किशोर श्रीराम की  सर्पदंश वाली अनुभूति 

10 अक्टूबर  2022 का ज्ञानप्रसाद

चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 4  

सप्ताह का प्रथम दिन सोमवार, मंगलवेला-ब्रह्मवेला  का दिव्य समय, अपने गुरु की बाल्यावस्था- किशोरावस्था  को समर्पित,परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन में आज का ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत है। आशा करते हैं कि हमारे समर्पित सहकर्मी भी हमारी तरह  अवकाश के उपरांत पूर्ण ऊर्जा से भरपूर होंगें। हर बार की तरह इस लेख की दिव्यता भी  रात्रि  को आने वाले शुभरात्रि सन्देश तक आपको ऊर्जा प्रदान करती रहेगी।

परम पूज्य गुरुदेव के बाल्यकाल से आरम्भ हुई लेख श्रृंखला में अब तक हम 14 लेख लिख चुके हैं,यह 15वां लेख है, आपके कमैंट्स साक्षी हैं कि आप इन लेखों में पूरी तरह से डूब चुके  हैं और आपको प्रत्येक लेख की प्रतीक्षा रहती है।

6 अक्टूबर वाले लेख में हमने देखा था कि पुत्र को ध्यान अवस्था में देख कर पिताश्री की क्या दशा हुई थी। आज के लेख में किशोर श्रीराम द्वारा उसी ध्यान दशा का वर्णन है। परम पूज्य गुरुदेव स्वयं अपने साथियों को इस ध्यान दशा को कोई  आंतरिक अनुभूति, कोई स्वप्न यां कोई  दिव्य दर्शन बता रहे हैं, कहना कठिन है।

तो आज का लाइव टेलीकास्ट इसी दिव्य अनुभव से आरम्भ होता है। आशा करते हैं कि सभी सहकर्मी पूरी तरह involve होकर इस लेख को भी पूरी तरह  रोचक बनायेगें। हम सबने देख लिया है कि एक-एक लेख में कितनी प्रेरणा और शिक्षा भरी  पड़ी है, इस शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के एक-एक सदस्य का परम कर्तव्य है। 

*********************

किशोर श्रीराम की आंतरिक अनुभूति, कोई दिव्य दर्शन यां स्वप्न :

उस अनुभव के बारे में श्रीराम ने कुछ दिन बाद अपने साथियों को बताया। अपनेआप को भगवान् के लिए अर्पित कर देने के बाद लगा कि मन में अपूर्व शान्ति आ गई है। ध्यान में बैठे तो ऐसे लगा कि  संसार जैसे गायब ही हो गया हो । अपने आसपास कुछ है ही नहीं। कितनी देर ध्यान में बैठना हुआ, इसका स्पष्ट आभास नहीं है।उसी अवधि में एक अद्भुत प्रसंग घटा। वह प्रसंग आंतरिक अनुभूति थी, कोई स्वप्न था यां कोई  दिव्य दर्शन । इस बारे में किशोर श्रीराम ने कुछ नहीं कहा। अनुभूति एक घटना की तरह थी जो प्रत्यक्ष होती लग रही थी। जिस समय यह हुई,तब भी यह आभास नहीं था कि ध्यान हो रहा है।

आइए देखें क्या थी यह अनुभूति :

ध्यान में बैठने से पहले श्रीराम शिवालय में जाते थे। उस दिन शिवालय में  दर्शन करने के बाद वह आम के पेड़ के नीचे बैठे ही थे कि यह अनुभूति हुई। दर्शन कर नीचे उतर रहे है । मन में भाव आया कि आसन का स्थान अभी 24-25  पग दूर है। वस्तुस्थिति तो आसन पर बैठने की है लेकिन मन का लय होने के बाद मानस पटल पर सर्पदंश की चेतावनी का  दृश्य चल रहा है।

सर्पदंश की चेतावनी: 

शिवालय के नीचे उतरते हुए पाँव के नीचे किसी कोमल वस्तु का आभास हुआ। देखा तो एक सर्प दब गया है। क्षण भर में ही कुपित सर्प ने अपना मुँह घुमाया और पाँव पर डस लिया। इस घटना से हतप्रभ श्रीराम कुछ समझें इससे पहले ही साँप ने पहले पिंडली में और फिर कमर के नीचे डसा। कहीं सुन रखा था कि साँप सिर्फ एक बार ही डंसता है। साथी ने रोका तो श्रीराम ने कहा लेकिन यह अनुभव हो रहा था। ध्यान में बैठे-बैठे ही लग रहा था। दंश के बाद शरीर गिर गया। पता नहीं क्या-क्या उपचार किया गया। वह सब दिखाई दे रहा था। इस तरह दिख  रहा था जैसे किसी दूसरे व्यक्ति को यह सब हो रहा है। सर्प विष चढ़ने लगा तो नींद के तेज झोंके आने लगे। आसपास बैठे लोग मुँह पर पानी के छींटे मार रहे थे। वैद्य जी आ गए। उन्होंने कुछ औषधियाँ मँगाई। तब तक मांत्रिक भी आ गया। वह मंत्र पढ़ते हुए थाली बजाने लगा। थाली की आवाज लयात्मक थी।  मांत्रिक थाली पीटने के साथ मंत्र भी पढ़ता जा रहा था। वैद्य जी की मंगाई औषधि आ जाने के बाद काढ़ा तैयार किया गया। काढ़ा पिया, उससे आराम मिलने के बजाय पीड़ा और बढ़ गई। ऐसे लगा जैसे जगह-जगह साँप डस रहे हों, जैसे कि उनके दाँतों जैसी  तीखी चुभन, जलन अनुभव होती है। फिर कुछ देर के लिए वह जगह सुन्न हो जाती है और कुछ ही पलों बाद चुभन फिर तेज़  हो जाती है। कुछ पता ही न चला कि  कब प्राण छूट गए। होश आया तो देखा कि कोई जटाजूट धारी, सौम्य संन्यासी हमारे मृत शरीर को नदी से खींच कर बाहर ला रहे हैं। मृत जान कर परिवार के लोगों ने शरीर को शायद नदी में प्रवाहित कर दिया था। 

किशोर श्रीराम अपनी इस अनुभूति में बता रहे हैं कि सर्पदंश से मृत्यु को प्राप्त हुए व्यक्ति के शव को जलाया नहीं जाता। इस प्रथा के भौतिक कारण जो भी हों, आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार सर्प काल का प्रतीक है और  जिसे काल ने स्वयं ही चुन लिया हो उसके शरीर  में ऐसा कुछ नहीं बचता, जिसे विसर्जित किया जाए। संन्यासी ने श्रीराम के शरीर को नदी से खींच कर बाहर निकाला और जमीन पर लिटाया। अचेत काया के पास बैठकर संन्यासी ने कुछ देर ध्यान लगाया। उन संन्यासी की सौम्य मूर्ति को पास बैठा अनुभव करते हुए चेतना धीरे-धीरे लौटने लगी। उन्होंने स्नेह से थपथपाया और कहा, “उठो घर जाओ,माता-पिता परेशान हो रहे होंगे।” संन्यासी का यह आदेश सुनकर उठने का उपक्रम किया तो अगला संदेश यह आया कि  अब दोबारा यहाँ मत आना। घर में बैठकर ही ध्यान लगाना। श्रीराम बताते हैं कि उन्होंने सन्यासी के बारे में जानना चाहा था लेकिन डर के मारे पूछ नहीं सके। संन्यासी ने शायद मन की बात समझ ली,इसलिए बिना पूछे ही उत्तर दे दिया। उन्होंने कहा, “हम इस चराचर जगत् की मुक्ति का मार्ग खोज रहे एक साधक हैं बच्चा । कोई सिद्ध महात्मा मत समझना। एक साधारण संन्यासी भर हैं।” सन्यासी महाराज की बात सुनकर श्रीराम का कुछ कहने का साहस हुआ।उन्होंने निवेदन किया कि आप हमारा मार्गदर्शन कीजिए न पूज्यवर। संन्यासी ने कहा,

“अभी नहीं बच्चा,अभी तो हम स्वयं ही पथिक हैं लेकिन तुम्हारी मार्गदर्शक सत्ता तुम पर बराबर दृष्टि लगाए हुए है। उपयुक्त अवसर आने पर वह तुम्हारे पास पहुँचेगी। यह मत पूछना कि कब, हम सिर्फ यही कह सकते हैं कि ऐसा शीघ्र ही होगा। सन्यासी महाराज ने कहा  कि विश्वास रखना और किसी को भी अपना गुरु बनाने की जल्दबाजी मत करना।”

संन्यासी आगे कुछ और भी कह रहे थे। क्या कहा, यह तो  याद नहीं रहा। अंत में सिर्फ इतना ही सुनाई दिया कि उठ अब घर जा और आँख खुली तो सामने पिताजी  को विचित्र स्थिति में विलाप करते हुए देखा। उठकर उन्हें प्रणाम किया। 

बाद में जो हुआ वह सभी को मालूम है। 

पिताश्री  ने समझा कि यह घटना भागवत कथा सुनाने के कारण हुई। पुत्र-मोह के कारण थोड़ी देर तक तरह-तरह के संकल्प विकल्प मन में उठते रहे। फिर कहा प्रभु को जो स्वीकार है वही होगा। श्रीराम के लिए ईश्वर ने कुछ पहले से ही नियत कर रखा है तो हम लोगों में से कोई भी क्या कर सकता है। हमें तो केवल संतोष ही  करना चाहिए। कुछ देर मन को ढाढ़स बंधाते लेकिन  फिर वापस पुत्र मोह में डूब जाते। यद्यपि  पिताश्री अच्छी तरह जानते थे कि उनका पुत्र उन्हें छोड़ कर कहीं जाने वाला नहीं है लेकिन यह मोह भी तो बहुत  बड़ा विलक्षण भाव है। मन को कहीं भी स्थिर नहीं ही होने देता, उसे बाँधकर हिलाता -डुलाता ही  रहता है।

श्रीराम के पिताश्री पंडित रूपकिशोर जी ने उसी क्षण निश्चय कर लिया कि वह पुत्र को भागवत कथा नहीं सुनाएगें, साधु-संतों और वैरागियों के बारे में नहीं बताएँगे, उन्हें पास फटकने भी नहीं देंगे।

पिताश्री ने भागवत शास्त्र का विसर्जन कर दिया : 

इस निश्चय के बाद पिताश्री ने भागवत शास्त्र का विसर्जन करने की ठानी। जब भी कोई उपदेशक कथा प्रवचन से विराम लेना चाहता है तो ‘पूर्णाहुति’ का आयोजन करता है। यह परंपरा अब लुप्तप्राय है लेकिन जिन्होंने गुरु से दीक्षा लेकर शास्त्र का उपदेश किया हो वे  इस मर्यादा को जानते हैं। शरीर से अशक्त होने पर, वृद्धावस्था में, वैराग्य होने पर, परिव्राजक संन्यासी (परिव्रज्या व्रत ग्रहण करके भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह करने वाला संन्यासी) बन जाने के बाद कई शास्त्री कथा आयोजन से भी मुक्ति पा लेते हैं। शरीर इस योग्य नहीं रहता अथवा कथा आयोजकों के लिए आवश्यक तामझाम नहीं जुटता इसलिए वे साधनों और विधियों का त्याग कर देते हैं। पिताश्री ने वंश परंपरा में असमय संन्यास का उदय होते देख भागवत की पोथी का विसर्जन करना चाहा। उसके लिए इक्कीस ब्राह्मण बुलाये, यज्ञ आयोजित किया और पूर्णाहुति के रूप में भागवत शास्त्र वासुदेव मंदिर में स्थापित कर दिया। जिस दिन मंदिर में शास्त्र की स्थापना की और भगवान् से निवेदन किया कि अब शास्त्र प्रवचन से विराम लेते हैं, उसी दिन बल्कि उस निवेदन के बाद ही पिताश्री की वाणी ने भी विराम ले लिया। उनका बोलना बंद हो गया। लोगों ने कहा कि पंडित जी की वाचा भगवत  गुणगान के लिए ही खुली थी। कथा से विराम लिया तो स्वर भी चले गए।

अगला लेख पिताश्री के महाप्रयाण का बहुत ही मार्मिक लेख है ,आप कल तक प्रतीक्षा कीजिये। 

हर लेख की भांति यह लेख भी बहुत ही ध्यानपूर्वक कई बार पढ़ने के उपरांत ही आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा  है, अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि रह गयी हो तो हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से निवेदन है कि कोई भी त्रुटि दिखाई दे तो सूचित करें ताकि हम ठीक कर सकें। धन्यवाद् 

******************

आज की संकल्प सूची में 11  सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है। सरविन्द पाल जी   गोल्ड मैडल से सम्मानित किये जाते हैं  ।

(1 )अरुण वर्मा-44   ,(2 )सरविन्द कुमार-25  ,(3)संध्या कुमार-31 ,(4) प्रेरणा कुमारी-29 ,(5 ) सुजाता उपाध्याय-32 ,(6)नीरा त्रिखा -24,(7)पूनम कुमारी-25,(8)राधा त्रिखा-24,(9) सुमन लता-25, (10)रेणु श्रीवास्तव-28 ,(11) विदुषी बंता-24    

सभी को  हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।  सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय  के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव,  धन्यवाद।

Advertisement

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s



%d bloggers like this: