5 मई 2025 का ज्ञानप्रसाद-सोर्स:अखंड ज्योति दिसंबर 1958
22 से 26 नवंबर 1958 को मथुरा में उस समय का विशाल सहस्र कुंडीय यज्ञ का आयोजन हुआ, दिसंबर 1958 की अखंड ज्योति का पूरा अंक इस यज्ञ को ही समर्पित था। परम पूज्य गुरुदेव ने इस अंक में महायज्ञ का विस्तृत विवरण तो दिया ही लेकिन उस समय के 12 दिव्य निम्नलिखित महापुरषों से भी अलौकिक लेख लिखवाये:
1.श्री सत्यनारायण सिंह, 2.श्री शंभूसिंह जी, 3.श्री सत्य प्रकाश शर्मा, 4.डॉ. चमनलाल, 5.श्री सीतारामजी राठी,बोरीवली,मुंबई, 6.श्री रामनारायण अग्रवाल, 7.श्री मार्कंडेय ‘ऋषि,’काशी, 8.श्री बालकृष्ण जी, 9.श्री अवधूत, गुप्त मंत्र विद्या विशारद,गोरेगाँव,मुंबई,10.श्री गिरिजा सिंह जी,11.श्री घनश्याम दासजी,इकौना,12. ब्रह्मचारी योगेन्द्रनाथ।
इस श्रृंखला में अभी तक हम पांच महा आत्माओं के विचारों का अमृतपान कर चुके हैं,आज प्रस्तुत किया गया छठा लेख आदरणीय रामनारायण अग्रवाल जी की अनुपम लेखनी से सुशोभित हो रहा है।
हमारा सौभाग्य है कि आद. अग्रवाल जी प्रतिष्ठित साहित्यकार व कवि होने के साथ-साथ इतिहासकार भी हैं, उन्होंने महायज्ञ के बारे में तो बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में लिखा है लेकिन मथुरा के इतिहास का ऐसा दुर्लभ वर्णन दिया है जिसे रिसर्च करने में हम जैसों के कईं वर्ष लग जाते। ऐसी Research finding के लिए शोधकर्ता एवं “ब्रज साहित्य मंडल” के मंत्री (आदरणीय अग्रवाल जी) को नमन करते हैं।
बहुत दिनों से जिज्ञासा उठ रही थी कि परम पूज्य गुरुदेव द्वारा भारत एवं विश्व को यज्ञभूमि बनाने के पीछे क्या उद्देश्य था, गुरुदेव यज्ञभूमि बनाकर क्या प्राप्त करना चाहते थे, जगह-जगह शक्तिपीठ,गृहे-गृहे यज्ञ करवा कर गुरुदेव क्या प्राप्त करना चाहते थे। अगर विश्वशांति उद्देश्य था तो यज्ञों द्वारा विश्वशांति कैसे प्राप्त की जा सकती है ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर देने के लिए, इस शृंखला का अंतिम लेख अति लाभदायक हो सकता है, जिसे हम कई दिनों की रिसर्च के बाद आजकल Compile कर रहे हैं।
तो साथिओ इन्हीं शब्दों के साथ, विश्वशांति की कामना करते हुए,आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद के अमृतपान का शुभारम्भ होता है :
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!
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महा महिमामयी मथुरापुरी प्रस्तुतकर्ता श्री रामनारायण अग्रवाल
ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली पर ब्रजभाषा के कार्यक्रमों के अधिकारी श्री आर. एन. अग्रवाल प्रतिष्ठित साहित्यकार व कवि हैं। “ब्रज साहित्य मंडल” के एक मंत्री होने के साथ-साथ आप अत्यन्त महत्वपूर्ण शोधकार्यों में संलग्न हैं। महायज्ञ में सम्मिलित होने के लिये आप सपत्नीक पधारे थे। उसी अवसर पर आपने यह लेख विशेष रूप से अखण्ड ज्योति के लिये प्रकाशनार्थ दिया है।
जिस मथुरापुरी को इस युग के अभूतपूर्व गायत्री-यज्ञानुष्ठान के लिये चुना गया वह धर्मभूमि सदा से ही विभिन्न धार्मिक समुदायों का एक प्रमुख प्रचार केन्द्र रही है। भारतीय धर्म और संस्कृति के इतिहास में इस धर्मभूमि का बहुत बड़ा सहयोग रहा है और यहां यज्ञ-यागादिक धर्मकार्य निरन्तर सम्पन्न होते रहे हैं । इन विषयों पर सुयोग्य लेखक ने प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री से सप्रमाण प्रकाश डाला है। वर्तमान समय की यह भक्ति-रस प्रधान नगरी आध्यात्म और ज्ञानमार्ग के भी स्मरणीय दृश्य उपस्थित कर चुकी है, इसकी एक झलक पाठकों को इस लेख में मिलेगी।
मथुरापुरी भारतवर्ष के प्राचीनतम नगरों में से एक है। इसे भारत की सप्त महापुरियों में स्थान दिया गया है और मोक्षदायिका बताया गया है। वैदिक, पौराणिक वासुदेव धर्म तथा बौद्ध और जैन धर्मों के साथ-साथ यह नगर वर्तमान वैष्णव धर्म का भी केन्द्र रहा है। इसके वर्णनों से प्राचीन वाङ्मय भरा पड़ा है।
मथुरा नगर राजनीति और इतिहास का भी पुराना केन्द्र रहा है। भारत के प्राचीन गणतंत्रों में अग्रगण्य अंधक वृष्णि वंशी नरेशों के शूरसेन जनपद की राजधानी भी यह नगर रहा। क्या नाग, क्या हूण, क्या कुशाण और क्या गुप्त, सभी नरेशों की सदा इस पर दृष्टि रही और मथुरा नगरी भारतीय इतिहास के उत्थान-पतन का इतिहास युगों से अपने अंचल में छिपाये आज भी स्थित है। यही नहीं, यह नगर फिलॉस्फी, काव्यकला, पुरातत्व और व्यवसाय का भी गढ़ था। मूर्तिकला के विकास में मथुरा का योगदान तो विश्वविख्यात ही है। यही नहीं भारतीय संस्कृति के मूलाधार नटनागर भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि होने के कारण तो इस नगर की महिमा सदा-सदा के लिए अखंड हो गई है और अपनी वर्तमान हीनावस्था में भी यह नगरी संपूर्ण देश के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।
कहा जाता है कि मधु नामक एक प्रतापी नरेश ने मथुरा नगर की स्थापना की थी। इस धर्मात्मा नरेश ने वनों को काटकर यह सुन्दर नगर बसाया और इसे अपनी राजधानी बनाया। इसीलिए मथुरा को मधुपुरी या मधुरा भी कहा गया है। वह मधु नरेश किस वर्ग का था इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है, कुछ इसे यादववंशी तथा कुछ दैत्यवंशी मानते हैं, परन्तु मधु एक प्रतापी, प्रजापालक और कुशल शासक था यह सभी स्वीकार करते हैं। मधु के उपरान्त उसका पुत्र लवण उसके अनुरूप नहीं रहा, वह एक क्रूर शासक था और उसने यज्ञादि पर प्रतिबन्ध लगा कर अपनी प्रजाविरोधी नीति के कारण यहाँ के ऋषियों और जनता को असन्तुष्ट कर दिया था। ऋषियों ने अयोध्या जाकर लवण के अत्याचारों की कथा भगवान राम को सुनाई थी और लवण से उनका त्राण करने के लिए अनुरोध किया था, जिसके परिणाम स्वरूप इच्छाकवंशी एक विशाल सैन्य दल भगवान राम के अनुज शत्रुघन के नेतृत्व में मथुरा पर चढ़ आया और उसने लवण का वध किया। लवण के वध उपरान्त भगवान राम की इच्छानुसार शत्रुघन मथुराधीश बनाये गये। उन्होंने इस नगर को फिर से बसाया।
वाल्मीकि ऋषि की रामायण के उत्तरकाण्ड में यह घटना विस्तार से दी गई है। वाल्मीकि जी ने मथुरा की शोभा का बड़ा भव्य वर्णन किया है और यमुना के तट पर बसी इस सुन्दर नगरी को ‘वेद निर्मिताम्’ (देवताओं द्वारा बसाई गई नगरी) कहा है।
परन्तु इच्छाक वंश का राज्य मथुरा में स्थायी नहीं हुआ, बाद में चन्द्रवंशी नरेशों ने इस पर अधिकार कर लिया और वह भारत के गणतंत्र में शूरसेन जनपद की राजधानी के रूप में विकसित हुआ। बाद में समय की गति के साथ मथुरा की राजसत्ता में भी परिवर्तन होते गये जिसका ज्ञात और अज्ञात इतिहास स्वयं अपनेआप में एक ग्रंथ का विषय है।
हम यहां केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि मथुरा भारत का एक प्राचीन ऐतिहासिक केन्द्र रहा है और यहाँ की सम्पन्नता पाँडित्य तथा कला, सदा-सदा से संपूर्ण देश को आकर्षित करती रही थी। यही कारण है कि भारतवर्ष में जब भी कोई साँस्कृतिक उत्थान या धार्मिक आन्दोलन आरम्भ हुआ उसे अपनी सर्वमान्यता स्वीकार कराने के लिए मथुरा की ओर
देखना ही पड़ा। और मथुरा की उदार संस्कृति परंपरा में देर सबेर,उन सभी को प्रश्रय मिला।
कहा जाता है कि जब भगवान् बुद्ध धर्म प्रचार के लिए पहली बार मथुरा आये तो यहाँ उनका अच्छा स्वागत नहीं हुआ। उस समय मथुरा में राक्षस का बाहुल्य था और यहाँ कुत्ते बहुत थे जिन्होंने भगवान बुद्ध को भी परेशान किया, परन्तु बाद में वैदा नामक प्रसिद्ध राक्षसणी ने उनका धर्म स्वीकार कर लिया और यहाँ बौद्ध विहारों की एक लम्बी श्रृंखला ही बन गई। भगवान बुद्ध की परम्परा में उपगुप्त तथा नगर नर्तकी वासवदत्ता ने भी बाद में बुद्धधर्म स्वीकार किया और मथुरा बुद्धधर्म का प्रधान केन्द्र बना।
यही नहीं जैनधर्म को भी मथुरा में भारी प्रश्रय मिला। जैनों ने भगवान नेमिनाथ को जो भगवान श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे अपने 23वें तीर्थंकर के रूप में स्वीकार किया था और वर्तमान कंकाली टीला यहाँ जैनधर्म का प्रधान केन्द्र बना।
मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में इस टीले से प्राप्त जैन सामग्री पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हुई है, जिसमें एक विशाल देवनिर्मित स्तूप भी है। जैन और बुद्धधर्म के साथ वासुदेव धर्म का भी मथुरा केन्द्र था। भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि कटरा केशवदेव पर ईसवी शती से पूर्ण ही राजा षोड़ाष के समय ही वहाँ भगवान कृष्ण का मंदिर स्थापित हो चुका था। इस पावन स्थल को, एक अत्यन्त प्राचीन लेख में “महास्थल” नाम से कथन किया गया है। चन्द्रगुप्त मौर्य के राज दरबार में स्थित सिल्युकस के राजदूत मैगस्थनीज ने विश्लोवरा के नाम से इस स्थल का विस्तृत वर्णन किया है और यहाँ के वैभव और संवृद्धि की विस्तार से चर्चा की है। यही कारण है कि महमूद गजनवी ने मथुरा को भी अपनी लालची वृत्ति की पूर्ति का एक साधन बनाया और भगवान श्री कृष्ण के जन्मस्थान को अपने आक्रमण का केन्द्र बनाकर ध्वस्त किया था। यहाँ से वह अपार धन राशि लेकर गजनी लौटा यह सर्वविदित है। क्या मुहम्मदशाह अब्दाली, क्या नादिरशाह और क्या अन्य विजेतागण सभी ने मथुरा के वैभव तथा यहाँ के साहित्य और संस्कृति का सर्वनाश करने में कोई कसर न छोड़ी और दिल्ली तथा आगरा के मध्य में स्थित होने के कारण मथुरा को हर बार विजेताओं से पददलित होना पड़ा परन्तु यही एक संतोष की बात है कि मथुरा आज भी जीवित है यद्यपि उसकी स्थितियाँ आरंभ से लेकर अब तक यमुना के प्रवाह के साथ ही बदलती रही हैं।
इस प्रकार आज का मथुरा अपने अतीत गौरव पर आधारित एक छोटा, किन्तु फिर भी एक महत्वपूर्ण नगर है। इसका वर्त्तमान महत्व वास्तव में 16वीं शताब्दी में विकसित वैष्णव भक्ति के केन्द्र के रूप में ही है। भारत में मुसलमान शासन स्थापित होने के उपरान्त सगुण भक्ति धारा की जो सबल रसधारा प्रवाहित हुई उसमें मथुरा मंडल ही कृष्ण- भक्ति का केन्द्र बना। आचार्य बल्लभ, रूप सनातन गोस्वामी, नारायण भट्ट, स्वामी हरिदास, हित हरिवंश आदि अनेक महापुरुष एक साथ मथुरा और इसके समीपस्थ स्थलों में बसे और यहाँ से कृष्ण भक्ति की जो मधुर मुरली बजी उसने संपूर्ण देश को विमोहित करके इसे फिर से गौरवान्वित किया, यही मथुरा की देन है।
भक्तियुग में मथुरा को फिर कृष्ण जन्मभूमि के गौरवपूर्ण पद की मान्यता प्रदान की गई, यहाँ के प्राचीन स्थलों को पुनः खोजा गया। रास रंगमंच का पुनरुद्धार मथुरा के विश्रामन्तघाट पर ही हुआ और मथुरा जन-जन के आकर्षण का केन्द्र बना ही रहा। आज भी मथुरा में यम द्वितीया, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी तथा झूला दर्शन के लिए संपूर्ण देश के वैष्णव एकत्रित होते हैं, और यहाँ की रज को मस्तक पर धारण करके अपने को धन्य मानते हैं। यही नहीं कृष्णभक्ति के साथ-साथ मथुरा आज भी भारत की सिद्धपीठ के रूप में मान्य है। अभी-अभी 22 से 26 नवम्बर को पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने प्राचीन वैदिक परंपरा के अनुसार 1024 कुँड स्थापित करके यहीं एक गायत्री महायज्ञ का एक भव्य आयोजन किया, जिसमें लगभग 5 लाख दर्शनार्थियों ने मथुरा में कुँभ जैसा दृश्य उपस्थित कर दिया और “ॐ भूर्भुवः स्वः” के स्वर समस्त वातावरण में गूँज उठे। इस प्रकार मथुरा अब भी विभिन्न भारतीय संस्कृतियों के समन्वित रूप का एक सजीव प्रतीक बना हुआ है। ब्रजप्रदेश की साँस्कृतिक राजधानी के रूप में इसका गौरव सदा ही उच्चस्तरीय रहेगा।
आज के लेख का समापन इस जानकारी के साथ करते हैं कि राजस्थान प्रदेश के ग्राम उलुपुरा में 5121 कुंडीय यज्ञ का शुभारम्भ हो चुका है, पिछले कल रविवार, 4 मई 2025 को कलश यात्रा निकाली गयी थी।
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शनिवार वाले विशेषांक को 398 कमैंट्स मिले एवं 10 साथिओं ने 24 आहुति संकल्प पूरा किया है ,सभी को बधाई एवं धन्यवाद्