, यह बहिरंग पक्ष तो हमारी समझ में आ गया। अब आप गायत्री के अंतरंग पक्ष को भी समझा दीजिए, हमें यह भी बता दीजिए कि आपने कौन सी गायत्री का जप किया है, जो आपको गायत्री उपासना फलती-फूलती चली गई।
गुरुदेव बोले:
बेटा! हमारे दीक्षा गुरु पूज्य पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने हमें ब्राह्मण का जीवन जीते हुए गायत्री साधना करने का आदेश दिया था। हमने 15 वर्ष की आयु तक पूरी निष्ठा और श्रद्धा से, परमार्थ परायण ब्राह्मण का जीवन जीते हुए अपने गुरु की आज्ञा का पालन किया। जब हमारे सद्गुरुदेव स्वामी सर्वेश्वरानंद जी ने हमारी पात्रता देखी, हमारा साहस देखा, तो 15 वर्ष की आयु में प्रातः काल उपासना में आए और चौबीस-चौबीस लाख के चौबीस महापुरश्चरण करने का निर्देश दिया । बेटा! ब्राह्मण का जीवन जीते हुए जो गायत्री साधना करता है, उसे साहस मिलता है। “गायत्री साहस वालों की ही है, कमजोर, कामचोर दिलों की गायत्री नहीं है । गायत्री का अर्थ है साहस, ऐसा साहस जो श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ विचार और श्रेष्ठ भावनाओं के साथ आदर्शों और सिद्धांतों पर चला सके।
हमारे गुरुदेव ने पहले हमारी हिम्मत को देखा और परखा। हमें आदेश दिया कि जिस जीभ से जप करना है पहले उसे ठीक करने के लिए संयम और तप करना है । हविष्यान्न ही ग्रहण करना है । हविष्यान्न तैयार करने की विशिष्ट विधि भी बताई। उन्होंने कहा कि रात को गाय को जौ खिलाकर, सुबह गोबर में से बचे हुए जौ निकालकर, धो-सुखाकर, आटा पीसकर, गाय की छाछ के साथ पीकर तप करना है। पहले अपनी बंदूक (जीभ) ठीक रख, तभी कारतूस (गायत्री) काम करेगी । आदेशानुसार हम जौ का आटा, छाछ के साथ पीकर जप-तप करते रहे। इस प्रकार हमारे गुरु ने पहले हमारी हिम्मत को देखा।
पंडित जी को जब माँ गायत्री और साहस का संबध समझ आ गया तो उन्होंने त्रिपदा गायत्री के बारे में पूछा, साथिओ आज की गुरुकक्षा का समापन यहीं पर करना उचित रहेगा,त्रिपदा गायत्री का विषय कल तक के लिए स्थगित करते हैं।
जय गुरुदेव,धन्यवाद्
