22 अगस्त 2022 का ज्ञानप्रसाद
आज का ज्ञानप्रसाद जून 1989 की अखंड ज्योति में प्रकाशित “अपनों से अपनी बात” पर आधारित है। इस लेख के शीर्षक “चल प्रज्ञा मन्दिर ज्ञानरथ” यानि मोबाइल प्रज्ञा मंदिर ज्ञानरथ ने हमें इतना प्रभावित किया कि हमने इस लेख को बार-बार पढ़ कर अपने अंतर्मन में उतारने का प्रयास किया। शायद “ज्ञानरथ” और “प्रज्ञा मंदिर” शब्दों ने हमें आकर्षित किया होगा, प्रेरणा दी होगी और हमें प्रश्न किया होगा कि क्या हमारा ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार (जिसका नया नाम ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार है) भी प्रज्ञा मंदिर बन सकता है ? अवश्य बन सकता है, हम तो यहाँ तक भी कहने में झिझकते नहीं हैं कि यह सच में प्रज्ञा मंदिर ही है। जितनी श्रद्धा और समर्पण से संकल्पित होकर कार्य किया जा रहा है इससे कम क्या कहें। हमारे सभी सहकर्मी बधाई के पात्र हैं। लेखों, वीडियो /ऑडियो ,कमेंट्स के माध्यम से हम सब एक परिवार की भांति एक अटूट डोर से बंधे हैं।
आदरणीय सुमनलता बहिन जी के सुझाव और सहकर्मियों की सहमति एवम स्वागत ने हमारे प्लेटफॉर्म का नाम बदलने में सहायता की है। सभी का हृदय से स्वागत करते हैं।आने वाले दिनों में यूट्यूब बैनर पर भी नाम बदलने का प्रयास करेंगें। आइये इस लेख में दिए गए गुरुदेव के मार्गदर्शन को अपनाते हुए इस परिवार को सम्बन्धों को और परिपक्व करें। ऊर्जा और स्फूर्ति से भरपूर इस मंगलवेला में चलते हैं सप्ताह के प्रथम लेख, सोमवार के ज्ञानप्रसाद को ओर ।
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परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि सन् 1980 के बसन्त पर्व पर अकस्मात एक संकल्प उतरा कि देश के प्रमुख तीर्थों में चौबीस प्रज्ञा पीठें विनिर्मित होनी चाहिए जो सभी अपने संपर्क क्षेत्र में युग चेतना का आलोक वितरण करने में लगी रहें। अपने पास सदा काम चलाऊ साधन ही जुटते रहे हैं। कभी भी ऐसे धनी मानी संपर्क में नहीं हैं जो हर निमार्ण पर लाखों रूपए खर्च करने की स्थिति में हों। हां बिड़ला जी जैसे उद्योगपतियों के उदाहरण भी हैं लेकिन हमारे अंतर्मन से इंकार की आवाज़ ही आई थी। असमंजस तो बहुत था, पर विश्वास यही बना रहा कि जो निर्देश आते हैं, वे न कभी गलत होते हैं, न ही असंभव क्योंकि उनके पीछे दिव्य सत्ता का शक्तिशाली हाथ जो होता था। मन में आया कि प्रयत्न चालू कर ही देना चाहिए। इसलिए मन्तव्य प्रकाशित कर दिया। इस बार भी अन्य अवसरों की तरह एक प्रकार से चमत्कार ही हुआ। आंधी की भांति परिजनों का उत्साह उमड़ पड़ा। ऐसे-ऐसे लोग संकल्प लेने आ गए जिनकी अपनी कोई भी हैसियत नहीं थी। मण्डलीयों की मंडलियां अपने घरों को समेट- बटोर कर निमार्ण कार्य में जुट गईं । आरम्भ इतना शुभ था कि देखते ही बनता था, बिल्कुल भी रुका नहीं, चलता ही गया और पूर्ण होकर ही रहा। संकल्प तो 24 प्रज्ञापीठों का था लेकिन एक ही वर्ष में 240 बन गयीं और दूसरे वर्ष 2400 बनकर रुकीं, और भी बनतीं, पर रोक इसलिए लगानी पड़ी कि कहीं यह प्रज्ञा पीठ मात्र मन्दिर ही बनकर न रह जायँ और युग चेतना एवं आलोक विस्तार की बात भूल ही न जायें। जिस दृष्टि और उद्देश्य से प्रज्ञा पीठ बनाने का संकल्प लिया है, उससे उपेक्षा न बरतने लगें। अगर ऐसा होता है तो कुछ दिन बाद इन प्रज्ञा पीठों की गणना भी देश में ढेरों पड़े खण्डहर-मन्दिरों में होने लगेगी और उपहास होने लगेगा। आदरणीय चिन्मय पंड्या जी ने जुलाई 2022 को UAE के एक रेडियो इंटरव्यू में बताया कि भारत और भारत से बाहिर 5000 से अधिक गायत्री केंद्र कार्यरत हैं।
परम पूज्य गुरुदेव इस स्थिति को देखते हुए लिखते हैं कि यह एक कीर्तिमान ही है कि किसी एक परिवार के इतने अधिक लोग इतना बड़ा निमार्ण कर गुजरें और परिवारजनों द्वारा सृजनात्मक और सुधारात्मक प्रवृत्तियाँ जारी रहें। परम पूज्य गुरुदेव की अपार शक्ति को अंकित करती यह एक बहुत ही छोटी सी घटना है इस तरह की अनेकों घटनाएं गुरुदेव के दिव्य साहित्य में प्रकाशित हुई हैं।
चलती फिरती प्रज्ञा पीठें यानि ज्ञानरथ:
परम पूज्य गुरुदेव इसी तरह के एक और संकल्प के बारे में अखंड ज्योति के इसी अंक में लिखते हैं। गुरुदेव उसे दूसरा चरण या यों कहिये कि उस वर्ष का अन्तिम संकल्प कहते हैं। यह संकल्प 1980 की गायत्री जयंती पर प्रकट किया गया। यह संकल्प था “चलती फिरती प्रज्ञापीठें” जो घर-घर, गली मुहल्ले में युग चेतना को पहुँचायें, जन-जन से संपर्क स्थापित करें और लोक मानस को परिष्कृत करने में कुछ प्रयास कर सकें। यह योजना ज्ञानरथों की स्थापना एवं संचालन की योजना थी । देवालय “अचल” ( immovable) ही नहीं, “चल” (mobile) भी हो सकते हैं। हमारे परिजनों ने अक्सर रथ यात्राएँ, झांकियां निकलती देखी होंगीं। टोरंटो नगर के downtown के बीचोबीच जिस भव्य रथयात्रा की वीडियो आपके समक्ष लाने की योजना है इसी उद्देश्य से हर वर्ष निकाली जाती है। गंगा जल को काँवर पर रखकर लोग गाँव,- गाँव धर्म प्रचार करते हुए निर्धारित केन्द्र पर जल चढ़ाते हैं। अनेक मेले ऐसे होते हैं, जिनमें प्रतिमाओं को मन्दिर से बाहर लाकर उन्हें सर्व साधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। शक्तिहीन मरीजों के घर डाक्टरों को ही जाना पड़ता है। देवालयों का उद्देश्य धर्म धारणा और ज्ञान-साधना का वातावरण विनिर्मित करना है। ज्ञानरथों की संस्थापना और संचालन इसी प्रयोजन के लिए होना है। साइकिल के पहियों वाली रेहड़ीनुमा एक हल्की किन्तु सुसज्जित गाड़ी पर युग साहित्य ले जाया जायेगा और उसे उस क्षेत्र के शिक्षितों को घर बैठे नियमित रूप से पढ़ने के लिए दिया जाया करेगा। जो परिजन साहित्य देने के लिए जायेगा वही वापस लेने भी पहुँचेगा। ऐसा इसलिए किया जायेगा कि अपनी- अपनी ज़िम्मेदारी समझकर कार्य किया जायेगा।
यही ज्ञान साधना है। ज्ञान साधना का मुख्य उद्देश्य प्रचार है। पुस्तकों की बिक्री बिल्कुल ही गौण यानि अर्थहीन है। हमारे पाठक इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि गायत्री परिवार का सारे का सारा साहित्य लागत मूल्य से भी कम कीमत पर उपलब्ध कराया जा रहा है। आजकल तो और भी सरल हो गया है; अधिकतर साहित्य निशुल्क ऑनलाइन उपलब्ध है। अगर आज के युग में भी कोई परिजन स्वाध्याय करने में आनाकानी करता है तो समझ लेना चाहिए कि यह कोरी बहानेबाज़ी है। हाँ इस सरलता और निशुल्कता से एक समस्या का जन्म अवश्य ही हुआ है और वह यह है जब सब कुछ निशुल्क और सरलता से उपलब्ध है तो हमें ज्ञान ही नहीं रहता कि क्या कुछ और कितना कुछ मिल रहा है; जो मिल रहा है वह आवश्यक भी है कि नहीं। हम लेते रहते हैं, अधिक से अधिक व्हाट्सप्प ग्रुप ज्वाइन करते जाते हैं, फेसबुक ग्रुप बनाते जाते हैं और परिणाम “ फ़ोन jam होते जाते हैं। गुरुदेव ने अगले चरण में इन ज्ञानरथों का यंत्रीकरण कर दिया। इनमें टेपरिकार्डर और लाउडस्पीकर फिट करवा दिए । टेप बजते रहते थे और जिधर से भी ज्ञान रथ निकलते थे , प्रभात फेरियों का, नुक्कड़ सभाओं का माहौल बनाते रहते थे। स्वाभाविक है कि इन्हे सुनने-देखने के लिए जगह-जगह भीड़ हो। मिशन का परिचय मिले। लोग पुस्तकें उलट-पुलट कर देखें। जो स्थायी सदस्य हैं वे पिछली किताबें लौटा कर नई लेवें। इस प्रकार न केवल साहित्य माध्यम से वरन् गायन, वादन और प्रवचन का सुयोग जुड़ जाने से ज्ञानरथ वक्ता-मण्डली की भूमिका भी सम्पन्न कर दिया करेगा। जिधर से निकलेगा उधर जन समुदाय को इर्द-गिर्द एकत्रित करेगा। गुरुदेव का साहित्य इतना सशक्त तो है ही कि जो इन्हें सुनेगा, पढ़ेगा, वह प्रभावित हुए बिना न रहेगा। गुरुदेव ने इस नये संस्करण में बैटरी की व्यवस्था भी करवा दी । बैटरी दिन भर में खत्म हो जाती है। अतः साथ में बैटरी चार्जर भी दे दिया। इस प्रकार 1980 में ज्ञानरथ, साथ का साहित्य व अतिरिक्त उपकरणों की कीमत लगभग पाँच हजार होती थी । यह लागत इतनी थी जिसे कोई एक व्यक्ति चाहे तो भी उस भार को वहन कर सकता था । अन्यथा मिलजुल कर तो उसकी पूर्ति कोई भी प्रतिभावान मित्र-मण्डली के घरों पर एक फेरा लगा देने भर से पूरी कर सकता था।
हमें याद है कि हमारे ही परिचित उन दिनों जम्मू में लगभग 15 किलोमीटर प्रतिदिन ज्ञानरथ चलाया करते थे। हमारे पिताजी एवं भाई बहिन का झुकाव तो अधिकतर दीप यज्ञ और कर्मकांडों की ओर था। पिछले चालीस वर्षों में सड़कों पर ट्रैफिक और एक्सीडेंट की घटनाओं ने इन रेहड़ीनुमा ज्ञानरथों का प्रचलन कम ही कर दिया है। हाँ छोटे नगरों/ग्रामों में अभी भी देखे जा सकते हैं। विज्ञान की प्रगति ने तो वीडियो ज्ञानरथ को जन्म दे दिया है। क्या होता है वीडियो ज्ञानरथ, इसे जानने के लिए आप हमारे चैनल पर 3 वर्ष पहले प्रकाशित हुई वीडियो देख सकते हैं।
परम पूज्य गुरुदेव ने ज्ञानरथ आरम्भ करते समय सुझाव दिया था कि कोई एक भावनाशील व्यक्ति न्यूनतम दो घण्टे रोज़ उसे चलाये। रोज़ न चल सके तो सप्ताह में एक या दो दिन जितना भी बन पड़े, पूजा मानकर अवश्य स्वयं चलायें या फिर अपनी मण्डली की पारी बांटकर मिलजुल कर चलने की व्यवस्था बनायें। ईसाई मिशन के कार्यकर्ता घर-घर साहित्य पहुँचाने के लिए उस समुदाय के शीर्ष व्यक्ति साहित्य लेकर पढ़ाने या विक्रय हेतु स्वयं निकलते हैं। युग चेतना का आलोक घर घर पहुँचाना हो, जन-जन को हृदयंगम कराना हो तो बड़प्पन को मिटाना व अहंकार को छोड़ना होगा। यह संकोच का नहीं, गौरव का विषय है। उत्कृष्ट प्रयोजन के लिए किया गया श्रमदान अन्य सभी दानों की तुलना में अधिक पुण्यफलदायक है।
गुरुदेव 1980 में बता रहे हैं परन्तु आज 2022 में भी यह बातें पूर्णतया लागू होती हैं। दीपयज्ञों की धूम आज भी बहुत है शायद उन दिनों से अधिक ही होगी । जहाँ दीपयज्ञ आयोजन होते हैं, वहाँ प्रज्ञा–मण्डलों का गठन भी होता है और उन संगठनों को अपने साप्ताहिक सत्संग चलाने पड़ते हैं। इनमें जप, ध्यान, दीपदान, सहगान कीर्तन, सप्ताह भर का कार्य निर्धारण, चल पुस्तकालय इत्यादि दो घण्टे चलता है । इसमें भी प्रायः उन सभी उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है जो ज्ञानरथों में फिट रहते हैं। गाड़ी में से निकालकर आयोजनों में इनका प्रयोग किया जा सकता है।
दीपयज्ञों के साथ ही प्रज्ञा–मण्डल अपने सदस्यों के घरों पर उनके जन्म दिन आयोजन भी कराते हैं। उनमें भी पड़ोसियों-संबंधियों की अच्छी खासी भीड़ हो जाती है। ज्ञानरथ वाले उपकरण यहाँ भी काम दे जाते हैं। कई अन्य हर्षोत्सवों, संस्कार, त्यौहारों आदि में भी संगीत और प्रवचन आवश्यक होते हैं। यह सभी साधन बिना अतिरिक्त खर्च किये उसी पूँजी से उपलब्ध होते रहते हैं जो ज्ञानरथ बनाते समय लगाई गई थी।
जो परिजन 1980 के इर्द -गिर्द गायत्री परिवार से जुड़े हों, प्रचार के एक और माध्यम -“झोला पुस्तकालय” से परिचित होंगें। झोला पुस्तकालय यानि bag-library एक चलती-फिरती लाइब्रेरी होती है जिसमें कुछ पुस्तकें डाल कर घर-घर जाया जाता था और रेहड़ी ज्ञानरथ की प्रक्रिया से ही ज्ञानप्रसार किया जाता था। आज के युग में भी कहीं कहीं यह उपकरण अवश्य ही देखने को मिल ही जाते हैं। आज के लघु ज्ञानप्रसाद का समापन इन्ही शब्दों से करते हैं और आपके सुखमय दिन की कामना करते हैं।
शब्द सीमा के कारण आज की 24 आहुति संकल्प सूची प्रकाशित करने में असमर्थ हैं। जय गुरुदेव