19 फ़रवरी 2022 का ज्ञानप्रसाद – मन चंचल क्यों होता है ?
आज का ज्ञानप्रसाद एक बहुत ही बेसिक प्रश्न की और केंद्रित है -मन चंचल क्यों होता है ? इस प्रश्न को समझने के लिए हमने एक सरल सी कहानी भी add की है, आशा करते हैं पसंद आएगी। 24 आहुति संकल्प सूची पर रिसर्च और data analysis के कारण इसे प्रकाशित नहीं कर रहे हैं। सोमवार को जो भी परिणाम आयेंगें आपके समक्ष प्रस्तुत करेंगें।
प्रस्तुत है आज का ज्ञानप्रसाद।
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यह एक शाश्वत सत्य है कि परम पिता परमात्मा ने इन्द्रियां मनुष्य को वरदान के रूप में प्रदान की हैं, जिनका संयम द्वारा सदुपयोग कर मानव अपने जीवन को उन्नत एवं आनंदमय बना सकता है किंतु इसके विपरीत इनका दुरुपयोग कर जीवन को कष्टप्रद एवं निम्नस्तर का बना बैठता है।
यह समझने का विषय है कि मानव ही एकमात्र भाग्यशाली प्राणी है जिसे परमात्मा ने बुद्धि एवं विवेक से सुशोभित किया है किंतु जब-जब मानव अपनी ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों का प्रयोग अपनी संकल्प-विकल्प क्रिया करने वाले मन के माध्यम से सही ढंग से नहीं करता है, तब ये इन्द्रियां सुचारू रूप से कार्य नहीं कर पातीं हैं। ऐसी स्थिति आते ही मानव जीवन बर्बादी की ओर अग्रसर हो जाता है। कल वाले लेख के साथ संलग्न गीता उपदेश भी यही सन्देश दे रहा था। विषय भोगों से उत्पन हुई कामना मानव को बर्बादी के जिस स्तर तक गिरा देती है,हम सभी उससे भली भाँति परिचित हैं। हम अपने आस पास कितने ही ऐसे व्यक्तियों को देखते हैं जिन्होंने संयम का पालन न करके अपनी इन्द्रियों का सदुपयोग नहीं किया और अपने अनमोल जीवन को बर्बाद कर बैठे। उन्होंने अपने मन की डोर इतनी खुली छोड़ी कि जब भी किसी अनुभवी ने उन्हें टोकने /रोकने का प्रयास किया तो एक ही प्रतिक्रिया सामने आयी “ खाओ,पियो, ऐश करो ,यह जीवन बार -बार नहीं मिलता।” बिल्कुल ठीक है: मानव जीवन पाना बहुत ही सौभाग्य की और दुर्लभ बात है। ऐसे भी उदाहरण प्रायः मिलते रहते हैं जहाँ कामवासना के वशीभूत होकर स्त्री पुरुष एक से अधिक संबंध (Extramarital) बना बैठते हैं, तथा अपने साथ-साथ परिवार को भी शर्मसार कर देते हैं। परिणाम क्या होता है: ऐसे परिवारों की शांति खत्म हो जाती है।
अगर हम जिव्हा पर कण्ट्रोल न कर पाते हों तो अनाप शनाप खाना कई बीमारियों का कारण बन जाता है। परिणाम यह होता है जो जिव्हा परमात्मा ने पौष्टिक भोजन खाकर शरीर को तंदरुस्त बनाने के लिये दी है, उसका दुरुपयोग कर मानव अपने शरीर को बीमारियों का अड्डा बना बैठता है। कई बार ऐसी दयनीय स्थिति बना लेता है कि अस्वस्थता के कारण वह साधारण भोजन पचाने में भी असमर्थ हो जाता है और उसके जीवन की गाड़ी केवल दवाओं के भरोसे ही चल पाती है। इसी प्रकार वाणी अनमोल है जिसका मधुरता से उपयोग करके मानव मधुर संबंध बना सकता है, अपने जीवन को खुशहाल बना सकता है। मूर्ख मानव कर्कश और कठोर बोली बोल कर संबंध बिगाड़ लेता है और जीवन को कठिन बना लेता है।
यह सत्य है कि जीवन में ‘प्रलोभन’अनेक प्रकार के होते हैं और कमजोर इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति प्रलोभनों में आसानी से फंस जाता है। ऐसे व्यक्ति का मन प्रलोभनों में रम जाता है एवं उसकी इन्द्रियां प्रलोभनों में आसक्त होकर कुमार्गगामी हो जाती हैं। जीवन में आने वाले कई प्रलोभन अत्याधिक आकर्षक होते हैं, इन मायावी प्रलोभनों में पड़ कर मानव अदूरदर्शी एवं दीवाना सा हो जाता है। ऐसे मनुष्य की चिंतनशील सत्बुद्धि पंगु हो जाती है तथा वह विषय वासना, आर्थिक लोभ, स्वार्थता का शिकार हो जाता है तथा प्रलोभनों से उत्पन्न हानियों, कष्टों के मकड़जाल में फंस जाता है। ऐसा प्रलोभन मृग तृष्णा के समान है और इसके पीछे भागते हुए, भटकते हुए मनुष्य अपना समय, शक्ति, सामर्थ्य, अस्तित्व सब दांव पर लगा बैठता है।
‘प्रलोभन अनेक प्रकार के होते हैं। कभी धन का प्रलोभन, कभी पराई स्त्री /पुरुष -काम वासना का प्रलोभन, कभी जीभ का प्रलोभन – यह सभी नर्क के ही द्वार हैं। धन के प्रलोभन में पड़ने से मनुष्य को सारा सुख, आनन्द केवल धन में ही नज़र आने लगता है और वह किसी भी कीमत पर, किसी भी तरीके से धन-अर्जन में लग जाता है। ऐसा मनुष्य धन कमाने को ही जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लेता है और गलत धंधे, रिश्वतखोरी, चोरी, जालसाज़ी इत्यादि कोई भी हथकंडा अपनाकर धन प्राप्त करना चाहता है। ऐसा मनुष्य कई बार तो अपने नजदीकी रिश्ते में भी धन हड़पने की जुगत लगा कर धन अर्जित कर बैठता है। यह सत्य है कि जीवनयापन के लिए धन आवश्यक होता है किन्तु जीवन का लक्ष्य धन कमाना ही मान लेना गलत है एवं धन प्राप्ति के लिए अनुचित तरीके अपनाना सर्वथा निंदनीय है। कबीर जी का बहुचर्चित दोहा -साँई इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय – ऐसी स्थिति में बिलकुल फिट बैठता है।
कई बार कुछ व्यक्ति कामवासना के वशीभूत होकर अपनी पत्नि होने के बावजूद, दूसरी की स्त्री के मोहजाल में फंस कर अपना धन, शक्ति, समय सब बर्बाद करते हैं। कई बार अपने मित्र की पत्नी सौन्दर्यवती है, तो उसे हासिल करने के कुचक्र में फंस कर नाम, धन, रिश्ता सब दांव पर लगाने के लिये उतारू हो जाते हैं। ऐसे लोग बाली, रावण आदि के उदाहरणों से भी शिक्षा नहीं ले पाते हैं। इन लोगों ने परायी स्त्रियों को प्राप्त करने की लालसा में अपना धन, राज्य, जीवन सब दांव पर लगा दिया था।
वास्तविकता यह है कि मन बहुत ही चंचल होता है संयम में थोड़ी भी चूक हुई कि वह किसी प्रलोभन में अटक सकता है और मन के अंकुश में ही हमारी 10 इन्द्रियां होती हैं, उदाहरण के लिए यदि हमारा मन किसी स्वाद रेसिपी की और आकृष्ट हो गया है तो वह हर हाल में उसे प्राप्त करके ही रहेगा। ऐसा इसलिए होता है कि मनुष्य उसे खाये बिना बैचेनी महसूस करता है क्योंकि वह अपनी जिव्हा का दास बन चुका है जो उसे सुस्वादु भोजन के लिए परेशान करती रहती है।
आखिर यह मन चंचल क्यों होता है ?
मन चंचल है, मन वायु से भी तीव्र है, मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। यह तीनों वाक्यांश हम सबने अवश्य ही सुने होंगे। लेकिन क्या हम जानते है कि मन चंचल क्यों है ? आइये पहले यही जान लें मन चंचल क्यों है ? जब तक हम इसे नहीं जानते तब तक हमें बेचारे मन को दोष देते ही रहेंगें, मनोनिग्रह के जितने भी लेख पढ़ लें कोई लाभ नहीं होने वाला। “मन है क्या चीज़”। हमारी ही कुछ आदतों, इच्छाओं और संस्कारों के समुच्चय को मन कहते है ।
आदतों, इच्छाओं और संस्कारों के आधार पर मन को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – एक तो अच्छा मन, दूसरा बुरा मन । अच्छा मन वह जो आत्मा के अनुकूल काम करें, जो हमें उत्थान की ओर ले जाये । बुरा मन वह जो आत्मा के प्रतिकूल काम करें, जो हमें पतन की ओर ले जाये । वास्तव में दोनों ही मन आत्मा की शक्ति से चलते है। किन्तु अच्छे मन पर आत्मा का अधिपत्य होता है और बुरे मन पर आत्मा का आंशिक अधिपत्य होता है या यूँ कह लीजिये कि कोई अधिपत्य नहीं होता ।
यह होता है मन। अब बात करते है चंचलता की । चंचलता जल का गुण है । जल के इसी गुण से तुलना करके मन को चंचल कहा गया है । अगर सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाये तो मन और जल लगभग समानांतर है,अर्थात हम जल के गुण, कर्म और स्वभाव को समझकर काफी हद तक मन को समझ सकते है। आइये देखते हैं कैसे ?
मन चंचल क्यों होता है ? इसे समझने के लिए प्रश्न बदलकर स्वयं से पूछते कि ” जल चंचल क्यों होता है ?”
जल चंचल तब होता है, जब वह नीचे की ओर प्रवाहित हो । अगर जल को स्थिर करना है तो हमें उसे सीमा बंध
करना पड़ेगा । यदि उसे ऊपर की ओर चढ़ाना है तो उसे सीमित दायरे से प्रवाहित करना पड़ेगा । लेकिन यदि उसे नीचे की ओर प्रवाहित करना है तो हमें कुछ भी करने की जरूरत नहीं होगी केवल छोड़ दीजिये ।
ठीक ऐसे ही मन चंचल तब होता है जब वह पतन की ओर अग्रसर हो । यदि मन को स्थिर करना है, निश्छल करना है तो उसे सीमित दायरे में रखना होगा । यदि मन को उत्थान की ओर अग्रसर करना है तो सीमित दायरे से अभीष्ट लक्ष्य (इष्ट) की ओर लगाना होगा।
जिस तरह जल विभिन्न नदी और नहरों से होते हए जब तक समुन्द्र में नहीं मिल जाता तब तक स्थिर नहीं होता । उसी तरह मन भी जब तक इन्द्रियों रूपी नदी और नहरों में भटक रहा है, तब तक स्थिर नहीं हो सकता । किन्तु जब वह आनंद के सागर परमानन्द में मिल जाता है तो पूर्णतः स्थिर होकर समाधि में चला जाता है । इसी अवस्था को “मोक्ष और जीवन मुक्ति” कहते है।
मन की चंचलता का कारण निम्नलिखित कहानी से भी समझा जा सकता है :
एक बार गुरुकुल में एक नया शिष्य आया । आश्रम के नियमानुसार उसे भी प्रतिदिन संध्या – उपासना करनी थी । ध्यान संध्या का अभिन्न अंग है । लेकिन नये शिष्य का ध्यान बिलकुल नहीं लगता था । कुछ दिन तो वह जबरजस्ती आंखे बंद करके बैठा रहा लेकिन अंततः एक दिन उसके सब्र का बांध टूट गया । वह तुरंत उठकर अपने गुरुदेव के पास गया और बोला – “गुरुदेव ! ये संध्या में ध्यान की क्या आवश्यकता है ?”
गुरुदेव बोले – “वत्स ! ध्यान मन को साधने के लिए अनिवार्य है।”
शिष्य बोला – ” किन्तु गुरुदेव ! क्या मन को साधना जरुरी है ? मेरा मन तो ध्यान में बिलकुल नहीं लगता।”
गुरुदेव बोले – ” मन को साधना इसलिए जरुरी है क्योंकि मन चंचल है। चंचल मन से किसी भी कार्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता। इसलिए मन की चंचलता पर काबू पाना जरुरी है।”
शिष्य बोला – ” किन्तु गुरुदेव ! मन चंचल क्यों है ?”
शिष्य का प्रश्न सहज था किन्तु उसका उत्तर उतना सरल नहीं था। वास्तव में इस एक ही प्रश्न में सम्पूर्ण योग का सार छुपा हुआ है ।
गुरुदेव बोले – ” एक बात बताओ ! जिस मनुष्य के पास रहने के का कोई ठिकाना न हो, वह क्या करेंगा ?”
शिष्य बोला – ” गुरुदेव ! दर – दर भटकता फिरेगा, जब तक की उसे रहने के कोई ठिकाना नहीं मिल जाता।”
गुरुदेव बोले – ” बस यही कारण है कि मन चंचल है।मन चंचल इसीलिए है, क्योंकि उसके पास ठहरने के कोई स्थाई ठिकाना नहीं। कोई ऐसी जगह नहीं, जहाँ उसे असीम और अनंत आनंद की अनुभूति हो सके। जहाँ पहुँचकर उसे कहीं और पहुँचने की आवश्यकता न हो । ऐसा स्थान केवल एक ही है और वह है – “परम आनंद “
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव
हर बार की तरह आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।