वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

शांतिकुंज और शांति निकेतन का क्या सम्बन्ध है ?

https://youtu.be/ZxdTZ6Xmuyc?si=KIQJ58MWoT2WuRg2

आज का ज्ञानप्रसाद लेख 30 मई 2024 को फेसबुक पर प्रकाशित हुई गणेश करुले जी की पोस्ट पर आधरित है। परम पूज्य गुरुदेव पर आधारित इस जानकारी  के लिए हम गणेश जी के आभारी है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के प्रकाशन नियमों के अनुसार एडिटिंग के सिवाय,हमने गणेश जी द्वारा प्रस्तुत जानकारी को यथावत रखने का प्रयास किया है।  अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि हो  गयी हो तो हम क्षमाप्राथी हैं एवं संशोधन के लिए सहर्ष तत्पर हैं। 

आज के लेख में परम पूज्य गुरुदेव के युवा जीवन से सम्बंधित दो संस्मरण प्रस्तुत किये गए हैं जो (गणेश जी के अनुसार) प्रकाशित तो नहीं हुए लेकिन वार्ताओं में चर्चा होती रही। इस चर्चा के स्रोत का ज्ञान न होने के कारण हम कुछ भी कहने में असमर्थ हैं।

क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु आदि से सम्बंधित पहले संस्मरण में गुरुदेव बता रहे हैं कि 20-25 वर्ष की आयु में अंतःकरण में कैसी आग उठ रही होती थी। दूसरा संस्मरण विश्वकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से संबंधित है। गुरुदेव बताते हैं कि शान्ति निकेतन के नाम पर ही मैंनें यहाँ का नाम शांतिकुंज  रखा है। लोग मुझे जब गुरुदेव कहते हैं तो अनायास ही मुझे रवीन्द्रनाथ टैगोर याद आ जाते हैं। उन्हें भी सब गुरुदेव कहा करते थे। शान्ति निकेतन में बैठकर मैंने जो सपने देखे थे, उन्हीं को पूरा करने के लिए शान्तिकुंज  बनाया है। कहा जा सकता है कि गुरुदेव ने देव संस्कृति यूनिवर्सिटी की स्थापना भी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के विज़न पर ही की हो। पश्चिमी बंगाल में शांति निकेतन स्थित विश्वप्रसिद्ध विश्व-भारती यूनिवर्सिटी से भला कौन नहीं परिचित है। 

हम अपने साथिओं को बताना चाहेंगें कि कल से हम एक बार फिर से Dedicated लेख श्रृंखला का सिलसिला आरम्भ कर रहे हैं। कल आरम्भ हो रही लेख श्रृंखला एक ऐसे विषय पर आधारित है जिससे  शायद ही कोई ऐसा होगा साथी होगा जो परिचित न होगा। विषय है बहुचर्चित “ध्यान” का विषय। अभी  तो यह कहना कठिन होगा कि यह श्रृंखला कितने दिन चलेगी लेकिन इतना अवश्य कहेंगें कि गुरुकुल की यह गुरुकक्षाएं  मात्र “थ्योरी की कक्षा” न होकर, “एक प्रैक्टिकल कक्षा” होगी जिसमें प्रतक्ष्य परिणामों पर बल डाले  जाने की योजना है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर, पहली बार किये जाने वाले नवीन, अद्भुत, अनूठे  प्रयोग के लिए हम तो बहुत ही उत्साहित हैं, देखते हैं कल प्रकाशित होने  वाली भूमिका एवं इस प्रयोग के फॉर्मेट का कितने साथी लाभ उठा पायेंगें। 

Dedicated लेख शृंखलाओं को पोस्टपोन करके हमने 13 लेख लिखे जिन्हें  हम बहुत देर से सेव किए  हुए थे,आदरणीय सुजाता बहिन जी द्वारा भेजा गया एक छोटा सा लेख  और साथिओं के कुछ उच्चस्तरीय  कमेंट्स को छोड़कर सब कुछ प्रकाशित हुआ लगता है।    

इन्हीं शब्दों के साथ आइए गुरुवंदना का प्रज्ञागीत गाकर गुरुज्ञान का अमृतपान करें। 

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युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव का युवा जीवन आज के युवाओं के लिए एक बहुत ही उत्कृष्ट  प्रेरणा का स्रोत  है। गुरुदेव के जीवन का यह भाग  युवकों को दिशा देने के लिए, उन्हें गढ़ने के लिए वाँछित सभी तत्त्व संजोए हुए है। गुरुदेव के स्वयं के हाथों से लिखी गयी दिव्य रचना 

 “हमारी वसीयत और विरासत” एवं अन्य लेखकों द्वारा रचित ग्रन्थ  “प्रज्ञावतार हमारे गुरुदेव”, “चेतना की शिखर यात्रा” आदि ने अवश्य ही अनेकों की अंतश्चेतना को छुआ होगा। ऐसी  सभी  रचनाओं में  उनके जीवन के अनेकों ऐसे प्रसंग  हैं, जो युवाओं के अंतस् में प्रकाश उड़ेलते हैं। गुरुदेव के  युवा जीवन की हवाओं में आज के युवकों के दिलों में छुपे हुए आदर्शों के अंगारों को धधकने के लिए पर्याप्त ऊर्जा सम्माहित  है। इन रचनाओं में कुछ ऐसा छिपा  है जो साहस, सृजन और संवेदना की चिंगारिओं  को दावानल (जंगल की आग) में बदल देने की सामर्थ्य रखता है।

इस लेख के माध्यम से यह सावधानी बरती जा रही है कि जो कहा जा चुका है, उसे दोहराया न जाए और  चर्चा केवल ऐसे  प्रसंगों की ही की जाए जो अभी तक अनछुए  हैं, कुछ ऐसे प्रसंग जिन्हें गुरुदेव ने कहीं लिखा तो नहीं है, लेकिन  अपनी निजी वार्ताओं में उजागर किया है। 

1.युवकों के साथ हुई एक ऐसी ही एक निजी वार्ता में गुरुदेव कहते हैं :

बेटा, जब हमारी आयु  (20-25 वर्ष) तुम लोगों जितनी थी, उस समय हमारा अंतःकरण केवल दो ही बातों को लेकर भावविह्वल होता था। पहली बात थी कि जब हम उपासना में बैठते थे तो जगन्माता की भक्ति में हमारी आँखों से आँसू झरते थे। दूसरी बात अपने देश की दुर्दशा की थी जो हमेशा ही मन को कचोटती थी,आँखों में आंसू आ जाते थे। उन दिनों अपने व्यक्तिगत  जीवन की सुख-सुविधाओं की ओर कभी मन जाता ही नहीं था। बस देश सेवा और ईश्वर भक्ति की लगन लगी रहती थी। गुरुदेव हँसते हुए बोले ,”हमारा हाल तो आज भी यही है। इस दृष्टि  से हम तो आज भी युवा ही हैं, बूढ़े हुए ही नहीं।”

क्रान्तिकारियों के जीवन से जुड़ा एक ऐसा प्रसंग था जिसने  गुरुदेव की आँखें भर दीं।  लगभग भर्राये गले से उन्होंने बताया:

बेटा,यूँ तो हमारे जीवन में दुःख के कई अवसर आए  हैं, सभी को हमने भगवान का वरदान और मंगलविधान मानकर सह लिया लेकिन भगत सिंह की फाँसी को मानने एवं उस दुःख को सहने में बड़ी कठिनता अनुभव हुई । इस दुःख ने हमें  महीनों तक विकल किए  रखा। 

गुरुदेव ने बताया:

वैसे तो हम जाहिर तौर पर कांग्रेस के कार्यक्रमों में भागीदार होते थे, लेकिन इन देशभक्त क्रान्तिकारियों के साथ मेरा जबरदस्त भावनात्मक रिश्ता था। कानपुर की ही तरह आगरा भी उन दिनों क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ था। समाचार पत्र “सैनिक”  के कृष्णदत्त पालीवाल जी इनकी कई तरह से मदद किया करते थे। उनकी इस मदद को इन क्रान्तिवीरों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी मेरी थी। इसी क्रम में मुझे इन क्रान्तिकारियों के कई गुप्त ठिकाने पता थे। वहाँ जाकर मैं चन्द्रशेखर ‘आजाद’, भगत सिंह, राजगुरु आदि से मिला करता था। भगत सिंह हमसे मात्र चार वर्ष ही बड़े थे। मैंने कई बार अनेकों खतरों से गुज़रकर इन्हें खाने-पीने की चीजें, ज़रुरत  के दूसरे समान पहुँचाए हैं। स्वतंत्रता के प्रति इन क्रांतिकारिओं की मस्ती और मतवालापन देखने जैसा था। संघर्षों की अग्नि में निरन्तर तपने के बावजूद इनके हँसी-ठहाके गूँजते रहते थे।

डर-भय तो इनमें से किसी को भी छू ही नहीं गया था। कितनी ही बार मुझे इन सबके साथ रहने का अवसर भी  मिला। इनकी अंतरंग चर्चाओं में कई बार मेरी भागीदारी रही। जब भगत सिंह  के शहीद होने की खबर मुझे मिली, तो मैं अपने को रोक नहीं पाया, फफककर रो पड़ा। महीनों तक उनका वही हँसता हुआ चेहरा, उनकी हँसी-मजाक, उनकी वही अल्हड़ मस्ती मेरी आँखों के सामने छायी रही। जिस दिन मुझे उनकी फाँसी का समाचार मिला तो मैंने उसी दिन संकल्प लिया कि 

भाव भरे मन से गुरुदेव ने बताया कि मैं अपने युवा जीवन के उस संकल्प को अभी तक निभा रहा हूँ। मेरे लिए भारत देश की धरती की सेवा, किसी भीअध्यात्म साधना से अधिक मूल्यवान ही  है। सच तो यह है कि मेरी अध्यात्म साधना की सभी विधियाँ और इनके परिणाम मेरी भारत माता के लिए ही हैं। 

गुरुदेव कहते थे कि अपनी युवावस्था में मुझे हर पल यही लगता रहता था कि अपने देश के लिए, इसकी सामाजिक-सांस्कृतिक उन्नति के लिए मैं और क्या करूँ? कितने अधिक कष्ट सहन करूँ? 

2.उनकी युवावस्था का ऐसा ही एक और मार्मिक प्रसंग है : 

गुरुदेव विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने के लिए शान्ति निकेतन गये हुए थे। इस भावमयी चर्चा के समय उन्होंने टैगोर का मानसिक स्मरण करते हुए बताया कि वह एकदम ऋषि जैसे लगते थे। फिर बोले-अरे लगते क्या थे, वे तो ऋषि ही थे । ऐसा कहते हुए कुछ देर के लिए मौन हो गए और फिर धीमे स्वर में बोले:

गुरुदेव ने अपनी अतीत की स्मृतियों को कुरेदते हुए कहा:

जिस दिन मैं उनसे मिला, उस समय उनके साथ दीनबन्धु कहे जाने वाले एंड्रज  (अखंड ज्योति में एंड्रज के बारे में बहुत कुछ प्रकाशित है) भी थे। अंग्रेज होते हुए उनकी भारत भक्ति असाधारण थी। वह कहा करते थे कि भारत की सेवा करके मैं अपनी कौम के पापों का प्रायश्चित कर रहा हूँ। जिस समय परम पूज्य गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिले, उस समय शाम हो रही थी। गुरुदेव ने उस महामानव को प्रणाम किया। उनके स्पर्श ने न जाने क्यों विश्व कवि को विभोर कर दिया। वह बोले, 

इस प्रसंग में गुरुदेव ने बताया कि वे तीन-चार दिनों तक शान्ति निकेतन में रहे। रोज़  ही उनकी मुलाकात टैगोर से होती रही। उनकी प्रेरणाएँ हमें देश के लिए बहुत कुछ करने के लिए प्रेरित करती रही। उसी समय मैंने सोचा था कि मैं भी कुछ ऐसा ही करूँगा। फिर बोले:

शान्ति निकेतन के नाम पर ही मैंनें यहाँ का नाम शांतिकुंज  रखा है। लोग मुझे जब गुरुदेव कहते हैं तो अनायास ही मुझे रवीन्द्रनाथ टैगोर याद आ जाते हैं। उन्हें भी सब गुरुदेव कहा करते थे। शान्ति निकेतन में बैठकर मैंने जो सपने देखे थे, उन्हीं को पूरा करने के लिए शान्तिकुंज  बनाया है। 

इस प्रसंग की चर्चा का समापन करते हुए उन्होंने बताया कि मैं अपनी युवावस्था में साधना, अध्ययन, लेखन, जनसेवा के अलावा ”महामानवों से प्रेरणा पाने का” एक महत्त्वपूर्ण काम करता था कभी महामानवों से प्रेरणा पाने वाले गुरुदेव आज स्वयं युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उन्हीं की तरह वन्दनीया माता जी का युवा जीवन भी युवतियों के लिए प्रेरक है।

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आज की यज्ञशाला में टोटल 643   आहुतियां प्रदान होकर 16   साधकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण करने का सम्मान प्राप्त किया है, इन प्रभावशाली Numbers के लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग  के लिए धन्यवाद्     

धन्यवाद्, जय गुरुदेव


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