8 अक्टूबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
शब्द सीमा की बेड़ियाँ आज मजबूर कर रही हैं कि आज का लेख बिना किसी भूमिका के आरम्भ कर दिया जाए। मनुष्य का अति महत्वपूर्ण दुर्व्यसन “अहंकार” आज के लेख का विषय है।
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तृष्णा एवं वासना की ही तरह ही अहम भी मानासिक असंयम का ही दुष्परिणाम है। अहंकार के कारण भी मनुष्य अपनी मानसिक शक्तियाँ बर्बाद करता रहता है। अपने बारे में औरों की राय जानने की इच्छा चर्चित होने की आकांक्षा, दूसरों से प्रशंसा सुनने और करवाने की आशा आदि कितने ही रूपों में अहंकार व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में उठता रहता है। इस तरह की इच्छा और आशा में अहंकार ही मूल कारण है। दूसरों से प्रशंसा सुनने या अपने बारे में दूसरों की राय जानने का एक ही उद्देश्य होता है; स्वयं को महत्वपूर्ण अनुभव कराना।स्वयं को महत्वपूर्ण अनुभव कराने या व्यक्त करने के लिए मनुष्य का मस्तिष्क ऐसी उधेड़बुन में उलझा रहता है कि फिर वह अपनी सारी विचारशक्ति को उसी ताने बाने में लगा देता है। यहां एक बहुत ही महत्वपूर्ण गांठ बांधने वाली बात यह है कि यदि बात केवल अपने बारे में जानने की है तो फिर अपनी बुराइयां भी जाननी चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं, मनुष्य को तो अपनी वाहवाही(Flattery) ही चाहिए, किसी ने उसकी बुरी आदत बताई नहीं कि वह एकदम आग बबूला हो जाता/जाती है।
महत्वाकांक्षी (Ambitious) होना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन जब महत्वाकांक्षा की पूर्ति अहंकार के पोषण करने के लिए ही की जाती हो तो मस्तिष्क फिर उसी दिशा में सोचने में व्यस्त हो जाता है। ऐसी दशा में सार्थक चिंतन की दिशा सूझती ही नहीं है। Ambition के मुखौटे में अहंकार के वशीभूत मनुष्य औरों को नीचा साबित करने में प्रयासरत रहता है,उसी के अवसर ढूंढता रहता है।
ऐसी प्रवृति का व्यक्ति अपनी विचारशीलता की सारी पूंजी अहंकार के पोषण में न भी लगाए तो भी व्यक्ति अहंकार के कारण अपने सम्बन्ध में ऐसी मान्यतायें स्थापित कर लेता है कि यदि उन मान्यताओं पर थोड़ी सी भी प्रतिकूलता दिखाई जाए तो उसे सहन नहीं होती, वह आग बबूला हो जाता है।
क्रोध, उत्तेजना और आवेश जैसे मनोविकारों का जन्म अहंकार के कारण ही होता है। अहंकार नामक दुर्व्यसन, मनुष्य में अपने प्रति सम्माननीय एवं प्रतिष्ठा की प्रवृति को जन्म देती है। मनुष्य आशा करता है कि अन्य लोग भी उसे बड़ा एवं विशिष्ट समझें। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उसकी बात को न माना जाय या उसके विचारों की अवहेलना की जाय। सत्परामर्श तो सभी मानते हैं लेकिन अपने परामर्श में त्रुटि होने के बावजूद अहंकारवश उसमें कोई दोष न दिखे और सभी को उसे स्वीकार कर लेने का आग्रह किया जाए, तो समस्या का उठना स्वाभाविक है। परिस्थितिवश या परामर्श के अव्यवहारिक होने पर जब उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जाता है तो परामर्शदाता उसे अपना अपमान मान बैठता है, अपनी प्रतिष्ठा का गंभीर विषय बना लेता है। इतना ही नहीं,अपनी बात न मना पाने के कारण वह कई-कई दिन तक अपसेट रहता है, उसी बात को पीसता रहता है। हम में से अनेकों ने ऐसी स्थिति का लगभग हर रोज़ ही सामना किया होगा लेकिन सोचने वाली बात तो यह है कि अहंकार के अंधेपन के कारण ऐसा करना कहाँ तक ठीक है ?
इस सन्दर्भ में परम पूज्य गुरुदेव हमें बता रहे हैं कि अहंकार के कारण ऐसी व्यर्थ की “मस्तिष्कीय प्रतिक्रियायें” बहुत ही हानिकारक हैं। किसी विषय को हम गम्भीर समझ रहे हैं लेकिन सुनने वाला उसे सहज मान कर हल्के में ले रहा है,पूरा ध्यान नहीं दे रहा है तो ऐसी स्थिति में रुष्ट होने से लेकर क्रोध व्यक्त करने तक, न जाने कितनी ही प्रतिक्रियायें दिखाई देती हैं। विचार किया जाना चाहिए कि क्रोध की स्थिति क्यों बन रही है। कहीं हम ही गल्ती पर तो नहीं है या सुनने वाला उस परामर्श में क्या व्यावहारिक कठिनाई अनुभव कर रहा है,इस कठिनाई के कारण वह आपके विचारों में कोई रूचि नहीं दिखा रहा। इस इशू पर सीरियस होकर विचार करने की ज़रुरत होनी चाहिए तथा देखना चाहिए कि समस्या का कारण क्या है। लेकिन सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि अहंकारवश आमतौर पर लोग स्वयं को ही सही और बाकी सभी को गलत मानते हैं,स्वयं को महान/बड़ा और अन्य सभी को छोटा मानते हैं। जिस मनुष्य ने स्वयं को बड़ा बनाया हुआ है, उसकी मान्यताओं पर हल्का सा आघात भी होता है तो दुःखी और आपा खोने तक की स्थिति आना कोई बड़ी बात नहीं है।
अहंकार ही क्रोध की जननी है। किसी ने कोई अपशब्द कह दिये तो बस स्वयं के बड़प्पन को ठेस लगती प्रतीत होती है और बड़प्पन को ठेस लगना तो इतना बड़ा समझ लिया जाता है जैसे किसी ने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो, अहंकारवश मनुष्य के अहम को ठेस लगना अति व्यक्तिगत स्थिति होती है।
हमारे आसपास कितने ही लोग मिल जायेंगें जिन्हें किसी की कोई भी बात आहत नहीं करती, सदैव हँसते-खेलते, सदैव प्रसन्न ही दिखते हैं। ऐसे लोगों ने ज़िंदगी के बेसिक सिद्धांत को समझ लिया होता है और वह सिद्धांत है “Smile is contagious,it spreads fast.”बड़प्पन और अहंकार की झूठी शान को छोड़कर यदि क्षमा की नीति अपनायी जाए, प्रतिपक्ष ने कुछ अप्रिय कह दिया है तो उसे भुला देने,इग्नोर करने की नीति अपनाना ही समझदारी है। यह समझदारी, सद्बुद्धि की देवी माँ गायत्री की साधना से ही प्राप्त होती है। Attitude में मात्र इतना सा ही बदलाव लाने से मस्तिष्क में होने वाली उथल-पुथल,अहंकार को चोट पहुँचाने पर होने वाली तिलमिलाहट, हृदय में काँटे सी चुभने वाली वेदना आदि से स्वयं को बचाया जा सकता है। मनुष्य को चाहिए कि अपनी मानसिक शक्तियों को व्यर्थ की अग्नि में भस्म होने के बजाए सार्थक चिंतन में लगाया जाए। गुरुदेव बता रहे हैं कि हमारे कहने के बावजूद अहंकार में ग्रस्त मनुष्य इन सब बातों को कहाँ सोच पाता है, उसके मन में तो मुंह तोड़ उत्तर देने, रोष व्यक्त करने से लेकर सामने वाले को नष्ट कर देने तक के विचार उठते हैं। संसार में जितने भी उपद्रव होते हैं, व्यक्तिगत लड़ाई झगड़े होते हैं मनमुटाव के कारण होने वाले अपराधों की जड़ अहम् ही है और उसके कारण मनुष्य की मानसिक शक्ति का बहुत बड़ा भाग नष्ट हो जाता है ।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार से जुड़े सभी सदस्य इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि व्यर्थ का अहंकार मनुष्य का सर्वनाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। सार्थक चिंतन के लिए आँख खुलते ही प्रत्येक साथी के फ़ोन के इनबॉक्स में गुरुदेव द्वारा रचित एवं हमारे प्रयास से सरल किया गया ज्ञानप्रसाद, दिन का ऐसा शुभारम्भ करता है कि पता ही नहीं चलता कि कब शुभरात्रि सन्देश आ गया। अनेकों साथिओं ने अपनी दिनचर्या को इस छोटे से समर्पित परिवार के मंच पर बार-बार शेयर किया है, बार-बार कहा है कि आँख खुलते है पहला कार्य ज्ञानप्रसाद को ढूंढना ही होता है, कभी किसी कारणवश मिस/लेट हो जाता है तो तुरंत कारण ढूंढने का प्रयास भी किया जाता है।
कितना अच्छा हो कि अहंकार से होने वाली प्रतिक्रिया एवं उसके फलस्वरूप मनुष्य की शक्ति का अपव्यय ही नहीं दुर्व्यय भी रोका जाए। ऐसी स्थिति के रोकथाम के लिए अपने चिंतन में सुलझी हुई मान्यतायें बिठाई जाँय तथा अहंकार के कारण होने वाली हानियों को अपनी, स्वयं की क्षति समझ कर उनसे बचने के लिए ठीक उसी स्तर के प्रयास किये जाँय जैसे लोग बिज़नेस में सम्भावित घाटे से बचने के लिए करते हैं। समझा जाना चाहिए कि अपनी ही भांति औरों को भी अपने अस्तित्व का भान है और उन्हें भी अपने अस्तित्व की रक्षा का अधिकार है। यदि आवेशवश होकर कोई गलत बात कह भी रहा है तो उसे नज़रअंदाज़ करने में जितना हित है उतना उलट कर React करने में नहीं है । यदि React करना ही है तो समाधान देकर React करना उचित होता है न कि बदला देने और नीचा दिखाने की भावना से हो। समाधान प्रदान करने वाली नीति का वरण कर लेने से मनुष्य के व्यक्तित्व की सुन्दरता में चार चांद लग जाते हैं जबकि उलटकर,विरोध करने में, हमला करने में हमारा स्तर भी उतना ही गिर जाता है जितना कि सामने वाले का। गाली का जवाब गाली से ही देने में व्यक्ति को उसी स्तर पर नीचे उतरना पड़ेगा जिस स्तर पर गाली दे रहा मनुष्य खड़ा है। नीचे उतरने में, अपनी उच्च नैतिकता को अधोगामी (Downward) बना लेने में कौन सा बड़प्पन है ।
अहंकार से प्राप्त होने वाली ठेस जहां चित्त में स्ट्रेस उत्पन्न करती है वही मनुष्य के अंदर अविवेक भी उत्पन्न होती है। गीता में कहा भी गया है: अविवेक, मृढ़ता और बुद्धि नाश के कारण व्यक्ति का पतन हो जाता है। विज्ञान ने प्रमाणित किया है कि मनुष्य के अंदर होने वाले अनेकों Disorders का एक बड़ा कारण ऐसी फिक्र और चिंता है जिसका कोई आधार ही नहीं है। एकदम आवेश में आ जाना,उत्तेजित हो जाना, घबरा जाना, चिन्ताग्रस्त रहना,अनिश्चतता आदि कितनी ही बातें हैं जो Anxiety के कारण उत्पन्न होती है।
जब मनुष्य को किसी कार्य का महत्व या किसी सिद्धान्त की उपयोगिता अच्छी तरह समझ में आ जाती है तो वह उसे एकदम करने को तैयार हो जाता है। अनुचित लगने वाली बात का विरोध करने में भी ऐसी ही मनोवृत्ति बन जाती है । जबकि कोई भी कार्य नियत ढंग से व्यवस्थित रूप में ही संपन्न किया जा सकता है और उसके अपेक्षित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं । उदहारण के लिए साधना-उपासना का महत्व समझ लेने और उस पर निष्ठा जम जाने के बाद एक उत्कृष्ट लगन पैदा होने लगती है कि ईश्वर अभी मिल जाएँ, हमारा स्तर अभी ही महामानवों जैसा हो जाय, लोग हमें अभी ही महात्मा के रूप में देखने लगें । महामानव बनने या स्तर ऊँचा उठाने का आदर्श सराहनीय है लेकिन यह तथ्य यदि भुला दिया गया कि वह स्थिति श्रम, समय और लगन-साध्य है तो मार्ग से भटक जाने का खतरा बना ही रहेगा क्योंकि जल्दबाज़ी में साधना की सीड़ियों पर ध्यान ही नहीं जायगा ।
मानसिक शक्तियों को बैलेंस न कर पाने के कारण हर सामान्य व्यक्ति को Anxiety का सामना करना पड़ता है। कई लोगों का स्वभाव ही बन जाता है कि वे हर काम जल्दबाजी, उतावलेपन से करने के कारण किसी काम को भी भलीभांति नही कर पाते। ऐसे मनुष्य अपनी शक्तियों को नष्ट कर डालते हैं, उनसे कोई लाभ नहीं उठा पाते।
अहंकार से पैदा हुए अव्यवस्थित दोष से बचना बहुत ज़रूरी है।अक्सर देखा गया है कि मानसिक शक्ति एवं उसके उपयोग का महत्व अधिकांश बुद्धिजीवी भली प्रकार जानते हैं लेकिन उनमें भी समुचित लाभ उठा पाने वाले व्यक्ति विरले ही देखे गए हैं।
आज के लेख का निम्नलिखित सन्देश आत्मसात कर लिया जाए तो कायाकल्प होते देर नहीं लगेगी :
यदि मानसिक संयम का व्यवस्थित अभ्यास अल्प मात्रा में भी किया जाए तो जीवन की अनेक विडम्बनाओं से बचना तथा अनेक सफलताओं का अधिकारी बनना हर किसी के लिए संभव हो सकता है।
जय गुरुदेव, धन्यवाद्
कल तक मध्यांतर
