वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वाणी संयम से वाणी शोधन (Purification of speech) होता है 

आज के ज्ञानप्रसाद लेख में वाणी संयम को वाणी शोधन से जोड़कर समझने का प्रयास किया गया है। जितना महत्व “वाणी संयम” यानि सोच समझ कर बोलने का है उतना ही महत्व “परिष्कृत वाणी”, सही शब्दावली का भी है। शब्दों की शक्ति एवं उसके पीछे छिपे ज्ञान को समझने के लिए आदरणीय चिन्मय पंड्या जी की दिव्य वाणी में एक वीडियो संलग्न की है। आज के लेख का समापन एक सरल से प्रैक्टिकल के साथ किया गया है जो मौन रह कर आत्मबल की प्राप्ति के लिए उपयोगी है। 

गुरुकुल की दैनिक गुरुकक्षा में गुरुज्ञान का दिव्य अमृतपान करते हुए अमृत्व को प्राप्त करने के लिए सभी गुरुशिष्यों का स्वागत है, अभिनंदन है, आइए विश्व शांति की कामना के साथ इस कक्षा का शुभारम्भ करें : 

 ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,

अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए !

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मनीषीओं ने वाणी संयम एवं उसके असंयम में होने वाली ऊर्जा की हानि को आवश्यक ही नहीं अनिवार्य ही बताया है। मनोविज्ञान वेत्ताओं का कहना है कि मौन रह कर, एकांत में विचार करने से  हर प्रकार शक्ति बढ़ती है। 

अन्य विषयों की भांति मौन व्रत के विषय का भी सामान्यीकरण (Generalize) करना संभव तो नहीं है लेकिन कुछ ऐसी धारणाएं बन चुकी हैं जिन्हें समाज में पत्थर की लकीर समझ कर माना जा रहा है। उदाहरण के लिए ऐसा माना गया है कि जो व्यक्ति मौन रहते हैं उनकी बुद्धि अधिक स्थिर तथा सन्तुलित रहती है। संतुलित विचारों वाला व्यक्ति, लाभ/हानि, हित/अहित के प्रसंगों पर बड़े धैर्यपूर्वक सोच-समझ सकता है। 

संकट या आपत्ति के समय “मन द्वारा प्रखर की हुई विचार शक्ति” बड़ी सहायक सिद्ध होती है। कभी भी देखा जा सकता है कि जब मनुष्य किसी गहन प्रसंग पर सोचना चाहता है तब वह एकान्त की तलाश करता है। उस समय वह  न तो  बोलता है और न ही किसी से बात करता है। बोलना और विचार करना दोनों क्रियायें एक साथ नहीं हो सकती। विचारक जितने गहरे मौन में उतरता जाता है, समस्याओं का सार्थक हल खोज लाना उतना ही सरल होता जाता है। तालाब का तला लहरों के शांत होने पर साफ़ दिखना शुरू हो जाता है। 

हमारे आसपास अनेकों महापुरुष मिल जाएंगें जिन्हें जब भी  किसी विकट समस्या पर विचार करना होता है तो वह कई दिनों तक मौन व्रत ले लिया करते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी मिल जाएंगें जो सप्ताह में एक दिन अवश्य ही  मौन रखते हैं। ऐसे मनस्वियों का  कहना है  कि “मौन  से आत्मिक बल बढ़ता है।” 

यहाँ एक बात गांठ बाँधने वाली है कि आत्मिक बल बढ़ाने के लिए केवल मौन व्रत ही सब कुछ नहीं है, उसके साथ अनेकों अन्य प्रतिबंध भी जुड़े हुए हैं। संयम की दृष्टि से वर्तमान संदर्भ में कहा जा सकता है कि फिज़ूल में अनाप-शनाप बोलने से बचकर बहुत बड़ी  शक्ति का बचाव किया जा सकता  है, इसमें कोई दो राय नहीं है। 

वाचालता अर्थात बातूनीयता  न केवल मानसिक शक्तियों को नष्ट करती है बल्कि  उससे अध्यात्मिकता का भी नाश होता है। ऐसा इसलिए कहा गया है कि  मुँह से उच्चारित किया गया प्रत्येक शब्द हमारी चेतना पर एक अमिट छाप छोड़ जाता है जो हमारे स्वभाव और चरित्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। 

शास्त्रकारों ने शब्द को ब्रह्म की संज्ञा दी है। शब्द मे बड़ी सार्थकता है । जब हम  किसी शब्द का उच्चारण करते हैं तो उसका प्रभाव न केवल हमारे गुप्त मन  पर पड़ता है बल्कि सारे संसार पर भी पड़ता है क्योंकि शब्द कभी नष्ट नहीं होते । शब्द का उच्चारण होते ही वह वायुमंडल में गूंजने में लगता है और अपने समान व्यक्ति के मन से टकरा कर उसमें तद्नुकूल प्रतिक्रिया (Corresponding response) उत्पन्न करता है। इस लेख के साथ संलग्न वीडियो में आदरणीय चिन्मय जी शब्दों के बारे में अति उत्तम बातें  बता रहे हैं। 

मंत्र शक्ति का आधार भी शब्द ही हैं। हमारे  मनस्वी ऋषियों ने मंत्र शक्ति द्वारा अनेक आश्चर्यजनक कार्य सम्मन्न किये हैं। मंत्र आखिर सशक्त, तेजस्वी एवं गूढ़ शब्दों की ध्वनियाँ ही तो हैं, इन शब्दों से न केवल मानसिक बल्कि  भौतिक जगत् में भारी उलट फेर हुए हैं। इसका एकमात्र कारण मंत्रों के पीछे “ऋषियों के अनुभव से एवं ज्ञान से भरपूर वाणी की प्राप्त शक्ति भरी रहती है। शब्द की इसी अद्भुत शक्ति के कारण मनीषियों और उपनिषदों ने प्रत्येक शब्द के प्रति अत्यन्त सावधान रहने का संकेत किया है।” जो काम हम वर्षो में नहीं कर पाते उसे मनस्वी और पुरुषार्थी व्यक्ति अपने चुने हुए शब्दों की शक्ति से बहुत ही थोड़े समय में कर लेते हैं। ऐसा इसलिए है कि उनकी वाणी में संयम के कारण अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक शक्ति आ जाती है। 

वाणी संयम का पहला अभ्यास मितभाषण है अर्थात जहां आवश्यक हो वहाँ नपे तुले शब्दों में ही अपनी बात कही जाय। जहां एक शब्द से काम चल सके वहां दूसरा शब्द न बोला जाय। ऐसे मितभाषण का जो प्रभाव पड़ता है वह अधिक बोलने से नहीं होता क्योंकि तब समग्र मानसिक शक्ति उन थोड़े से शब्दों में ही समाविष्ट हो जाती है। न केवल मानसिक शक्ति बल्कि अधिक बल भी उस संक्षिप्त शब्दावली को प्रभावपूर्ण बनाने में लग जाता है। ऐसा करने से अनावश्यक बोलने में खर्च होने वाली मूल्यवान  शक्ति भी नष्ट होने से बच जाती है ।

वाणी के संयम के लिए सोच समझकर हर वाक्य तोलकर बोलना आदि अभ्यास किए जाते हैं। अपनी वाणी से जो कुछ निकल गया उसी को सही सिद्ध करने के आग्रह की अपेक्षा अधिक प्रामणिक बात,अधिक उपयुक्त ढंग से कहने का उत्साह होने से “वाणी का शोधन” होता रहता है।

अगली पंक्तिओं में इस शोधन को जानने का प्रयास है 

यदि अपनी मनोभूमि इस स्तर की है तो सुझाव परामर्श देने वालों की कमी नहीं रहती । उन्हें सुनकर स्थिर बुद्धि से उनका विवेचन करके अधिक प्रामणिक स्तर पाने का क्रम सहज ही चलता रह सकता है। इस प्रकार स्वत: अपनी तथा अपने सम्पर्क के व्यक्तियों की मानसिक शक्ति का निरर्थक व्यय बड़ी मात्रा में बचाया जा सकता है। इस तरह बचाई गयी मानसिक शक्ति का उपयोग आत्मिक प्रगति की दिशा में अग्रसर करने के लिए किया जा सकता है। इसीलिए बार-बार दोहराया जा रहा है कि “जो बोलें, सोच समझ कर ही बोलें ऐसा करने में  व्यर्थ का  वादविवाद उत्पन्न नहीं होता क्योंकि सुनने वाले की मनोभूमि और प्रकृति देखकर ही कुछ कहा जाता है । विचारकों ने इसे ही बुद्धिमत्ता कहा है और बताया है कि “बुद्धिमान व्यक्ति बोलने से पहले सोचता है जबकि मुर्ख व्यक्ति बोलता पहले है, सोचता,समझता और विचार बाद में करता है। इसलिए यथासंभव  कम से कम बोला जाय और जो बोलना चाहिए बोलने से पूर्व उस पर विचार किया जाना चाहिए ।

वाणी शोधन ( Purification of speech ) का अर्थ क्या है ?

वाणी शोधन का अर्थ है वाणी की शुद्धता यानि ठीक Vocabulary का प्रयोग करना। वाणी जितनी शुद्ध  होगी उतनी ही पवित्र होगी  और सकारात्मकता के लिए पवित्रता का होना बहुत ही आवश्यक है। शुद्ध वाणी में ही सत्य,प्रेम,नम्रता, और कल्याण का भाव होता है। ऐसी वाणी मन, समाज और वातावरण ,तीनों को पवित्र करती है।

आज के समय में जहाँ समर्पण, विश्वास,प्रेम आदि शब्द छूमंतर हुए जा रहे हैं,यह बहुत ही बड़ा सन्देश है। पूछो उन पुरातन प्रेमिओं को जो आपने ह्रदय के रक्त के कतरों से दिल चीरकर रख देते थे। 

वाणी शोधन से वाणी संयम का होना बहुत ही महत्वपूर्ण है। वाणी संयम से जब वाणी नियंत्रण में रहेगी तो अनावश्यक, कटु, असत्य, या व्यर्थ शब्दों पर लगाम लगेगी। केवल आवश्यक, सत्य और हितकारी वचन ही बोले जाएंगें। 

जो पाठक इस प्रक्रिया को  मौन समझ रहे हैं उन्हें यह जान लेना चाहिए कि  यह मौन नहीं बल्कि सजग वाणी (Conscious voice)  का अभ्यास है, सोच-समझ कर बोलने का अभ्यास है। 

वाणी संयम से वाणी शोधन कैसे होता है:

-वाणी संयम एक तप (Tapasya) की तरह कार्य करता है। इससे भीतर की ऊर्जा और भावनाएँ शुद्ध होती हैं, विचार शुद्ध होते हैं, व्यक्ति बोलने से पहले रुककर सोचता है और स्वयं से पूछता है कि “क्या यह वचन उचित है?” इस प्रक्रिया से  धीरे-धीरे उसका विचार-तंत्र , उसके सोचने का तरीका ही शुद्ध होने लगता है। मनुष्य की उस स्थिति को ही शुद्ध विचार यानि शुद्ध वाणी का नाम दिया हुआ है। 

-वाणी संयम का अभ्यास करने से क्रोध या आवेश के क्षणों में व्यक्ति स्वयं को रोक लेता है। इससे भीतर की नकारात्मकता घटती है और परिणामवश वाणी मधुर और संयत (Controlled)  होती जाती है।

-जब वाणी सीमित और शुद्ध होती है, तो उसके शब्दों में,तेज (Aura) और सत्यबल बढ़ता है। इस स्तर के चुनिंदा शब्दों का प्रभाव सुनने वाले के मन पर गहराई से पड़ता है।

-मौन के क्षण आत्मशुद्धि लाते हैं। संयम में रहने से व्यक्ति मौन का अनुभव करता है। मौन मन को शुद्ध करता है और शुद्ध मन जब बोलता है तो वाणी भी शुद्ध और प्रभावशाली होती है।

आज के ज्ञानप्रसाद लेख का समापन मौन व्रत की निम्नलिखित दैनिक प्रक्रिया से किया जा रहा है जिसे कोई भी कर सकता है।  

1. समय और स्थान का निर्धारण:

  • प्रातःकाल (4:30 से 7:00 बजे) का समय सबसे उत्तम समय है।
  • शांत, स्वच्छ स्थान चुनें, जहाँ किसी भी प्रकार का व्यवधान न हो।
  • यदि यह संभव न हो तो रात को सोने से पहले भी किया जा सकता है।

 2. पूर्व तैयारी (3–5 मिनट):

  • शरीर सीधा रखकर आराम से बैठें (पद्मासन या कुर्सी पर)।
  • 2–3 गहरी साँस लें।
  • मन में संकल्प करें कि “आज मैं कुछ समय मौन रहूँगा, अपने विचारों का साक्षी बनूँगा।”

3. मौन अभ्यास (10–20 मिनट से प्रारंभ करें):

-वाणी का मौन: इस अवधि में कोई शब्द न बोलें। यदि कोई बात करनी हो तो लिखकर करें।

-मन का मौन: आँखें बंद करें, आने वाले विचारों को न रोकें,केवल दर्शक बनकर देखें। धीरे-धीरे विचारों की गति मंद होने लगेगी।

-श्वास पर ध्यान: श्वास के आने-जाने को शांत भाव से देखें। यह ध्यान की ओर ले जाने वाली स्वाभाविक अवस्था है।

 4. विचार शुद्धि अभ्यास (5 मिनट):

मौन के अंत में, मन में ये तीन सकारात्मक भाव भरें:मैं शांत हूँ, मेरे विचार निर्मल और शुभ हैं और मेरी बुद्धि स्पष्ट और प्रेरक है। इन्हें मन ही मन 5–7 बार दोहराएँ।

 5. मौन के बाद की सावधानी:

  • तुरंत किसी विवाद या उत्तेजना में न जाएँ।
  • धीरे-धीरे बोलना प्रारंभ करें।
  • पूरे दिन वाणी संयम का अभ्यास करें — यानी कम, स्पष्ट और प्रेमपूर्ण बोलें।

6. अवधि बढ़ाएँ:

  • प्रारंभ में 10–15 मिनट पर्याप्त हैं।
  • धीरे-धीरे इसे 30–60 मिनट तक बढ़ाएँ।
  • सप्ताह में एक दिन (जैसे रविवार) अर्ध-दिवसीय मौन व्रत रख सकते हैं।

परिणाम (लगातार 21 दिन अभ्यास से):

  • विचारों की स्पष्टता बढ़ेगी
  • निर्णय क्षमता मजबूत होगी,
  • क्रोध, चिंता और अनिर्णय घटेगा,
  • और भीतर से एक शांत आत्मबल उत्पन्न होगा।

जय गुरुदेव ,धन्यवाद्। 

कल तक के लिए मध्यांतर 


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