वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गायत्री नगर धरती पर स्वर्ग के अवतरण का छोटा रूप 

6 जून 2022 का ज्ञानप्रसाद -गायत्री नगर धरती पर स्वर्ग के अवतरण का छोटा रूप 

जिस समय यह ज्ञानप्रसाद आपके inbox में पहुंचेगा 5 जून 2022 न होकर 6 जून होगा। लेकिन इस प्लेटफॉर्म के माध्यम से हम बताना चाहेंगें कि 5 जून को विश्व भर में विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। वर्ष 2022 का पर्यावरण दिवस और भी अधिक महत्व रखता है कि 1972 में आरम्भ होकर यह 50वां वर्ष है। हम सभी देख ही रहे हैं मानव ने अपनी करामातों से इस ग्लोब का सर्वनाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मानव ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सभी हदें पार कर ली हैं जिसका परिणाम हम सब प्रीतिदिन भुगत रहे हैं। इसका एक प्रतक्ष्य प्रमाण तो 5 जून 2022 की मौसम रिपोर्ट है जिसमें भारत की राजधानी दिल्ली का daytime तापमान 47.3 डिग्री सेल्सियस था। इस विषय को यहीं पर समाप्त करते हुए हम आदरणीय रेणु भारद्वाज जी द्वारा आज के दिन पर भेजे गए चित्र के लिए धन्यवाद् करते हैं और निवेदन करते हैं कि पर्यावरण की रक्षा करना हम सबका परम कर्तव्य है नहीं तो we will reach to a point of no return .

आज के ज्ञानप्रसाद में “मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण” की भूमिका बनाने का प्रयास किया गया है। यह उद्घोष तो गायत्री परिवार में बहुत ही सुप्रसिद्ध और बहुचर्चित है लेकिन ऑनलाइन ज्ञानरथ के माध्यम से हम कहना चाहेंगें कि केवल उद्घोष से स्वर्ग तो आने वाला है नहीं। परमपूज्य गुरुदेव ने तो गायत्री नगर की स्थापना भी कर दी, वहां पर निवास भी बना दिए , रहने वाले साधकों का चयन भी कर दिया, सिलेबस भी बना दिया,अब तो केवल हमारी ही बारी है। अगर पेट भरना है तो खाना भी तो खुद ही खाना होगा ,किसी तो कह नहीं सकते अरे भाई मेरे पास समय नहीं है ,तो मेरी जगह तो खाना खा ले, “समय तो किसी के पास नहीं है”

तो आइये करें ज्ञानप्रसाद का अमृतपान। 

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गायत्री नगर बनाने का संकल्प इस द्वष्टि से उठा कि धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्र छोटे रुप में साकार करके दिखाया जाय। भावी सम्भावनाओं का अनुमान लगाने के लिए वर्तमान में भी कुछ प्रतीक चिन्ह तो खड़े करने ही पड़ते हैं। इमारतें बनने से पूर्व उनके नक्शे बनते हैं । मूर्तियां गढ़ी जाने से पूर्व उनके मॉडल खड़े होते हैं। देवताओं का स्वर्ग पहले इसी अपनी भारत भूमि पर बिखरी हुई स्वर्णिम परिस्थितियों में प्रतिभाषित होता था जिसे देखकर लोग उससे भी ऊँची परिस्थितियों का अनुमान लगाते थे और मरणोतर जीवन आने पर वहीं पहुँचने का स्वप्न देखते थे।

घर परिवारों को स्वर्ग का छोटा मॉडल माना जाता था। छोटे-बड़े, नर-नारी, समर्थ-असमर्थ ,विकसित-अविकसित सब मिल-जुलकर एक गुलदस्ता बनाते थे और संयुक्त अस्तित्व को दर्शाते हुए परम-आनन्द का अनुभव करते थे। दीवार, छप्पर तो इन्ही दिनों जैसे होते थे। चूल्हा-चक्की, बुहारी-चारपाई तो इन दिनों जैसे ही होते थे, पर उनमें व्यवस्था और सुसज्जा की ऐसी कलाकारिता समाई होती थी कि इस आश्रम में पलने वाले स्वर्ग का पूर्णभास पाते और मोद मनाते थे। परिवार के सभी सदस्य इस तथ्य को अपनी अंतरात्मा में ढालते थे कि “जहाँ श्रमशीलता और व्यवस्था रहेगी वहाँ दरिद्रता क्यों प्रवेश करेंगी?” जहाँ आपाधापी नहीं, वहाँ मनमुटाव किस बात का? जहाँ दुष्टता नहीं वहाँ शत्रुता क्यों ? जिन कारणों से नरक पनपता है उनकी जड़ ही ना जमने पाए तो असन्तोष और सन्तोष कैसा? भारतीय परिवारों में आतिथ्य पाने वाले विदेशी तक अपने भाग्य को सराहते थे। ऐसे परिवारों में जब किसी को भोज के लिए आमंत्रित किया जाता था तो वहाँ क्या खाया-पीया, वह तो बहुत छोटी बात थी, लेकिन क्या देखा और क्या अनुभव किया, इसी की स्मृति उनके मानस पटल पर आजीवन छाई रहती थी। ऐसे थे भारतीय परिवार। उन्ही का संयुक्त रुप अपने देश की धरती पर जगह- जगह पर बिखरा पड़ा था। 

नव-निर्माण मिशन ने अपने लक्ष्य को दो स्वरुप में चरितार्थ होने की सम्भावना घोषित की है। एक “घरती पर स्वर्ग का अवतरण” और दूसरा “मनुष्य में देवत्व का उदय”। यह दो आधार दो पृथक इकाइयां नहीं वरन् एक ही तथ्य के दो पहलू हैं। जहाँ लोगो की मनःस्थिति में देवत्व की उत्कृष्टता भरी होगी, वहाँ व्यवहार में स्नेह,सहयोग, सृजन की हलचलें द्वष्टिगोचर होंगीं। इसी बात को दूसरी तरह ऐसे भी कहा जा सकता है कि जहाँ स्वर्गीय वातावरण होगा वहाँ इस प्रभाव से प्रभावित व्यक्ति देवत्व का आचरण करते हुए देवों जैसा द्वष्टिकोण अपनाते पाये जायेंगें। देवताओं की निवास भूमि को स्वर्ग कहते हैं। जितना यह कथन सत्य है उतना ही यह ही यह भी सत्य है कि स्वर्गीय वातावरण में रहने वाले देवत्व से ही भरते चले जायेंगें।

हम सबमें से हर व्यक्ति जानना चाहेगा की यह बात किस हद तक ठीक है और हमारे परमपूज्य गुरुदेव का अथक प्रयास कहाँ तक सफल हो पाया। गुरुदेव ने गायत्री नगर की स्थापना तो कर दी लेकिन करोड़ों की संख्या में विश्व भर में फैले गायत्री परिवारजनों को इस के पीछे उद्देश्य का ज्ञान है क्या ? अगर थोड़ी देर के लिए औरों की बात छोड़ दें ,केवल गायत्री परिवारजनों पर ही केंद्रित करें, क्या प्रत्येक गायत्री परिजन एक देवता है ? क्या प्रत्येक गायत्री परिवार में स्वर्गीय वातावरण है? 

जो व्यवहार में दृष्टिगोचर होता है,जिज्ञासा उसी की होती है। जादू उस प्रस्तुतीकरण को कहते है जो सामान्यतः देखा नहीं जाता। सिद्वियां उन विशेषताओं को कहते है, जो हर किसी में दृष्टिगोचर नहीं होतीं। देवता अलौकिक होते है। स्वर्ग धरती से बहुत ऊपर है। इन समस्त प्रतिपादनों से एक ही ध्वनि निकलती है कि जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए युग निर्माण मिशन के, अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रयास चल रहे हैं , वे सामान्य जनजीवन से बहुत ही ऊँची स्थिति है।

धरातल पर सहगमन ( synergy) एक जैसा होता है। मनुष्य दो पैरों से चलते हैं, पशु चार पैरों से चलते है, पक्षी आकाश में उड़ते हैं। चलने और उड़ने का ही अन्तर मात्र है। इसी प्रकार लोक व्यवहार और आर्दशवादी अनुशासन में भी भिन्नता होती है । आस्थाओं और चेष्टओं में उत्कृष्टता की मात्रा बढ़ जाने को ही अध्यात्म की भाषा में उत्कर्ष या अभ्युदय कहते है। 

इस बात को हम सरल भाषा में समझने का प्रयास करते हैं। मनुष्य ,पशु ,पक्षी सब अपनी अपनी सम्पदा के आधार पर ऊँची से ऊँची स्थिति प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं , सभी में भिन्नता है ,इसलिए सभी की कोशिश भी भिन्न है। अपनी अपनी क्लास में ही रहते हुए मनुष्य ,पशु और पक्षी उच्च से उच्तर प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं। जो कोई भी उच्त्तम की स्थिति प्राप्त कर लेता है, अध्यात्म की भाषा में यही है उत्कर्ष-आनंद की चरम सीमा। किसी परिश्रमी और जिज्ञासु विद्यार्थी को पूछ कर देखिये उसके आनंद की सीमा क्या होती है जब वह उस गुत्थी को सुलझाने में सफल हो जाता है जिसका प्रयास वह कब से कर रहा था। यह केवल अनुभव करने वाली स्थिति होती है ,शब्दों में ब्यान करना असंभव होती है । 

सम्पदाओं को वैभव कहते है। वैभव कोई भी रख सकता है, चोर- लुच्चा भी। यह सम्पदा उसे विरासत में मिल सकती है,उसकी लाटरी निकल सकती है या भाग्यवश अचानक कहीं हीरों का खज़ाना भी मिल सकता है। किन्तु अभ्युदय (highest level of attainment) तो हर व्यक्ति का निजी उपार्जन है, उसके लिए तो खुद ही प्रयास करना पड़ता है ,परिश्रम करना पड़ता है। रोटी स्वयं खाई, स्वयं पचाई जाती है, हमारी काया को जीवनी शक्ति उसी से प्राप्त होती है। दूसरों के खाने-पचाने से अपने शरीर में रक्त-माँस नहीं बढ़ता। इसी प्रकार देवत्व और अभ्युदय के लिए, वैयक्तिक प्रयास से परिशोधन और अभिवर्धन का क्रम चलता है। इसी राजमार्ग (highway) पर एक-एक कदम चलते हुए जीवन लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव होता है। यही है “देवत्व की उपलब्धि का स्वरुप।” देवत्व को प्राप्त करने में यों आवश्यकता तो मार्गदर्शन की भी होती है,परन्तु काम वातावरण से ही बनता है। जिन भारतीय परिवारों का उदाहरण हमने ऊपर दिया, उनमें वातावरण ही है जिनसे हर कोई प्रेरित हुआ। 

परमपूज्य गुरुदेव को अखंड ज्योति पत्रिका के पाठकों पर बहुत ही विश्वास था। जो लोग वर्षों से इस दिव्य साहित्य का अमृतपान कर रहे थे अवश्य ही उनकी मनःस्थिति आम लोगों से अलग ही होगी। यही परिजन हम सबको मार्गदर्शन देने में समर्थ हैं। गुरुदेव के अनुसार 

नव युग में चिन्तन किस स्तर का होगा, उसकी झाँकी करने और उसे लोकमानस में जमाने के लिए अखण्ड-ज्योति के पाठकों का बहुत बड़ा योगदान रहा होगा। जिन परिजनों को गायत्री नगर में निवास के लिए आमंत्रित किया था वह अवश्य हो अखंड ज्योति के पाठक तो होंगें ही। लेकिन एक बात विचारनीय है कि अगर selection criteria केवल अखंड ज्योति पाठक ही होते तो शायद सफलता न मिली होती। गुरुदेव ने गायत्री नगर में निवास करने वालों के लिए सिलेबस इस प्रकार लिखा था इस योजना के पीछे जुड़े हुए तथ्य और सत्य ने हर विचारवान् को प्रभावित और प्रेरित किया । चिन्तन का प्रवाह मोड़ने में उस प्रयास को उत्साहवर्धक ही नहीं आशातीत कही जाने वाली सफलता भी मिली है। अगर कहीं विरलों में इस योजना का उतना प्रत्यक्ष प्रतिफल दृष्टिगोचर नहीं हो सका, चिन्तन चरित्र में नहीं उतरा और देव चिन्तन के रहते हुए भी देवत्व का प्रत्यक्ष अस्तिव दृष्टिगोचर नहीं हुआ तो इस कमी का एक ही कारण हो सकता है। वह कारण है

 “बीजोरोपण के उपरान्त उपयुक्त खाद पानी का न मिलना।”

किसान बीजारोपण के बाद चादर ओढ़ कर सो तो नहीं जाता। उसे सिंचाई करनी पड़ती है ,गुड़ाई करनी पड़ती है, खाद डालनी पड़ती है, अवांछित झाड़-झंखाड़ को भी तो उखाड़ फेंकना पड़ता है। हम तो कहेंगें कि उद्यान लगाना और परिवार बसाना एक ही प्रक्रिया के दो प्रयोग हैं। 

हम अपने सहकर्मियों को बताना चाहेंगें कि परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन और निर्देशन में ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार द्वारा किये जा रहे हर प्रयोग के पीछे एक ही भावना है – परिवार भावना। जब हम “परिवार” शब्द प्रयोग करते हैं तो उसका सही मानों में अर्थ वही है जो परमपूज्य गुरुदेव की दृष्टि में है -अखिल विश्व गायत्री परिवार- वसुधैव कुटुम्बकम्। यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी- चाहे शुभरात्रि सन्देश हो, दैनिक ज्ञानप्रसाद हो, 24 आहुति संकल्प हो, weekend special segment हो , सभी के पीछे सामूहिक परिवार भावना छिपी हुई है। 24 आहुति संकल्प का सुझाव आदरणीय सरविन्द जी का था जिसके लिए हम उनका धन्यवाद् करते हैं। 

इन्ही शब्दों के साथ अपनी लेखनी को कल तक के लिए विराम देते हैं। 

क्रमशः जारी:

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4 जून 2022 की 24 आहुति संकल्प सूची में केवल अरुण वर्मा जी ने ही भाग लिया और वह 29 अंक प्राप्त करके विजेता घोषित हुए। उन्हें हमारी व्यक्तिगत और परिवार की शुभकामना 

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