वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आत्मबल सभी प्रकार के बल से सर्वोपरि है,भाग 3 

आत्मबल के विषय पर प्रस्तुत किये गए तीनों लेख इस उद्देश्य से लिखे गए हैं कि आँख मूँद कर यह विश्वास न कर लिया जाए कि “आत्मबल ही सर्वोपरि है” क्योंकि वर्षों से चलते आ रहे सन्देश  “जिसकी लाठी उसकी भैंस, Money makes the  mare go” आधुनिक युग में और भी अधिक प्रभावशाली होते दिख रहे हैं। शरीरबल, यौवनबल,पदबल  प्रदर्शित करते हुए अक्सर सुना जाता है “तुझे पता नहीं मैं कौन हूँ ?” ऐसी परिस्थितिओं में सच्चे  अध्यात्मवादी का आत्मबल भी डगमगाता दिखेगा। क्या इस नास्तिकवाद की दुनिया में अध्यात्मवादी अपनी कुटिया में बैठा माला जपता  रहेगा, घंटी बजता रहेगा,तप शक्ति से आत्मबल प्राप्त करता रहेगा ? आज के लेख में ऐसी ही असमंजस भरी स्थिति की चर्चा है। 

आज का लेख इस श्रृंखला का अंतिम लेख है।

तो आइये चलें गुरुकुल की आज की आध्यात्मिक गुरु कक्षा में, आज के गुरुज्ञान के अमृतपान के लिए और हो जाएँ अपने गुरु के श्रीचरणों में समर्पित। 

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कल वाले लेख में कुछ अभावों का वर्णन किया गया था जिन्हें  देखते हुए सन्देह होता है कि यां  तो “आत्मबल और आत्मसाधना” की जो महत्ता बताई जाती रही है, महिमा गाई जाती रही है,वह आडंबर  है यां “आत्मसाधना” के दावेदार स्वयं ही भ्रमित हैं। वह छल-प्रपंच का सहारा  लेते हैं, वास्तविकता को न समझ पाने के कारण इधर-उधर की बातें करते हैं,अस्त-व्यस्त रहते हैं और दिशाहीन,दिशाभ्रमित होने पर भी बड़े लक्ष्य प्राप्त करने के प्रपंचों का विज्ञापन करते हैं।

गुरुदेव तो उन दिनों की बात कर रहे हैं जब “आत्मशक्ति” से सम्पन्न उदाहरणीय व्यक्तित्व हुआ करते थे जिन्होंने  अपनी अर्जित क्षमता के सहारे ऐसे कार्य कर दिखाए जो साधारणजनों की दृष्टि में अलौकिक कहे जा सके। विश्वमित्र, अगस्त्य, परशुराम, नारद, दधीचि जैसे तपस्वियों के नाम याद आते ही वे घटनाएँ भी आँखों के सामने गुजरने लगती हैं जिनमें उन्होंने अपने समय में असाधारण पुरुषार्थ प्रकट करते हुए सिद्ध पुरुषों जैसे स्तर के प्रमाण दिये।

आदरणीय चिन्मय जी अपने उद्बोधनों में कई बार कह चुके हैं कि आज भारत में साधु-संतों की जनसंख्या लगभग 1करोड़  के लगभग है और  गांवों का संख्या 6 लाख के करीब है। इस गणित से तो हर गाँव में 1-2  साधु तो होने ही चाहिए जो लोगों को आत्मज्ञान, आत्मसाधना, आत्मबल जैसे विषयों में ट्रेनिंग दे सकें ताकि धरती पर स्वर्ग का अवतरण आज ही हो जाये,नए युग का निर्माण आज ही हो जाये। तंत्र मंत्र की कला में अपने को प्रवीण-पारंगत करने वालों की संख्या भी हजारों में हैं। देवी देवताओं की पूजा पत्री में निरन्तर निरत रहने वाले पुजारी वर्ग के लोगों की गणना भी लाखों में की जा सकती है क्योंकि हर मन्दिर में कम से कम एक पुजारी की नियुक्ति तो आँकी ही जा सकती हैं। व्यक्तिगत पूजा-पाठ में घंटों समय लगाने वाले भक्तजनों को गिना जाय तो वे भी करोड़ों न सही लाखों तो होंगे ही। पंडित पुरोहित अपने को देवताओं का एजेण्ट बना कर प्रचुर परिमाण में दान दक्षिणा बटोरते रहे हैं। इस समूचे परिकर को एकत्रित करके गिना जाय तो उनकी संख्या मात्र अपने देश में ही लाखों करोड़ों हो सकती हैं। 

प्रस्तुत तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता और साथ ही यह विश्वास भी नहीं किया जा सकता कि उनकी स्थिति वैसी ही है जैसी कि कहीं सुनी और बताई जाती है।

हम जैसे तुच्छ व्यक्ति के लिए साधुओं की  योग्यता पर प्रश्न उठाना तो शायद उचित नहीं होगा क्योंकि हमारे लिए सभी अति सम्मानीय हैं लेकिन सही स्थिति किसी भी पाठक से छुपी नहीं है। सामयिक समस्याएँ इतनी हैं कि “समर्थ अध्यात्म” के सहारे इतने सारे लोग अकेले न सही, मिलजुल कर तो कर ही सकते हैं, लेकिन देखा इसके ठीक विपरीत जाता हैं। 

एक ओर “तथाकथित अध्यात्मवादियों” की संख्या बरसाती मेंढकों की तरह बढ़ती जा रही हैं। उनके द्वारा नियोजित कर्मकाण्डों का भी अत्यन्त खर्चीला और आडम्बर भरा प्रदर्शन इतना बढ़ रहा है जिसे आसमान छूने स्तर का कहा जा सके। इस विषय के पक्षधर देवताओं,आश्रमों, मठों की, साहित्य की भी तूफानी गति से अभिवृद्धि हो रही हैं।

हर क्षेत्र में संकटों, विग्रहों, अभावों और अनाचारों के अम्बार लगे हुए हैं और उन्हें निरस्त करने में निरन्तर बढ़ते हुए अध्यात्म विस्तार का दबाव कुछ ऐसा कर नहीं पा रहा कि  जिससे परिस्थितियाँ सुधरें,फिजूलखर्ची की बाढ़ रुके, पदार्थों के भंडारण रुकें। उपरोक्त लाखों करोड़ों वेशधारियों (साधुओं) से आशा की जानी चाहिए कि  लोकहित की दृष्टि से अगर वह कुछ न कर सकें  तो कम से कम स्वयं को  तो आदर्श व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करें। ऐसा करने से उनके चिन्तन, चरित्र और व्यवहार, व्यक्तित्व को देखते हुए यह मान्यता बने कि अपने देश में “उच्चस्तरीय व्यक्तित्व” से सम्पन्न ऐसे लाखों करोड़ों लोग मौजूद हैं जो अपनी उपस्थिति से जनसाधारण में बढ़ती जा रही अश्रद्धा से तो निपट सकने में सक्ष्म हैं। साधुओं की इतनी बड़ी सेना कम से कम इतना तो सिद्ध कर ही सकें कि “अध्यात्म के दावेदार” निजी जीवन में  इतने प्रखर और प्रामाणिक होते ही हैं ताकि उन पर विश्वास किया जा सके।

आज के मनुष्य ने मात्र कलेवर को ही सब कुछ समझ लिया गया है और यह आवश्यकता ही नहीं समझी कि उपासक को प्राणवान भी होना चाहिए। पूजा कृत्यों के साथ आध्यात्मवादी की जीवनचर्या भी उच्चस्तरीय होनी चाहिए। उसके व्यक्तित्व में प्रामाणिकता एवं उत्कृष्टता का भी गहरा पुट होना चाहिए। मात्र बाहरी कलेवर का गठन कर लेना पर्याप्त नहीं होता। मिट्टी के खिलौने जैसी गाय से बच्चे का मन तो बहलाया जा  सकता है लेकिन उससे दूध देने और बछड़े पैदा करने की आशा नहीं की जा सकती। काठ से बड़े हाथी की आकृति तो बन सकती हैं लेकिन उस  पर सवारी करके लम्बी मंजिल पूरी करने की आशा नहीं की जा सकती। खोटे सिक्के देखने में असली जैसे लगते तो हैं लेकिन  दुकानदार के हाथ तक पहुंचते ही उपहास का विषय  बनने लगते हैं। नकली तो आखिर नकली ही रहेगा, उससे केवल मन ही  बहलाया जा सकता है, वह प्रयोजन पूरा नहीं कराया जा सकता जो असली के माध्यम से सम्पन्न हो सकता हैं। 

चालू आध्यात्म, जिसे आज के युग में क्रैश कोर्स, वीकेंड कोर्स की भांति इंस्टेंट बनाकर एक्सपर्ट बनाये जा रहे हैं, मिट्टी  के खिलौनों से अधिक नहीं हैं। इन खिलौनों  से एक बड़ी भारी हानि यह हो रही  है कि अध्यात्मिकता और आस्तिकता के तत्त्वज्ञान को ही लोग अविश्वसनीय और अप्रामाणिक मानने लगे हैं । उसे छल कपट समझने लगे हैं और इस प्रपंच से दूर रहने की बात सोचने लगे हैं। यदि ऐसी मनःस्थिति कुछ देर और बनी रही तो संसार के उच्चस्तरीय प्रतिपादनों को भारी क्षति पहुँचेगी। इस स्थिति से पैदा हो रही नास्तिकता का  बोलबाला हो रहा है जिसकी आड़ में अनैतिकता, असामाजिकता, अराजकता, अवांछनीयता इस समय की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। आधुनिक समय में उत्कृष्टता/आदर्शवादिता को अनावश्यक समझा जाने लगा है। महावत का अंकुश न रहने पर उन्मत्त हाथी किसी भी दिशा में चल सकता है और कुछ भी अनर्थ कर सकता है। आत्मिक तत्व के साथ जुड़े हुए उत्कृष्टता के, मर्यादाओं के, पुण्य-परमार्थों के विचार यदि बाँध तोड़ कर उच्छृंखलता की दिशा में चल पड़ें तो मनुष्य-मनुष्य नहीं रह जायगा, उसे प्रेत पिशाचों जैसे उद्दंड कोलाहल खड़े करते चारों ओर देखा जायगा।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इन दिनों कड़वी गिलोय का कड़वे  नीम पर चढ़ने का सम्मिलित कुयोग बन रहा है। इस स्थिति का मुख्य कारण है कि भौतिक विज्ञान ही सृष्टि का नियन्ता (भगवान्) बना बैठा है। भौतिक विज्ञान ने नियन्ता के अस्तित्व से इंकार करके विशुद्ध भौतिकवादी मान्यताओं को जन्म दिया हैं। आत्मा और परमात्मा को अमान्य ठहराकर प्रकारान्तर से उस नीति निष्ठा की उपयोगिता से इंकार कर दिया है जो अब तक किसी रूप में मानवी गरिमा और मर्यादा से किसी सीमा तक मनुष्य को सराबोर बनाये हुए थी। पथ-भ्रष्ट हुए विज्ञान ने अनेक आविष्कारकों की तरह उस “नास्तिकता” का भी बीज बो दिया जो नीतिनिष्ठा को भी साथ ही अमान्य ठहराता हैं। इस प्रतिपादन से प्रभावित होने के कारण भविष्य में लोग क्या रीति-नीति अपनाने लगेंगे, इस विचारणा से भी भयंकर भविष्य की ही आशंका उभरती है।

वर्तमान परिस्थितियाँ सन्निपात ( Typhus disease) जैसी बन गई हैं। सन्निपात एक ऐसी शारिरिक समस्या है जिसमें आयुर्वेद अनुसार वात, पित्त एवं कफ तीनों बढ़ जाते है जिसके कारण व्यक्ति अपना मानसिक एवं शारीरिक सन्तुलन खो देता है जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य स्मृति खो देता है और वह पागल की तरह आचरण करने लगता है । मनुष्य में विकसित पशुता द्वारा पतन के गर्त में गिरने का प्रोत्साहन,विज्ञान द्वारा नास्तिकता का पोषण तथा आत्मिक क्षेत्र को मज़ाक बनाना, जनमानस को इतना भ्रमित कर रहे हैं कि उनका प्रतिफल विनाशकारी रूप धारण करके ही सामने आ सकता है।  अगर हम अपने आस पास देखें तो ऐसा घटित भी रहा है। वर्षों से ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मानीवय मूल्यों (शिष्टाचार आदि) की सराहना की जा रही है, गुणगान किया जा रहा है,परिजनों को प्रेरित किया जा रहा है, प्रोत्साहित किया जा रहा है लेकिन इन सभी प्रयासों का जिन पर असर होना है उन्हीं पर हो रहा है क्योंकि उनके चरित्र पहले  से ही उत्कृष्ट थे। जो लोग गुरुदेव की शिक्षा को, विचारों को, अनुरोध को प्रपंच समझ कर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में दो चार दिन की Holidaying करने आते हैं, जाते समय बताना भी शिष्टाचार नहीं समझते कि हम अपनी त्रुटि का सुधार कर सकें। ऐसा करके वोह गुरुवर की युगनिर्माण योजना में गिलहरी की भूमिका तो निभा ही सकते है। ऐसे सहकर्मियों  पर अवश्य ही वैज्ञानिक मानसिकता ने अपना मिट्टी के खिलौने वाला कृत्रिम  प्रभाव दिखा ही दिया है। ऐसा हो भी क्यों न, वह इसी संसार में तो रहते हैं। 

तो इस स्थिति में हमारे लिए क्या विकल्प है ? चुपचाप हथियार डाल कर, गुरुदेव से क्षमा याचना करते हुए अपनेआप को असफल मान लें ? नहीं ऐसा कभी भी नहीं होगा। हम अपने गुरु के साथ कभी भी विश्वासघात नहीं कर पायेंगें। प्रत्येक साथी की समर्था के अनुसार अनेकों विकल्प हैं जिनका प्रयोग हो रहा है ,होता रहेगा, गुरु की  लाल मशाल एवं अनेकों अन्य उद्घोष विश्व भर में गूंजते रहेंगें एवं हम में से किसी का भी आत्मबल कमज़ोर न होने पायेगा।

समापन, जय गुरुदेव  

कल वाले लेख   को 499  कमेंटस मिले, आज 11 संकल्पधारी  साथिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। सभी का धन्यवाद् करते हैं ।


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