वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आत्मबल, सभी प्रकार के बल से सर्वोपरि है, भाग 1  

हमारे साथी जानते हैं कि आजकल ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से अप्रैल 1990 की अखंड ज्योति पर आधारित लेख श्रृंखला का प्रकाशन हो रहा है। 20,21 फ़रवरी को ब्रह्मबीज सम्बंधित दो लेख प्रस्तुत किये गए थे, उसके बाद “हम बिछुड़ने के लिए नहीं जुड़े हैं” शीर्षक से दो लेख एवं फिर “तपने तपाने की आवश्यकता क्यों पड़ी?” वाला लेख प्रकाशित हुआ। 

आज जिस लेख को आधार बनाकर ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत किया गया है उसका शीर्षक था “माथापच्ची निरर्थक नहीं गयी।”  देखने में तो वह लेख बहुत ही छोटा मात्र दो  ही पृष्ठ का था लेकिन उसे पूरी तरह समझने के लिए हमें जो-जो रिसर्च करनी पड़ी उसका वर्णन करना उचित तो नहीं है, हाँ इतना अवश्य कहना चाहेंगें कि 19 लेखों की जिस विशेष लेख श्रृंखला का हम इन लेखों में रिफरेन्स देते आ रहे हैं, इतनी जटिल,महत्वपूर्ण एवं रोचक है कि हमारी समझ से बाहिर है कि क्या लिखा जाये और क्या छोड़ा जाये। ऐसा अनुभव हो रहा है कि  परम पूज्य गुरुदेव ने हमें ज्ञान के अथाह महासागर में यह कह कर फेंक दिया है कि बेटे अब स्वयं ही हाथ पांव मार कर तैरना सीख ले। अगर हमारे समझने की बात होती तो हम अपने समर्था के आधार पर धीरे-धीरे समझ ही लेते लेकिन यहाँ तो परिवार के समक्ष रखने की बात है, ज्ञानामृत मंथन करके,परिवारजनों के  लिए अनमोल रत्न ढूंढ कर लाने का संकल्प है, प्रयास है। हर समय यही चिंता/डर रहता है कि  हम इस प्रयास में कितना सफल हो पाते हैं। गुरुकार्य को गुरुचरणों में समर्पित करते समय केवल एक ही भावना रहती है “जिसके सिर ऊपर तू स्वामी सो दुःख कैसा पावे।”

“आत्मबल” की बात हम बार-बार करते आये हैं, आज के लेख यह हमें यह जानने को मिल रहा है कि शरीरबल,धनबल, ज्ञानबल आदि सभी बलों से उत्कृष्ट “आत्मबल” है। आज का लेख इसी विषय का पहला भाग है, आशा करते हैं कि  कल भी इसी पर चर्चा होगी।

तो आइये बिना किसी देरी के गुरुचरणों में समर्पित हो जाएँ और गुरुकुल की गुरुकक्षा में आज के अद्भुत गुरुज्ञान का अमृतपान करें, ज्ञान क्या यह तो सहीं मायनों में जीवनदायिनी जन्मघूंटी है।                  

********************

वर्ष 1990  का वसंत पर्व एक प्रकार का ब्रह्मयज्ञ रहा। ब्रह्मयज्ञ का तात्पर्य स्वाध्याय से है,अर्थात् स्वाध्याय को ब्रह्मयज्ञ भी कहा जाता है। ऐसा बताया गया है कि गृहस्थ व्यक्ति को प्रतिदिन एकान्त स्थान में बैठकर धर्मग्रन्थों का पाठ करना चाहिए।  स्वाध्याय से व्यक्ति अपने धर्म से स्वयं तो परिचित होता ही है,अर्जित ज्ञान से जब अपने आस पास के लोगों को, परिवारजनों को अध्यापन कराता है तो उसे अनेकों गुना लाभ प्राप्त होता है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार इस यज्ञ से सन्तुष्ट होकर देवता मनुष्य को आयु, वीर्य, सुरक्षा, समृद्धि, प्रतिभा, कान्ति तथा अभ्युन्नति प्रदान करते हैं ।

हमारे ग्रंथों में  यह भी कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय करता है,औरों को कराता है, उसे भौतिक दान से तीन गुना फल मिलता है। यही कारण है कि ज्ञानदान का इतना गुणगान किया जाता है। इंडियन फिलॉसोफी में स्वाध्याय (ब्रह्मयज्ञ)  को मोक्ष प्राप्ति के लिए  आवश्यक साधन स्वीकार किया है। 

परम पूज्य गुरुदेव के सानिध्य में शान्तिकुंज  की भूमि पर उन  दिनों ऐसा समुद्र मंथन होता रहा कि जिज्ञासाओं को यह पता चल सका कि मनुष्य का “निजी पुरुषार्थ” नगण्य है। उसकी इच्छा,आकांक्षा,वासना, तृष्णा और अहंता से आगे नहीं बढ़ती। मनुष्य अपने ही  छोटे से  दायरे में कुँए के मेंढक  की तरह हवाई किले बनाते, Ivory tower बनाते हुए अपनी  बहुमूल्य जीवन सम्पदा को विसर्जित कर देता है, नष्ट कर देता है। पूजा पत्री, छिटपुट पूजा पाठ तक ईश्वर को  उपहार देकर अपना उल्लू सीधा करने तक ही सीमित रहकर वह स्वयं संतुष्ट रहता एवं ऐसी प्रपंचबाज़ी को ईश्वर की उपासना मानकर मन बहलाता रहता है। पास पड़ोस वालों को, मित्रों आदि को बहकाता रहता हैं। ऐसे लोग स्वयं को भक्तजनों की श्रेणी में गिन लेते हैं और यह  धोखेबाजी,ठगी ऐसे मनुष्यों को निराशा ही प्रदान करती है क्योंकि वोह तो भगवान के साथ सौदेबाज़ी कर रहे होते हैं। एक दिन धन की देवी लक्ष्मी जी के मंदिर में यह कह कर प्रसाद चढ़ाया कि जिस शेयर में मैंने पैसा लगाया है वोह 10 गुना हो जाये। अगले दिन जब  शेयर गिर जाता है तो लक्ष्मी जी को डाँटते हुए भला बुरा तो कहा ही जाता है, स्वयं की स्थिति ICU तक पँहुचने जैसी हो जाती है, ऐसे सौदेबाज़ों का आत्मबल इस स्तर का होता है।  यह भक्ति नहीं है कोरी सौदेबाज़ी है।    

जो मनुष्य शक्ति के स्रोत “ईश्वर” के साथ जुड़कर हिमालय से निकलने वाली गंगा की तरह अपना एवं संसार का भला करने में समर्थ होते हैं, उन्हें ही ब्रह्मयज्ञ के हकदार माना जा सकता है। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का एक-एक समर्पित सदस्य अपने दिल पर हाथ रख कर  आत्मनिरीक्षण, मूल्यांकन Self introspection, Self assessment कर सकता है कि वोह  ब्रह्मबीज कहलाने का हकदार है कि नहीं एवं उसका ब्रह्मयज्ञ कितना सफल हो रहा है। यहाँ एक बार फिर से  रिपीट करना अनुचित नहीं होगा कि गुरुवर के “विशाल युगनिर्माण  भवन” में हमारे द्वारा अर्पित किया गया छोटे से छोटा पुरषार्थ भी मर्यादा पुरषोतम भगवान राम की गिलहरी जैसा ही है जो सागर में जाती, शरीर को गीला करती, बालू में लुढ़कती और निस्वार्थ भावना से आगे बढ़ जाती।     

शांतिकुंज में आये अनेकों परिजनों के साथ जिन सफलताओं की चर्चा होती रही वे तो भवनों, ब्रह्मबीजों के रूप में सब सामने दिखाई दे ही रहे थे लेकिन जिसको आंखों से नहीं देखा गया, कानों से नहीं सुना गया, उसे पूछे और बताये जाने के लिये सुरक्षित रख लिया गया है। 

सबके लिए एक उपयोगी प्रश्न पूछना, बताया जाना उचित रहा कि

इस प्रश्न का सही उत्तर तो यही मिल पाया कि पूजा पाठ की राई-रत्ती चिन्ह पूजा से अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति नहीं की जा  सकती। “भक्ति के साथ शक्ति” के जुड़े होने का रहस्य समझाया गया , जिसकी शाब्दिक जानकारी तो अनेकों को थी लेकिन  न कभी श्रद्धा जगती थी और न विश्वास परिपक्व होता था। अधिकतर लोग मात्र जानकारी होने को ही पर्याप्त समझते थे, क्रिया रूप में परमार्थ जैसा कुछ करने के लिये साहस नहीं जुटा पाते थे। जानकारी होना और जानकारी को Apply करना दोनों अलग-अलग हैं। 

गुरुदेव ने बताया  कि शरीरबल, बुद्धिबल,मनोबल,धनबल आदि क्षमताओं और सामर्थ्यों का कितना भी  बाहुल्य क्यों न हो, लेकिन अगर यह सारे बल भी इक्क्ठे कर दिए जाएँ और सभी बलों  का एक साथ प्रयोग किया जाए, तो भी “आत्मबल” की तुलना में सब की  क्षमता नगण्य है, न के बराबर है। जब हम साधना करते हैं तो “आत्मिक शक्ति,आत्मबल”  को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। किसने किस स्तर की साधना की इसका पता उसकी भावना  को देखकर ही समझा जा सकता  है।

“शरीरबल की साधना” करने पर बलिष्ठता, सुन्दरता आदि विभूतियों की प्राप्ति होती है। उसी के सहारे अभीष्ट उपलब्धियों के लिए पुरुषार्थ करते बन पड़ता है। आक्रमण करना  या उसे निरस्त करना “शरीरबल” पर ही निर्भर करता है।मनुष्य के पास धन हो वह  तो बाज़ार में मिलने वाली वस्तुओं को आसानी से खरीद सकता है। सुविधा के अनेकों साधनों का अभीष्ट मात्रा में संचय कर पाता है।अहम का प्रदर्शन, चाटुकारों का समर्थन आदि की उपलब्धियां  “धनबल” के सहारे ही होती हैं। “बुद्धिबल” के सहारे  उच्च पदाधिकारी बनते हैं। वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, नेतृत्व कर सकने का गौरव “बुद्धिबल” से ही प्राप्त होता है। फिलॉसफर , वैज्ञानिक, निर्णायक होने के लिए अभीष्ट मात्रा में “बुद्धिबल” का संचय आवश्यक है। “कलाकारिता की साधना” करने वाले, साहित्यकार, कवि, संगीतज्ञ, चित्रकार, मूर्तिकार, अभिनेता आदि बनते हैं। इसी प्रकार संसार में अनेकानेक शक्तियों के अपने-अपने चमत्कार देखे जा सकते हैं। जिनके पास किसी प्रकार का  शक्तिबल (शरीरबल,बुद्धिबल,धनबल आदि) नहीं है उन्हें  तिरस्कार, दुर्बलता, पराजय आदि का सामना करना पड़ता है। ऐसे लोग  जैसे-तैसे काम चलाते हैं और हर काम के लिए दूसरों  पर आश्रित रहते हैं। इसलिए  आवश्यक है कि उपरोक्त बहुमुखी शक्तियों में से किसी न किसी की साधना के लिए मनुष्य साहस करके प्रयत्न तो करे ही । जो कोई भी ऐसी साधनाओं की उपेक्षा करते हैं उन्हें आलसी-प्रमादी,गया-गुज़रा माना जाता है। 

शक्तियों में सर्वोपरि स्तर की शक्ति  “आत्मबल, आत्मशक्ति” ही  है,उसे अलौकिक ,असाधारण माना जाता है। “आत्मबल” प्राप्त करने वाले प्रयासों को “परम पुरुषार्थ की श्रेणी” में  गिना जाता है। ऐसे मनुष्यों की ललक भी उच्चस्तरीय ही  होती है। यह लोग “आत्मबल” सम्पादित करने के लिए सदैव तत्पर होते हैं लेकिन इसे प्राप्त करने का मूल्य  तपश्चर्या के रूप में चुकाना पड़ता है और वे इस मूल्य को  प्रसन्नतापूर्वक चुकाते भी  हैं। किसी भी सम्पदा के उपार्जन के लिए पूँजी तो जुटानी ही पड़ती है। शक्तिवानों में से प्रत्येक को यही करना पड़ा है अन्यथा शेखचिल्ली जैसी बेसिर पैर की कल्पना-जल्पना करते रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं आता।

क्रमशः जारी- To be continued 

*********************

शनिवार के विशेषांक  को 573    कमेंटस मिले,14  संकल्पधारी  साथिओं ने 24 से अधिक आहुतियां प्रदान की हैं। सभी साथिओं का इस सहयोग  के लिए ह्रदय से धन्यवाद  करते हैं ,सभी का धन्यवाद्। कमैंट्स संख्या, कमैंट्स क्वालिटी, साथिओं की गणना ही इस परिवार की रीढ़ की हड्डी है।


Leave a comment