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हमारे शरीर में आत्मा कहाँ वास करती है ?

3 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद

Source: अध्यात्मिक भौतिकता अपनाई जाए

तन मन और धन विषय पर आरम्भ हुए  कल के  ज्ञानप्रसाद लेख का आज समापन हो रहा है। हम सभी समर्पित शिष्यों ने अभी-अभी शारीरिक,मानसिक एवं आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए अध्यात्म का योगदान स्टडी किया जो  “समस्त समस्याओं का समाधान-अध्यात्म” पुस्तक पर आधारित था। तन(शरीर), मन(मानसिक), धन(आर्थिक) पर हो रही चर्चा भी कुछ वैसी  ही है लेकिन अधिक compact होने के कारण ज़्यादा लाभदायक है।

अगर हम प्रतिदिन पूजास्थली की सफाई करते हैं, उसे सजाते हैं तो शरीर (जो भगवान् का मंदिर है) उसके बारे में हमारा क्या दृष्टिकोण होना चाहिए, आज की गुरुकक्षा में इस विषय पर चर्चा है। 

“हमारे शरीर में आत्मा कहाँ वास करती है” एक काम्प्लेक्स प्रश्न है लेकिन हमने लेख के अंत में इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने का भी प्रयास किया है। यह प्रयास अमेरिकन यूनिवर्सिटी के 76 वर्षीय प्रोफेसर Stuart Hameroff की  चेतना के विषय पर हुई शोध पर आधारित है। हमने सभी Scientific terms को सरल भाषा में लिखने का प्रयास किया है ताकि सभी को समझ आ सके, हमारा प्रयास कितना लाभदायक होता है, यह तो कमैंट्स ही बताएंगें।

आज का प्रज्ञागीत भी लेख के साथ मेल खा रहा है।बाल संस्कार केंद्र का धन्यवाद् है।  

तो आइए गुरुकक्षा की ओर प्रस्थान करें।

ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

अर्थात 

हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।

मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥ 

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अध्यात्मवाद का व्यवहारिक स्वरूप है सन्तुलन। शारीरिक समस्या तब पैदा होती है, जब शरीर को “भोग का साधन” समझ कर बरता जाता है। आहार अनियमितता से रोग उत्पन्न होने लगते हैं और स्वास्थ्य समाप्त हो जाता है। सर्दी, जुकाम, सिरदर्द  आरम्भ हुए रोग कभी कभी राज-रोगों में परिवर्तित हो जाते हैं । यह शारीरिक समस्या बड़ी आसानी से हल हो सकती है यदि इसके विषय में “दृष्टिकोण को आध्यात्मिक” बना लिया जाय । पवित्रता अध्यात्मिकता  का पहला लक्षण है। शरीर को भगवान का मन्दिर समझ कर उसे सर्वथा पवित्र और स्वच्छ रखा जाय, आत्म-संयम और नियमितता द्वारा शरीर-धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करते रहा जाय तो शारीरिक संकट की भावना ही न रहे। वह सदा स्वस्थ और समर्थ बना रहे। अपने अनियम और असंयम द्वारा भगवान के इस पवित्र मन्दिर को ध्वंस करने का अपराध ही भयानक पाप का कारण बनता है। 

शरीर में आत्मा का निवास रहता है और आत्मा परमात्मा का ही अंश होता है इसलिए शरीर भगवान का मन्दिर ही है। जो व्यक्ति भगवान के इस पवित्र मन्दिर का समुचित संरक्षण एवं सेवा करता रहता है, उसके सामने शारीरिक समस्याएं खड़ी नहीं होतीं। यदि संयोगवश खड़ी भी हो जाती हैं, तो उनका शीघ्र ही समाधान हो जाता है। शरीर के विषय में आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखने का सुफल आरोग्य (Healthy) होता है। 

स्वास्थ्य और आरोग्य का सम्बन्ध पौष्टिक पदार्थों से जोड़ना भूल है। अधिक या अधिक पुष्टिकर भोजन करने से न तो स्वास्थ्य बनता है और न आरोग्य की उपलब्धि होती है। इसका आधार है आत्म संयम एवं नियमितता । इसके प्रमाण में हमारे सामने ऋषि-मुनियों का अनुकरणीय उदाहरण मौजूद है। खाद्य के नाम पर वे कतिपय फल और कन्द-मूल आदि का ही प्रयोग किया करते थे फिर भी  सदा स्वस्थ निरोग और दीर्घजीवी बने रहते थे। उनके शरीर बड़े ही सुडौल, सुन्दर और सामर्थ्यवान् होते थे। इसी क्षमता के बल पर ही तो वे बड़ी-बड़ी तपस्याएं और साधनाएं कर सकने में सफल रहा करते थे। यदि हम शरीर के विषय में आत्म-संयम, नियमितता और संतुलित आहार एवं रहन सहन  का आध्यात्मिक दृष्टिकोण व्यवहार में लाते रहें तो शारीरिक समस्याओं का एक साथ समाधान हो जाय।

मन की बात करें तो  मनुष्य का मन शरीर से भी अधिक शक्तिशाली यंत्र है। मन का शक्तिशाली होना, तन के शक्तिशाली होने से अधिक महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि आत्मबल, आत्मशक्ति, आत्मसंयम जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है,चाहे इस शक्ति का संबंध सीधा न होकर indirectly शारीरिक शक्ति से ही जुड़ा है। अक्सर कहा गया है “जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन।”  मन के निर्विरोध  रहने पर मनुष्य आश्चर्यजनक उन्नति कर सकता है। कल वाला शुभरात्रि सन्देश इसी विरोध और तुलना की तो बात कर रहा था। इस सन्देश के सन्दर्भ में परिजनों ने फ़ोन करके धन्यवाद् किया है, किन्तु खेद है कि आज अधिकतर मनुष्यों की मनोभूमियां बुरी तरह विकार-ग्रस्त बनी हुई हैं। यह तो वही बात हुई कि घंटी बजाकर,ज़ोर ज़ोर से “विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा – – – -” गाकर मनुष्य  नाटकबाज़ी कर रहा है । भगवान् धरती पर उतर कर, मनुष्य का हाथ पकड़ कर तो नहीं कहेंगें कि अंगारे को हाथ मत लगा, जल जायेगा। 

आज के मनुष्य का जीवन चिन्ता, भय, निराशा, क्षोभ, लोभ और आवेगों के  भूकम्प से  अस्त-व्यस्त बना हुआ  है। स्थिरता, प्रसन्नता और सदाशयता का कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं हो रहा। ईर्ष्या, द्वेष और क्रोध की नष्टकारी चिताएं जलती और जलाती ही रहती हैं। यह बताना बहुत ही कठिन है कि ऐसे कितने लोग होंगें  जिनकी मनोभूमि इन प्रकोपों से सुरक्षित हो और जिनमें आत्मगौरव, धर्मपरायणता और कर्त्तव्यपालन की सद्भावनायें फलती फूलती हों। अधिकतर  लोग मानसिक विकारों, आवेगों और असद्विचारों से अर्धविक्षिप्त से बने घूम रहे हैं। बहुत ही कम लोग मिल पायेंगें जिन्हें इस मानसिक पवित्रता, उदार भावनाओं और मनःशांति के महत्व का ज्ञान समझ आता हो। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, किस प्रकार करना चाहिए और कौन सी गतिविधि नहीं अपनानी चाहिए, इस तथ्य को समझकर चलने वाले आध्यात्मिक लोग बहुधा मानसिक समस्याओं से सुरक्षित बने रहते हैं। अपनी उन्नति करते चलें और दूसरों की उन्नति में सहायक होते चलें, अपनी स्थिति और दूसरों की स्थिति के बीच अन्तर से न तो ईर्ष्यालु बनें और न हीन भावी (फिर तुलना वाला शुभरात्रि सन्देश)। इसी प्रकार असफलता में निराशा को और सफलता में अभिमान को पास न आने दें। मनःशांति का महत्व समझते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों और विरोधों में भी उद्विग्न और क्रुद्ध न हों। सहिष्णुता, सहनशीलता, क्षमा, दया, और प्रेम का मार्ग अपनाते चलें । मनःक्षेत्र में इस आध्यात्मिक दृष्टिकोण का समावेश कर लेने पर मानसिक समस्याओं के उत्पन्न होने का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता।

आर्थिक क्षेत्र में तो आध्यात्मिक दृष्टिकोण का महत्व और भी अधिक है। इस क्षेत्र में ही लोग अधिक अनात्मिक और अनियमित हो जाया करते हैं। आर्थिक क्षेत्र के आध्यात्मिक सिद्धांत हैं : सोच समझकर खर्च करना (मितव्ययिता),सन्तोष,और ईमानदारी। मितव्ययी व्यक्ति को आर्थिक संकट कभी नहीं सताता। भोग  विलास, और अनावश्यक सुख-सुविधा के साधनों से उसे कोई लगाव नहीं होता और न वह प्रदर्शन की ओछी वृत्ति को ही अपनाता  है । सन्तोषी मनुष्य आर्थिक क्षेत्र में ईर्ष्या-द्वेष, प्रतिस्पर्धा, लोभ और स्वार्थपरता के पापों से बचा रहता है। आर्थिक क्षेत्र में आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखने वाला व्यक्ति भरपूर परिश्रम करता है और  ईमानदारी द्वारा मितव्ययिता और सन्तोषपूर्वक जीवनयापन करता हुआ सदा प्रसन्न रहता है। 

इस प्रकार तन, मन और धन के “शक्तिशाली साधनों” को उपयोगी बनाकर व्यवहार जगत् और आर्थिक जगत् में समान रूप से आध्यात्मिक दृष्टिकोण रख कर चला जाय तो मनुष्य की सारी समस्याओं का एक साथ ही समाधान हो जाय और तब वह लौकिक और आत्मिक दोनों जीवनों में समान रूप से प्रगति कर सकता है।

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आत्मा के बारे में हिंदू धर्म के धर्मग्रंथ “वेदों” में बहुत कुछ लिखा गया। है कि आत्मा मूलत: मस्तिष्क में निवास करती है । कुछ वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध से इस बात की पुष्टि हुई है कि मृत्यु के बाद आत्मा वहां से निकलकर दूसरे जन्म के लिए तब तक ब्रह्मांड में विचरती रहती है जब तक उसे उपयुक्त शरीर नहीं मिल जाता। मृत्यु के अनुभव पर वैज्ञानिकों ने अनेकों शोध किए हैं।

मृत्यु का करीबी से अनुभव करने वाले लोगों के अनुभवों पर आधारित दो प्रख्यात वैज्ञानिकों ने मृत्यु के बारे में एक सिद्धांत  प्रस्तुत किया है। इस सिद्धांत के अनुसार  प्राणी के Nervous system में  से जब आत्मा को बनाने वाला “क्वांटम पदार्थ” (Material) निकलकर फैले हुए  ब्रह्मांड में विलीन होता है तो मृत्यु जैसा अनुभव होता है।

इस सिद्धांत के पीछे विचार यह है कि मस्तिष्क नामी  क्वांटम कंप्यूटर के लिए “चेतना” एक कंप्यूटर  प्रोग्राम की तरह काम करती है। यह “चेतना” मृत्यु के बाद भी ब्रह्मांड में  विचरती  रहती है।

अमेरिका स्थित Arizona University  में Anesthesiology and Psychology

विभाग के प्रोफेसर एवं चेतना अध्ययन केंद्र के निदेशक डॉ. स्टुवर्ट हेमेराफ ने इस अर्ध धार्मिक सिद्धांत को आगे बढ़ाया है। यह परिकल्पना चेतनता के उस क्वांटम सिद्धांत पर आधारित है, जो उन्होंने ब्रिटिश मनोविज्ञानी सर रोजर पेनरोस के साथ  विकसित की है। इस सिद्धांत के अनुसार हमारी “आत्मा का मूल स्थान” मस्तिष्क के Cells में होता है जिसे माइक्रोटयूबुल्स (Microtubules) कहते हैं। दोनों वैज्ञानिकों का तर्क है कि इन माइक्रोटयूबुल्स पर पड़ने वाली Gravity के  प्रभाव के परिणाम स्वरूप हमें चेतनता का अनुभव होता है।

दोनों वैज्ञानिकों के सिद्धांत के अनुसार हमारी “आत्मा” मस्तिष्क में होने वाले क्रियाकलापों से कहीं अधिक फैली हुई  है, उन्होंने यह भी कहा है कि हमारी आत्मा का  निर्माण उन्हीं धागों से हुआ है  जिनसे हमारा  ब्रह्मांड बना हुआ है । यह आत्मा ब्रह्माण्ड में तभी से  व्याप्त थी जब इस सृष्टि की रचना हुई थी। 

दोनों वैज्ञानिकों के अनुसार उनका सिद्धांत बौद्ध एवं हिन्दुओं की मान्यता से काफी मिलता जुलता है कि “चेतनता ब्रह्मांड का अभिन्न अंग है।” मृत्यु के दौरान मस्तिष्क अपनी   क्वांटम अवस्था गंवा देता है यानि उसकी एनर्जी तो समाप्त हो जाती है लेकिन मस्तिष्क के  अंदर के अनुभव नष्ट नहीं होते। यह तो शाश्वत तथ्य है कि मृत्यु द्वारा आत्मा केवल शरीर छोड़ती है और ब्रह्मांड में विलीन हो जाती है।

प्रोफेसर हेमेराफ  का कहना है कि हम कह सकते हैं कि दिल धड़कना बंद हो जाता है, रक्त का प्रवाह रुक जाता है,मस्तिष्क अपनी क्वांटम अवस्था गंवा देता है लेकिन ऐसा नहीं होता क्योंकि एनर्जी कभी भी खत्म नहीं होती, यह परिवर्तित होती है,ब्रह्मांड में वितरित एवं विलीन हो जाती हैं। Energy can never be destroyed,it can only be converted. 

हम खाना खाते हैं, हमें एनर्जी मिलती है और हम काम करते हैं, यानि खाने में मौजूद केमिकल (केमिकल एनर्जी) बदल कर मैकेनिकल एनर्जी बन जाती है। पेट्रोल (केमिकल एनर्जी ) से गाड़ी चलती (मैकेनिकल एनर्जी) है । 

मृत्यु के बारे में उनका कहना है कि यदि रोगी बच जाता है तो यह एनर्जी मस्तिष्क में वापस चली जाती है तथा रोगी कहता है कि उसे मृत्यु जैसा अनुभव हुआ है। हेमेराफ  यह भी कहते हैं कि यदि रोगी ठीक नहीं हो पाता और उसकी मृत्यु हो जाती है तो यह संभव है कि यह एनर्जी  शरीर के बाहर व्याप्त है।

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आज 8  युगसैनिकों ने 24 आहुति  संकल्प पूर्ण किया है। संध्या जी आज  गोल्ड मैडल विजेता हैं । हमारी हार्दिक बधाई एवं संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।   

(1)सरविन्द कुमार-24 ,(2) सुमनलता-26, (3 )अरुण वर्मा-33  ,(4) संध्या कुमार-48,(5) सुजाता उपाध्याय-45,(6)चंद्रेश बहादुर-31,(7) निशा भारद्वाज-30 ,(8 ) नीरा  त्रिखा-24

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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