“क्या स्वर्ग इस धरती पर ही था” शीर्षक से चल रही स्वर्गीय शृंखला का नौंवा और अंतिम पार्ट प्रस्तुत करते हुए हमें जो परम शांति का आभास हो रहा है उसे शब्दों में व्यक्त करने में हम असमर्थ हैं। हम उस क्षेत्र के चप्पे चप्पे का कर भ्रमण चुके हैं जिसे धरती का स्वर्ग कहा गया है। विश्व में कितने ही स्वर्ग हों, कितने ही Paradise on Earth हों लेकिन यह स्वर्ग सही मानों में स्वर्ग हैं। स्वयं गुरुदेव ने शिव का वास्तविक निवास इसी हिमालय क्षेत्र को कहा है न कि तिब्बत वाले कैलाश पर्वत को। इस विषय पर गुरुदेव द्वारा दिया गया comparative analysis आप इस लेख में पढेंगें। पुराणों में इस प्रदेश की दिव्यता का भी वर्णन भी आपको पढ़ने को मिलेगा। कल वाले लेख में हम अपनी धरती माता के सीने पर विकास के नाम पर दिए जा रहे घावों पर चर्चा करेंगें।

यह पंक्तियाँ यात्रा के अनुभव वर्णन करने वाले अन्य लेखों की तरह पाठकों के मनोरंजन के लिए नहीं लिखी गई हैं वरन इन्हें लिखने का उद्देश्य भारत भूमि के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग की ओर लोगों का, विशेषतया अध्यात्म प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करना है कि अपनी भावनाओं और आन्तरिक स्थिति के विकास में इस क्षेत्र का महत्व समझें और उसका यथा सम्भव उपयोग करें।
परमपूज्य गुरुदेव तो इस क्षेत्र में एकविशेष उद्देश्य से गए थे लेकिन प्रकृति के दिव्य सौंदर्य, वास्तविक कैलाश मानसरोवर के अनुसंधान के प्राचीनतम स्थल, अतीत के भव्य इतिहास, देवताओं के निवास, स्वर्गीय वातावरण की दृष्टि से भी इस स्थान का महत्व कम नहीं है। यहाँ आध्यात्मिक तत्व की प्रचण्ड तरंगें हमने प्रवाहित होती देखी हैं जो अनुकूल स्थिति के अन्तःकरण का तो कायाकल्प कर ही सकती हैं पर यदि पात्रत्व उतना न हो तो साधारण स्थिति के श्रद्धालु को भी यहाँ बहुत कुछ मिल सकता है। यदि यहाँ तक पहुँच सकना संभव न हो तो उत्तराखण्ड के उन प्रदेशों में जाकर आत्मविकास के लिए महत्वपूर्ण लाभ उठाया जा सकता है जो इस क्षेत्र के समीप पड़ते हैं।
तो गुरुदेव के चरणों में बैठे हैं कक्षा 9 के विद्यार्थी।
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इस पृथ्वी का समस्त सतोगुण एकत्रित होकर हमारी अन्तरात्मा में प्रवेश कर रहे हैं । मन की एकाग्रता और बुद्धि मे स्थिरता उत्पन्न होती है, आध्यात्मिक अभिरुचि, पापों से घृणा, ईश्वरीय निष्ठा, आत्मपरायणता एवं भक्ति-भावना की हिलोरें अनायास ही हदय में उठने लगती है। सत्यं, शिवं, सुन्दर की झाँकी अपने चारों ओर होती हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य का अटूट भण्डार दिखाई पड़ता है। इस शोभा को लेखनी तथा वाणी से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, यह तो केवल अनुभव करने की चीज़ है। हमारे पुरातन ग्रंथों में इस वातावरण की झांकी नीचे लिखी पंक्तियों के माध्यम से दर्शित की गयी है :
“यह स्थान देवताओं द्वारा सेवनीय, परम दुर्लभ और महान् पुण्यप्रद है। इसे पुण्यात्मा लोग ही अवलोकन कर सकते हैं। हे नारद ! यह स्थान केवल इन्द्रियों को सुख प्रदान करने वाला ही नहीं,बल्कि समस्त महान तीर्थों का शिरोमणि है। दिन मे चांदी के प्रकाश वाले और सायं में सुवर्ण के प्रकाश वाले दिव्य पर्वत शिखरों से चित्त को अत्यन्त आहलाद प्राप्त होता है। मनुष्य सन्देहप्रस्त होकर सोचता है कि क्या यह सोने का पर्वत है या चांदी का पर्वत है। प्रातः और सायंकाल में जब सूर्य पीत और रक्त वर्ण होता है तो उसकी आभा के प्रतिबिम्ब से हिमाछादित शिखर सूर्य के रंग के तथा अपनी स्थिति और विशेषताओं के कारण विविधि रंगों के दिखाई पड़ते हैं। इन्द्रधनुष की झांकी जगह-जगह होती है। इस दृश्य को देखकर उस सौन्दर्य समुद्र में मनुष्य अपने को खोया-खोया सा अनुभव’ करता है। सौन्दर्य ब्रह्म का ही स्वरूप है। प्रकृति स्वयं सुन्दर नहीं है वह ब्रह्म के प्रकाश से ही सौन्दर्यवान होती है। ब्रह्म-सौन्दर्य से सम्पन्न ऐसे पुण्य स्थानों में ब्रह्मवित लोग भावाविष्ट होकर स्वयमेव ब्रह्म समाधि को प्राप्त हो जाते हैं। जिस आत्म स्थिति को प्राप्त करने के लिए बहुत समय तक साधना करने के उपरान्त सफलता मिलती है, यह इस वातावरण में प्रवेश करने पर कुछ समय के लिये अनायास ही उपलब्ध होती है।”
इन विशेषताओं को देखते हुए यदि इस देवभूमि में नन्दनवन के समीप ही ऋषियों तथा देवताओं ने तपोवन को तप साधना के लिए अपना उपयुक्त स्थान चुना था तो उनका यह निर्णय उचित ही था। आज मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थिति वहाँ निवास करने योग्य नहीं है। पूर्वकाल की भांति अब वहां वृक्ष तथा जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक साधन भी नहीं रहे हैं, फिर भी पुण्य प्रदेश के दर्शन करके अपने भाग्य को धन्य बना सकना अभी भी मनुष्य की सामर्थ्य के भीतर है। हम में से कई ऐसे साहसीजन जिनका स्वास्थ्य ठीक स्थिति में है आवश्यक उपकरणों के सहारे यहाँ तक पहुंच सकते हैं।
कैलाशवासी शंकर के शिर से गंगा प्रवाहित होती है। इसकी संगति तिब्बत में स्थित केलाश पर्वत से नहीं मिलती क्योंकि वहाँ से गंगा का गोमुख तक आना भौगोलिक स्थिति के कारण किसी प्रकार संभव नहीं है। गंगोत्री से जेलूखागा होकर कैलाश करीब 200 मील है। फिर बीच कई आड़े पहाड़ आते हैं जिसके कारण भी जलधारा या हिमिधारा यहाँ तक नहीं आ सकती। असली शिवलोक इस धरती के स्वर्ग में ही हो सकता है। गंगा ग्लेशियर शिवलिंग के समीप है। स्वर्ग गंगा भी वहीं है। गौरी सरोवर वहीँ ही मौजूद है। इस प्रकार गंगा धारण करने वाले शिव का कैलाश यह हिमालय का ह्रदय ही हो सकता है। यदि प्राचीन कैलाश यहाँ न रहा होता तो भागीरथ जी यहीं पर तपस्या क्यों करते ? वह तिब्बत वाले कैलाश पर ही शिव के समीप क्यों न जाते ? इस पुण्य प्रदेश में शिवलिंग शिखर, केदार शिखर और नीलकण्ठ शिखर यह तीनों ही शिवजी के निवास है। मानसरोवर का भी इस देवभूमि में होना स्वाभाविक है। सुरालय, हिमधारा, सतोपथ हिभिधारा तथा वरुण वन नामों से भी इसी प्रदेश का देवभूमि होना सिद्ध है। इन सब बातों पर विचार करने पर निष्कर्ष तो यही निकलता है कि कैलाश और मानसरोवर इसी प्रदेश में स्थित हैं ।
आजकल के तिब्बत प्रदेश का कैलाश अब विदेशी प्रतिबंधों के कारण यात्रा की दृष्टि से असुविधाजनक हो रहा है। दूरी भी बहुत है। उस प्रदेश में भारतीय वातावरण भी नहीं है,न अपनी भाषा न संस्कृति । वहां जाकर विदेश सा अनुभव होता है। जिस समय भारत की संस्कृति का वहाँ पर विस्तार रहा था उस समय वह तीर्थ भी उपयुक्त रहा होगा। यह बातें 1960s की हैं आज 2022 में भारत सरकार के केंद्रीय मंत्री आद. नितिन गडकरी ने घोषणा की है कि 2023 में कैलाश मानसरोवर यात्रा पिथोरागढ के रास्ते बिना नेपाल और तिब्बत जाये सम्पन्न की जा सकेगी।
गुरुदेव लिखते हैं कि चाहे जो कुछ भी हो शिव का वास्तविक निवास, गंगा का वास्तविक उद्गम और आध्यात्मिक मानसरोवर का दर्शन करना हो तो हमें इस हिमालय के ह्रदय, धरती के स्वर्ग में वास्तविक कैलाश की खोज करनी पड़ेगी । परीक्षा के लिए कोई व्यक्ति तिब्बत वाले कैलाश और इस हिमालय के ह्रदय वाले कैलाश की यात्रा करके देखे तो वह स्वयं अनुभव करेगा कि धरती के स्वर्ग प्रदेश वाला कैलाश कितना शान्तिप्रद एवं कितने दिल्य वातावरण से परिपूर्ण है।
इसी प्रदेश के उत्तर भाग से बद्रीनाथ जाने का एक मार्ग खोज निकाला गया है। वैसे गोमुख से वर्तमान प्रचलित मार्ग से बद्रीनाथ 250 मील है पर इस सीधे मार्ग से 25 मील ही है। गत दो तीन वर्षों में कई दुस्साहसी सन्तों के दल इस मार्ग से बद्रीनाथ यात्रा कर भी चुके है। स्विटजरलैण्ड के पर्वतारोही दल के साथ मुखवा गाँव का दलीप सिंह नामक एक कुली गया था, उस ने इस मार्ग की जानकारी प्राप्त की, फिर उसके नेतृत्व में दो तीन अभियान हुए, जो सफलता पूर्वक अपने लक्ष्य तक पहुंचे । गोमुख से रवाना होकर पहले दिन तपोवन की शिला गुफा में, दूसरे दिन सोमा ग्लेशियर, तीसरे दिन चतुरंगा ग्लेशियर के ऊपर ,चौथे दिन अरवा नदी के किनारे, पाँचवें दिन माना गाँव होते हुए बद्रीनाथ पहुंच जाते हैं। खुले मैदान में छोटा-सा टेण्ट लगाकर चारों ओर के प्रचण्ड शीत के वातावरण में रात काटना मृत्यु से लड़ाई लड़ने के समान है। फिर भी थकान के मारे घन्टे दो घन्टे पेट में घोंटू देकर नींद आ ही जाती है। साथ साथ लोग एक दूसरे से सटकर भी कुछ गर्मी उत्पन्न करते हैं। शरीर का जो भी अंग खुला रह जाता है वहीं ऐसा लगता है मानों गलने लगा । केवल श्रद्धा और साहस ही यहां मनुष्य को सावधान रखते हैं अन्यथा यदि यात्री यहाँ की भयंकरता से डरने लगे और अपना मानसिक संतुलन खो बैठे तो उसकी भी पांडवों की तरह हिमि-समाधि हो जाना सहज है।
इस मार्ग में 20 हजार फुट की उचाई चन्द्र पर्वत के निकट पार करनी पड़ती है। अधिक ऊंचाई पर हवा कम हो जाने से सिर में चक्र आते हैं, मन उदास रहता है। पक्की बर्फ की दरारों के उपर बर्फ जम जाती है तो नीचे की दरारें दिखाई नहीं पड़तीं और उनमें फँस कर प्राण गवा बैठने का खतरा रहता है। इसलिए यात्री आपस में कमर में रस्सियाँ बाँध कर दूर-दूर अलग-अलग चलते है ताकि कोई एक उन दरारों में है तो उस रस्सी के कारण इन खाइयों में फंस जाने से बचाया जा सके। इस मार्ग में कई जगह बर्फ पर फिसल कर रास्ता तय करना पड़ता है। प्रात: जब तक ठण्ड में बर्फ जमी रहती है तब तक मार्ग चला जाता है, जब धूप निकलने से कच्ची बर्फ नरम हो जाती है और पिघलने लगती है तो पैर फंसते है, फिर यात्रा बन्द करनी पड़ती है। शाम को 4 बजे से बादल घिर आते है तब पास बैठे हुए व्यक्ति भी दिखते नहीं । कुहरा और अंधेरा छा जाता है। खाने के लिए नमकीन सत्तू और नमकीन चाय पर रहना पड़ता है। स्टोव यहाँ का सच्चा साथी है। उस पर बार-बार चाय बनाकर थकान उतारनी पड़ती है। दूध की जगह पर मक्खन और चीनी की जगह पर नमक डालने से काम चलाउ चाय बन जाती है। रात को बर्फ काफी कड़ी हो जाती है, उस पर कम्बल बिछा कर सोया जा सकता है। ठण्ड काफी पड़ती है। ऊनी कपड़े, स्वेटर, मोजे, दस्ताने, जूते, मफलर, टोपा दिन रात कसे रहते हैं । शरीर खोलने और स्नान करने का तो यहाँ प्रश्न ही नहीं है । बर्फ सूरज की धूप में काँच की तरह चमकती है तो इसके प्रतिबिम्ब से आँखें खराब हो जाती हैं। इसलिए दिन के समय गहरा रंगीन चश्मा पहने रखना पड़ता है। ऊँचे पर्वतों पर पानी नहीं मिलता,वहां तो बर्फ पिघला कर काम चलना पड़ता है। दोपहर में बर्फ पिघलने से भी छोटे गड्डों मे जहा तहाँ थोड़ी देर के लिए पानी भर जाता है । उससे भी कुछ काम चल जाता है। हवा की कमी अनुभव होती है, दम फूलता है, सांस जल्दी लेना पड़ता है, रास्ता बना हुआ न होने से अनुमान और कम्पास के सहारे चलना पड़ता है। थोड़ा भी वजन लेकर चलना अनभ्यस्त लोगों के लिए कठिन होता है, इसके लिए अभ्यस्त कुली ही सहायक होते है।उस विकट क्षेत्र में इस प्रकार की अनेकों कठिनाइयां हैं, पर साहस, धैर्य और श्रद्धा के बल पर वे सभी पार हो जाता है।
इति श्री
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।
शब्द सीमा के कारण संकल्प सूची प्रकाशित न कर पाने के कारण क्षमा प्रार्थी हैं।