वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परिष्कृत दृष्टिकोण वाले अध्यात्मवादी मनुष्यों का योगदान। 

12 दिसंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद

Source: समस्त समस्याओं का समाधान-अध्यात्म

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की कल से आरम्भ हुई गुरुकक्षा में कुछ समाजपरक समस्याओं के समाधान की पृष्ठभूमि पर चर्चा की जा रही है।  यह समझने का प्रयास किया जा रहा है कि अध्यात्म कैसे इन समस्याओं का समाधान निकाल पायेगा। समस्याएं तो लगभग वहीँ हैं जिनकी चर्चा व्यक्तिपरक सन्दर्भ में की गयी थी लेकिन समाजपरक सन्दर्भ में भी बहुत कुछ सीखने को मिलने की सम्भावना है।  होना तो वही है जो परमपूज्य गुरुदेव चाहेंगें लेकिन हमारा प्रयास और समर्पित साथिओं का सहकार एक अटूट कड़ी का कार्य कर रहा है।

तो मंगलवार की मंगलवेला में गुरुचरणों में समर्पित होकर शांतिपाठ के साथ आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ करते हैं। 

ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

अर्थात 

हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।

मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥

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बार बार भौतिकवाद की बात होती रहती है और अध्यात्मवादी उसके बारे में बुरा भला कहते रहते हैं लेकिन मूल तथ्य से मनुष्य बुरी तरह से अनजान है। मूल तथ्य यह है कि भौतिकवाद कोई अभिशाप नहीं है, यह मनुष्य जीवन का एक अभिन्न अंग है। समस्या तो तब उठती है जब मनुष्य अपनी सारी  ऊर्जा मात्र 1 प्रतिशत (भौतिकवाद) के लिए नष्ट किये जा रहा है और 99 प्रतिशत (अध्यात्मवाद) के बारे में बिल्कुल अनजान है, उसकी ओर कोई ध्यान ही नहीं है। मनुष्य की अशांति और असंतोष का मुख्य कारण यही है कि वह सौंदर्य, कला आदि जैसी प्यास को भौतिकता से बुझाना चाहता है, इसका मुख्य स्रोत ही अध्यात्म है। अध्यात्मता की शक्ति को पहचान पाना ही सही मायनों में इन लेखों की सफलता होगी। माला जपना, अनुष्ठान करना, तीर्थ करना, यज्ञ करना आदि सब कर्मकांड हैं, इन कर्मकांडों से ऊपर उठकर आदर्शवादिता को अपनाना ही सही अध्यात्मवाद है।        

आज की परिस्थितियों में समाज और राष्ट्र एक ही बात है । किसी जमाने में वे दो भी थे लेकिन  आज तो सामाजिक समस्याओं को राष्ट्रीय मानकर चलने में किसी को कोई बड़ी आपत्ति नहीं है। सामाजिक, राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी असंख्य समस्याओं का वर्गीकरण किया जाय तो उन्हें पाँच निम्नलिखित भागों में विभक्त किया जा सकता है : 

(1 ) जन स्वास्थ्य की समस्या (2 ) अपराध और युद्ध (3 ) आर्थिक असंतुलन (4 ) बढ़ती हुई जनसंख्या (5 ) स्वार्थपरता और बिगड़ा हुआ अंतःकरण । इन पाँचों समस्याओं  के अंतर्गत उन समस्त समस्याओं को लिया जा सकता है, जो अनेक राष्ट्रों के सामने अनेक आकृति-प्रकृति की बनकर आती रहती हैं। इन्हीं को सुलझाने के लिए समाजसेवी, बुद्धिजीवी, राजनेता, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री विभिन्न ढंगों से सोचते, विभिन्न उपाय खोजते और विभिन्न कदम उठाते देखे जाते हैं। कल्याणकारी एवं सुरक्षात्मक योजनाओं का निर्धारण उन्हीं प्रयोजनों के लिए होता है। इन्हीं समाधानों के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयत्न होते हैं  और पालिसी मेकर्स  आदान-प्रदान करते  हैं। 

इतने प्रयत्न करने के बावजूद भी देखा यही जाता है कि बात कुछ बन नहीं रही है और सार्थक  समाधान निकल नहीं रहे हैं।

अक्सर यह समझा जाता है  कि निर्धनता ही सबसे बड़ा अभिशाप है और समृद्धि बढ़ने से समाज की अनेकों  समस्याओं का हल निकल जाता है लेकिन  यह प्रयोग सुसंपन्न कहे जाने वाले देशों में हो चुका है। अमेरिका और यूरोप  के अनेक देश भौतिक प्रगति के हर क्षेत्र में पिछड़े देशों की तुलना में अत्यधिक ऊँचाई तक बढ़ गये हैं लेकिन  वहाँ के लोगों की अशांत मनःस्थिति बढ़ती हुई अपराधी प्रवृत्ति तथा दूसरी सामाजिक विकृतियों को देखकर लगता है कि मात्र भौतिक उन्नति को ही  सब कुछ मान बैठना भूल है। समुन्नत कहलाने वाले देशों में उन व्यक्तियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ रही है, जो थकान और तनाव की मनःस्थिति से निरंतर क्षुब्ध रहते हैं। पारिवारिक  स्नेह और  सद्भाव घट जाने से संयुक्त परिवार प्रणाली के आनंद को गँवा बैठे हैं। अनिश्चित और अविश्वस्त दांपत्य जीवन को कृत्रिम आकर्षणों के सहारे मधुर बनाने के प्रयोग सर्वथा असफल हो रहे हैं और परिवार संस्था टूट रही है। बढ़ते हुए तलाक के केस, असफल वैवाहिक जीवन ने दांपत्य जीवन का आनंद ही नष्ट कर दिया। संतान और अभिभावकों के बीच स्नेह-श्रद्धा के सूत्र अत्यंत दुर्बल पड़ गये। बच्चों और माता पिता  का रिश्ता शिशु काल तक ही सीमित रहता है। इन देशों में तो बहुत ही प्रचलित प्रथा है कि बालिग होते ही अपना निर्वाह स्वयं ही करना होता है। माता पिता स्वयं ही कह देते हैं कि अब आप 18 वर्ष के हो गए हो, अपना बंदोबस्त स्वयं करो। ऐसी स्थिति में, ऐसे कल्चर में, समर्थ होते ही परिवार के साथ वोह रिश्ता नहीं रहता जिसे सही मायनों में “पारिवारिक” कहा जाए। विवाह का उद्देश्य मात्र एक ड्रामा सा  बन कर रह गया है। ऐसी ही स्थितिओं ने, ऐसी ही Financial freedom और Financial self-sufficiency ने लिव इन रिलेशन्स, लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप को जन्म दिया है। 

इस विकास का सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि संयुक्त परिवार से एकल परिवार ने जन्म लिया और एकल परिवार से लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशन्स का जन्म हुआ। यह एक ऐसी स्थिति है जिसके अंतर्गत कहने को तो हम पति-पत्नी हैं लेकिन मिलते कभी कभार ही हैं, वर्ष में एक आध बार ही, वीकेंड पर वीडियो कॉल तो हो ही जाती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आंतरिक सद्भाव और प्रेम के लिए “स्पर्श” का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने तो स्पर्श से secrete होने वाले फील गुड (Feel good chemicals) केमिकल्स की बहुत महत्ता बताई है। क्या वीडियो कॉल  वैवाहिक जीवन के सुखद आनंद का substitute है ? कदापि नहीं। अगर अकेले ही रहना था तो विवाह क्यों किया ? “Humans are social animals” के सिद्धांत को नकारना, ईश्वर के बनाये गए सिद्धांतों के खिलाफ है। इस तरह के जीवन को पशु-जीवन न कहा जाए तो और क्या कहा जाए, पशु-जीवन से पारिवारिक जीवन का आनंद कहाँ तक संभव है ? हमें तो यह कहते हुए  ज़रा भी संकोच नहीं है कि भटके हुए मनुष्य, निष्ठारहित परिवार और आदर्शविहीन समाज की ऐसी दुर्गति ही होनी चाहिए। इस दुर्गति को  हम तथाकथित समृद्ध देशों के आंतरिक खोखलेपन में झाँककर देख सकते हैं। ऐसी परिस्थितिओं में भौतिक प्रगति के नगाड़े बज रहे हैं और उपलब्धियों के गुणगान गए जा रहे हैं लेकिन एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि मानवी सत्ता दो भागों में विभक्त है। एक भाग के अंतर्गत  भौतिक शरीर आता  है और  दूसरा भाग आत्मिक चेतना वाला भाग है।

भौतिक निर्वाह के लिए सुविधा-साधनों की आवश्यकता को कभी भी नकारा नहीं जा सकता  आत्मिक शांति  के लिए आदर्शवादी वातावरण बहुत ही ज़रूरी है ।  सही मायनों में सही प्रगति तो वही मानी जाएगी जहाँ दोनों साधन एक साथ जुटेंगे और सुख-शांति की संभावना भी वहीँ पर  बढ़ेगी। यहाँ एक बात और भी समझ लेने की है कि चेतना मुख्य है और कलेवर गौण । अगर मनुष्य में  “आत्मिक प्रगति” का विकास हो रहा है यानि मनुष्य आत्मिक दृष्टि से प्रगतिशील है तो वह स्वल्प साधनों में भी हँसते खेलते सुखदायक  ऋषि जीवन जी  सकता है। इसके उलट अगर मनुष्य के पास साधनों का अम्भार लगा हुआ है और  आंतरिक विकृतियाँ आसुरी स्तर की हैं, अनाचारों का सृजन हो रहा है तो यही साधन/ संपत्ति एक प्रकार की आग है। 

भांति भांति के साधन एवं उनके अम्भार ही आग हैं जिन्हे अध्यात्म के चिमटे से ही पकड़ा जाना चाहिए। नंगे हाथ अंगार पकड़ लेने की चेष्टा में खतरा ही खतरा है। वासना तृष्णा से, लोभ-मोह से, संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरा हुआ व्यक्ति कितना ही साधन संपन्न क्यों न हो, अपनी उपलब्धियों का सदुपयोग न कर सकेगा। दुरुपयोग के दुष्परिणाम उसे पग-पग पर भुगतने पड़ेंगे। यही हो रहा है। हम अपनी प्रत्येक उलझन, समस्या, कठिनाई के पीछे उसी “अनास्था को तांडव नृत्य”  देख सकते हैं।

राजतंत्र की समर्थ सत्ता के माध्यम से समाधान निकालने की बात भी इसी पृष्ठभूमि पर सोची जा सकती है। आज सर्वत्र शासनतंत्र में जनतांत्रिक ( Democratic power) पद्धति ही कार्य कर रही है। इस स्थिति में आम लोगों  में आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करके,आदर्श शासन व्यवस्था की स्थापना करना क्यों असंभव हो ? सभी लोग अपने मतदान के अधिकार का प्रयोग करके ही गवर्नमेंट का चयन करते हैं यानि इसे ही Democracy कहते हैं जिसकी  बहुत ही सरल  शब्दों में निम्नलिखित परिभाषा है : 

Democracy is a  government by the people, for the people and of the people.

नागरिकों द्वारा मूल्य और महत्त्व समझने वाले सदस्यों  का चुना हुआ लोकतंत्र ही  रामराज्य की स्थापना करता है और उसी से सतयुगी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। राजे महाराजाओं के समय में बात कुछ और होती है लेकिन प्रजातंत्र में तो प्रजा ही अपने शासन की व्यवस्था करती है। भ्रष्ट- प्रलोभनों और उद्देश्यों से प्रेरित होकर मतदान करने वाले वोटर ही वस्तुतः प्रजातंत्र की जड़ों को खोखला करते  हैं और अवांछनीय शासनतंत्र खड़ा करने के लिए ज़िम्मेवार होते हैं।

बात घूम-फिर कर वहीं आ जाती है कि “उत्कृष्ट शासन का आधार” विवेकवान नागरिकों के दृष्टिकोण पर निर्भर है। शासन का स्वरूप कितना भी  शक्तिशाली क्यों न हो,  उसका संचालक नियुक्त करने का अधिकार तो मतदाताओं के हाथ में ही सुरक्षित रहता है। स्वस्थ प्रजातंत्र की स्थापना के लिए सर्वमान्य और सर्वोपरि उपाय एक ही है कि प्रजातंत्र के प्रयोजनों के उत्तरदायित्व का भान हो और उसका उपयोग करते समय राष्ट्र की इस पवित्र थाती का पवित्रतम उपयोग करने की बात को ध्यान में रखा जाए।

यह दृष्टि विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक कही जा सकती है। इसी बात को ऐसे भी कहते हैं कि स्वच्छ शासन की स्थापना  “परिष्कृत दृष्टिकोण वाले अध्यात्मवादी” ही कर सकते हैं । शासनतंत्र द्वारा राष्ट्रव्यापी, विश्वव्यापी समस्याओं का स्थिर समाधान, इसी पर निर्भर है कि नागरिकों, सरकारों और मूर्धन्य नेतृत्व द्वारा अध्यात्मवादी आदर्शों को किस सीमा तक अपनाया गया है। गहराई से देखा जाय तो वे सामाजिक समस्याएँ स्वतंत्र रूप में कुछ नहीं, वैयक्तिक समस्याओं का ही सामूहिक रूप है। असंयम से मनुष्य  दुर्बल और रुग्ण होता है। उसी को सामूहिक रूप से बीमारी या अकाल मृत्यु की व्यापक समस्या कहा जा सकता है । मानसिक विकृतियाँ व्यक्तिगत जीवन में मनोविकारों और उद्वेगों के ग्रसित रहने एवं लड़ने-झगड़ने के लिए प्रेरित करती हैं। यही दुष्प्रवृत्ति सामूहिक जीवन में दंगों, उपद्रवों का रूप धारण करती है और अपराधी दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए भड़काती है। 

आज की कक्षा का यहीं पर समापन होता है। 

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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 11 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। संध्या  जी और सरविन्द जी गोल्ड मैडल विजेता हैं।  

(1)वंदना कुमार -25,(2) सुमनलता-29 ,(3 )स्नेहा गुप्ता-24,(4) संध्या कुमार-48 ,(5) सुजाता उपाध्याय-42,(6)चंद्रेश बहादुर-44 ,(8)रेणु श्रीवास्तव-39 ,(9 ) मंजू मिश्रा-41,(10) सरविन्द पाल-25,48 (11 )अरुण वर्मा-32 ,(12)अनुराधा पाल-39       

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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