वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

अध्याय 1,2-मनोनिग्रह कठिन किन्तु  सम्भव एवं इच्छाशक्ति को दृढ़ कैसे बनायें 

15  नवंबर 2021 का ज्ञानप्रसाद -मनोनिग्रह कठिन किन्तु  सम्भव एवं इच्छाशक्ति को दृढ़ कैसे बनायें 

मित्रो आज से हम सभी “मन को वश में करने” के विषय पर एक श्रृंखला का श्रीगणेश कर रहे हैं। यह एक ऐसा दिलचस्प विषय है जिससे  हर कोई प्रभावित होता ही है। हर लेख की तरह हमने इसे भी सरल करने का प्रयास किया है हिंदी की पुस्तक तो उपलब्ध न हो सकी लेकिन अंग्रेज़ी एडिशन The Mind and its Control को साथ में रख कर ,अनिल जी द्वारा दिए गए कंटेंट और गूगल का सहारा लेकर यथासंभव  प्रयास किया है, अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो क्षमा प्रार्थी हैं। इस विषय को और भी सरल बनाने के लिए हमने एक पांच मिंट का वीडियो लिंक भी दिया है।  https://drive.google.com/file/d/1UT-j9_ZyBF8duTMaC6kbyviO5cLA4LfH/view?usp=sharing

मन का विषय एक  फिलोसोफिकल विषय है ,इसे समझने के लिए बहुत ही एकाग्रता की आवश्यकता है। हो सकता है हमारे पाठकों को कोई- कोई वाक्य बार- बार पढ़ना  पढ़े लेकिन उन्हें बहुत ही उच्स्तरीय मार्गदर्शन मिलने की सम्भावना है ,हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारे सूझवान सहकर्मी कमैंट्स में इस मार्गदर्शन की  अवश्य ही चर्चा करेंगें। 

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मन और उसका निग्रह एक ऐसा विषय है, जिसमें हम सब  बड़ी गहरी दिलचस्पी रखते हैं, क्योंकि  हमारा मन ही हम पर सबसे अधिक प्रभाव डालता है। मनोनिग्रह का अर्थ होता है -.मन को विषय वासनाओं में रमने से रोकना, मन को वश में करना ,मनोवृत्तियों पर अंकुश लगाना,.विषय वासनाओं में प्रवृत्त होने से मन को रोकना एवं .मन को वश में रखना।

हम सभी अपने मन को वश में लाने का प्रयत्न करते हैं लेकिन  फिर भी  हमें इस सम्बन्ध में और अधिक जान लेना चाहिए एवं  और अधिक अच्छे से प्रयत्न करना चाहिए।  क्या  इस विषय में हमारी कोई  सहायता कर सकता है?  हाँ , वही लोग  जिन्होंने अपने मन को  पूरी तरह वश में कर लिया है, वे ही  हमारी सहायता कर  सकते हैं।  ऐसे लोगों से  प्राप्त हुए ज्ञान को हम  एक साधना प्रणाली के रूप में प्रस्तुत करेंगे। 

मनोनिग्रह एक बहुत मजेदार भीतरी खेल है।  यदि हमारी  मनोवृत्ति एक  खिलाड़ी की है तो  हारने  की सम्भावना के  बावजूद  हम   इस खेल का भरपूर मजा ले सकते हैं ।  यह एक ऐसा खेल है जो  हमसे पर्याप्त  मात्रा में  कौशल, सतर्कता , विनोद -प्रियता सहृदयता, रणचातुर्य, धीरज  और  शौर्य  की आशा   रखता है जो  सैकड़ों  असफलताओं के बावजूद हमें टूटने से बचाता है। 

श्रीमद्भगवद्गीता में  भगवान कृष्ण   अर्जुन को समझा रहे   थे  कि  योग  की  चरम  स्थिति  कैसे प्राप्त  हो सकती है। उनकी  बात  सुनकर अर्जुन ने   हताशा  के  स्वर  में उनसे   कहा,

 “हे  मधुसूदन! आपने  मन  की  समता रूप  जिस  योग  की  बात  कही  है,  मैं  नहीं जानता    कि   मन  की चंचलता  को   देखते   हुए   वह  स्थिति   कैसे  टिक  सकती है क्योंकि  मन  तो   बडा  ही , उद्दण्ड  , बली  और  हठी  है और हमेशा  अपनी ही करता है।  मैं  तो उसको  वश में करना  वायु को  वश  में   करने  के   समान  दुष्कर मानता हूँ।” मानव-चरित्र  का  प्रतिनिधित्व करने वाले  अर्जुन  की   इस  शिकायत  को भगवान   सुनते  हैं और जो उत्तर देते  हैं वह   सभी   युगों  के मानवों  के लिए  महत्वपूर्ण है। मनोनिग्रह पर समस्त भारतीय चिन्तन  और  साधना- प्रणाली भगवान कृष्ण  के इसी उपदेश पर आधारित है। वे  कहते हैं :

” हे  महाबाहो! निस्सन्देह  मन बड़ा  चंचल  और  कठिनता  से  वश  में  आनेवाला है परन्तु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा उसका निग्रह सम्भव है। “

उपर्युक्त  वार्तालाप  से  हमें  मनोनिग्रह  के  सम्बन्ध में  तीन आधारभूत  तथ्य   प्राप्त    होते  हैं:

1.मनोनिग्रह  अर्जुन   के  समान   वीर्यवान ( शक्तिशाली )   मानवों   के  लिए  भी  सदैव  से  अत्यंत   कठिन   रहा  है। 

2.तिस पर  भी  मन  को  वश  में  करना  सम्भव  है।                           

3.मनोनिग्रह  के   सुनिर्धारित  तरीके  हैंं।                                    

अभ्यास  और वैराग्य-   इन  दो  शब्दों में भगवान कृष्ण ने मनोनिग्रह  का सारा  रहस्य  ही  व्यक्त  कर  दिया है। भारत   के  सभी  सन्त- महात्माजन  युग -युग से एक  स्वर  से  यही कहते  रहे हैं कि   “अभ्यास  और  वैराग्य “   के इलावा मन  को  वश  में करने का  और  कोई  उपाय है ही नहीं।   इसे   “अभ्यासयोग ” भी कहा जाता है। हम यहाँ पर श्रीरामकृष्ण परमहंस और उनके एक  भक्त  के  बीच  हुए वार्तालाप  को बताते  हैं:   

श्रीरामकृष्ण परमहंस : कुछ प्राप्ति  नहीं   हो रही है, यह देखकर  चुप्पी  न  साध  जाना , आगे बढ़  जाओ,  चन्दन की  लकड़ी  के बाद और  भी  चीजें हैं -चांदी  की  खान, सोने की खान आदि । 

भक्त : पैरों  में जो  बेड़ियां   पड़ी   हुई हैं, उनके  कारण आगे नहीं बढ़ा  जाता। 

श्रीरामकृष्ण परमहंस: पैरों के बन्धन  से  क्या  होता है?  बात असल   मन  की  है। मन  के द्वारा  ही आदमी  बंधा  हुआ है और  उसी  के द्वारा  छूटता  भी  है।  

भक्त: यह मन मेरे बस  में भी तो नहीं है। 

श्रीरामकृष्णपरमहंस : यह क्या ? “अभ्यासयोग” ही है जो यह कर सकता है। अभ्यास  करोगे  तो  फिर  देखोगे , मन  को  जिस  ओर  ले जाओगे, उसी  ओर  चलता जायगा।  मन  धोबी  के कपडे की तरह  है।  धोबी चाहे तो   उसे  लाल रंग  में रंग ले ,चाहे तो  आसमानी रंग में ।  जिस रंग से धोबी रंगेगा वही रंग उस पर चढ़ जायगा।                               

निस्सन्देह ही  अभ्यास और वैराग्य  ही  मनोनिग्रह  का  रहस्य  है, पर  प्रश्न  यह  है कि  इन दोनों  गुणो  को  जीवन में   लाया कैसे  जाए।   इसके  लिए 

1.मन पर संयम पाने  की  इच्छाशक्ति  को दृढ़ बनाना पड़ता है  

2.मन  के    स्वभाव   को  जानना   पड़ता है 

3.कुछ साथना- प्रणालियां  सीखकर  लगन  और विचार पूर्वक  उनका नियमित अभ्यास  करना  पड़ता है      

“अब प्रश्न उठता है कि मन पर   संयम पाने की इच्छाशक्ति को दृढ़  कैसे  बनाया जा सकता है ?”  

ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता कि हमारे अंदर मन को वश में लाने के लिए कोई इच्छाशक्ति  नहीं है।  हममें से प्रत्येक के अपने भीतरी संघर्ष हैं और इसी से इच्छाशक्ति का होना सूचित हो जाता है। परन्तु यह बात अवश्य है कि हममें से बहुतों में मनोनिग्रह की यह इच्छाशक्ति विशेष प्रबल नहीं होती।  जब तक  हम  ऐन्द्रिक ( इन्द्रियों ) सुख  की प्राप्ति   को  जीवन  के  प्रमुख  प्रयोजनों में गिनते रहते  हैं  और जब तक हम  विचार पूर्वक  उसका  सर्वथा  त्याग नहीं कर देते , तब तक  मन को वश में करने का संकल्प सबल हो ही  नहीं  सकता।  ऐन्द्रिक सुख की लालसा वास्तव में नासूर के समान है जो मनोनिग्रह के संकल्प को चूसकर शिथिल कर देती है। उदाहरण के लिए  यदि  तुम्हारा नौकर जानता  है कि तुम   अवैध मादक द्रव्यों के लिए उसी    पर निर्भर हो और यदि तुम दोनों एक साथ मिलकर उनका  सेवन  करते हो, तो तुम  उस नौकर को अपने  वश  में नहीं रख सकते।  मन  के  साथ  भी  ऐसा  ही  होता है। मन हमारा नौकर है।   जिस मन  को  हम  इन्द्रिय सुखों   की  खोज में  तथा  उनके  भोग   में  लगाते  रहते हैं   हैंं, उसे  तब तक  वश  में  नहीं  लाया जा सकता जब तक हम सुख  की  लालसा  को छोड़ नहीं  देते। सुख-भोग    की लालसा  को  त्याग देने के बाद भी  मन  को  नियंत्रण में लाना सहज  नहीं  होगा  क्योंकि  वह  पुरानी यादों  को  उठाकर  हमें  सदैव  परेशान  करता  रहेगा। 

सुख-भोग  की  लालसा   का  त्याग   जिस  मात्रा  में तीव्र  होगा उसी  मात्रा  में हमारा  मन को वश करने  का संकल्प  भी  सुदृढ़  होगा।

जब तक   सुख पाने  की  लालसा  बनी हुई है तब तक  हम चाहे  जो  करें  , हम मन को  किसी भी  प्रकार   पूर्ण     नियंत्रण में नहीं  ला  सकते।  इसका  तात्पर्य   यह  हुआ कि हममें से   जो कोई भी  सुख-प्राप्ति  की  लालसा   को  छोडने  के  अनिच्छुक हैं  , वे  ऊपर  से  चाहे  जैसी  भी  घोषणाएं करें, उनमें   मनोनिग्रह की चाह  है ही नहीं। 

“सुख- भोग    की लालसा  के त्याग  का  अर्थ  आनन्द- प्राप्ति  की लालसा   का  त्याग  नहीं है।”

 सुख  का  अर्थ   है   इन्द्रिय- सुखों का उपभोग  य  “Unripe ego -कच्ची मैं” I यह उपभोग और “मैं”  दोनों  आनन्द ( ultimate bliss )  की  प्राप्ति में  बाधक हैं। यह आनन्द  ही  जीवन का  परम लक्ष्य है और उसे पाने  के लिए  हमें सुख-दुख  दोनों से  ऊपर  उठकर जाना  पड़ता है। इसलिए   आनन्द- प्राप्ति की इस  इच्छा को  छोड़ने का  प्रश्न ही  नहीं  उठता क्योंकि हम “सत्- चित्- आनन्द- स्वरूप” हैं  और  यह  आनन्द हमारी पूर्णता का अविच्छिन्न अंग है।   सुख भोगने की लालसा  का त्याग करने के लिए  किन किन उपायों  का पालन  करना चाहिए, इसकी चर्चा  आगे  चलकर  करेंगे।                                        .                                             

कभी-भी दो विरोधी बातें एक जैसी  दिखायी देती हैं। दो प्रकार के लोग होते हैं जिनमें मानसिक संघर्ष नहीं  होता।   एक तो वे है जो  पूरी तरह अपनी निम्न प्रकृति ( low  Nature )  के ऐसे  दास बन गये हैं जो कभी प्रश्न ही नहीं कर पाते  और दूसरे वे हैं, जिन्होंने अपनी निम्न प्रकृति को पूरी तरह  जीत लिया है। एक दास हैं  और दूसरे  विजेता।   शेष सभी  के भीतर किसी न किसी  परिपेक्ष्य में  संघर्ष होता ही रहता है। ये संघर्ष मन: संयम के अपर्याप्त अथवा असफल प्रयत्नों  के फलस्वरूप उपजा  करते हैं। अपर्याप्त प्रयत्न हमारी दुर्बल इच्छा शक्ति  तथा  मनोनिग्रह के उपायों की जानकारी के अभाव  के सूचक हैं।                                              

“सबसे महत्वपूर्ण बात है इच्छा शक्ति  को  इतना  सुदृढ़ बनाना  कि  यदि  हम बार-बार बार असफल  हो जाये   तो  भी  हम  निराश  न हों बल्कि  इसके  विपरीत मन:संयम  की हर  असफलता  हममें  नवीन  उत्साह भर दे तथा  मनोनिग्रह में  हमें  पुनर्नियुक्त कर दे”                             

अब  प्रश्न  यह  है कि  मन  को वश  में लाने  की  इस  इच्छाशक्ति को  सुदृढ़  कैसे  बनाया जायेगा ?    इच्छाशक्ति  को  जो  बातें  दुर्बल बना  देती   हैं  , उन्हें  दूर  करना  होगा  और  उनके स्थान पर  अनुकूल तत्वों को उपस्थित  कर  उसमें  शक्तिसंचार   करना  होगा। यह संभव है कि  हममें  से  कई  लोगों ने   मन  के  साथ  संघर्ष  किया  होगा  और  कई बार असफल हुए होंगे।  इसलिए   स्वाभाविक है वह   सोचते  होंगे  कि मनोनिग्रह  हमारे बस  की  बात  नहीं  है। इच्छाशक्ति के   कमजोर  होने  का  दूसरा  कारण  यह भी   है कि हममें  से  अधिकांश  यह  स्पष्ट धारणा  ही  नहीं  कर  पाते कि असल में   मनोनिग्रह के मार्ग   में   बाधा  कौन सी  है।  मनोनिग्रह  में असफल हो जाने से ऐसा कभी भी नहीं होना चाहिए  कि  हम  अपने आप  को   अनुचित रूप से  कोसते  रहें। अच्छे से अच्छे  व्यक्ति  के लिए भी मन का संयम सहज  बात नहीं है।  इसका कारण   यह है कि मन  बड़ा चंचल है.  श्रीमद्भगवद्गीता में  भगवान कृष्ण कहते हैं : हे कौन्तेय: अभ्यास शील  बुद्धिमान पुरूष  के मन  का  भी   ये  उद्दण्ड  इन्द्रियाँ  बलपूर्वक हरण   लेती  हैं ( मन का हरण  ।  जैसे  वायु जल  में  नाव का  हरण   लेती  है,  वैसे ही   इन्द्रियों  के  पीछे- पीछे चलने वाला  मन व्यक्ति   के  विवेक का  हरण   कर   लेता  है।   भगवान बुद्ध   उपदेश  देते  हैं :मनुष्य  हज़ारों   मनुष्यों को  युद्ध में हज़ार  बार  जीत  ले, पर उससे बढकर युद्ध विजेता   वह  है,   जिसने अपने  पर  विजय  प्राप्त कर  ली   है। इन उदाहरणों   से  हम  समझ  सकते हैं कि  मन  का  निग्रह  संसार में  सबसे   कठिन  काम   है। वास्तव में  यह एक    वीरोचित  कार्य ( Hero’s task)    है इसलिए   यदि   मन   को   वश   में   लाने  के  प्रयत्न  में   हम   यदा -कदा  असफल   हो  गये    अथवा   लगातार  ही असफल  होते  रहे हैं      तो  उसे  बहुत  गम्भीर रूप से नहीं लेना चाहिए  बल्कि  असफलताओं  को  बढावा  मानकर     हमें   अधिक  लगन  , धैर्य  और  बुद्धि से  अभ्यास  में  लग  जाना  चाहिए।   हताश  होने  की  कोई  बात नहीं  , क्योंकि  महापुरुष  हमें  भरोसा  दिलाते  हैं  कि  मन  का  पूर्ण निग्रह  सम्भव है। 

तो आज के लिए इतना ही। जय गुरुदेव 

कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को  ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से  चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।

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2 responses to “अध्याय 1,2-मनोनिग्रह कठिन किन्तु  सम्भव एवं इच्छाशक्ति को दृढ़ कैसे बनायें ”

  1. I love this content. Desire to get such content in future. This is really very interesting. Thanks a lot 🙏🙏 .

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