श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट शांतिकुंज हरिद्वार द्वारा प्रकाशित श्रद्धेय डॉक्टर प्रणव पंड्या और आदरणीय ज्योतिर्मय जी की बहुचर्चित पुस्तक “चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 2 एवं अनेकों अन्य sources पर आधारित लेख शृंखला का यह द्वितीय लेख है। परम पूज्य गुरुदेव ने यज्ञ विज्ञान पर विशाल साहित्य की रचना की है। इस पुस्तिका में गुरुदेव द्वारा सम्पन्न किये गए 24 महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति के बारे में संक्षिप्त वर्णन दिया गया है। गुरुदेव को अनेकों लोगों का विरोध, असहमति एवं गलतफमियों का सामना करना पड़ा जिसके बारे में हमारे पाठक इस लेख में पढेंगें।
पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखित “यज्ञ का ज्ञान विज्ञान” पुस्तक इस दिशा में एक masterpiece, अत्यंत सरल एवं ज्ञानवर्धक पुस्तक है। आगे चलने से पूर्व इस पुस्तक के बारे में जानना अति लाभदायक हो सकता है।
इस पुस्तक की भूमिका बताती है कि गायत्री यज्ञों की लुप्त होती चली जा रही परम्परा और उसके स्थान पर पौराणिक आधार पर चले आ रहे वैदिकी के मूल स्वर को पृष्ठभूमि में रखकर मात्र माहात्म्य पूरक यज्ञों की श्रृंखला को पूज्यवर ने तोड़ा तथा गायत्री महामंत्र की शक्ति के माध्यम से सम्पन्न यज्ञ के मूल मर्म को जन- जन के मन में उतारा। यह इस युग की क्रान्ति है । इस क्रांति को गुरु गोरखनाथ द्वारा तंत्र साधना का दुरुपयोग करने वालों के विरुद्ध की गयी क्रांति से भी ऊँचे स्तर की माना गया है। मूर्खों द्वारा यज्ञों की दिव्यता का दुरपयोग करना, तांत्रिक यज्ञों द्वारा जनसाधारण को mesmerize करना, भांति-भांति के प्रयोग करके लोगों को आश्चर्यचकित करने की प्रथा को समाप्त करते हुए घर-घर गायत्री यज्ञ संपन्न करवाना ही सतयुग की वापसी का प्रतीक है। गृहे-गृहे गायत्री यज्ञ की परम्परा से विश्व भर के परिवारों में गायत्रीमय वातावरण स्वतः ही बनता चला जा रहा है।
यज्ञ शब्द के अर्थ को समझाते हुए परमपूज्य गुरुदेव समग्र जीवन को यज्ञमय बना लेने को ही वास्तविक यज्ञ कहते हैं। “यज्ञार्थ् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ के गीता वाक्य के अनुसार वे लिखते हैं कि यज्ञीय जीवन जीकर किये गये कर्मों वाला जीवन ही श्रेष्ठतम जीवन है ।
यज्ञमय जीवन को परिभाषित करता शांतिवन कनाडा की पावन भूमि से आदरणीय ओंकार जी दिव्य वाणी में यह प्रज्ञागीत इन तथ्यों को support कर रहा है।
यज्ञीय जीवन के अलावा किये गये सभी कर्म “बंधन” का कारण बनते हैं व जीवात्मा की परमात्म सत्ता से एकाकार होने की प्रक्रिया में बाधक सिद्ध होते हैं। गुरुदेव बताते हैं कि “यज्ञ शब्द” मात्र स्वाहा-मंत्रों के माध्यम से आहुति दिये जाने के परिप्रेक्ष्य में नहीं किया जाना चाहिए। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव लिखते हैं कि यज्ञीय जीवन से हमारा आशय है- “परिष्कृत देवोपम व्यक्तित्व।” वास्तविक देव पूजन यही है कि व्यक्ति अपने अंतकरण में निहित देव शक्तियों को यथोचित सम्मान देते हुए निरन्तर बढ़ाता चले। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः की मनुस्मृति की उक्ति के अनुसार सर्वश्रेष्ठ यज्ञ वह है, जिससे व्यक्ति ब्रह्ममय- ब्राह्मणत्व भरा देवोपम जीवन जीते हुए स्वयं को अपने शरीर, मन, अन्तःकरण को परिष्कृत करता हुआ चला जाता है। यज्ञ परमार्थ प्रयोजन के लिए किया गया एक उच्चस्तरीय पुरुषार्थ है। अन्तर्जगत् में दिव्यता का समावेश कर प्राण की अपान में आहुति देकर, जीवनरूपी समाधि को समाज रूपी यज्ञ में होम करना ही वास्तविक यज्ञ है। भावनाओं में यदि सत्प्रवृत्ति का समावेश होता चला जाय तो यही वास्तविक यज्ञ है । युग ऋषि ने यज्ञ की ऐसी विलक्षण परिभाषा कर वैदिक वाङ्मयं के मूलभूत स्वर को ही गुंजायमान किया है। यज् धातु से बना यज्ञ, देवपूजन एवं परमार्थ करते हुए “संगतिकरण” की प्रक्रिया के द्वारा सज्जनों के संगठन, राष्ट्र को समर्थ एवं सशक्त बनाने वाली सत्ताओं के एकीकरण के अर्थ को परिभाषित करता है ।
भगवान के चौबीस अवतारों में एक अवतार यज्ञ भगवान भी है। यज्ञ करना हमारी संस्कृति का आराध्य इष्ट रहा है तथा यज्ञ के बिना हमारे किसी दैनन्दिन क्रियाकलाप की कल्पना तक नहीं की जा सकती। यज्ञ का “विज्ञान पक्ष” समझाते हुए पूज्यवर ने बताया है कि सारी सृष्टि की सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए यज्ञ करना कितना महत्त्वपूर्ण है । देवतत्वों की तुष्टि का अर्थ है सृष्टि का संतुलन बनाये रखने वाली शक्तियों का पारस्परिक संतुलन। यज्ञ को एक प्रकार का टैक्स कहना गलत नहीं होगा। दिव्य शक्तियों का निरंतर उपभोग करते रहना,यहाँ तक कि दुरूपयोग भी करते रहना और बनते हुए टैक्स का भुगतान न करने पर दण्डित होना कोई हैरान करने वाली बात नहीं होनी चाहिए। जिस प्रकार टैक्सों की चोरी करने पर आये दिन Enforcement Directorate (ED) के छापे पड़ रहे हैं, जनसाधारण दण्डित हुए जा रहे हैं तो क्या प्रकृति वर्तमान विनाश को देखकर मूकदर्शक बनी रहेगी, कदापि नहीं। आये दिन हम सब देख रहे हैं कि कैसे विभीषिकाएँ भिन्न-भिन्न रूपों में आकर समस्त जगत पर अपना प्रकोप मचा रही हैं। इन दैवी प्रकोपों से बचने का वैज्ञानिक आधार ही है- यज्ञ ।
इस पुस्तक में परम पूज्य गुरुदेव ने यज्ञ की महिमा का वेदों में, उपनिषदों में, गीता में, रामायण में, श्रीमद्भागवत में, महाभारत में, पुराणों में, गुरु ग्रन्थ साहब आदि में कहाँ-कहाँ, किस प्रकार वर्णन किया गया है, प्रमाण सहित विस्तार से बताया है। यज्ञ मात्र समस्त कामनाओं की पूर्ति का ही मार्ग नहीं है । “यज्ञोऽयं सर्वकामधुक्” अपितु जीवन जीने की एक श्रेष्ठतम विज्ञान सम्मत पद्धति है। यह जानने-समझने के बाद किसी के भी मन में,अनादि काल से भारतीय संस्कृत की मेरुदण्ड रही इस व्यवस्था के प्रति नहीं कोई संशय नहीं रह जाता।
यज्ञों की महिमा का कोई अन्त नहीं । बेसिक साइंस बताती है कि भाप, कोयला, अग्नि, पेट्रोल, बिजली, जल, पवन, एटम आदि के द्वारा विभिन्न प्रकार की शक्तियां उत्पन्न की जाती हैं, ठीक उसी प्रकार प्राचीनकाल में यज्ञकुण्डों और वेदियों में उच्चारण हो रहे रहस्यमय मन्त्रों एवं विधानों द्वारा यह शक्तियां उत्पन्न की जाती थीं । जो कार्य आधुनिक युग की अनेकों मशीनें करती हैं,पुरातन समय में मन्त्रों और यज्ञों के संयोग से होता था। ऐसे कार्य जिनमें बिना किसी मशीन के प्रयोग से मनुष्य सब कुछ कर सकता था, ऋद्धि-सिद्धियाँ करती थीं। देवता और असुर दोनों ही दल इन शक्तियों को अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। इस प्रकार के सकाम यज्ञों के अनगनित प्रयोग शास्त्रों में भरे पड़े हैं, जिनका विस्तृत विधान एवं रहस्मय विज्ञान हैं, जिनकी पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है । जिस प्रकार प्राचीनकाल में विशाल भवनों के खण्डहर अब भी जहाँ-तहाँ मिलते हैं और उसी से उस भूतकाल की महत्ता का, सभ्यता का अनुमान लगता है, उसी प्रकार यज्ञ-विद्या की अस्त-व्यस्त जानकारियाँ जहा – तहाँ क्षत-विक्षत रूप में प्राप्त होती हैं । अनेक प्रकार के अलग-अलग विधान मिलकर एक स्थान में एकत्रित हो गये हैं और गाय घोड़े हाए हैं ।
यज्ञ का विषय तो बहुत ही विशाल एवं विस्तृत है, उचित रहेगा कि इस विषय को किसी और समय के लिए स्थगित कर दें, कहीं ऐसा न हो कि गुरुदेव के संरक्षण में तपोभूमि में हो रहे यज्ञ बीच में ही रह जाएँ, तो आइए चलें तपोभूमि मथुरा की ओर।
24 वर्ष के महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति के लिए यज्ञ :
अनंतनारायण शर्मा का स्पष्टीकरण
अनंतनारायण नरमेध यज्ञ के बारे में स्पष्टीकरण मांगने आया था। गुरुदेव ने उससे पूछा “संध्या वंदन आता है ? उसने उत्तर दिया, “नहीं आता है।” गुरुदेव ने कहा कि तुमने सच बोला है इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि तुम्हारे मन में सीखने और समझने की गुंजाइश है और तुम वस्तुस्थिति समझ सकते हो। शर्मा ने गुरुदेव की बात का ध्यान न दिया क्योंकि वह युवक तो लड़ने-भिड़ने की मुद्रा में आया था। भरतपुर में हो रहे यज्ञ में विघ्न खड़ा करने की मंशा थी। उसके साथ तीन-चार युवक और भी थे। गठा हुआ कसरती शरीर और चेहरे से टपकती हुई उद्दंडता । यज्ञ चल रहा था,आचार्यश्री अपने आसन पर बैठे यज्ञीय कर्मकांडों का संचालन देख रहे थे। पंडित नीलकंठ शास्त्री ब्रह्मा के आसन पर बैठे कर्मकांड करा रहे थे। उस पंच कुण्डीय यज्ञ में मुश्किल से 50-60 लोग रहे होंगे। बड़ी उम्र के लोगों की संख्या अधिक थी। आयोजन की तैयारी करते समय प्रतिरोध का मुकाबला करने के बारे में सोचा भी नहीं था। भरतपुर हालांकि ब्रजमंडल का ही हिस्सा था लेकिन मथुरा-वृदांवन की तरह यहाँ लकीर के फकीर लोगों का बोलबाला नहीं था इसलिए उपद्रव या बाधा की आशंका भी नहीं थी । अनंतनारायण शर्मा के नेतृत्व में तीन-चार युवक पता नहीं कैसे निकल आये।
आचार्यश्री ने अनंत को रोका। वह नरमेध के खिलाफ नारेबाजी कर रहा था। इससे पहले कि वह और उसके साथी कोई और उपद्रव खड़ा करते,आचार्यश्री ने उससे बात की। जब संध्या-वंदन के बारे में पूछने पर उसने मना किया तो आचार्यश्री को उसके भीतर विद्यमान सत्य पर भरोसा हुआ। उन्होंने आगे कहा अभी विरोध करने या लड़ने-भिड़ने में कुछ हासिल नहीं होगा, चाहो तो कोशिश कर सकते हो। तुम हमारा या आयोजन का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाओगे। यहाँ बैठे छोटे-छोटे बच्चे तुम लोगों को मारपीट कर भगा सकते हैं। यह सुनकर अनंत अवाक रह गया। अपनी बात स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री ने कहा । यहाँ बैठा प्रत्येक व्यक्ति रक्षासूत्र से बंधा हुआ है। देवशक्तियाँ उनकी रक्षा कर रही हैं। उनका कोई कुछ अनिष्ट नहीं कर सकता। चाहो तो कोशिश करके देख लो। आचार्यश्री चेतावनी, सलाह या चुनौती सी देते हुए कुछ पल के लिए रुके, अनंत शर्मा और उसके साथी खड़े देखते रह गये थे। उनसे कोई उत्तर देते नहीं बन रहा था। आचार्यश्री ने कहा,
“एक सलाह है, तुम लोग हमारे साथ रहो, नहीं रह सको तो नरमेध की तिथियों तक रुको। इस बीच और संगी साथी जुटाओ। नरमेध के बारे में अपने विचार से उन्हें अवगत कराओ और जब यह आयोजन हो तो उसमें रुकावट डालो। तुम्हें बताया गया है न कि लोगों की बलि दी जायगी। वह बलि मत होने देना।”
अनंत शर्मा और उसके साथी आचार्यश्री की बातों को ध्यान से सुन रहे थे। उनकी भंगिमा और मुद्रा देख कर तो नहीं लग रहा था कि वे आचार्यश्री की बातों को समझ रहे थे। वे चुपचाप मंत्रमुग्ध से उन्हें सुने जा रहे थे। आचार्यश्री अपनी बात कह चुके तो अनंत शर्मा मंत्रविद्ध सा अपनी जगह से आगे बढ़ा और उनके चरणों में झुक गया। आचार्यश्री के पैर छूकर वह बोला, “मुझे क्षमा करें गुरुदेव। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। मुझे भी गायत्री की दीक्षा दीजिए और संध्या वंदन सिखाइए।” चरण स्पर्श कर उठते हुए उसने कहा, “मेरा भ्रम दूर हो गया, लोगों ने मुझे बहकाया था, मैं नरमेध यज्ञ के बारे में गलत समझा था। मैं इस यज्ञ में विघ्नकारी नहीं, भागीदार बनूंगा।’ अनंत शर्मा के साथ वहां आये दूसरे युवकों ने भी अपने मुखिया का अनुकरण किया।
महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति या नरमेध यज्ञ के अनुष्ठान तक दसियों जगह इस तरह की घटनाएं हुई थीं। कुछ लोग विरोध की अपनी ज़िद पर अड़े रहे और कुछ ने आचार्यश्री के आशय को समझने का खुलापन दिखाया,उनकी बात मानी और विरोध का इरादा छोड़कर सहयोग देने का मन बनाया। विरोध,असहमति और गलतफहमी में फर्क कर आचार्यश्री ने तीनों पक्षों से संवाद किये । जिद्दी विरोध के सामने वे अधिक तर्क-वितर्क नहीं करते। सिर्फ इतना ही अनुरोध था कि आप हमारे आयोजन में आयें, वहाँ देखें कि क्या हो रहा है अगर किसी की बलि दी जा रही हो तो रोकें। असहमति जताने वालों को वे राज़ी करने का प्रयास नहीं करते थे । उनके सामने अपना पक्ष भर रख देते थे। वे राज़ी हों तो ठीक, नहीं हों तो भी ठीक। जिन लोगों के बारे में आचार्यश्री को लगता कि वे गलतफहमी के शिकार हुए हैं, उनके लिए आचार्यश्री अवश्य श्रम करते थे। उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराने का भरपूर प्रयास करते । अधिकांश मामलों में तो भ्रम का शिकार हुआ व्यक्ति उस जंजाल से निकल ही आता था।
परम पूज्य गुरुदेव द्वारा दिए गए इस गुरु-मंत्र से हम भी अपने रोज़मर्रा जीवन को सुखमय बना सकते हैं क्योंकि इन्ही तीनों कारणों (विरोध,असहमति,गलतफहमी) से जीवन में क्लेश का जन्म होता है।
19 अप्रैल 1956 रामनवमी का दिन था। मथुरा के लोग अपने इष्ट कृष्ण की जन्मस्थली में उनके पूर्व स्वरूप का अवतरण दिवस धूमधाम से मना चुके थे। प्रसाद पंजीरी का वितरण हो चुका था। गायत्री तपोभूमि में भी साधकों ने नवरात्रि अनुष्ठान पूरा किया ही था। वे अनुष्ठान की पूर्णाहुति से निपटे ही थे कि अगले दिन से शुरू होने वाले पूर्णाहुति महायज्ञ की तैयारी में जुट गए । नवरात्रि पुरश्चरण साधना में आये किसी भी साधक ने विश्राम नहीं किया और आगंतुकों की व्यवस्था में जुट गये। कार्यकर्ताओं का एक समूह हफ्तों पहले से 108 कुण्डों की यज्ञशाला और आने वालों को ठहराने के प्रबंध में जुटा हुआ था। तंबू कनात खड़े करने, आगंतुकों के लिए भोजन-पानी और विश्राम आदि की व्यवस्था में करीब दो सप्ताह और लग गये थे। पूर्णाहुति में जिन साधकों को आना था, वे भी गायत्री उपासक ही थे। उन्होंने भी अपने घर में नवरात्रि अनुष्ठान किये थे । तपोभूमि के पूर्णाहुति महायज्ञ में भाग लेने के लिए उन्होंने अनुष्ठान पूर्वसंध्या को ही पूरा कर लिया, आने की तैयारी में यह सोचकर जुट गए कि जप का दशांश (1/10th) हवन वहीं कर लेंगे। ऐसे साधक रामनवमी की सुबह से ही आने लगे थे।
सिद्धि से धन की प्राप्ति हो सकती है
आइए ज़रा मथुरा के दिव्य वातावरण के आँखों देखा हाल का अनुभव कर लें।
रामनवमी की शाम से ही मथुरा में खासी चहल-पहल आरम्भ हो गई थी। स्टेशन, बस-अड्डे और तांग-रिक्शा स्टेण्डों पर धोती कुर्ता पहने पुरुषों और सीधे सादे ढंग से साड़ी पहनकर आई स्त्रियों के समूह दिखाई देने लगे थे। अपनी वेशभूषा से ही पहचाने जा रहे ये लोग गायत्री तपोभूमि की ओर जा रहे थे। तपोभूमि और उसके आसपास की जगहें जैसे जयसिंहपुरा, चामुंडा मंदिर, मसानी, गोकर्ण महादेव आदि इन साधकों से भर गईं थीं। शाम ढलते ही बिजली की रोशनी से पूरा इलाका जगमग करने लगा। पर्व त्यौहार के समय मंदिरों में तो जगमग रोशनी लोग आये दिन देखते ही थे। बाहर मैदान या बस्ती में ऐसी सजावट उनके लिए अनोखी बात थी। कई लोग यह रोशनी देखने के लिए ही बाहर निकल पड़े थे। शहर के लोग बस्ती के साथ यज्ञशाला के भी दर्शन करते गये। देर रात आचार्यश्री ने उस क्षेत्र का दौरा किया। लोगों के ठहरने की व्यवस्था देखी। आगंतुकों से निजी तौर पर मिले। उनका कुशलक्षेम पूछा।
परम पूज्य गुरुदेव और स्वामी योगानन्द सरस्वती जी का विचित्र संपर्क
शिविर में एक महात्मा भी आये हुए थे। उन्होंने अपना परिचय गुप्त रखा था । नाम था स्वामी योगानन्द सरस्वती और उत्तरप्रदेश में अनूपशहर के आसपास आश्रम बना कर रहते थे। वे अपने कामों के बारे में लोगों को प्रायः बताते नहीं थे। उस क्षेत्र के समाज सेवी और गायत्री साधक नारायण मुनि से उन्हें मथुरा में हो रहे इस आयोजन के बारे में पता तो चला ही, साथ में यह भी पता चला कि आचार्यश्री ने चौबीस वर्ष तक गायत्री का तप किया है और वे महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति के लिए ही यह आयोजन कर रहे थे। नारायण मुनि के साथ वे चुपचाप शिविर में ठहरे हुए थे। आचार्यश्री नारायण मुनि को शिष्य भाव से देखते थे और वे भी यही संबंध मानते थे। नारायण मुनि ने स्वामी योगानन्द का परिचय कराया तो वे गुरुदेव से बोले, “आपकी महापुरश्चरण साधना के बारे में सुना तो यहां आने से अपनेआप को रोक नहीं सका।”
आचार्यश्री ने स्वामी जी को देखा और हंस दिए। स्वामी जी भी हंसे। हंसते हुए आचार्यश्री जैसे कह रहे हों, कि यह औपचारिकता बरतने की जरूरत नहीं है। हम लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। योगानंद जी अनुष्ठान साधना के मर्मज्ञ (expert) थे। मंत्र विद्या के मर्मज्ञ होने के साथ वे सिद्ध पुरुष भी थे। किस कामना या आवश्यकता की पूर्ति के लिए कौन सा मंत्र जपना चाहिए, इसका उन्हें आधिकारिक ज्ञान था ।औपचारिकता का पर्दा हट गया था और नारायण मुनि के सामने प्रकट भी हो गया कि दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। दोनों की भेंट वाराणसी में हुई थी लेकिन वह भेंट कुछ ही मिनट की थी और याद नहीं रह सकी थी। यहां मिलने पर स्मरण हो आया। बाद में गायत्री तपोभूमि का निर्माण कार्य शुरु होने पर भी स्वामी योगानन्द ने कुछ सहयोग करना चाहा था। वह सहयोग मंत्र अनुष्ठान के रूप में था। आचार्यश्री ने पत्र लिख कर इस तरह के सहयोग से क्षमा मांग ली थी।
यहाँ दोनों में वार्तालाप शुरु हुआ तो स्वामी योगानन्द ने एक बार फिर कहा, “आप पर बड़ी जिम्मेदारियाँ आने वाली हैं, उसके लिए विपुल धन चाहिए। मैं आपको एक अनुष्ठान विधि बताता हूँ। 21 दिन की साधना है, अगर उसे कर लिया जाए तो हर तरह के अभाव दूर हो जाएँगे। आवश्यकता स्वतः पूरी होती चलेंगी।” आचार्यश्री ने कहा,
“मुझे मंत्र विद्या, उसकी सामर्थ्य और आपकी सिद्ध अवस्था पर पूरा विश्वास है लेकिन मैं सकाम अनुष्ठान नहीं करता।”
स्वामीजी ने समझाने की कोशिश की और बोले कि यह साधना अपने स्वार्थ के लिए तो नहीं की जा रही है। आप आगे जो भी कार्यक्रम चलाएंगे वे जनहित में होंगे। उस कार्य के लिए मंत्र अनुष्ठान में कोई दोष नहीं है। आचार्यश्री ने समाधान किया कि जिस देवकार्य को वे करने जा रहे हैं वह मार्गदर्शक सत्ता का सौंपा हुआ दायित्व है। उन्होंने दायित्व सौंपा है तो व्यवस्था भी वही करेंगे। हमें अपनी तरफ से आतुरता (eagerness) नहीं बरतनी है। स्वामी जी ने बार-बार मनाने की कोशिश की लेकिन आचार्यश्री ने उस प्रस्ताव पर विचार करने में भी संकोच किया।
इस घटना के महीनों बाद पता चला कि नारायण मुनि ने वह विधि समझ ली थी और अपने एक मित्र विनय कुमार को बता दी थी। विनय कुमार बनारस में ही एक छोटा सा उद्योग चलाते थे। संयोग से उसमें घाटा हुआ और विनय बाबू संकट में फंस गये। नारायण मुनि ने स्वामी योगानन्द की बताई विधि से अनुष्ठान कराया। यह अनुष्ठान भगवान् शिव की प्रसन्नता के लिए था। विधि विधान से पूजा पाठ के बाद 21वें दिन सफलता के लक्षण दिखाई दिए। अनुष्ठान पूरा होने के एक सप्ताह बाद ही चारों दिशाओं से बिन माँगा सहयोग बरसने लगा। अकस्मात आया दारिद्र्य दूर कहीं जाता रहा। नारायण मुनि ने इस घटना को लिख कर आचार्यश्री के पास भेजा था।
जयसिंहपुरा में हुई उस भेंट के दौरान स्वामी योगानंद ने आचार्यश्री से पूछा, “नवरात्रि संपन्न होने के बाद दशमी से महायज्ञ आरंभ करने का कारण मैं समझ नहीं पाया हूँ। क्या यह उचित नहीं रहता कि यज्ञ नवमी से ही आरंभ होता ?” आचार्यश्री ने कहा कि कारण तो मैं भी नहीं समझ पाया हूँ। इसके पीछे भी मार्गदर्शक सत्ता का ही कोई उद्देश्य होगा। हमने अपनी मार्गदर्शक सत्ता के निर्देश को मानने तक ही अपने आपको सीमित रखा है। उसके विषय में कभी संदेह या प्रश्न नहीं उठाए हैं। स्वामी योगानंद को जैसे इसी उत्तर की अपेक्षा थी। उन्होंने तपाक से कहा, “मुझे भी मेरे गुरुदेव ने अपनी 12 वर्ष की साधना के लिए चैत्र शुक्ल दशमी को पूर्णाहुति का निर्देश दिया था। मैंने उनसे पूछ भर लिया था और उन्होंने डांट लगाई थी। फिर कारण भी समझा दिया था कि दीर्घकाल तक चलने वाली साधनाओं के लिए नवरात्रि में पूर्णाहुति नहीं की जाती। नवरात्रि के दिनों में लघु अनुष्ठान, विशिष्ट साधना और तप आदि किए जाते हैं। तांत्रिक अनुष्ठान भी इन दिनों संपन्न किए जाते हैं। ये साधनाएं प्रचंड भी होती हैं और सौम्य भी लेकिन सब उसी अवधि में संपन्न हो जाती हैं। इसलिए बड़ी और दीर्घकाल तक चलने वाली साधनाओं के दशांश हवन स्वतंत्र समय में ही किए जाने चाहिए।”
आचार्यश्री और स्वामी योगानंद में वह संवाद 10-15 मिनट चला होगा। आचार्यश्री वहाँ से निकल कर दूसरे डेरों में ठहरे लोगों से मिलने लगे। देर रात तक उन्होंने लगभग सभी आगंतुकों से मुलाकात कर ली थी। लोगों से मिलते-जुलते इतना समय बीत गया कि विश्राम का समय ही नहीं मिला। मुश्किल से आधा घंटे लेट पाये होंगे और देर रात के दो बज गये। सामान्य दिनों की तरह उस दिन भी नींद अपनेआप ही खुल गई थी और रामनवमी की वह पूरी रात जागते हुए बीत गई थी।
शेष अगले अंक में