25 जुलाई 2022 का ज्ञानप्रसाद- पूजा-पाठ केवल चम्मच तश्तरी है, आत्म-परिष्कार दाल रोटी हैं I
शब्द सीमा के कारण आज हमें सीधा ज्ञानप्रसाद की और ही चलना होगा। ************************
पिछले लेख में जिस प्रत्यावर्तन अनुदान की बात परमपूज्य गुरुदेव कर रहे थे, वह साधारण नहीं असाधारण है। इसे गुरुदेव की आकाँक्षा, अभिलाषाओं का सार तत्व कहना चाहिए। वह अपने वर्तमान कार्य क्षेत्र से ऊँचे उठकर अधिक व्यापक, अधिक महत्वपूर्ण लेवल की बात कर रहे हैं । गुरुदेव चाहते हैं कि जो कार्य अब तक वे स्वयं करते रहे हैं उसकी जिम्मेदारियाँ दूसरों के कन्धों पर डाल दें लेकिन यह तभी संभव हो सकता है, जब उसी लेवल के दूसरे व्यक्ति सामने आयें, जिस लेवल के गुरुदेव स्वयं थे। गुरुदेव जितने बड़े कार्य कर सके वह उनके व्यक्तित्व की गरिमा के कारण ही सम्भव हो सका। गुरुदेव ने अपनी महत्वाकाँक्षा भी व्यक्त की थी कि अपने जैसे 100 व्यक्ति पीछे छोड़कर जायें ताकि गायत्री परिवार का विस्तार और भी अधिक तीव्र गति से हो चले। गुरुदेव ने इस आकाँक्षा की पूर्ति के लिये दो आधारों की चर्चा की है । एक दाता यानि देने वाले की क्षमता और दूसरी गृहीता यानि लेने वाले की पात्रता। बिजली के दो तार मिलने से ही शक्ति उत्पन्न होती है। अकेले-अकेले दोनों ही तार अधूरे हैं। नर और नारी के युग्म से ही विवाहित-जीवन का उल्लास विकसित होता है। गाड़ी के दो पहिये ही गति उत्पन्न करते हैं। एक पंख वाला पक्षी आकाश में नहीं उड़ सकता। प्रत्यावर्तन के लिए भी दोनों पक्षों की उपयोगिता समान रूप से है।
गुरुदेव ने इससे पूर्व कभी इस अनुदान पर जोर नहीं दिया क्योंकि गुरुदेव स्वयं प्रेरित प्रयोजनों में संलग्न थे। उनके मार्गदर्शक दादा गुरु ने युग-निर्माण परिवार का संगठन और जनजागरण की बहुमुखी गतिविधियों का सञ्चालन का प्रधान कार्य सौंपा था। उसके भेद, उपभेद, क्रिया-कलाप अनेक थे, उन्हीं को पूरा करते हुए वे बहुमुखी कार्यक्रमों में व्यस्त दिखाई पड़ते थे। साथियों को खड़े पाँवों रखने के लिए उनकी भौतिक सहायता भी आवश्यक होती थी, उन दिनों उसी में उनकी साधना उपासना का उपार्जित पुण्य फल खर्च हो जाता था।
प्रत्यावर्तन के लिए जिस उच्चकोटि की शक्ति की आवश्यकता पड़ती है उसे प्राप्त करने में उग्र तपश्चर्या करनी पड़ती है। वह उन दिनों सम्भव नहीं थी, फिर दाता और गृहीता का अन्तरंग मर्मस्थल जिस प्रकार एकाग्र होना चाहिए वह उन दिनों न गुरुदेव के लिए सम्भव था और न ही साधकों के लिए। इसके इलावा और भी कितने ही अभाव थे जिनके कारण यह प्रयोजन उन दिनों पूरे नहीं हो सकते थे। इसलिए गुरुदेव ने कभी उस तरह का प्रयास भी नहीं किया यद्यपि समर्थ उत्तराधिकारियों की आवश्यकता- तलाश- उन दिनों भी इतनी ही तत्परता पूर्वक की जाती रही लेकिन सुयोग बन ही नहीं पाया।
अब वह अवसर आया है। गुरुदेव ने अपनी तरफ से तैयारी पूरी कर ली। स्थान और वातावरण की जो उपयुक्तता आवश्यक थी वह भी बन गई। सप्त ऋषियों की वह तपस्थली जिसकी शाश्वता बनाये रखने के लिए भगवती भागीरथी को सात धाराओं में विभक्त होना पड़ा अपनी महिमा और महत्ता अभी भी शाश्वता बनाये हुए है। सात धाराओं की कथा हम पहले किसी लेख में लिख चुके हैं, यहाँ पर केवल इतना ही कहेंगें कि आप हिमांशु भट जी की 9 जून 2021 की वीडियो देख लें तो आपको काफी कुछ समझ आ जायेगा। जब गुरुदेव स्थान और वातावरण की बात कर रहे हैं तो हम समझ सकते हैं कि युगतीर्थ शांतिकुंज इस अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति में सर्वथा समर्थ है। आवश्यकता, उपयुक्तता, समर्थता के तीन पक्ष युगतीर्थ शांतिकुंज के प्रखर रूप में विद्यमान हैं। कमी केवल एक ही रह गई है और वह है “गृहीता की पात्रता।” यानि प्राप्त करने वाले की पात्रता (eligibility ), यदि यह पक्ष पूरा हो जाय तो समझना चाहिए कि जो कमी थी वह पूरी हो गई और सभी के लिए आनन्द भर देने वाली परिस्थितियाँ बन गई। प्रत्यावर्तन अनुदान के लिये बहुत से लोगों ने अपने नाम नोट कराये थे। गुरुदेव ने कहा कि जिन्होंने नाम नोट करवाए हैं उनके लिये हरिद्वार की यात्रा भर करने की तैयारी पर्याप्त नहीं मानी जायगी। उन्हें अपनी मनोभूमि का ऐसा परिष्कार करना पड़ेगा जिसमें बोये हुए बीज ठीक तरह से अंकुरित हो सकें।
यह एक तथ्य ( established fact ) है कि जिस व्यक्ति की जितनी अधिक भौतिक महत्वाकाँक्षा होगी वह उतना ही आत्मिक प्रगति से वंचित रहेगा। लोभ-मोह के आकर्षण इतने जटिल होते हैं कि उनके बन्धन सारी मानसिक और भावनात्मक क्षमता अपने ही इर्द-गिर्द समेटे रहते हैं। उस स्थिति में आत्मिक क्रिया-कलाप-मात्र लकीर पीटने की, चिह्न पूजा बनकर ही रह जाते हैं। जब तक मनुष्य इस आस्था की हठ न करे कि शरीर और मन उनके वाहन उपकरण मात्र हैं और उन्हें उतनी ही खुराक दी जानी चाहिए जितनी उन्हें सक्रिय एवं सक्षम बनाये रहने के लिए नितान्त आवश्यक है, तब तक यह पूजा पाठ एक ड्रामेबाज़ी जैसा ही लगेगा। स्पष्ट है कि शरीर के भरण-पोषण के लिए जितना श्रम, मनोयोग और साधन जुटाया जाता है उससे कम नहीं बल्कि अधिक ही आत्मिक प्रगति के लिए अभीष्ट होता है। दस पाँच मिनट की पूजा-पत्री उस महान प्रयोजन के लिए ऊँट की दाढ़ में जीरा जितनी स्वल्प होती है।
यदि कोई यह सोचता है कि जप, ध्यान, प्राणायाम जैसे क्रिया-कलाप किसी का आत्मबल बढ़ा सकने के लिए यां आत्मिक तथ्य प्राप्त कर सकने के लिए पर्याप्त हैं तो यह उसकी भारी भूल है। चम्मच, तश्तरी जुटा लेना पेट भरने के लिए पर्याप्त नहीं। ये उपकरण भोजन करने में सहायक तो हैं पर पेट नहीं भर सकते। पेट भरने के लिए तो रोटी साग चाहिए। पूजा-पाठ तो केवल चम्मच तश्तरी हैं और दृष्टिकोण का परिष्कार-आन्तरिक स्तर- दाल-रोटी की तरह। गुरुदेव कहते हैं कि कई बार देखा गया है कि पूजा-उपासना में सब प्रकार चौकस व्यक्ति भी सर्वथा खाली हाथ दिखते हैं, उसका एकमात्र कारण इतना ही होता है कि उन्होंने अन्तःकरण के परिष्कार-और दृष्टिकोण को प्रभावशाली बनाने की आवश्यकता की ओर कदम बढ़ाये ही नहीं ।
जिन्हें वस्तुतः आत्मिक प्रगति की आकाँक्षा है उनसे सदा एक ही बात कही जाती रही है कि अपनेआप को शरीर नहीं आत्मा मानें। शरीरगत तृष्णाओं की पूर्ति पर अपना सर्वस्व निछावर न करें। आत्मा की भूख और आकाँक्षा को भी कुछ समझें और उसके लिए भी कम से कम उतना प्रयास तो करें ही जितना कि अपने वाहन शरीर और मन को सुखी सन्तुष्ट बनाने के लिए करते हैं। इसके लिए रोली, चन्दन, पुष्प, धूप काफी नहीं, इसके लिए समय, श्रम, धन आदि जो कुछ महत्वपूर्ण आपके पास है उसका अधिक से अधिक भाग आत्म-कल्याण के लिए, आत्मिक प्रगति के लिए लगाया जाना चाहिए। शरीर और आत्मा का मूल्यांकन जिस तुलनात्मक अनुपात से किया जाय उसी अनुपात से यह निर्णय किया जाय कि शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति में जितना किया जा रहा है उसकी अपेक्षा आत्मा की आवश्यकता पूरी करने के लिए कितना किया जाय?
गुरुदेव इसी कसौटी को लेकर अपनी जीवन यात्रा पूरी करते रहे हैं। उनकी प्रतिभा, विद्या, शारीरिक एवं मानसिक क्षमता, सम्पदा, आकाँक्षा का जितना भाग शरीर के लिए खर्च हुआ उसकी तुलना में आत्मा की भूख बुझाने के लिए हजार गुना अनुदान अर्पित किया है। यही है उनकी असली जीवन साधना जिसकी पृष्ठभूमि पर गायत्री महापुरश्चरणों का बीजारोपण कल्पवृक्ष की तरह उगा और फला-फूला। वही राजमार्ग सबके लिए है। भौतिक स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में मग्न लोग माथे पर चन्दन और गले में रुद्राक्ष धारण करके यदि आत्मिक प्रकाश का स्वप्न देखते हों तो यह उनकी मृग तृष्णा मात्र ही सिद्ध होगी।
आध्यात्मिक पात्रत्व की कसौटी यही है कि व्यक्ति की आकाँक्षाएं,अभिलाषाएं, योजनाएं, गतिविधियाँ आदर्शवादी उत्कृष्टता की ओर चल रही हैं या नहीं। मनुष्य अपने पुरुषार्थ की कमाई का लाभ अपनी भौतिक सुख-सुविधाओं के रूप में उठा सकता है। दैवी अनुकम्पा का प्रयोजन तो मात्र लोकमंगल होता है। व्यक्तिगत स्वार्थ साधनों के लिए यदि कोई दैवी अनुग्रह को खर्च कर डाले तो वह “अमानत में खयानत” जैसी बात हो जायगी। महामानव भगवान से बहुत कुछ पाते हैं पर उसकी एक-एक बूंद परमार्थ प्रयोजनों में ही खर्च करते हैं। गुरुदेव ने अपने गुरु के अनुदान में से, ईश्वरीय वरदान में से कभी एक कण भी अपने या अपने परिवार के लिए खर्च नहीं किया। यदि वे उन उपलब्धियों को अपने स्वार्थ साधनों में खर्च करते तो स्पष्ट है कि दूसरों की तरह वे भी खाली हाथ ही रह गये होते।
भारतीय दंड संहिता ( Indian criminal code ) में आपराधिक “विश्वास भंग” एक पृथक अपराध है तथा इस अपराध में आजीवन कारावास तक की सजा है, इसलिए इस अपराध को भारतीय दंड संहिता का बड़ा अपराध माना जा सकता है। आपराधिक विश्वास भंग को अंग्रेजी भाषा में ‘क्रिमिनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट’ कहते हैं। “विश्वास” सार्वजनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। अपने दैनिक जीवन में भिन्नतापूर्ण व्यवहार अथवा विश्वास के संबंधों के नाते में एक दूसरे की देखभाल अथवा व्यवस्था करने की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। आज भी यह एक सामान्य बात है। जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को जिसमें कि वह विश्वास करता है, अपनी संपत्ति की देखरेख अथवा प्रबंध के लिए सौंपता है तो दूसरा व्यक्ति पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी से अपने कर्तव्य और दायित्व का निर्वाह करता है, उसे करना भी चाहिए, लेकिन कभी-कभी इसके उल्ट भी बात हो सकती है और होती आयी है। जब ऐसा व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठा ईमानदारी से परे होकर विश्वास भंग करता है अर्थात उस विश्वास संपत्ति का misuse करता है तो यह अपराध करता है।
यही वह अपराध है जो आजकल का मनुष्य करने में जुटा हुआ है। पर्यावरण का नाश, प्रकृति के साथ खिलवाड़, ग्लोबल वार्मिंग आदि कर्तव्यनिष्ठा की धज्जियाँ उड़ाता यह मानव कहाँ तक विनाश करने वाला है किसी को कुछ अनुमान नहीं है। परमात्मा ने मानव को यह संसार एक अमानत के रूप में दिया था और उसे विश्वास था कि मेरा पुत्र इस उपवन की रक्षा मेरे से भी अधिक सुचारु रूप से करेगा लेकिन वह तो मालिक ही बन बैठा। मालिक क्या उसने तो तहस -नहस ही करना शुरू कर दिया। भगवान ने बार-बार अपनी अमानत के बारे में पूछा लेकिन वह तो मुकरता ही गया, सरासर इंकार करता गया कि कौन सी अमानत ,यह तो सब मेरा है। इस अपराध के बदले में सबसे बड़ी न्यायपालिका, सुप्रीम कोर्ट से भी बड़ी कोर्ट ने, भगवान की कोर्ट ने कितनों को ही “क्रिमिनल ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट” के अपराध में आये दिन दण्डित किया है , कोरोना तो केवल एक उदाहरण है। अगर हम अपराधों की गणना करना आरम्भ कर दें तो शायद अम्भार ही लग जाए। यही है अमानत में खयानत और यही है परम पूज्य गुरुदेव द्वारा पात्रता का मूल्याङ्कन।
इन्ही शब्दों के साथ अपनी लेखनी को आज के लिए विराम देते हैं और आप देखिये 24 आहुति संकल्प सूची। हर बार की तरह आज का लेख भी बहुत ध्यान से तैयार किया गया है, फिर भी अनजाने में हुई किसी भी गलती के लिए क्षमा प्रार्थी है। सूर्य की प्रथम किरण आपके जीवन को ऊर्जावान बनाये जिससे आप गुरुकार्य में और भी शक्ति उढ़ेल सकें। ******************
23 जुलाई 2022, की 24 आहुति संकल्प सूची: (1 ) संध्या कुमार-24, (2 ) अरुण वर्मा-40 , (3 ) सरविन्द कुमार-27 , (4 ) संजना कुमारी-26, (5 ) रेणु श्रीवास्तव-28 ,(6,) पूनम कुमारी – 24,(7) प्रेरणा कुमारी – 26 इस सूची के अनुसार अरुण वर्मा जी गोल्ड मैडल विजेता हैं, उन्हें को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनको हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद।