14 दिसंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद
Source: समस्त समस्याओं का समाधानअध्यात्म
कल वाले लेख में समाज से सम्बंधित जन स्वास्थ्य की समस्या का अध्यात्म द्वारा समाधान ढूंढने का प्रयास किया गया था। दूसरी समस्या जिससे हमारा समाज बुरी तरह से प्रभावित है, वोह है “अपराध और युद्ध”, यह एक ऐसा विषय है जिससे हर कोई भलीभांति परिचित है। इसके बारे में हमारा कुछ भी कहना उचित नहीं होगा।
गुरुदेव ने इस भयानक विश्व्यापी समस्या का समाधान भी “अध्यात्म” में ही सुझाया है, कैसे ? आज गुरुचरणों में समर्पित होकर गुरूकक्षा में इसी विषय पर एक बहुत ही सरल तरीके से चर्चा की जा रही है।
आदरणीय सुमनलता बहिन जी के सुझाव का सम्मान करते हुए आज का प्रज्ञागीत गुरुदेव को ही समर्पित है, अटूट विश्वास है कि आप इस प्रज्ञागीत में डूबे बिना नहीं रह पायेंगें।
कल शुक्रवार वाले दिन वीडियो कक्षा होती है, इसके लिए अभी-अभी रिलीज़ हुई HD वीडियो “युगदृष्टा का जीवनदर्शन” शेयर करने की योजना है।
संध्या बहिन जी ने 60 प्लस प्रथा का पालन करते विदुषी बहिन जी के बारे में पूछा था, हमें कुछ धुँधला सा स्मरण हो रहा है कि उन्होंने कुछ कहा था।
तो करते हैं गुरुकक्षा की ओर रुख लेकिन पहले शांतिपाठ:
ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थात
हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥
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अपराध और युद्ध –
मानसिक उद्वेगों से पीड़ित व्यक्ति उद्धत आचरण करते हैं, अपना स्तर गिराते हैं और दूसरों को कष्ट देते हैं। कभी-कभी मर्यादाओं के लिए अनास्थावान बनकर ऐसे लोग मानवी और सामाजिक शील-सदाचार को रौंदते हुए अपराधी बनते, गुंडागर्दी अपनाते, आतंक उत्पन्न करते और चोरी ठगी पर उतारू पाये जाते हैं। नृशंस, क्रूर कर्म करने में भी उन्हें संकोच नहीं होता। इस प्रकार के उद्धत आचरण रोकने के लिए पागलखाने, जेलखाने बनाये गये हैं और उन्हें रोकने-पकड़ने की व्यवस्था की गई है लेकिन देखना यह है कि क्या यह प्रतिबंधात्मक उपाय पर्याप्त हैं ? देखा यही जाता है कि कड़े कानून, कठोर दंड और अपराध-सूत्रों की खोज-बीन की व्यवस्था रहते हुए भी वे दुष्प्रवृत्तियाँ रुक नहीं रही हैं। आत्महनन से लेकर परपीड़न तक के वर्गों में विभाजित होने वाले अपराध घटने के बजाए बढ़े ही जा रहे हैं। दंड भय से बच निकलने की असंख्य तदवीरें सोची और निकाली जाती रहती हैं और छिपे एवं खुले रूप में वह सब होता रहता है, जिसे रोकने के लिए खर्चीले एवं कुशलतापूर्वक उपाय बरते जाते हैं।
पिछले लेख की भांति यहाँ भी दंड नीति एवं रोकथाम के प्रयत्नों का उपहास नहीं उड़ाया जा रहा है और न उन्हें अनावश्यक ठहराया जा रहा है। प्रयत्न तो होने ही चाहिए बल्कि उन्हें अधिक विस्तृत एवं प्रामाणिक किया जाना चाहिए। सोचने की बात इतनी भर है कि क्या मनुष्य की दुर्बुद्धि से उत्पन्न अनाचारों, दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के लिए कानूनी पकड़ पर्याप्त है ? यह तभी हो सकता है, जब हर मनुष्य के पीछे पुलिसमैन लगाया जाए और वह पुलिसमैन भी किसी अन्य लोक का निवासी हो ।
अपराध मात्र उतने ही नहीं हैं, जितने न्यायसंहिता में दंडनीय ठहराये गये हैं। छोटे और व्यक्तिगत अपराधों पर कानूनी अंकुश नहीं है। नशा पीना, असंयम बरतना, अस्वच्छ रहना, अनुशासनहीनता, अस्त-व्यस्तता, आलस्य, प्रमाद, कटुभाषण, अशिष्ट आचरण, दुर्व्यसन, द्वेष, दुर्भाव जैसी व्यक्तिगत अवांछनीयताओं पर सरकारी अंकुश नहीं है। क्या यह सारी आदतें व्यक्ति और समाज के लिए कम हानिकारक हैं । अवांछनीयताएँ ही बढ़कर विक्षोभकारी विभीषिकाएँ उत्पन्न करती हैं। ऐसी ही छोटी-छोटी बातें व्यक्ति को गया- गुजरा बनाती और समाज को खोखला करती हैं। पागल की तोड़-फोड़ हमें चौंकाती है लेकिन सनकी एवं उद्धत प्रकृति के मनुष्य धीरे-धीरे कितनी विसंगतियों को खड़ी कर देते हैं, उसे खोजा जाए तो और भी अधिक हानि हुई दृष्टिगोचर होगी।
अग्निकांड से लकड़ी का विशाल शहतीर जल जाने की चारों ओर चर्चा होती है,लेकिन जब लकड़ी का कीड़ा उसे खोखली करके धराशायी बना देता है तो सामान्य कहकर टाल दिया जाता है। बड़े अपराधों की भयंकरता सर्वविदित है, किंतु छोटेअपराध जिन्हें नैतिक एवं नागरिक मर्यादाओं का उल्लंघन कह सकते हैं, कम भयानक नहीं हैं। खेत को हिरन चर गये अथवा फसल को कीड़ों ने साफ कर दिया, विश्लेषण की दृष्टि से दो प्रसंग हो सकते हैं, लेकिन हानि की दृष्टि से दोनों को ही समान रूप से हानिकारक ठहराया जायेगा ।
इन सभी समस्याओं का समाधान “जन साधारण का दृष्टिकोण बदलने से ही संभव होगा।” आस्तिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता की आस्थाएँ ही अंतःकरण को परिष्कृत करती हैं और उन्हीं आस्थाओं की प्रेरणा से मनुष्य सज्जनता अपनाने के लिए विवश होता है। सुसंस्कृत व्यक्ति पर न तो सामाजिक अंकुश की आवश्यकता पड़ती है और न सरकारी रोकथाम की। वह आंतरिक सदाशयता से प्रेरित रहता है,अपना स्तर ऊँचा उठाता है और दूसरों को हानि पहुँचाना तो दूर की बात है ,वह तो लोकमंगल के अनेक आधार खड़े करता है।
बढ़ती हुई अनैतिकता का विकसित रूप “अपराधों की बाढ़” के रूप में देखा जा सकता है। इसे न संपन्नता रोक सकती है और न दंडनीति । पश्चिमी देशों की साधन-संपन्नता किसी से छुपी तो नहीं है लेकिन वहाँ भी चोरियां, लूटपाट जैसे अपराधों का बुखार दिखता ही है। हर अपराध के विरुद्ध कड़े कानून भी मौजूद हैं फिर भी जेलखानों के भीतर तक अपराध होते रहते हैं।
हर वर्ष वैश्विक स्तर पर एक सूची प्रकाशित की जाती है जिसमें 10 Crime-free देशों को शामिल किया जाता है। इस बार का देश आइसलैंड है। नॉर्वे, फ़िनलैंड ,डेनमार्क जैसे अन्य और भी छोटे-छोटे देश इस सूची में अपना नाम अंकित करवा चुके हैं। इन सभी देशों में कॉमन बात है कि सभी साधन सम्पन्न तो हैं हीं लेकिन छोटे भी बहुत हैं।
परम पूज्य गुरुदेव बताते हैं कि इस दिशा में जो भी उच्च भी हो रहा है उसे उत्साहपूर्वक काम में लाया जाए लेकिन साथ ही यह आवश्यकता भी समझी जाय कि “मानवीय अंतःकरण को सुसंस्कृत” बनाने के लिए समस्त साधन झोंक दिए जाएँ। इस प्रयत्न को पुराने शब्दों में “आध्यात्मिकता का प्रसार” कहा जाता था । सही मायनों में यही वह आधार है, जिसके सहारे हर व्यक्ति को ‘पुलिसमैन’ बनाया जा सकता है। स्वयं आदर्शवाद अपनाने वाले ही दूसरों को सही नागरिक बनकर रहने के लिए विवश कर सकते हैं।
यही कारण है कि OGGP का प्रत्येक युगसैनिक अपने “गुरु का सैनिक” है और गुरु से अपरिचित लोगों के लिए एक Role model की उपाधि से सम्मानित है।
अपराधी दुष्प्रवृत्तियों का स्थायी नाश करने के लिए अध्यात्म की पुनः प्राण-प्रतिष्ठा करना न तो असंभव है और न ही कठिन । वातावरण में व्यक्तित्वों का अंतरंग और बहिरंग ढाँचा ढालने की पूरी क्षमता है। समाज के मूर्धन्य व्यक्ति यदि इसकी आवश्यकता अनुभव कर सकें तो बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री, साहित्य-सृजेता, धर्माध्यक्ष, शासनाधिकारी एवं कलाकार व प्रतिभाशाली विभूतियों के संयुक्त प्रयास से ऐसा वातावरण सहज ही बन सकता है जिसमें जनसाधारण को उत्कृष्ट चिंतन एवं आदर्शवादिता अपनाने की ही इच्छा उत्पन्न हो।
मानवी चिंतन यदि मोड़ा जा सके तो भय, आशंका और अविश्वास के कारण पनपने वाली हिंसा और प्रतिहिंसा की जड़ें कट जाएंगीं,दंगे-फसाद, वर्ग संघर्ष, क्षेत्रीय युद्ध और विश्व युद्ध के घुमड़ते बादल स्वयं ही छट जाएंगें। घृणा के स्थान पर आत्मीयता, द्वेष के स्थान पर प्रेम, शोषण के स्थान पर सहयोग को स्थान देना होगा। ऐसा करने से आंतरिक सुव्यवस्था और सीमा सुरक्षा के लिए धन-शक्ति का सारा खर्चा, शिक्षा, सिंचाई जैसे उपयोगी कार्यों में लगाया जा सकता है। तब विश्व में एक भी व्यक्ति अशिक्षित, रुग्ण और उद्विग्न दिखाई न पड़ेगा। परस्पर घात-प्रतिघात में लगी हुई शक्ति को यदि सृजन सहयोग में लगा सकें तो उसका दोहरा लाभ होगा। ध्वंस के दुष्परिणामों से छुटकारा मिलेगा और सृजन की सुखद संभावनाएँ बढ़ेंगी।
विश्व का प्रत्येक व्यक्ति स्नेह और प्यार के साथ बिना किसी भय के,परस्पर संदेहरहित, दुर्भावरहित वातावरण का आनंद उठाएगा। पारस्परिक सद्भाव संपन्नता से घर के हर सदस्य को अपने-अपने ढंग का आनंद और संतोष मिलता है। सभी एक-दूसरे से लाभ उठाते हैं, और उस मिली-जुली उदार सहकारिता से पूरा परिवार सुदृढ एवं सुविकसित बनता चला जाता है। सुसंस्कृत परिवारों में कई प्रकार की कठिनाइयाँ रहते हुए भी स्वर्गीय वातावरण बना रहता है। उसके सदस्यों को व्यक्तिगत उत्कर्ष का लाभ मिलता है और उन घटकों का सम्मिलित रूप समूचे समाज को समुन्नत बनाने में अप्रत्यक्ष किंतु असाधारण योगदान करता है।
विचारणीय यह है कि मानवी स्वभाव में कूट-कूट कर सहकारिता भरी होने पर भी वह लाभ क्यों नहीं मिलता, जो सुसंस्कृत परिवारों को मिलता है? आज समाज के सम्मुख सर्वग्रासी विभीषिकाएँ क्यों प्रस्तुत हैं ? यह प्रश्न भी कम गंभीर और कम विचारणीय नहीं हैं ।
यदि हम तथ्यों की ओर से आँखें न फेर लें तो समझा जा सकता है कि मनुष्यों द्वारा विकृत दृष्टिकोण तथा निकृष्ट रीति-नीति अपनाई जाती है जो अगणित कठिनाइयों की घटा को जन्म देती है । इसलिए यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि कष्टकारक उलझनों को सुलझाने के लिए “हमारा क्रिया-कलाप बदलना चाहिए।” समाज में लाने योग्य इस परिवर्तन को उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व से ही लाया जा सकता है जिसे तत्त्वविज्ञानियों ने “अध्यात्मवाद” का नाम दिया है और जिसे बोलचाल की भाषा में “आदर्शवाद” कहा जा सकता है। मनुष्य को मानवतावादी होना चाहिए। उसे व्यक्तिवादी आपाधापी से विमुख होकर समूहवादी रीति-नीति अपनानी चाहिए। इसी को शास्त्रीय शब्दों में अध्यात्मवाद और राजनैतिक शब्दों में समाजवाद कह सकते हैं। गुरुदेव ने इसका नामकरण मानवतावाद किया है ।
ज्ञान-विज्ञान और उद्योग की दिशा में गगनचुंबी प्रगति हो रही है। इस प्रगति के लिए मूर्धन्य लोग जी तोड़ परिश्रम कर रहे हैं। इन प्रयासों का प्रतिफल दिख भी रहा है। भौतिक प्रगति को एक वरदान कहने में किसी को कोई संकोच नहीं हो सकता, परन्तु यही तो सब कुछ नहीं है। आवश्यकता है उस सद्भावना और दूरदर्शिता की, जिसके सहारे इन उपलब्धियों का सदुपयोग किया जा सके। यही वह मर्म-स्थल है,जहाँ मनुष्य ठोकरें खाते, गिरते, उठते भटकते हुए सक्रीय है। समझदारी इस युग की सबसे बड़ी माँग है क्योंकि यदि समय रहते रोग की भयंकरता को समझा न जाय और निदान विश्लेषण के सहारे कारणों को न ढूँढ़ निकाला जाए तो सर्वनाश से कोई नहीं बच सकता।
कोई कारण नहीं कि मनुष्य मिल-जुल कर न रह सके, after all Humans are social beings. अगर मनुष्य मनोरंजन के लिए इक्क्ठे होकर पार्टियां करने से कतराता नहीं है तो सार्थक कार्य के लिए, समस्याओं के विवेकपूर्वक समाधान के लिए क्यों नहीं इक्क्ठा होगा,अवश्य होगा, तभी सही मायनों में धरती पर स्वर्ग का अवतरण होगा। असुरता इतनी प्रबल नहीं है कि वह देवत्व को सर्वदा के लिए हरा सके। सद्भावना के समर्थक बिखरे रहते हैं। यदि एकजुट होकर एकत्व का प्रसार और सृजन का विस्तार करने के लिए कटिबद्ध हो जाएँ तो मनुष्य जाति का भविष्य उज्ज्वल बनाने वाली विश्वशांति की संभावनाएँ कल्पना न रहकर, कल ही सुनिश्चित यथार्थता बन सकेंगी। तब इसे अध्यात्मवाद की विजय कहा जा सकेगा।
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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 15 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज बेटी अनुराधा गोल्ड मैडल विजेता हैं ।
(1)वंदना कुमार -32 ,(2) सुमनलता-30 ,(3 ) संजना कुमारी-25,(4) संध्या कुमार-36 ,(5) सुजाता उपाध्याय-34 ,(6)चंद्रेश बहादुर-28 ,(7)रेणु श्रीवास्तव-39,(8 ) सरविन्द पाल-32 (9 )अनुराधा पाल-63 , (10 ) निशा भारद्वाज-26 ,(11 )नीरा त्रिखा-25,(12 )पिंकी पाल-25,(13 ) मंजू मिश्रा-39
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।