14 अक्टूबर 2021 का ज्ञानप्रसाद : कर्म और भाग्य में कौन श्रेष्ठ ? पार्ट 1
आज के ज्ञानप्रसाद में एक बहुचर्चित टॉपिक “कर्म और भाग्य” का चयन किया है। करील वृक्ष और चातक पक्षी -दो पौराणिक कथाओं का सहारा लेकर भाग्य,कर्म,नियति ,प्रारब्ध इत्यादि दैनिक जीवन में प्रयोग किये जाने वाले शब्दों को समझने का प्रयास किया गया है। इतने विशाल टॉपिक को एक य दो लेखों में निचोड़ना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य ही है। कल इसी लेख का दूसरा पार्ट प्रस्तुत करेंगें।
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आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार गर्भ गृह में प्रवेश करते ही जीव की आयु,धन-वैभव, बुद्धि ,विद्या और मृत्यु आदि सभी का निर्धारण हो जाता है। अर्थात जीव के जीवन की अवधि, कर्म द्वारा प्राप्त की जानेवाली उपलब्द्धियाँ, धन-वैभव की सम्पन्नता अथवा हीनता, व्यवहारिक बुद्धि और शिक्षा, मृत्यु रूप में शरीर छोड़ने का समय माता के गर्भ में प्रवेश करते ही निर्धारित हो जाता है।
साधारणतया लोगों के मन में यह बात सुदृढ़ लगती है कि मानव के भाग्य का निर्माता परमात्मा है। यदि ऐसा होता है तो मनुष्य द्वारा किये गए शुभ-अशुभ कर्मो का फल क्यों भोगना पड़ता है। अगर सब कुछ भाग्य पहले ही ,माता के गर्भ में ही निर्धारित कर चुका है तो हमें किसी बात का डर तो होना ही नहीं चाहिए।
लेकिन जितना भाग्य का रोल है उतना ही कर्म का भी रोल है। यह बात सत्य है कि मनुष्य का भाग्य परमात्मा द्वारा तय है और उसके समस्त कर्म भी परमात्मा की इच्छा से ही संपन्न होते हैं। जन्म के समय जिस प्रकार की बुद्धि ,सोचने समझने की शक्ति ,विवेक आदि मिलते हैं उसी तरह का कर्म भी तो साथ में ही तय हो जाता है। लेकिन यहाँ एक और चीज़ चर्चा करने योग्य है – वह यह कि मनुष्य को केवल कर्म करने की ही स्वतंत्रता है ,कर्मफल की नहीं। इसलिए वह अपने संस्कारों के अनुसार अच्छे- बुरे कर्मो का चयन करता है और अंत में प्राप्त हुए फलों को भोगता है।
निष्काम कर्म :
अगर हम गीता उपदेश की बात करें तो उसमें न केवल कर्म करने पर बल दिया गया है बल्कि ,निष्काम कर्म पर उससे अधिक भी बल दिया गया है। निष्काम का अर्थ होता है बिना किसी कामना के कर्म करना। जब निष्काम कर्म की बात आती है तो एक बहुत बड़ा प्रश्न उठता है कि कर्मफल की चिंता किये बिना कोई कर्म क्यों करेगा। क्या हम अपने बच्चों को कह सकते हैं कि रिजल्ट की चिंता किये बिना पढ़ाई करते रहो क्योंकि परिणाम तो आपके हाथ में है ही नहीं – बच्चा आगे से पूछता है की अगर रिजल्ट की चिंता ही नहीं करनी तो फिर आप शर्मा जी के बेटे का उदाहरण क्यों देते हो कि उसने दिन -रात मेहनत की और IIT में एडमीशन प्राप्त की। गीता उपदेश के द्वारा हम सब भलीभांति परिचित हैं : अर्जुन ने जब भगवान श्री कृष्ण से पूछा,” कर्मफल के बिना कोई कर्म क्यों करेगा ? “ तो भगवान कहते हैं “तुझे केवल कर्म करने की स्वतंत्रता है ,कर्मफल तुम्हारे हाथ में नहीं है “ जब कोई बुरी घटना होने वाली होती है, उस समय मानव की बुद्धि उसी के अनुरूप परिवर्तित हो जाती है। उसी के अनुसार साधन बनने लगते हैं। अतः असहाय होकर मानव गलती करने के लिए बाध्य हो जाता है और प्राप्त हुए परिणामो का भोगी बनता है।
शिष्य ने गुरु से प्रश्न किया कि “यदि सब कुछ भाग्य पर आश्रित है तो कर्म की क्या आवश्यकता है ?” मुस्कुराते हुए गुरु ने शिष्य की जिज्ञासा निवारण के लिए यह दो उदाहरण दिए :
वसंत ऋतु में सभी पेड़ों पर नए- नए पत्ते आ जाते हैं, परन्तु करील एक ऐसा वृक्ष है जिस पर पत्ते नही आते हैं। ऐसी स्थिति में क्या वसंत ऋतु को दोषी माना जा सकता है ? स्वाति नक्षत्र में होने वाली वर्षा की बूंदे चातक पक्षी की प्यास बुझाती है। फिर भी किसी- किसी चातक पक्षी के मुख में वे बूंदे नहीं पहुँच पातीं तो क्या उसके लिए स्वाति नक्षत्र को दोषी मानना उचित होगा ? अर्थात क्या हम यह मान कर चल सकते हैं कि भाग्य में जो कुछ निर्धारित हो गया है, उसका घटित होना निश्चित है। कदापि नहीं, इसके पीछे प्रारब्ध का विशेष महत्व है क्योंकि प्रारब्ध जब प्रबल हो जाता है तब सकारात्मक भाव पैदा होने लगते हैं और उस समय पुरुषार्थ की भावना प्रबल हो जाती है। पुरुषार्थ भावना एक ऐसी शक्ति है जो समस्त नकारात्मक भावों को नष्ट करके अशुभ भाग्य को शुभ भाग्य में परिवर्तित कर देती है।
दुर्लभ करील वृक्ष की पौराणिकता :
घुइसरनाथ धाम, प्रतापगढ़ (UP), बेल्हा भगवान श्रीराम के आदर्शो का गवाह है। सई नदी के तट पर स्थित करील का वृक्ष पौराणिकता का एक अद्भुत प्रतीक है। नदी के एक छोर पर जहां शिव लिंग है वहीं दूसरे छोर पर है दुर्लभ करील का वृक्ष। शायद ही ऐसा संयोग किसी अन्य धार्मिक स्थल पर देखने को मिले। द्वादश ज्योर्तिलिंग के रूप में चर्चित घुश्मेश्वरनाथ धाम के समीप स्थित दुर्लभ करील का वृक्ष इस धाम की पौराणिकता की अलग ही कहानी बयान करता है। लालगंज तहसील मुख्यालय से 10 किमी की दूरी पर स्थित पौराणिक स्थली बाबा घुइसरनाथ धाम पर बने सई नदी के पुल के पास तट पर स्थित दुर्लभ करील के वृक्ष की छाया में भगवान राम ने वन गमन के समय विश्राम किया था। विद्वान आचार्यों के अनुसार त्रेता युग में भगवान श्री राम वन को जा रहे थे तो उन्होने इसी वृक्ष के नीचे विश्राम किया था। चूंकि उन्होने सभी सुख भोगों से वंचित रहने का प्रण लिया था इसलिए भगवान राम ने फूल, फल, पत्ती विहीन इस उदासीन वृक्ष के नीचे ही विश्राम करना उचित समझा। प्रसिद्ध ग्रंथ राम चरित मानस में भी करील का वर्णन है। वन गमन के समय सीता जी को समझाते हुए भगवान राम ने कहा था :
नव रसाल वन विहरन शीला सोह कि कोकिल विपिन करीला।
अर्थात नवीन आम के वन में विहार करने वाली कोयल क्या करील के जंगल में शोभा पायेगी ? किंवदन्ती है कि स्थानीय लोग यदि एक दिन पहले जाकर मन्नत मांगते हुए दूसरे दिन पूजा अर्चना करने को ठानते हैं तो यह पौराणिक वृक्ष उनकी मनोकामना पूरी करता है। धाम से थोड़ी दूरी पर स्थित सियरहिया गांव का नाम भी भगवान राम के इस मार्ग से जाने की पुष्टि करता है। विद्वानों का मत है कि करील का पेड़ घुइसरनाथधाम के साथ ही वृंदावन में पाया जाता है।
चातक ,एक स्वाभिमानी पक्षी :
चातक एक पक्षी है। इसके सिर पर चोटीनुमा रचना होती है। भारतीय साहित्य में इसके बारे में ऐसा माना जाता है कि यह वर्षा की पहली बूंदों को ही पीता है। अगर यह पक्षी बहुत प्यासा है और इसे एक साफ़ पानी की झील में डाल दिया जाए तो भी यह पानी नहीं पिएगा और अपनी चोंच बंद कर लेगा ताकि झील का पानी इसके मुहं में न जा सके।
“एक एव खगो मानी चिरंजीवतु चातकम्। म्रियते वा पिपासार्ताे याचते वा पुरंदरम्।।”
अर्थात “चातक ही एक ऐसा स्वाभिमानी पक्षी है, जो भले ही प्यासा हो या मरने वाला हो, वह इन्द्र से ही याचना करता है, किसी अन्य से नहीं अर्थात केवल वर्षा का जल ही ग्रहण करता हैं, किसी अन्य स्रोत का नहीं।” जनश्रुति के अनुसार चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र में बरसने वाले जल को बिना पृथ्वी में गिरे ही ग्रहण करता है, इसलिए जल की प्रतीक्षा में आकाश की ओर टकटकी लगाए रहता है। वह प्यासा रह जाता है लेकिन ताल तलैया का जल ग्रहण नहीं करता।
उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में चातक पक्षी को चोली कहा जाता है। जिसके बारे में लोक विश्वास है कि यह एकटक आकाश की ओर देखते हुए विनती करता है कि ‘सरग दिदा पाणी दे पाणी दे’ अर्थात आकाश भाई पानी दे, पानी दे।
चोली के जन्म के विषय में गढ़वाल क्षेत्र में एक रोचक कथा प्रचलित है।
गढ़वाल क्षेत्र के किसी हरे भरे गांव में एक बुज़ुर्ग महिला अपनी युवा बेटी और बहू के साथ बहुत ही हंसी खुशी के दिन बिता रही थी। वह बहू और बेटी के बीच कोई मतभेद नहीं करती थी। दोनों में अंतर था तो बस यही कि बहू अपना काम पूरी ईमानदारी और तन्मयता से संपन्न करती थी जबकि बेटी उसे जैसे तैसे फटाफट निपटाने की फिराक में रहती। बुज़ुर्ग मां इस बात के लिए बेटी को कई बार टोक भी चुकी थी और बार-बार उसे अपनी भाभी से सीख लेने के लिए कहती थी, लेकिन उसके काम पर जूं तक न रेंगती। एक बार की बात है, गर्मियों के मौसम में लगातार कोल्हू पेरते पेरते बैल थक गए। माँ को समझ में आ गया कि बैल प्यासे हैं, लेकिन घर में बैलों को पिलाने लायक पर्याप्त पानी नहीं था। बैलों की प्यास बुझाने का एकमात्र उपाय था, उन्हें पहाड़ी पर स्थित नदी तक ले जाना जो गांव से लगभग एक डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर थी । जेठ महीने की भरी दोपहर में बैलों को नदी तक ले जाकर पानी पिला लाना अपने आपमें बहुत ही कठिन काम था। तपती दोपहर में बैलों को लेकर बहू को भेजे या बेटी को, इस बात को लेकर माँ मुश्किल में पड़ गई। दोनों में से किसी एक को भेजना उसे उचित नहीं लग रहा था। अंत में सोचकर उसने एक युक्ति निकाल ही ली। उसने बहू और बेटी दोनो को प्रलोभन देते हुए कहा कि वे दोनों एक-एक बैल को पानी पिलाकर ले आएं और जो पहले पानी घर लौटेगा उसे गरमागरम हलुआ खाने को मिलेगा। हलुए का नाम सुनते ही दोनों के मुंह में पानी भर आया। बहू और बेटी दोनों ही अपने-अपने बैल लेकर नदी की ओर चल पड़ीं। बहू बिना कुछ सोचे अपने बैल को हांके जा रही थी जबकि बेटी का चालाक दिमाग बड़ी तेजी से कोई उपाय तलाश रहा था। अंत में मन ही मन कुछ सोचकर वह भाभी से बोली कि दोनों अलग-अलग रास्तों से जाते हैं, देखते हैं पहले कौन पहुंचता है। सीधी सादी भाभी ने चुपचाप हामी भर ली। बेटी को तो रह- रहकर घर में बना हुआ गरमा गरम हलुआ याद आ रहा था। ऊपर से गरमी इतनी ज्यादा थी कि उसका नदी तक जाने का मन ही नहीं हो रहा था। अचानक उसे अपनी बेवकूफी पर हंसी भी आई और गुस्सा भी। वह सोचने लगी जानवर भी क्या कभी बोल सकता है। किसे पता चलेगा कि मैंने बैल को पानी पिलाया भी नहीं। मां से जाकर कह दूंगी कि बैल को पानी पिला आयी । यह विचार आते ही बिना आगा पीछा देखे उसने बैल को घर की दिशा में मोड़ दिया। बेचारा प्यासा बैल बिना पानी पिए ही घर की ओर चलने लगा। बेटी को देखते ही मां ने प्रसन्न होकर पूछा, “बेटी पानी बैल को पानी पिला कर ले आयी ।” हां मां ,कहते हुए वह सीधे हलुए की ओर लपकी। खूंटे पर बंधा प्यासा बैल उसे मजे से हलुआ खाते देख रहा था लेकिन वह बेजुबान कुछ बोल न सका। प्यास के मारे थोड़ी ही देर में उसके प्राण पखेरू उड़ गए। वह मरते समय लड़की को शाप दे गया कि जैसे तूने मुझे पानी के लिए तरसाया, वैसे ही तू भी चोली बनकर बूंद बूंद पानी के लिए तरसती रहना। कहते हैं कि लड़की बैल के शाप से उसी समय चोली बन गई और पानी के लिए तरसने लगी। ताल तलैये पानी से भरे थे लेकिन उसे उनमें जल के स्थान पर रक्त ही रक्त नजर आ रहा था। तब से वह आसमान की ओर टकटकी बांधे आज भी चिल्लाती रहती है। ‘सरग दिदा पाणी दे पाणी दे।’ अर्थात आसमान भाई पानी दे दे।
इस लेख को कल भी जारी रखेंगें ,जय गुरुदेव