25 अक्टूबर 2022 का ज्ञानप्रसाद- चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 6

आइये सबसे पहले आदरणीय प्रेमशीला बहिन जी की बेटी के स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना करें। गुरुदेव से निवेदन है की बेटी को शीघ्र अति शीघ्र ठीक करें ताकि बहिन जी सुख का सांस ले सकें।
आज सप्ताह का द्वितीय दिन मंगलवार है और आप सभी इस ब्रह्मवेला के दिव्य समय में ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद की प्रतीक्षा कर रहे होंगें, तो लीजिये हम प्रस्तुत हो गए उस ज्ञानप्रसाद को लेकर जिसे परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन में लिखा गया। आशा करते हैं कि यह ज्ञानप्रसाद हमारे समर्पित सहकर्मियों को रात्रि में आने वाले शुभरात्रि सन्देश तक अनंत ऊर्जा प्रदान करता रहेगा।
आज का लेख रामकृष्ण परमहंस देव जी को समर्पित है। पहले दो जन्मों के मुकाबले इस जन्म का वृतांत थोड़ा सा लम्बा होने के कारण इसे एक ही लेख में सीमित करना संभव नहीं है इसलिए हम थोड़ा थोड़ा करके उतना ही प्रस्तुत करेंगें जितना पाठक ग्रहण कर सकें। मार्गदर्शक सत्ता किशोर श्रीराम(हमारे गुरुदेव) को बार बार चेतना में वापिस लाकर अनुभव करा रहे थे कि यह सारा वृतांत उन्ही के तीनों जन्मों का है।
हमारे पाठक भी सहमत होंगें कि वर्तमान लेख श्रृंखला का उद्देश्य तभी पूर्ण होगा जब हम अंतर्मन से स्थिर होकर आंवलखेड़ा स्थित कोठरी में पूज्यवर के सानिध्य में बैठेंगें। दादा गुरु द्वारा चलचित्र की भांति वर्णन किया गया तीन जन्मों का वृतांत बहुत ही आलौकिक था। इस वृतांत में दादा गुरु तीन जन्मों की, तीन गुरु-शिष्यों की, तीन क्षेत्रों की कथा तो वर्णन कर ही रहे थे, साथ में अन्य कई और गुरुओं के रिफरेन्स भी दे रहे थे। रामानंद और संत कबीर, समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी, तोतापुरी और रामकृष्ण परमहंस -तीन गुरु-शिष्यों का वर्णन “बलिहारी गुरु आपुनो” को सार्थक करता है। उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र और बंगाल में घटित 600 वर्ष का यह जीवन चलचित्र दर्शाने में दादा गुरु को लगभग 6 घंटे का समय लगा, गुरुदेव अचेत से बैठे सब कुछ देखते रहे। गुरुदेव के माता जी जिन्हे वह ताई कह कर संबोधन करते थे, घबरा रही थी कि बालक श्रीराम की प्रातः संध्या आज इतनी लम्बी क्यों हो गयी। माँ जो ठहरी। इस वृतांत के बाद मार्गदर्शक सत्ता ने गुरुदेव को कैसे वापिस लाया,कठोर निर्देश देकर पालन करने को कैसे कहा, ताईजी की क्या प्रतिक्रिया थी इत्यादि सभी प्रश्नों के उत्तर आने वाले लेखों में मिलने की सम्भावना है। गुरुदेव के मार्गदर्शन में हम अथक परिश्रम करके एक ऐसा कंटेंट लाने का प्रयास करेंगें जिससे आपकी आत्मा तृप्त हो जाएगी।
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लोगों ने रानी रासमणि द्वारा बनाए गए मंदिर का विरोध किया, कहा कि इस मंदिर में न तो काली की प्रतिष्ठा हो सकती है और न ही पूजा। विद्वानों और पंडितों के विरोध के कारण किसी ने पूजा भी का दायित्व स्वीकार नहीं किया। रानी रासमणि ने कई आश्रमों, गुरुकुलों विद्यापीठों के द्वार खटखटाए, पंडितों को निवेदन किए लेकिन किसी का भी हृदय नहीं पसीजा। कलकत्ता के पास ही कामारपुकुर गाँव में एक युवा ब्राह्मण पंडित रामकुमार चट्टोपाध्याय जी ने रानी रासमणि को पूजा के लिए हाँ कह दी। इसके लिए उन्हें अपने बंधु बांधवों का भारी विरोध सहना पड़ा। यह बात 1855 की है, रामकुमार जी केवल एक वर्ष ही इस दाइत्व को संभाल पाए। 1856 में उनके छोटे भाई रामकृष्ण परमहंस जी को दक्षिणेश्वर मंदिर का पुरोहित नियुक्त किया गया
माँ काली से जीवंत संपर्क
रामकृष्ण जी की श्रद्धा भक्ति से कौन परिचित नहीं है। बैठे-बैठे वह काली की प्रतिमा को निहारते रहते। हम सब जानते हैं कि रामकृष्ण जी का पूजा-विधान बहुत ही विचित्र था। वह प्रतिमा को केवल प्रतिमा नहीं बल्कि जीवित मान कर ही व्यवहार करते थे। माँ काली के साथ उनका व्यवहार किसी देवी जैसा नहीं बल्कि जाग्रत् और जीवंत माता जैसा था, माँ की तरह ही सेवा करते थे, जहाँ तक कि उनके संवाद भी इस तरह चलते थे, जैसे प्रतिमा जवाब भी दे रही हो। माँ काली की पूजा और साधना करते हुए रामकृष्ण जी इस दुनिया को तो भूल जैसे ही गए। दूर-दूर तक उनकी साधना और समाधि की चर्चा फैल गई। लोग उनका दर्शन करने आने लगे। मंदिर में भक्तों की भीड़ बढ़ने लगी। माँ काली के असीम भक्त और सिद्ध सन्त के रूप में बढ़ती हुई ख्याति के दिनों में ही रामकृष्ण जी का माँ शारदामणि विवाह हो गया। पत्नी आयु में सोलह वर्ष छोटी थी, लेकिन आयु के इस अंतर का इससे कोई संबंध नहीं था। हमारे पाठक जानते हैं कि हमारे गुरुदेव की पत्नी वंदनीय माता भगवती देवी शर्मा भी गुरुदेव से 15 वर्ष छोटी थीं। यहाँ पर आयु का अंतर अर्थहीन इसलिए है कि यह विवाह सामान्य गृहस्थ जीवन बिताने के लिए नहीं हुए थे ।
आगे चलकर रामकृष्ण जी के आसपास शिष्य और साधकों का एक बड़ा समुदाय इकट्ठा हुआ। उनकी देखभाल और स्नेह देने के लिए ही जैसे यह विवाह हुआ था। स्वयं रामकृष्ण जी की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे साधकों की छोटी मोटी ज़रूरतों का भी ध्यान रख सकें। प्रारंभिक दिनों में ही उनकी “भाव समाधि” लग जाया करती थी। भाव समाधि की अवस्था में उनका शरीर पूर्ण तरह बेसुध हो जाता। कोई हलचल नहीं होती। जिन लोगों को इस स्थिति का भान न हो तो वह भाव समाधि की अवस्था में रामकृष्ण जी के शरीर को एक मृतकाया ही समझ बैठते। उस अवस्था में माँ शारदामणि ही रामकृष्ण की देखभाल करतीं।
हमारे पाठक रामकृष्ण परमहंस देव जी के बारे में कई बहुचर्चित कथाओं से परिचित हैं।
रामकृष्ण जी की श्रद्धा दर्शाती है कि सब वस्तुओं का सार ईश्वर ही है और उसी को पाने का प्रयत्न करना चाहिए। एक बार उन्होंने एक हाथ में रुपया और दूसरे में मिट्टी का ढेला लिया और मन को संबोधन करके कहने लगे :
“हे मन, तू इसको रुपया कहता है और इसको मिट्टी। रुपया चाँदी का गोल टुकड़ा है जिस पर एक ओर रानी (विक्टोरिया) की तस्वीर छपी है। यह जड़ पदार्थ है। रुपया से चावल, कपड़ा, घर, हाथी, घोड़ा आदि पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं, दस-बीस मनुष्यों को भोजन कराया जा सकता है, तीर्थ-यात्रा, देवता और संतों की सेवा की जा सकती है। पर इसके द्वारा सच्चिदानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि इसके रहते हुए अहंकार सर्वथा नष्ट नहीं हो सकता और न मन आसक्तिहीन हो सकता है। देवता और साधु की सेवा आदि धर्म-कार्य किए जा सकने पर भी यह मन में रजोगुण और तमोगुण ही उत्पन्न करता है और इस दशा में सच्चिदानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।”
मिट्टी को देखकर वे कहते:
“यह भी जड़ पदार्थ है, पर इससे अन्न उत्पन्न होता है जिससे मनुष्य के शरीर की रक्षा होती है। मिट्टी के द्वारा ही घर बनाया जाता है, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी बनाई जा सकती हैं। द्रव्य के द्वारा जो कार्य होते हैं वे मिट्टी द्वारा भी हो सकते हैं। दोनों एक ही श्रेणी के जड़ पदार्थ हैं और दोनों का परिणाम एक ही तरह का होता है। अरे मन! तू इन दोनों पदार्थों को लेकर तृप्त होगा या सच्चिदानंद को प्राप्त करने का प्रयत्न करेगा।”
इस प्रकार कहकर उन्होंने नेत्र बंद कर लिए और ‘रुपया-मिट्टी’ ‘रुपया-मिट्टी’ इस प्रकार की ध्वनि करने लगे। अंत में उन्होंने रुपया और मिट्टी दोनों को गंगाजी में फेंक दिया। इस प्रकार बारबार अभ्यास करके उन्होंने अपने मन को धातु (रुपया) के प्रति इतना विरक्त बना लिया कि किसी धातु के छूने से बड़ा कष्ट जान पड़ता था। इसी प्रकार उन्होंने स्त्री के संबंध में विचार किया कि उसकी वासना किसी भी प्रकार से क्यों न रखी जाए, उससे मस्तिष्क और मन दुर्बल ही होते हैं और परमात्म-चिंतन में बाधा पड़ती है। माना कि उसे लोग सुख के लिए ग्रहण करते हैं, पर वह सुख क्षणिक ही रहेगा ,कभी स्थाई नहीं होगा और परिणाम हानिकारक ही होगा।
इस तरह की और भी विचित्र लीलाएं इन्हीं दिनों हुई। रानी रासमणि ने उन्हें अपना गुरु चुनना चाहा लेकिन चुनने से पहले परीक्षा ली। जिन सुंदरियों को उन्हें लुभाने के लिए भेजा था, रामकृष्ण जी ने उन्हें पिता की भांति स्नेहभरी दृष्टि से देखा। वे सुंदरियाँ “क्षमा करें ठाकुर” कहती हुईं रानी के पास आ गई। एक अवसर पर रानी ने उनके मार्ग में स्वर्णमुद्राएं बिखेर दी और साथ चलने लगीं। ठाकुर उन मुद्राओं को देखा अनदेखा करते हुए आगे बढ़ गए। रानी ने उधर संकेत भी किया लेकिन ठाकुर यह कहते हुए आगे बढ़ गए कि यह भी माँ का ही प्रसाद है। मिट्टी की तरह ही जमीन पर पड़ा है। एक अन्य अवसर पर कपड़ों में छुपाकर स्वर्णमुद्राएं दी गईं। वस्त्र छूते ही रामकृष्ण ऐसे तिलमिला जैसे दहकता हुआ लोहा पकड़ लिया हो। इसके बादकिसी ने भी उनकी परीक्षा लेने का साहस नहीं किया और और रानी ने उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया।
विभिन्न साधना परंपराओं का अभ्यास और उनके शिखर तक पहुँचना रामकृष्ण देव का अनूठा प्रयोग था। राम की उपासना शुरू की तो हनुमान की तरह व्यवहार करने लगे। राम रघुवीर कहते हुए वे वृक्षों पर चढ़ जाते, फल तोड़ते, दांत से काटते और चखकर फ़ेंक देते । प्राणी मात्र में और कण-कण में राम के दर्शन की अवस्था में पहुँच जाने के बाद साधना को विराम दिया। एक बार सखी बन कर श्रीकृष्ण की आराधना करने लगे। इस भाव से साधना करने वाले साधक अपनेआप को श्रीकृष्ण की सहेलियाँ, गोपियाँ मानते हैं और स्त्रियों की तरह ही रहते हैं। रामकृष्ण भी उसी तरह साधना करने लगे। सखी रूप धारण करने के लिए उन्होंने केश रखवाए,वेणी गूंथने लगे।नाक में बेसर, आँखों में अंजन, माथे पर सिंदूर,बिन्दी और होठों पर लाली लगाने लगे। साधना की प्रगाढ़ अवस्था में वे पुकारने लगते “कहाँ है ललिता, कहाँ है विशाखा। मुझ पर दया करो, मैं अति दीन-हीन हूँ। तुम्हारी दया के बिना मैं राधिका जी का दर्शन नहीं कर सकूँगी और राधिका जी के बिना श्रीकृष्ण तक नहीं पहुँच पाऊँगी।” सखी संप्रदाय की साधना करते हुए रामकृष्ण देव के शरीर में स्त्रियोचित परिवर्तन होने लगे थे। उनकी वाणी मधुर और कोमल होने लगी। आवाज सुनकर उन्हें कोई भी पहचान नहीं सकता था। कुछ दिन बाद उनकी चाल भी बदल गई। वक्ष पर स्त्री जैसे उभार दिखाई देने लगे और पाँव किसी सुन्दर-पतली नारी की तरह संभल संभल कर उठते थे।
साधना की यह स्थिति इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि तन्मय होकर आराधना करने पर व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन आने लगता है, यहाँ तक कि शरीर भी उसी के अनुसार ढलने और बदलने लगता है। सखीभाव की साधना को विराम देने के महीनों बाद ठाकुर सहज स्थिति में पहुँचते थे ।
हर लेख की भांति यह लेख भी बहुत ही ध्यानपूर्वक कई बार पढ़ने के उपरांत ही आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है, अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि रह गयी हो तो हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से निवेदन है कि कोई भी त्रुटि दिखाई दे तो सूचित करें ताकि हम ठीक कर सकें। धन्यवाद्
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में केवल 4 ही सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है और लगभग सभी ही गोल्ड मैडल विजेता हैं। यह स्थिति दीपावली पर्व के कारण है।
(1 )अरुण वर्मा-29 ,(2)वंदना कुमार-24,(3)सरविन्द कुमार-25 ,(4) सुजाता उपाध्याय-24
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं। जय गुरुदेव