10 अप्रैल 2023 का ज्ञानप्रसाद
प्रत्येक सोमवार की भांति आज भी हमारे सभी साथी रविवार के अवकाश के उपरांत सम्पूर्ण ऊर्जा लेकर ज्ञानप्रसाद की पाठशाला में आ चुके हैं। सभी के प्रति अभिवादन,आभार, धन्यवाद् व्यक्त करते हुए सूर्य भगवान् की ऊर्जावान लालिमा के साथ,विश्वशांति की कामना करते हुए आज के ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ करते हैं : ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
पिछले कई दिनों से अखंड ज्योति के अप्रैल-मई 1972 और अगस्त 1996 के अंकों को browse करते हुए कुछ लेख प्रस्तुत किये, लेकिन ईश्वर के अजस्र अनुदानों पर प्रकाशित एक लेख हमें बार-बार प्रेरणा दे रहा था, ईश्वर की महिमा भरे विचारों का कोष भरता ही जा रहा था। आज के ज्ञानप्रसाद में एक अनगढ़, inexperienced लेखक की कलम के माध्यम से उन्ही विचारों को प्रस्तुत करने का प्रयास है। जीवन भर हम अभाव का ही रोना रोते रहते हैं, भिखारी की भांति मांगते हुए थकते नहीं है, लेकिन ईश्वर हैं कि देते हुए थकते नहीं। अरे मूर्ख आँखें खोल कर उनके अनुदानों को देख तो सही, क्या कुछ नहीं दिया हुआ।
हमारे व्यक्तिगत विचारों को व्यक्त करते आज के लेख का समापन आज ही हो जायेगा, कल फिर शांतिकुंज के दिव्य प्रांगण में अपने गुरुदेव के चरणों में बैठेंगें।
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हम मकान बनाते हैं, बगीचा लगाते हैं, चित्र बनाते हैं, पुस्तक रचते हैं; उनसे स्वभावतः लगाव और प्रेम होता है। बात यहीं नहीं रुक जाती, अपनी कलाकृति सभी को दिखा-दिखा कर वाहवाही लूटने को भी आतुर रहते हैं। बनाने और सँभालने वाले का अपनी वस्तु से प्रेम होना स्वाभाविक है।
ईश्वर ने हमें बनाया है, सँभाला है और भविष्य में भी हमारी सँभाल रखने का उत्तरदायित्व बिना कहे ही अपने कन्धों पर ले लिया है। ईश्वर का प्रेम हमें अनवरत प्राप्त होता आ रहा है और जब तक सृष्टि का अस्तित्व है तब तक मिलता ही रहेगा, इस तथ्य में रत्ती भर भी संशय नहीं है।
अपनी सन्तान को कौन प्यार नहीं करता है। इंसान क्या,पशु-पक्षी तक अपनी सन्तान के लिए कष्ट सहते हैं, त्याग करते हैं, और अविकसित हृदय में भी ममता, आत्मीयता उगाते हैं। यदि ऐसा न होता तो उन जीव-जन्तुओं के शिशुओं का जीवन धारण ही कठिन हो जाता। मनुष्य तो अधिकतर बातों में अन्य जीवों से आगे ही है, तभी तो उसे “ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति, ईश्वर का राजकुमार” कहलाने का गौरव प्राप्त है। सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने के बावजूद, ईश्वर मानव को किसी अन्य के सहारे नहीं छोड़ते, कभी यह नहीं कहते कि तू तो सर्वश्रेष्ठ है, तू अपना बंदोबस्त स्वयं कर।
प्रत्येक माता पिता अपनी प्रिय संतान के लिए क्या कुछ नहीं करते। वह उस संतान के भरण-पोषण का ही नहीं, शिक्षा-दीक्षा, विवाह शादी, रोटी-रोजगार, सुख-दुःख में भी पूरी सहायता करते हैं । अपना अधिकाँश समय, प्यार और प्रयत्न उन्हीं के लिए plan करते रहते हैं। बच्चा के जन्म के बाद तो माता पिता की सारी दिनचर्या बच्चे की दिनचर्या को ही फॉलो करती है। उसी के टाइम टेबल से सोते हैं, खाते हैं, holidaying करते हैं। संतान के लिए माता पिता जीते जी तो क्या, मृत्यु के उपरांत भी जीवन भर की सारी संपत्ति संतान के लिए उत्तराधिकार में छोड़ जाते हैं। ऐसा होता है अपनी creation के प्रति प्यार और स्नेह जो बिल्कुल ही स्वाभाविक है, natural है।
हम परमेश्वर की सन्तान हैं। विकसित जीव अपनी सन्तान को अधिकतम दुलार देते हैं। ईश्वर को यदि प्राणधारी माना जाय तो यह भी मानना पड़ेगा कि वह वोह तो सबसे ऊपरी स्तर के विकसित (Highest level of development) प्राणी हैं । यदि ऐसा न होता तो मनुष्य जैसे सर्वसाधन सम्पन्न सन्तान की creation कैसे संभव हो पाती । जन्म देकर ही कोई सहृदय guardian अपनी सन्तान को भटकने के लिए नहीं छोड़ देता; फिर ईश्वर हम से विमुख कैसे हो सकते हैं । जब सन्तान के प्रति प्रेम होना सृष्टि का नियम है, स्वाभाविक है, natural है तो अपनी सर्वोत्तम कृति “परमप्रिय सन्तान-मनुष्य” के लिए परम ईश्वर (परमेश्वर) का प्यार क्यों नहीं होगा?
इस प्रेम की विशिष्टता का परिचय इसी तथ्य से मिलता है कि हमें ईश्वर द्वारा प्रदान की हुई अत्यधिक सुविधायें उपलब्ध हैं। ऐसा लगता है मानो यह सारा जगत हमारी ही सेवा सुविधा और प्रसन्नता के लिए बनाया हो। जिस ओर भी दृष्टि दौड़ाई जाय हर्षोल्लास प्रदान करने वाले साधनों का बाहुल्य दिखता है। नन्हे मुन्नों को अभिभावक सुन्दर-सुन्दर खिलौने लाकर देते है, खिलौनों से बच्चे बहुत खुश होते हैं । जिधर भी दृष्टि दौड़ाकर देखें उधर ही एक से बढ़कर एक सुन्दर-सुसज्जित, मधुर, गतिशील और भाव भरे खिलौने दिखते हैं। अपने इर्द-गिर्द चारों ओर, ऊपर नीचे दृष्टि दौड़ाएं तो केवल यही शब्द निकलेंगें: वाह रे वाह, कैसा सुन्दर है यह विश्व। कैसी सुरम्य है इनकी शोभा, कैसा महान है इस सृष्टि का creator ।
मानवीय सुविधा का क्या ठिकाना । शरीर को ही लें, एक से एक अद्भुत क्षमता वाली इन्द्रियों के उपकरण उपलब्ध कराये हुए हैं। जादू के पिटारे जैसा मन, ऋद्धि-सिद्धि जैसी प्रज्ञा, शीशे के आगे खड़े होकर अपनेआप को देखें तो एकदम देवता जैसे ही दिखेंगें। जीवन को जीवन में घुला देने वाली पत्नी, किलकते, फुदकते नन्हे-नन्हे बच्चे, वात्सल्य से भरे बन्धु बांधव एवं मित्रगण। यह सब कितना सुन्दर है। आजीविका के साधन, मनोरंजन की सुविधायें, प्रगति पथ पर चलाने वाले गुरुजन, क्या नहीं है यहां पर, सब कुछ तो है। हम तो अक्सर ऐसा भी कहते आये हैं, ईश्वर ने हमें इतना कुछ दे दिया है जितनी कि हमें आवश्यकता भी नहीं थी। हाथ, पांव, कान, आँख आदि सब कुछ एक के बजाये दो-दो दे दिए हैं। 2,4 उँगलियों से काम चल सकता था लेकिन ईश्वर ने हमें 10 दे दीं। यह तो उन अनुदानों की बात है, जो सामने दिख रहे हैं,प्रतक्ष्य हैं। अप्रतक्ष्य अनुदानों की तो कोई सीमा ही नहीं है।
प्रकृति अपना आँचल ताने माँ की भांति छाया प्रदान कर रही है। सूरज, चन्द्र, तारे, बादल, पवन, ऋतु परिवर्तन, क्या नहीं है यहाँ पर। वाहन, सहायक, पशु, वैज्ञानिक सुविधायें, इन सब पर जब दृष्टि डालते हैं तो दिखाई देता है कि परमेश्वर का असीम प्रेम और असीमित अनुदान हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं।
यह सब परम पिता, “परम-आत्मा (परमात्मा) के प्रेम का प्रत्यक्ष परिचय नहीं तो और क्या है? ज़रा विचार करें कि यदि हमारे “पिता” ने हमें देने को हाथ सिकोड़ लिया होता, हमें नज़रअंदाज़ किया होता तो हमारी क्या दशा होती। हम सर्वश्रष्ठ और उच्तम कलाकृति न होकर , कीड़े-मकोड़ों की भांति, बन्दर, कबूतरों आदि से भी घटिया जीवन जी रहे होते। सच में ईश्वर ने हमें बनाने में, हमारे विकास में, हमारी evolution में बहुत परिश्रम किया है। जिन अद्भुत और अनुपम सुख सुविधाओं का हम उपभोग कर रहे हैं, क्या अपने बलबूते पर जुटा सकते हैं ,हरगिज़ नहीं, कदापि नहीं।
लेकिन हाय रे मुर्ख,मंदबुद्धि मानव , तू तो हर किसी उपलब्धि को, हर किसी प्राप्ति का श्रेय अपनेआप को ही दिए जा रहा है। यही तेरा घमंड है, जो तेरी बुद्धि का नाश कर रहा है।
ईश्वर हमारी अन्तरात्मा में विराजमान हैं। रात दिन, हर पल साथ चलने वाले साथी की तरह, वह हमारी सहायता करने के लिए सदैव उपस्थित रहता है, ऊँगली पकड़ कर एक अभिभावक की भांति मार्ग दिखाता जाता है। जीवन के अनजान उबड़ खाबड़ मार्ग पर आने वाली कठिनाईयों का समाधान करता जाता है। विपत्ति की भयानक विभीषिकाओं से बचा लेने के लिए लम्बी भुजाएं सहायता के लिए आगे आती ही रहती हैं। संकट की घड़ी में धैर्य बँधाने वाले , सहारा देने वाले , रास्ता बताने वाले वही तो हैं । इस विशाल सागर रुपी संसार की नाव में ईश्वर ही तो पार कराते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि परमेश्वर के प्रेम में कभी कमी नहीं होती, अनुदानों में न्यूनता नहीं होती।
“आवश्यकता है तो बस एक ही बात की : ईश्वर के वात्सल्य को अनुभव करने की।”
गाय के वात्सल्य को यदि बछड़े ने समझा होता तो उसे लगता कि मैं बेचारा नहीं हूँ। अकेला नहीं हूँ। मेरा कोई है और मैं किसी का हूँ। लेकिन स्वार्थ ने हमें यह कहने को विवश कर दिया है : हम किसी के नहीं और कोई हमारा नहीं। किसी दूसरे की तो बात ही क्या, हम अपनेआप के भी नहीं हैं। स्थिति की विषमता यहाँ तक पहुँच गई है कि “न हम आत्मा के हैं और न आत्मा हमारी है । न परमेश्वर हमारे और न परमेश्वर के हम। यह विडम्बना कैसे उत्पन्न हो गयी।अभिन्न आत्मीयता का प्रवाह कहाँ रुक गया, कैसे रुक गया ?
यह सब इसलिए हो गया कि हमने अपनी “आत्मा” किसी और के हवाले कर दी। हमने अपने जीवन की गाड़ी भौतिकवाद के सहारे हांकनी शुरू कर दी। अध्यात्मवाद न तो हमें समझ आया और न ही हमने समझने का प्रयास किया।
आत्मा के बिना क्या हम प्रेम की अमृत वर्षा का अनुभव कर सकते हैं, नहीं। हाय रे मानव यह क्या हाल बना लिया तूने ? बुद्धि रूपी सीता को कौनसा रावण अपहरण कर ले गया और मानव के लिए विलाप, रुदन और पतन ही छोड़ गया। उत्कर्ष और आनन्द की समस्त उपलब्धियाँ कौन चुरा कर ले गया?
यह सारा खेल अज्ञान और अविद्या के कारण है जिसने एक भ्रम पैदा कर दिया है कि जो दिखता है वही सत्य है। प्रतक्ष्यवादी मानव ने अपनेआप को ईश्वर से इतना दूर कर लिया है कि उनकी डोर के अभाव में उसकी जीवनरुपी पतंग झोंके खाती हुई गर्त में गिरती जाती है।
आज का प्रज्ञागीत इसी सन्दर्भ में चुनकर अपलोड किया है। “सतगुरु मैं तेरी पतंग, हवा विच उडदी जावां”
अरे मूर्ख मानव,ईश्वर ने इतना कुछ दिया है, उनके साथ डोर बांधे रखते तो “विवेक रूपी चिन्तामणि” का उपहार भी प्राप्त कर लेता। विवेक अर्थात बुद्धि। यदि वह रत्न मिल जाता तो फिर किसी चीज़ का अभाव प्रतीत ही क्यों होता, कोई कष्ट सताता ही क्यों? ईश्वर के राज्य में अपने पुत्र के लिए कष्ट अभाव की बात ही कहाँ से उठती है, यह सारा राजपाट ईश्वर के पुत्र का ही तो है। अरे मूर्ख आंखें खोल, प्रकाश देख, आँखें चुंधियाँ जाएंगी।
अज्ञान ही है जो तुम्हे रुला रहा है ? अन्धकार ही है जो तुम्हें गिरा रहा है । मानव ने परमेश्वर के प्रेम रूपी प्रकाश को साथ रखने से इनकार कर दिया है और अज्ञान के अन्धकार में भटकना चुन लिया है।
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है,अपने अत्यन्त प्रिय प्रेमी के प्रेम को अनुभव कर, उससे लिपट जा, उसे अपने अन्तःकरण में स्थान दे ; फिर देख कैसे राम-भरत मिलन जैसा आनन्द प्राप्त होता है, राधा-कृष्ण की भांति आत्मा और परमात्मा के एकात्म से इस विश्वरूपी मधुबन में कैसी रासलीला होती, एक ऐसी रासलीला जिसमें हर्ष और उल्लास के अतिरिक्त और कुछ दिखता ही नहीं।
कल वाले लेख का शुभारम्भ आज की 24 आहुति संकल्प सूची से ही किया जाएगा। इस दिशा में सभी युगसैनिकों द्वारा स्थापित किया जा रहा कीर्तिमान ऐसे तो नहीं जाना चाहिए ,celebration तो होना ही चाहिए।
जय गुरुदेव