2 नवम्बर 2021का ज्ञानप्रसाद : 7 पारिवारिक उन्नति के लिए पंचशीलों का पालन –सरविन्द कुमार पाल
आज के ज्ञानप्रसाद में हम पांच विशेषताओं- अनुशासनों पर चर्चा करेंगें जिनका किसी भी कार्य क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान है। परिवार निर्माण में इन अनुशासनों की अधिक आवश्यकता है क्योंकि यहीं से तो समाज की ,राष्ट्र की, नींव डाली जाती है। हमने पंचशील नामक पांच अनुशासनों की सरल परिभाषा बनाने का प्रयास किया तो और ही अधिक confuse होने लगे क्योंकि यह बहुत ही विस्तृत विषय है। इसलिए बेहतर है कि आप सब हम दोनों भाइयों के प्रयास का अमृतपान करें और सूर्य भगवान् की प्रथम किरण से अपने दिन को और अधिक ऊर्जावान बनाएं।
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पारिवारिक उन्नति के लिए “पंचशीलों” का पालन करना अति आवश्यक है जिसमें परिवार के सभी सदस्यों को मर्यादित अनुशासन में रहना पड़ता है। यह कोई सामान्य सी बात नहीं है, इसका बहुत बड़ा गूढ़ रहस्य है जिसे जानना और समझना हमारा परम कर्त्तव्य है। पंचशील, परिवार का कुशल नेतृत्व करने में बहुत बड़ा हथियार है। पंचशील के द्वारा हम पारिवारिक उन्नति कर सकते हैं, पारिवारिक उन्नति से समाज की उन्नति है, समाज उन्नति से राष्ट्र की उन्नति है और राष्ट्रीय उन्नति से सम्पूर्ण विश्व की उन्नति सम्भव है।
“इससे वसुधैव कुटुंबकम का सिद्धांत चरितार्थ होता है”
परमपूज्य गुरुदेव ने आदर्श परिवार की दिशा में पाँच प्रमुख सत्प्रवृत्तियाँ लिखी हैं जिन्हें पंचशील कहा गया है। भगवान बुद्ध ने मनुष्य जाति का वर्गीकरण किया। कार्यक्षेत्र के हिसाब से इन वर्गों के लिए पाँच अनुशासन सुनिश्चित किए हैं। इन अनुशासनों का पालन करना ही शील है और संख्या पाँच होने के कारण इन्हें पंचशील कहा गया है। सत्प्रवृत्तियों की दृष्टि से पारिवारिक पंचशील निम्नलिखित पाँच प्रकार के हैं :
(1) सुव्यवस्था
(2) नियमितता
(3) सहकारिता
(4) प्रगतिशीलता
(5) शालीनता
गुरुदेव बताते हैं कि इन सिद्धांतों को अपनाने से व्यक्ति, परिवार व समाज को विकृतियों से बचने का भरपूर लाभ मिलता है। इन सिद्धांतों को अपनाने से चारों दिशाओं में उन्नति के द्वार खुलते हैं और उज्ज्वल भविष्य के पवित्र मार्ग पर चलने का सुअवसर मिलता है। जीवन में इन पांचों सिद्धांतों को उतारने के लिए आवश्यक है कि एक-एक करके इनकी चर्चा की जाए। हमें विश्वास है कि लगभग प्रत्येक पाठक इन सिद्धांतों का जानकार है लेकिन चर्चा से और स्पष्टता प्राप्त हो सकती है।
(1) सुव्यवस्था :
साधनों को सुनियोजित व सुव्यवस्थित रखने का नाम ही “सुव्यवस्था” है।वस्तुओं की “सुव्यवस्था” का ही दूसरा नाम “स्वच्छता” है,जो कि वस्तुओं को देखने में सुन्दर, सुसज्जित व नयनाभिराम बनाती हैं! इस प्रकार सुव्यवस्थित रखी हुई वस्तुएं अपनी मौन या मूक भाषा में यह दर्शाती हैं कि हम किसी सभ्य, सुशील व सुसंस्कृत हाथों की छत्रछाया में रह रही हैं। जहाँ वस्तुएं मैली-कुचैली, टूटी-फूटी, अस्त- व्यस्त की स्थिति में पड़ी रहती हों तो समझना चाहिए कि वहाँ पर आलस्य और प्रमाद का राज्य है। परम पूज्य गुरुदेव ने लिखा है कि कुरुपता व अस्वच्छता एक ही बात है। अतः “सत्यम शिवम सुंदरम” की प्राप्ति में प्रथम सौन्दर्य, द्वितीय श्रेष्ठ और तृतीय सत्य की प्राप्ति का क्रम है तथा इसी क्रम में सम्पूर्ण सृष्टि चल रही है। प्राकृतिक सुन्दरता विधि का विधान है। यह जो सृष्टि चल रही है उसका द्वितीय सृष्टा मानव है जो वस्तुओं को सुव्यवस्थित रखकर इस सृष्टि को सुन्दर बनाए रखता है। सुसज्जा सनातन से स्वच्छता व व्यवस्था का ही मिला-जुला स्वरूप है जिसे अपने जीवन में उतारने से सम्पूर्ण जीवन कृत- कृत हो जाता है।
(2) नियमितता :
श्रम और समय के समन्वय को “नियमितता” कहा जाता है। समय ही जीवन है और उसका एक-एक पल हीरे मोतियों से तोलने योग्य है। हम सबको इस दिव्य सम्पदा का एक क्षण भी गँवाना नहीं चाहिए। समय के मूल्य पर हर प्रकार की विभूतियाँ व सफलताएं प्राप्त हो सकती हैं। समय गँवाना अर्थात जीवन के ऐश्वर्य, वैभव व आनंद को बरबाद करना है। हम सबको यह सुनिश्चित करना चाहिए कि परिवार का कोई भी सदस्य व्यर्थ समय न बरबाद करे और इसे श्रम के साथ जोड़े क्योंकि श्रम से जी चुराना, बेकार के कामों में समय गुजारना व परिश्रम में अनादर अनुभव करना आदि ऐसे दुर्गुण हैं जिनके रहते दरिद्रता से छुटकारा नहीं पाया जा सकता है। मानव के सबसे बड़े दो शत्रु- “ शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद” ही हैं जिन्हें शरण देने वाला मनुष्य हमेशा परेशान रहता है। काम को भगवान की पूजा ( WORK IS WORSHIP ) माना जाए और काम में सम्मान का अनुभव किया जाए जिससे शरीर कमजोर नहीं ताकतवर बनता है। काम में नियमितता बनाए रखने से प्रतिष्ठा बढ़ती है। कामकाजी मनुष्य स्फूर्तिवान, दीर्घजीवी, समृद्धि- शाली और समुन्नत होते हैं और ऐसे मनुष्य दुर्गुण व दुर्व्यसन से कोसों दूर रहते हैं।
समृद्धि, प्रगति व सफलता “साधना” से ही संभव हो पाती हैं। साधना को अंग्रेजी में MEDITATION कहते हैं। हम सब अपने ह्रदय में झांक कर देखें कि जिसने भी समय का MEDITATION की तरह सदुपयोग किया, सफलता ने उसके चरण चूमे हैं कि नहीं । आलसी, प्रमादी, कामचोर अभागे ही होते हैं जो अपने पैरों पर आप ही कुल्हाड़ी मारते हैं और कोसते हैं भविष्य और प्रारब्ध को। ऐसे लोग आत्मप्रताणना व लोकभर्त्सना (self-incrimination and public condemnation ) का त्रास सहते हैं और उनका भविष्य अंधकारमय होता है। समय के सदुपयोग का महत्व जिसने जान लिया और दिनचर्या बनाकर योजनाबद्ध तरीके से काम करने का अभ्यास कर लिया तो समझना चाहिए कि उज्ज्वल भविष्य की कुंजी उसके हाथ लग गई।
हम अपने सहकर्मियों से करबध्द अनुरोध करते हैं कि हमें परिवार में व्यस्त रहने का स्वभाव बनाना चाहिए, हर काम समय पर नियमितता पूर्वक करने का प्रयास करना चाहिए। अगर किसी कारणवश ,किसी विवश परिस्थिति में अनियमितता आ भी जाए तो परिवार के किसी भी सदस्य को सूचित किया जा सकता है।
(3) सहकारिता:
सहकारिता उन्नति का मूलमंत्र है और इसकी अनुपस्थिति में उन्नति नगण्य है। सहकारिता अपनाने से सहानुभूति व सद्भावना की वृद्धि होती है , नजदीकता आती है और घनिष्ठता बढ़ती है। परिवार में एक साथ मिलजुल कर काम करने से, काम का आनंद व स्तर दोनों बढ़ते हैं। परिवार का प्रत्येक सदस्य इस सामूहिक प्रयास को अपना ही कार्य समझकर करता है। सहकारिता से काम करने पर और अधिक ज्ञानवान लोगों से सीखने को मिलता है तथा कम ज्ञानवान लोगों को सीखने/सिखाने का सुअवसर मिलता है। ऑनलाइन ज्ञानरथ की कार्यशैली पर यह पंक्तियाँ 100% पूरी उतरती हैं। हमें गर्व है कि हमारे सहकर्मी हमारी सभी योजनाओं और सुझावों को सम्मान देते हुए नियमितता से पूरा कर रहे हैं। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं – अधिक अनुभवी लोगों को कम अनुभवी लोगों की स्थिति के अनुरूप सहायता करने का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि परिवार का प्रत्येक सदस्य किसी दूसरे का पूरक होता है। इसलिए अधिक पढ़े ,कम पढ़ों को पढ़ाया करें और एक-दूसरे के कार्यों में हाथ बँटाया करें। ऐसी सहकारिता से परिवार के एकाकीपन को दूर किया जा सकता है। परिवार व्यवस्था के प्रत्येक कार्य की सफलता के लिए सहकारिता को यथासंभव अधिकाधिक स्थान दिया जाना निहायत आवश्यक है जो पारिवारिक उन्नति में सहायक है।
(4) प्रगतिशीलता:
परिवार के सभी सदस्यों को ज्ञान होना चाहिए कि भौतिक दृष्टि से आगे बढ़ने और आत्मिक दृष्टि से उँचे उठने की प्रक्रिया को प्रगतिशीलता कहते हैं। प्रगति के लिए हम सबको आवश्यक योग्यता बढ़ाने में ही अपनी मनास्थिति नियोजित करनी चाहिए। सफलताओं की लालसा तभी सार्थक है जब उसके उपयुक्त परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए मजबूत प्रयास किया जाए। प्रगति के लिए परिस्थिति और योग्यता दोनों का अपना-अपना योगदान है। योग्यता के बिना केवल परिश्रम से सफलता मिल पाना असम्भव है। परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि परिवार के सदस्यों को सुशिक्षित बनाने के लिए अध्ययन का, बलिष्ठ बनाने के लिए व्यायाम का, कुछ कमाने के लिए गृह-उद्योगों का, शिल्प-कौशलों का व गायन-वादन की तरफ रुचियाँ बढ़ायी जाएं और उनके लिए साधन जुटाए जाएं ताकि अगले दिनों अधिक सुयोग्य बनाने के अवसर प्राप्त हो सकें। कभी-कभी धन-सम्पदा की इच्छा इतनी प्रबल हो जाती है कि योग्यता बढ़ाने और परमार्थ परायण कार्य करके पुरुषार्थ कमाने को छोड़ कर अनीतिपूर्वक सफलता पाने की इच्छा उठने लगती है। इसलिए योग्यता बढ़ाने के लिए प्रत्येक परिवार में कुछ न कुछ प्रयत्न करना अत्यंत आवश्यक है। उच्च शिखर पर पहुँचने व आगे बढ़ने के लिए कहाँ, किस प्रकार, क्या हो सकता है, इसके मार्गों को खोजने के प्रयास करने चाहिए। ऐसा करने से पारिवारिक उन्नति में आशातीत सफलता मिल सकती है।
(5) शालीनता :
परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं – शिष्टता,सज्जनता,मधुरता,नम्रता आदि सद्गुणों के समुच्चय को “शालीनता” कहते हैं। ईमानदारी, प्रामाणिकता, नागरिकता व सामाजिकता की मर्यादाओं को निष्ठापूर्वक अपनाना शालीनता का प्रतीक है। दूसरों का सम्मान करने और अपने को विनम्र सिद्ध करने के लिए वाणी में मधुरता , व्यवहार में शिष्टता का समावेश होना बहुत ही आवश्यक है। उदारता,सेवा व सहायता से ही दूसरों का स्नेह, सम्मान व सहयोग मिलते हैं। दूसरों को अपना बनाने की जितनी शक्ति शालीनता में है, उतनी ताकत प्रलोभन देकर फुसलाने तथा दबाव देकर विवश करने में नहीं है। जन-जन के मन पर आधिपत्य स्थापित करने की असाधारण विशेषता को शालीनता कहा जा सकता है। परिवार के हर सदस्य को इस विशेषता से परिचित और अभ्यस्त कराया जाना चाहिए।
पारिवारिक उन्नति के लिए पंचशीलों का किस घर में किस प्रकार का अभ्यास किया जाए, इसके लिए कोई ऐसा नियम बनाना जो समान रूप से सब पर लागू हो असंभव है , क्योंकि हर परिवार की स्थिति अलग होती है। इसलिए निर्धारण व क्रियान्वयन परिस्थितियों के अनुरूप ही किया जाना चाहिए।
पंचशीलों में जिन पाँच सत्प्रवृत्तियों का उल्लेख किया गया है उनको परिवार के सभी सदस्यों के स्वभाव का हिस्सा बनाने के लिए ऐसी गतिविधियों को पैदा करना होगा जिनके सहारे उन्हें परिवार के सदस्यों के स्वभाव का हिस्सा बनाया जा सके। परिवार के वरिष्ठ सदस्यों को समय की कमी का रोना नहीं रोना चाहिए क्योंकि धन कमाना ही एकमात्र कार्य नहीं है। धन से परिवार के भरण पोषण की ज़रूरतें तो पूरी की जा सकती है लेकिन संस्कारों का विकास कहीं और नहीं हो सकता है। परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि अगर लोगों को यह बात समझ आ जाए तो यह स्वीकारना बहुत ही आसान हो जायेगा कि गुण, कर्म व स्वभाव के समन्वय से बना हुआ व्यक्तित्व ही परिवार की वास्तविक पूंजी है।
जिसके पास यह वैभव जितनी मात्रा में होगा, वह मनुष्य उसी अनुपात में प्रभावशाली, संपत्तिशाली व सौभाग्यशाली बनेगा। अगर आप सही मायनों में परिवार का भला चाहते हैं तो उनके लिए साधन- सुविधा जुटाने तक ही सीमित न रह कर संस्कारों के संवर्धन का कार्य भी हाथ में लेना चाहिए। संस्कार संवर्धन का कार्य केवल परिवार ही कर सकता है ,परिवार के सदस्य ही कर सकते हैं कोई और दूसरा नहीं।
अंत में परमपूज्य गुरुदेव मार्गदर्शन देते हैं कि यदि परिवार के सदस्यों को इन पांच विभूतियों से अलंकृत करने का प्रयास चलता रहे,तो समय-समय पर सदस्यों की कमियों का ज्ञान भी होगा और उन कमियों को पूरा करने के प्रयास भी ढूढ़ने होंगें। पंचशीलों से परिवार को भरने का प्रयास ऐसा ही है जैसे पाँच रत्नों के भंडार से घर को भरना और कुबेर से और अधिक वैभववान बनना। परिवार एक ऐसी अनमोल धरोहर है जहाँ अनुभवी शिल्पकार अच्छे व संस्कारित नागरिक को घड़ने का अद्भुत,अनवरत प्रयास रहते हैं। भक्त, ज्ञानी, संत, महात्मा, महापुरुष, विद्वान व पंडित परिवार से ही निकलकर आते हैं और उनके जन्म से लेकर शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण व ज्ञानवर्धन आदि के सभी कार्य परिवार में रहकर ही पूरे होते हैं। परिवार के बीच ही मनुष्य की सर्वोपरि शिक्षा होती है।
इन्ही शब्दों के साथ आज के ज्ञानप्रसाद को विराम देते हैं।
जय गुरुदेव
कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।