वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परमपिता परमेश्वर ही हैं, परमानंद के स्रोत का प्रथम भाग 

25 अप्रैल 2023 का ज्ञानप्रसाद

अक्टूबर  2022 की अखंड ज्योति पत्रिका पर आधारित लेख शृंखला का प्रथम भाग आज प्रस्तुत करते बहुत ही आनंद आ रहा है। सच में यह विषय इतना रोचक है कि क्या कहें।  आदरणीय सरविन्द भाई साहिब ने इस लेख का स्वाध्याय किया, समझा, अपने शब्दों में लिख कर हमें भेजा। जब हम इस कंटेंट की  एडिटिंग कर रहे थे तो विचारों का बवंडर इस प्रकार उमड़-उमड़ कर आ रहा था कि हमारे लिए अपनी लेखनी को रोक पाना असंभव हो गया। हमारे सहकर्मी इस तथ्य से भलीभांति परिचित होंगें  कि डांस-भंगड़े के शो में नाचने वाले दर्शकों के कदम अपनेआप ही थिरकना आरम्भ कर देते हैं। यही स्थिति हमारी भी  थी। माँ सरस्वती का हाथ जब सिर पर पड़ा  तो हम भी अपने विचार शामिल करते गए।

हमें पूर्ण विश्वास है की सुमन लता बहिन जी ,रेणु श्रीवास्तव बहिन जी,अरुण भाई साहिब, सरविन्द भाई साहिब, चंद्रेश भाई साहिब, विदुषी बहिन जी, बेटी संजना जैसे अनेकों पाठक भी इस लेख को पढ़ते समय  हमारी तरह अपनी लेखनी को रोक पाने में असमर्थ होंगें। ऐसा इसलिए है कि यह टॉपिक इतना रोचक और हम सबके जीवन से इतना सम्बंधित है कि आए  दिन इस तरह की बातें होती रहती हैं, अपने आसपास का वातावरण देखकर, अपने सोशल सर्किल में परिजनों की बातें सुन-सुनकर, उनके लाइफ स्टाइल देख  कर खीज तो होती ही है। आधुनिकता की अंधी दौड़, मृगतृष्णा  ने मनुष्य की बुद्धि का जिस प्रकार नाश किया है हम सब उससे परिचित  हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री का बच्चा बच्चा इस तथ्य को जानता है कि “जब बुद्धि का नाश होता है तो मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है” यही तो हो रहा है। 

इस परिवार द्वारा परोसे गए  ज्ञान अमृत  की एक एक बूँद पाठकों को जीवनदान, प्राणदान देने में सहायक होगी ऐसा हमारा विश्वास  है क्योंकि यह  ज्ञान अमृत परम पूज्य गुरुदेव की लेखनी से सुशोभित हुआ है। 

सरविन्द जी कह रहे हैं कि अक्टूबर  2022 की अखंड ज्योति पत्रिका में प्रकाशित लेख “परमपिता परमेश्वर ही हैं, परमानंद के स्रोत” का स्वाध्याय करके  विश्लेषण करते हुए हम  आनलाइन ज्ञान रथ गायत्री परिवार के समक्ष एक लेख श्रृंखला का प्रथम भाग  प्रस्तुत कर रहे हैं l यह हम परम पूज्य गुरुदेव की प्रेरणा से प्रेरित होकर लिख रहे हैं, इसमें हमारी कोई पात्रता नहीं है। 

परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि वर्तमान समय  में हमारे चारों तरफ कोलाहल ही कोलाहल है। हम सबके बाहर कोलाहल है और भीतर भी कोलाहल है और उसी कोलाहल में मनुष्य  बेतहाशा इधर-उधर भागता फिर रहा है l कभी वह बाहर से आ रहे शोरगुल को सुनकर उस तरफ दौड़ पड़ता है तो कभी अपने अंतःकरण से उठ रहे शोरगुल को सुनकर एकदम विचलित हो उठता है, कभी बाहरी  जगत की चमक-दमक मनुष्य को लुभाती है तो कभी मन में उठ रही नीच  कल्पनाएं और कामनाएं अपनी ओर आकर्षित करती हैं जिसके परिणाम स्वरूप चित्त अशांत और  विचलित बना  रहता है l 

अब प्रश्न यह उठता है कि इन  विषम परिस्थितियों में मनुष्य करे भी तो क्या करे? वह बेचैन, व्याकुल, व्यथित और  विचलित हो जाता है और उसे वहाँ से निकलकर भागने की कोई तरकीब भी नहीं सूझ पड़ती है l इस परिस्थिति से भाग कर वह जाए भी तो कहाँ जाए? मनुष्य को इस परिस्थिति से मुक्ति मिले भी तो  कैसे मिले ? 

गुरुदेव बहुत ही बेसिक प्रश्न पूछते हुए लिखते हैं कि आखिर इस शोरगुल का कारण क्या है और यह सब शोरगुल, भागदौड़ किस लिए है। यह दौड़-धूप, यह भौतिकता की अंधी दौड़ आखिर  है ही क्यों? यह बेकार की झूठी हलचल किस लिए है ? आखिर  यह बवंडर किस लिए है जो कि हम सबको झंझावात में फँसी हुई मक्खियों के दल  की भाँति उड़ाए ले जा रहा है? कभी इधर तो कभी उधर,और हम हैं कि कठपुतलियों की तरह बस नाचते ही जा  रहे हैं l 

इस स्थिति  में एक-एक शब्द को बहुत ही गौर से समझने की आवश्यकता है।

बवंडर को अंग्रेजी में sandstorm कहते है और झंझावात एक प्रकार का  मक्खियों का तूफ़ान सा होता है जो कई एकड़ फसल मिंटो सेकंडों में तबाह कर देता है। हमारे पाठक रेगिस्तान में उठते बवंडर से परिचित होंगें जब पथिक  को सिवाय रेत के तूफ़ान के इलावा कुछ भी नहीं दिखता। इस तूफ़ान में पथिक अपने निर्धारित मार्ग को ढूंढता ही रह जाता है , हाथ लगती है तो केवल भटकन।  परम पूज्य गुरुदेव हमसे पूछ रहे हैं कि आखिर क्यों और किस लिए हम सब इस अंधी दौड़ में भटके फिर रहे  हैं ? क्या मिल जायेगा इस अंधी, अनिर्धारित, अनियमित  दौड़ से ? अवश्य ही यह भागदौड़  सुख की चाह में, सुख की खोज में होगी लेकिन दौड़ने वालों को पूछें 

“क्या सभी  इंसान सुखी व समुन्नत जीवन जी रहे हैं ? क्या इस दौड़ से सभी सुखी और शांत हुए हैं ? क्या मनुष्य में आंतरिक प्रसन्नता और उल्लास का अनुभव हुआ ?” 

परम पूज्य गुरुदेव उत्तर देते हैं कि इस अंधी भागदौड़ से न तो  कभी किसी को आत्मिक आनंद मिल सका है और न ही  मिलेगा ? ऐसा इसलिए है कि यह भागदौड़ भौतिकता की दौड़ है, पदार्थों की दौड़ है, ऐशपरस्ती की दौड़ है, vacation की दौड़ है, बड़े-बड़े महलों की दौड़ है, नई से नई, लेटेस्ट गाड़ियों की, gadgets आदि आदि एवं आदि की दौड़ है।  इस अंधी दौड़ से कुछ सुख शांति मिली है कि नहीं लेकिन परिवारों का सर्वनाश अवश्य कर दिया  गया है, भावनाओं-संवेदनाओं का हनन अवश्य ही कर दिया है। अपने इर्द- गिर्द दृष्टि घुमाकर देखो तो सही, शायद ही कोई ऐसा मनुष्य मिले जिसे आंतरिक सुखशांति का उपहार मिला हो और अगर कोई मिल भी जाए तो  वोह दुर्लभ प्राणी ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का समर्पित सहकर्मी ही होगा।      

परम पूज्य गुरुदेव हमें ही पूछ रहे हैं कि कहीं आप सब, मेरे बच्चे भी इस भौतिक सुख की खोज में, भौतिक सुख की चाह में, भौतिक आनंद की चाह में विषय-भोगों के पीछे तो भाग नहीं रहे हो और  अगर भाग रहे हो तो विश्वास करो हमेशा भागते ही रहोगे, तब तक भागते रहोगे जब तक जीवन का अंत न हो  जाए। ऐसा इसलिए है कि विषय भोगों की भूख एक unending भूख है, कभी भी न तृप्त होने वाली मृगतृष्णा है जहाँ मरुस्थल में मृग चमकती रेत को पानी समझकर  भाग-भाग कर मृत्यु को ही गले लगा लेता है। 

“इस ज्ञानप्रसाद लेख शृंखला  का उद्देश्य इस  तृष्णा को  शांत करने का मार्ग ढूंढना है।”   

गुरुदेव बताते हैं कि यह बहुत ही विचारणीय विषय है कि “कब तक हम इस तरह संसार के शोर-शराबे, अपने कर्म-संस्कारों के शोर-शराबे व कोलाहल के पीछे भागते फिरते रहेंगें ? जाहिर सी बात है कि इस परिस्थिति में यह प्रश्न उठना आवश्यक  है कि कब तक हम  तथाकथित  भौतिक उन्नति के पीछे कठपुतलियों की भाँति नाचते रहेंगें, क्या यह कठपुतली- नाच कभी बंद हो पाएगा या नहीं। यह नाच  इस “देवदुर्लभ मानव जीवन” के साथ खेल-खिलवाड़ नहीं कर रहा  तो और क्या कर रहा  है? यह नाच शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्ति का अपव्यय एवं  बर्बादी नहीं कर रहा  तो क्या कर रहा है?  यह बालक्रीड़ा-कौतुक ( छोटे बच्चों को दिखाने  वाला तमाशा)  नहीं तो और क्या है?  बच्चे खेल-खेल में मिट्टी के ढेर से अनेकों  प्रकार के व्यंजन बनाते हैं और फिर पंक्तिबद्ध होकर बैठते हैं, उन व्यंजनों को एक-दूसरे को परोसते हैं, बच्चे इन व्यंजनों को  खाने का अभिनय करते हैं, उन्हें  खाकर तृप्त होने का भी बहुत ही अच्छा अभिनय करते हैं।  लेकिन सच बात तो यह है कि यह सब एक ड्रामा ही होता है, इससे न तो उनकी भूख मिटती है और न ही प्यास l अतः अगले ही  पल ही बच्चों को ज़ोरों  की भूख लगती है। बच्चे  भूख मिटाने के लिए  दौड़ते हुए अपनी माताओं के पास पहुँच जाते हैं, माताएं उन्हें स्वादिष्ट व पौष्टिक व्यंजन खिलाती हैं, जिन्हें खाकर बच्चे वास्तव में तृप्त हो जाते हैं, फिर लोरी सुनाती हैं और खेल से थके-हारे बच्चे शीघ्र ही अपनी माता की गोद में आँचल के तले निर्भीक, निर्भय हो मीठी निद्रा में चले जाते हैं l 

परम पूज्य गुरुदेव हम बच्चों को  बता रहे हैं  सुख एवं आनंद पाने के लिए विषयों के पीछे भागते रहना केवल एक  बालक्रीड़ा-कौतुक मात्र है, इस व्यर्थ के कार्य से  कभी भी  सार्थक सुख व आनंद मिलना संभव नहीं है। 

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भौतिक जीवन में रहते हुए भौतिक साधनों की आवश्यकता है और उन आवश्यकताओं को पूरा भी करना भी है लेकिन उतना ही जितना बच्चों के लिए  खेलना आवश्यक होता है। आवश्यकता से अधिक  खेल भी तो सहन नहीं किया जाता। क्या माँ को बच्चे का सारा दिन खेलना सहन होता  है, नहीं न ?   पढ़ने के बाद, होमवर्क समाप्त करने के बाद माँ स्वयं बच्चे को खेलने के लिए भेजती है ,भेजती है न ? अगर बच्चा आवश्यकता से अधिक खेलेगा तो जीवन के साथ ही खिलवाड़ करने जैसा  ही होगा। इस खिलवाड़ के कारण हमें इस सत्य  का ज्ञान ही भूल जाता है कि “शाश्वत सुख, भौतिक साधनों से नहीं मिलता  बल्कि शाश्वत सुख के वास्तविक स्रोत  सत्-चित्-आनंद स्वरूप परम पिता परमेश्वर ही हैं।” परम पिता परमेश्वर के आँचल में, गोद में एवं  शरण में ही हम निर्भय व निर्भीक हो सकते हैं, परमसुख एवं  परमानंद की अनुभूति कर सकते हैं। 

यह एक ऐसा  सत्य है जिसमें  तनिक भी संदेह व संशय की गुंजाइश  नहीं है। केवल ईश्वर में अटूट  विश्वास की जरूरत है। यदि  हमनें परम  सत्ता में विश्वास कर लिया तो परमात्मा हम से बिल्कुल दूर नहीं हैं। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि परमात्मा  हम सबके अंतःकरण में आत्मा के रूप में विराजमान हैं, शरीर तो उस आत्मा का आवरण  मात्र है, वस्त्र मात्र है। इन्द्रियों का सुख क्षणिक है, क्षणभंगुर है,  हमेशा अतृप्त और अधूरा ही रहता है। अगर हम कहें कि तृप्ति होने के बजाए भूख-प्यास और तीव्र होती है तो शायद गलत न हो।   जीवन का समस्त  प्रयोजन शरीर को सजाने-सँवारने, मन को, बुद्धि को संतुष्ट करने पर ही केंद्रित रहता  है। हम सम्पूर्ण जीवन शरीर की साज-सज्जा में  ही लगा देते हैं जो कि  आध्यात्मिकता के आधार पर सरासर गलत है। यह मनुष्य की सबसे  बड़ी भूल व अज्ञानता है, इसलिए आवशयक है कि समय रहते सँभल जाएं। हम में से जिसने भी इस सत्य को समझ लिया वोह तो भवसागर से पार हो गया, जो अज्ञानता के अँधेरे में सोता रहा उसके लिए आवश्यक है कि आज का प्रज्ञा गीत सुने, शायद नींद से जग जाए। उठ जाग मुसाफिर भोर भई अब रैन कहाँ जो सोवत है। 

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आज  की  24 आहुति संकल्प सूची  में 3  युगसैनिक ही पूर्णाहुति प्रदान कर सके। तीनों ही स्वर्णपदक के हकदार  हैं ।  (1) चंद्रेश बहादुर-26 ,(2)सरविन्द पाल-26,(3) मंजू मिश्रा-26  

सभी विजेताओं को हमारी  व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।

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