वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

ज्ञानयज्ञ के लिए समयदान का आवाहन

12 नवंबर 2021 का ज्ञानप्रसाद – ज्ञानयज्ञ के लिए समयदान का आवाहन

आज का ज्ञानप्रसाद लिखते समय हमें अपनी निर्धारित लेखन-योजना से थोड़ा हटना पड़ा जिसके लिए हम ह्रदय से क्षमा प्रार्थी हैं। योजना तो थी अनिल मिश्रा भाई साहिब के मन निग्रह श्रृंखला की बैकग्राउंड की, सरविन्द भाई साहिब की आदर्श परिवार प्रतिक्रिया की, लेकिन समयदान का यह टॉपिक हमारे मन के भीतर कई दिनों से हिचकोले ले रहा था। भय था कि कहीं विचारों के भंवर में यह पुण्य विचार डूब आकर लुप्त ही न हो जाएँ। कल वाले ज्ञानप्रसाद में चार कमेंट शामिल किये तो शब्द 1700 के लगभग थे ,लेकिन अकेले सरविन्द भाई साहिब की प्रतिक्रया 1437 शब्द की है – नमन है उनकी लेखनी को। देखते हैं इस प्रतिक्रिया को कहाँ/ कब शामिल करें। ज्ञानरथ प्रचार -प्रसार में अधिकतर समस्या यही उभर कर आयी है -कोई सुनता ही नहीं है ,हर कोई यही कहता है समय नहीं है। आज का लेख उदाहरण सहित इस समस्या के निवारण को ध्यान में रख कर लिखा गया है। समय सबके पास है ,आवश्यकता है समय के महत्व की और कार्य के महत्व की। ठीक उसी प्रकार जैसे हम कहते आ रहे हैं – बुद्धि तो सबके पास है ,आवश्यकता है सद्बुद्धि की। हमारे समस्त सहकर्मी यथाशक्ति ज्ञानरथ में सहयोग दे रहे है – दें भी क्यों न, यह उनका अपना ज्ञानरथ जो ठहरा। और हर कोई किसी श्रेय के लिए नहीं बल्कि कर्तव्यनिष्ठ होकर कार्य कर रहा है -नमन है सभी को। आज ही हमारे बहुत ही समर्पित अरुण जी ने रिप्लाई करके हमें लिखा – भाई साहिब ज्ञानरथ के प्रचार- प्रसार के लिए हमें कहने की आवश्यकता नहीं है ,हम पूरा प्रयास कर रहे हैं। तो चलते हैं आज के ज्ञानप्रसाद की ओर, आशा करते है समयदान की समस्या का अवश्य निवारण होगा।

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जिस प्रकार स्थूल शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म प्राण की शक्ति अधिक मानी जाती है उसी प्रकार स्थूल यज्ञों की अपेक्षा सूक्ष्म यज्ञ की महत्ता असंख्य गुनी अधिक होती हैं। घी, सामग्री, समिधा आदि के द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञ “स्थूल” कहलाते हैं और ज्ञान-यज्ञ को “सूक्ष्म” कहा गया है। वैसे तो स्थूल यज्ञों की महिमा भी कम नहीं है, पर ज्ञान यज्ञ तो सर्वोपरि है। “गीता में भगवान ने कहा है कि ज्ञान से बढ़कर इस संसार में पवित्र और कुछ नहीं। निस्संदेह आत्मा को प्रकाश से परिपूर्ण बनाने के लिए ज्ञान ही एकमात्र आधार होता है। अज्ञान को ही माया एवं भव बन्धन के नाम से पुकारते हैं और ज्ञान को मुक्ति का आधार माना गया है।”

शिक्षा और ज्ञान का अंतर्:

स्कूली पढ़ाई जिसमें गणित, भूगोल, इतिहास, साहित्य आदि की जानकारी कराई जाती है शिक्षा कहलाती है और जीवन का स्वरूप-उसका लक्ष, कर्तव्य एवं दृष्टिकोण निर्धारित करने संबंधी पढ़ाई को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान को ही अमृत कहते हैं। आत्मा का स्वरूप समझ कर उसके अनुरूप गतिविधियाँ अपनाने से मनुष्य महापुरुष ऋषि, युगदृष्टा और अवतार बन जाता है। आत्मोत्कर्ष ( ऊँचा उठना ) की सीढ़ी ज्ञान ही तो है। ज्ञान की आराधना इस विश्व का सबसे श्रेष्ठ सत्कर्म है। इसीलिए ज्ञान-दान महत्ता अत्यधिक मानी जाती है।

1.अन्न से शरीर की भूख मिटती है, ज्ञान से आत्मा की भूख शान्त की जाती है।

2.अन्न से शरीर पुष्ट होता है और ज्ञान से आत्मबल बढ़ता है।

3.अन्न, वस्त्र आदि के दान करने की अपेक्षा ज्ञान-दान का पुण्य असंख्यों गुना अधिक माना गया है।

4.अन्न के दान का फल मनुष्य को अन्य योनियों को दान करने से भी मिल सकता है परन्तु ज्ञान का फल मनुष्य योनि में ही प्राप्त हो सकता है।

इसलिए अन्न, जल, धन आदि से शरीर की आवश्यकताएं पूरी होती हैं। कुछ समय के लिए शारीरिक असुविधाएँ ही दूर हो जाती हैं। इसलिए अन्न दान का पुण्य फल भी सीमित ही माना गया है। ज्ञान-दान से आत्मा का विकास होता है तथा संसार में प्रेम, पुण्य, शान्ति और समृद्धि की बढ़ोत्तरी होने की व्यवस्था बनती है। इतने महत्वपूर्ण कार्य का प्रतिफल भी उसी के अनुरूप होना चाहिए। इसीलिए सब दानों से “ज्ञान-दान” की गरिमा अधिक है। सब दानियों में ज्ञान-दानी की प्रशंसा अधिक होती है। ब्राह्मण लोग निर्धन होते हुए भी निरन्तर ज्ञान-दान में लगे रहने के कारण भूसुर यानि पृथ्वी के देवता-जैसी गौरवशाली पदवी प्राप्त करते थे। इस ब्रह्मकर्म में रत रहने वाले ब्राह्मणों को भोजन कराने का भी पुण्य इसीलिए था कि उस अन्न से निर्वाह होने पर वे शरीर से अधिक ब्रह्म-कर्म कर सकते थे। ब्रह्म शब्द इतना विशाल और विस्तृत है कि इसको समझने के लिए उच्स्तरीय पात्रता/बुद्धि का होना अनिवार्य है लेकिन लेख के परिपेक्ष्य में ब्रह्म का अर्थ ‘ज्ञान’ भी कहा जा सकता है। ज्ञान की उपासना ब्रह्म की उपासना के रूप में ही की जाती है।

जिस प्रकार दैनिक जीवन में हम अनेकों कार्य नियमित रूप से करते हैं उसी प्रकार ज्ञान-यज्ञ के लिए भी कुछ समय निर्धारित करना चाहिए। उत्कृष्ट जीवन के लिए प्रेरणा देने वाले सद्ज्ञान को स्वयं पढ़ना-समझना और मनन-चिन्तन करना आत्म कल्याण की दृष्टि से आवश्यक है। सद्भावनाओं की शिक्षा दूसरों को देना परोपकार की सबसे पुनीत प्रक्रिया है। इन दोनों का समावेश ज्ञान यज्ञ में होता है। प्रेरणाप्रद सद् विचारों की सम्पत्ति अपने लिए जमा करना और उस श्रेय-साधन से दूसरों को लाभान्वित बनाना इतना श्रेष्ठ सत्कर्म है कि उसकी तुलना और किसी शुभ कार्य से नहीं हो सकती।

“ज्ञान यज्ञ की तुलना में अन्य सब यज्ञ तुच्छ ही माने जा सकते हैं।”

ज्ञान-यज्ञ में समय-रूपी घी की आहुतियाँ देनी पड़ती हैं। जिस प्रकार बिना घी यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सकता उसी प्रकार समय-दान के बिना कोई भी ज्ञान-यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकता। अग्निहोत्र में कुछ न कुछ धन खर्च करना ही पड़ता है उसी प्रकार ज्ञान-यज्ञ में समय लगाये बिना काम नहीं चल सकता। समय न मिलने का बहाना करके इस सत्कर्म के लाभ से वंचित ही रहना पड़ता है। स्वाध्याय के लिए, मनन चिन्तन के लिए कोई तो समय चाहिए ही। दूसरों को प्रेरणा देने के लिए उनके पास जाना, बैठना, चर्चा करना आदि समय लगाकर ही संभव होगा। सुबह से लेकर रात तक हम कमाते हैं -किसके लिए- शरीर के पोषण के लिए ,परिवार के पालन पोषण के लिए , पारिवारिक उत्तरदायित्व के लिए। ठीक इसी प्रकार आत्मा के लिए ज्ञान यज्ञ में भी कुछ समय लगाना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य समझना चाहिए। समय न मिलने का शाब्दिक अर्थ कुछ भी हो, वास्तविक अर्थ यह है कि उस कार्य को दूसरे कर्मों की अपेक्षा कम महत्व का समझा गया है। जो काम जरूरी प्रतीत होता है उसे अन्य सब काम छोड़ कर प्राथमिकता दी जाती है। बच्चा बीमार हो जाय, मुकदमे की तारीख हो, य व्यापार संबंधी कोई जरूरी काम आ जाय तो अन्य कामों को छोड़ कर भी हम पहले उसे करते हैं। शरीर में रोग उठ खड़ा हो तो सबसे पहले उसी की चिन्ता करते हैं। जो सबसे जरूरी काम समझा जाता है उसके लिए सबसे अधिक समय दिया जाता है। समय की प्रतीक्षा में वे कार्य पड़े रहते हैं जो अनावश्यक, महत्वहीन और उपेक्षणीय समझे जाते हैं। ज्ञान यज्ञ की पुण्य प्रक्रिया को इतना महत्वहीन नहीं समझा जाना चाहिए कि समय न मिलने का बहाना बना कर उससे पिण्ड छुड़ाना पड़े। स्नान, भोजन, शयन, नित्यकर्म जैसे आवश्यक कार्यों में ही हमें इस पुण्य-प्रक्रिया को भी अपने दैनिक कार्यों में प्रमुख स्थान देने का प्रयत्न करना चाहिए।

अन्य शुभ कार्य धन देने से भी हो सकते हैं जैसे कि धर्मशाला, मंदिर, कुआँ, तालाब, सदावर्त, प्याऊ, कथा, पाठ आदि के आयोजन पैसा खर्च करके बिना समय लगाये भी हो सकते हैं, पर कुछ काम ऐसे हैं जिनके लिए स्वयं ही कष्ट उठाना पड़ता है। हम में से बहुतों ने देखा होगा कि पैसे का इतना बोलबाला है कि दो करोड़ महामृत्युंजय मन्त्र य गायत्री महामंत्र, पैसे देकर पंडों से करवाए जाते हैं। मन्त्र करवाने वाले परिवार को कितना पुण्य प्राप्त होता है, यह तो चर्चा का विषय है, लेकिन हमारे समाज में इस प्रथा का प्रचलन है और रहेगा ,तब तक रहेगा जब तक परमपूज्य गुरुदेव जैसे क्रन्तिकारी विचारों वाले महामानव का इस धरती पर अवतरण नहीं होगा। हम सब गुरुदेव के सैनिक हैं और हमारे भी कुछ कर्तव्य हैं ,उत्तरदाईत्व हैं। कब तक हम इन दकियानूसी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए दूसरों का मुँह ताकते रहेंगें।

अपने मुँह से खाये बिना पेट नहीं भरता , स्वयं पढ़े बिना विद्या नहीं आती , स्वास्थ्य सुधारने के लिए स्वयं ही व्यायाम करना पड़ता है। यह कार्य दूसरों से नहीं कराये जा सकते। इसी प्रकार ज्ञान-यज्ञ के लिए अपनी अभिरुचि, अपनी श्रद्धा, अपना श्रम, अपना समय लगाना अत्यंत आवश्यक है।

युग-निर्माण योजना के अंतर्गत “आत्म-निर्माण की पुण्य-प्रक्रिया” का श्रीगणेश हमें आज से ही, अभी से ही आरम्भ करना चाहिए। इसका प्रथम चरण है ज्ञान-यज्ञ का आयोजन। भोजन की तरह ही सद्विचारों का अध्यन एक अनिवार्य आध्यात्मिक आवश्यकता समझा जाय और उसकी टाल मटोल किसी भी बहानेबाजी का सहारा लेकर न की जाय। यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि समय का सदुपयोग पेट के धंधे करते रहने में ही नहीं है।

भौतिक सम्पत्ति से सद्ज्ञान की दिव्य -सम्पत्ति का महत्व तनिक भी कम नहीं है। पैसे की कमाई ही दौलत नहीं कहलाती। सच्ची दौलत तो आन्तरिक सदवृत्तियों का बढ़ना ही है। नश्वर सम्पत्ति की तुलना में शाश्वत विभूतियों का मूल्यांकन कम नहीं किया जाना चाहिए।

सद्विचारों की दिव्य -सम्पत्ति से समृद्ध बनने के लिए, परिवार को सुसंस्कृत एवं सुविकसित बनाने के लिए, समाज में सभ्यता, सदाचार, विवेकशीलता जागृत करके स्नेह और सदाचार का वातावरण उत्पन्न करने का एक ही उपाय हो सकता है और वह है-“सद्भावनाओं की वृद्धि।” जिस प्रकार प्रयत्न करने से खेतों और कारखानों में पैदावार पढ़ाई जा सकती है उसी प्रकार मनुष्यों के मस्तिष्कों और अन्तःकरणों में भी सद्विचारों और सद्भावों का उत्पादन विशाल स्तर में किया जा सकता है। सच्ची लगन वाले मनुष्य निष्ठापूर्वक इस कार्य को अपने हाथ में लें तो आज की स्थिति बदल सकती है और स्वार्थ-परता का शुष्क श्मशान परमार्थ की सुरम्य हरियाली से हरा-भरा उद्यान बन सकता है। ज्ञान-यज्ञ का आयोजन इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए होना चाहिए। सर्वश्रेष्ठ सत्कर्म के रूप में हममें से प्रत्येक को इसे एक अत्यन्त आवश्यक धर्म कर्तव्य के रूप में अपनाना चाहिए।

ऑनलाइन ज्ञानरथ के सदस्यों के लिए यह guideline सहायक हो सकती। नए पाठकों को प्रेरित करते समय यह बताने की आवश्यकता है कि ज्ञान-यज्ञ के लिए कुछ नियत निर्धारित समय नियमित रूप से निकालना ही चाहिए और उसका उपयोग अपने सोशल सर्किल में ,परिवारों में ,सोशल मीडिया साइट्स के माध्यम से सद्भावनाएं उत्पन्न करने के लिए करना चाहिए। जिस प्रकार प्रत्येक सत्कार्य के आरंभ में हवन-पूजन आवश्यक होता है, युग-परिवर्तन का शुभारंभ हम ज्ञान-यज्ञ के द्वारा ज्ञान प्रसार से कर सकते हैं। इतना करना तो आवश्यक है इससे कम में काम नहीं चलेगा। तो आज के लिए इतना ही। जय गुरुदेव कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।

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