वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

ऋतंबरा -प्रज्ञा की सरलतम चर्चा 

12 अक्टूबर का ज्ञानप्रसाद – ऋतंबरा -प्रज्ञा की सरलतम चर्चा 

हो सकता है आज के लेख का हर कोई वाक्य आपको  बार-बार पढ़ना पढ़े , बहुत गूढ़ है।  शब्दसीमा के कारण भूमिका ले लिए कोई स्थान नहीं बचा। 

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ज्ञान अनंत है -इसका कोई अंत नहीं 

कभी भी किसी ज्ञान को अंत नहीं कहना चाहिए क्योंकि अगर भगवान  ही अनंत हैं ,रचियता का ही कोई अंत नहीं है तो हम यह तो कह सकते हैं  ज्ञान श्रेष्ठ है, हम कह सकते हैं कि  हम ज्ञान की श्रेष्ठम स्थिति पर हैं लेकिन यह कभी नहीं कह सकते कि ज्ञान का अंत हो गया है।  गायत्री की साधना से ऋतम्भरा प्रज्ञा को सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। गायत्री साधना करते ही  मनुष्य के जीवन में धीरे -धीरे परिवर्तन होने शुरू हो जाते  हैं, ऐसे परिवर्तन जो बाहरी  आदतों को भले ही जल्दी न बदल पाएं लेकिन मनुष्य के भीतर प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती  है। उसकी बोलचाल में,व्यवहार में ,आदतों में भले ही कोई परिवर्तन न दिखे  लेकिन भीतर से बदलाव  आना आरम्भ हो जाता है।  

एक बार हमें किसी ने कमेंट करके पूछा  था कि  मनुष्य को आध्यात्मिक कैसे बनाया जा सकता है ? हमने कहा था कोई नहीं बना सकता , कोई ऐसी तकनीक नहीं है ,कोई सर्जरी नहीं है। जिससे overnight  कुछ प्राप्त हो सके।  हमारे लेख हों य वीडियो हों य कोई भी ज्ञान हो सभी आपको आध्यात्मिकता को ओर प्रेरित तो अवश्य  ही  कर सकते हैं लेकिन उसमें भी एक बहुत बड़ी शर्त है ,वह शर्त यह है कि किसी भी ज्ञान का नियमितता से अध्यन करना चाहिए। यह नहीं कि कभी स्वाध्याय कर लिया कभी नहीं।  इसके साथ ही मिलती एक और शर्त है कि यह प्रत्यावर्तन  एक -दो दिन में होने वाला नहीं ,आज के युग में तो सब कुछ इंस्टेंट ही हो रहा है ,लेकिन आध्यात्मिकता में ऐसा  कदापि नहीं है। 

आध्यात्मिकता की अग्नि :

आध्यत्मिकता की दिशा में जाने के लिए ,मार्गदर्शन के लिए केवल एक ही चीज़ है  जो आपको बदल सकती है और वह है अग्नि ,भीतर की अग्नि ,भीतर की पिपासा बहिर  की चीज़ें तो थोड़ी देर के लिए औपचारकता के तौर पर हैं। दूषित अग्नि को परिष्कृत करना ही सबसे बड़ा आध्यात्मिक कार्य है। टायर जलने से धुआं उठता है और यज्ञ में भी धुआं उठा है लेकिन एक दूषित अग्नि है और दूसरी परिष्कृत अग्नि है।  यज्ञ की अग्नि में  कोई दोष नहीं है यह  केवल संवर्धन के लिए है ,सृजन के लिए है। मनुष्य भी अग्नि से संचालित है । मनुष्य के भीतर जब दूषित अग्नि जलती है तो टायर जलता है जब अच्छी अग्नि जलती है तो मनुष्य  परिष्कृत हो जाता है, सुगन्धि आती है।  हमने भी यही बदलाव अपने अंदर लाना है, अपने अंदर यज्ञ करना है । दूषित क्रिया से परिष्कृत क्रिया की ओर जाने के लिए उठ रही यह  तड़प  गायत्री साधना  के माध्यम से ही संभव है।  यह सब धीरे -धीरे  संभव हो पाता  है ,एक दिन में नहीं हो सकता।  धीरे -धीरे मनुष्य अपने अंदर से ही बहुत सी बातें  नकारना आरम्भ कर देता है।  भले ही गायत्री साधक बाहिर  से गलत कार्य करे, अंदर से ,उसके अन्तः करण से एक आवाज़ आनी  आरम्भ होती है कि यह कार्य गलत है , उसका मन उसको कचोटना ,धिक्कारना  आरम्भ कर देता है, अपनेआप को आड़े हाथों लेना आरम्भ करता है।

जब ऐसी स्टेज आ जाये तो समझ लेना चाहिए कि अध्यात्म की अग्नि प्रज्वलित होना आरम्भ हो गयी है। बाहरी दुनिया  में ऐसा मनुष्य अपने आप को जस्टिफाई करता ही रहेगा ,वह कहता ही रहेगा की मैं ठीक हूँ ,मैंने सब कुछ ठीक ही किया है ,लेकिन अंदर से उसकी अंतरात्मा डांट /फटकार रही  होती है। यही है  भीतर  की  अग्नि की शक्ति है।  बाहिर की अग्नि ऐसा परिवर्तन नहीं ला सकती, हाँ कुछ समय के लिए रोक अवश्य सकती है।  यह बिलकुल  उसी तरह है जैसे आप धूप  में बैठे हैं ,धूप  सेक रहे हैं ,आप उठ कर अंदर चले जाते हैं तो आपको ठण्ड लगनी आरम्भ हो जाती है। धूप  की गर्मी तब तक ही है जब तक आप धुप में बैठे हैं।  हमारे लेखों का प्रभाव आपके ऊपर तब तक ही है जब तक आप पढ़  रहे हैं ,बाद में कुछ और आ गया ,प्रभाव खत्म हो गया। इसीलिए यह अतिआवश्यक हो जाता है कि आपसे हमारा सम्पर्क अनवरत एवं नियमित बना रहे -चाहे यह सम्पर्क  दैनिक लेख के माध्यम से हो ,वीडियो के माध्यम से हो ,अपडेट के माध्यम से हो, अपनों से अपनी चर्चा के माध्यम से हो ,शुभरात्रि सन्देश माध्यम से हो य फिर फ़ोन/वीडियो कॉल माध्यम से हो। 

इम्युनिटी : 

मनुष्य के अंदर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता (immunity) ही सबसे बड़ी औषधि  है। हमारे  शरीर के अंदर प्रकृति ने ही कुछ ऐसी तत्वों का वरदान दिया है जो immunity बढ़ाने में , बिमारियों से लड़ने में हमारी सहायता करते हैं। हमारे यहाँ तुलसी का  बड़ा महत्व है ,ऐसा माना  जाता है कि तुलसी से बढ़कर कोई औषधि नहीं है। ऐसा ऋषियों ने भी माना  है कि  तुलसी एकमात्र ऐसी औषधि है जो इम्युनिटी बढ़ाती  है। इम्युनिटी अंदर से विकसित होती  है ,बाहिर से तो बहुत कम प्रभाव होता है

क्या है ऋतम्भरा -प्रज्ञा ? 

यह है गायत्री की साधना।  ऋतम्भरा  प्रज्ञा को प्राप्त होना, जिसका  का अर्थ यह है कि मनुष्य प्रकृति की अनेकों हलचलों को समझना आरम्भ कर देता  है, आसपास के दृश्यों के प्रति उसकी दृष्टि बदल  जाती है। किसी के प्रति आपकी धारणा कौन बनाता  है। दृष्टि ही तो बनाती है। आसपास के लोगों के प्रति कैसा सोचना है, उनके शब्दों पर प्रतिक्रिया कैसे  करनी है, व्यर्थ की बहस से कुछ नहीं निकलेगा ,हमें क्या लेना है, छोड़ो परे की स्थिति बन जाती है। जब दृष्टि बदल जाती है तो किसी के कड़वे शब्द भी थोड़ी देर के लिए ही व्यथित करते  हैं , किस की दुर्भावनाओं को भी व्यक्ति थोड़ी देर में है समाप्त  कर देता है।  1951 की बॉलीवुड मूवी “बड़ी बहु” का सुप्रसिद्ध गीत-बदली तेरी नज़र तो नज़ारे बदल गए- की चर्चा हम अपने लेखों में कई बार कर चुके हैं।   

दृष्टि का दोष मिटाना , अंदर उठ रही अग्नि को परिष्कृत करने का कार्य गायत्री साधना करती है  और धीरे -धीरे जब दृष्टि परिष्कृत होती है तो जो सत्य अवतरित होता है वही ऋतंबरा  है और ऋतंबरा-प्रज्ञावान  व्यक्ति न केवल सत्य को जानता  है, सत्य के  द्वारा अपने अंदर परिवर्तन भी ला सकता है। वह सृष्टि की शक्तियों को  पहचानता है। सत्य माने प्रकृति  की हलचलों में परिवर्तन ला सकता है ,वह लाता  है कि नहीं यह अलग बात है लेकिन वह ऐसा “अकर्ता” बन जाता है जो कर्म तो  सारे पूरे करता है लेकिन अकर्ता भाव से। सबसे श्रेष्ठ कर्ता कौन ? जो अकर्ता भाव से कर्म करता है, जो अपनी ड्यूटी पूरी श्रद्धा से करता है लेकिन करता है  अकर्ता भाव से। 

यहाँ पर हम आपसे एक छोटे से अल्पबुद्धि, अल्पज्ञान  अध्यापक के तौर पर  एक छोटा सा निवेदन करना चाहेंगें – इसे आज की क्लास का होमवर्क समझा जा सकता है । 

गीता के छठे अध्याय का पहला श्लोक  पढ़  लेना, समझ लेना। इंटरनेट पर सर्च करके कहीं भी मिल सकता है। 

इस श्लोक में  ऋतंबरा प्रज्ञा के भाव को समझाया गया है। यहाँ  न तो ऋतंबरा शब्द मिलेगा और न ही प्रज्ञा शब्द  लेकिन इन दोनों शब्दों का  प्रसाद अवश्य ही  मिलेगा। ऋषि वेदव्यास  जी ने भगवान कृष्ण के मुख से यह कहाया है कि सन्यासी वोह नहीं,  योगी वह नहीं जो अग्नि नहीं जलाएगा ,कर्म नहीं करेगा । वह  निरग्न ( without fire ) है। जो अग्नि नहीं जलाएगा , भिक्षा मांग कर अपना पेट भरेगा वह न तो सन्यासी है ,न ही योगी है। सन्यासी और योगी वही कहलाने का हक़दार है जो अकर्ता होकर अपनी ड्यूटी ,अपना कर्म ,अपनी obligation पूरी करता है।  जोगिया वस्त्र जिसे पहनकर एक सन्यासी बनता है ,योगी बनता है भगवान ने इस मर्म को अलग कर दिया है। तुम अग्नि न जलाओ ,कोई कर्म न करों ,जोगिया वस्त्र पहन  लो और कहो कि हम योगी हैं। बिलकुल नहीं -सन्यासी और योगी होने के लिए कोई ड्रेस कोड  आवश्यक नहीं है , आवश्यक है केवल अकर्ता होकर कर्म करना, बिना किसी कर्मफल की इच्छा के कर्म करना। यह प्रसाद उसी की बुद्धि का प्रसाद है जो व्यक्ति ऋतंबरा-प्रज्ञा को प्राप्त  हो गया है। 

कम से कम 11  बार गायत्री मन्त्र का उच्चारण करें ,जितना अधिक कर लें वह  आपके ऊपर है। अधिक से अधिक करने से और ऐश्वर्य की पूँजी आएगी।  ऐश्वर्य से वैभव प्रपात होता है। ऐश्वर्य से वैभव खरीदा जा सकता है ,वैभव से ऐश्वर्य नहीं ख़रीदा जा सकता है। जैसे कहते  हैं- खाकी  खादी पहन सकता है ,खादी खाकी नहीं पहन सकता। 

जब भी अगली बार आप किसी का नाम ऋतंबरा-प्रज्ञा सुने तो उसे उसका अर्थ अवश्य बताएं।  इन शब्दों की विशालता के कारण उस समय तो वह मनुष्य  झमाई लेगा/लेगी लेकिन समय आने पर ,किसी विशेष समय पर उसको आपकी बात अवश्य समझ/याद  आएगी।  इसलिए  यह सोच कर चुप मत रह जाना कि आपकी बात किसीको bore करेगी ,कोई पता नहीं कब आपकी बात गंभीरता से सुनी जाये। 

ऋतंबरा प्रज्ञा नाम हो सकते हैं ,इन शब्दों का आध्यात्मिक अर्थ य प्रभाव क्या है ?यह दोनों शब्द अध्यात्म से जुड़े हैं।  पहले देखते हैं  प्रज्ञा का अर्थ क्या  होता है।  बुद्धि बहुत ही सरल और कॉमन शब्द है जिसे  हम सब तो अवश्य ही जानते होंगें।  ,जो बुद्धि परोपकार के लिए प्रयोग में आये उसे “विवेक” कहते हैं ,विवेक ही बुद्धि है वही बुद्धि जो कल्याणकारी हो ,कल्याण का ही सोचे ,कल्याण केवल अपना  ही नहीं , सबका कल्याण ,दूरदर्शिता से सोचना ,जब हम ऐसे सोचते हैं तो उसे “प्रज्ञा” कहते हैं। परिष्कृत बुद्धि  (purified, refined  wisdom)  को  प्रज्ञा कहते  हैं। 

ऋत शब्द ऋषि के साथ जुड़ा है ऋत शब्द एक बहुत ही विस्तृत शब्द है ,इसकी परिभाषा समय समय पर बदलती रही  है।  ऋत शब्द का अर्थ है जो अपरिवर्तनीय सत्य  है ,जो कभी भी न बदलने वाला सत्य है। ऋत ब्रह्म (Cosmic)  का संकल्प  है , ब्रह्म की इच्छा है ,Cosmic will  है। ब्रह्माण्ड का रचियता जब कुछ करना चाहता है उसके संकल्प को ऋत कह सकते हैं Cosmic substance , Cosmic law, Cosmic resolve , Cosmic intelligence  जो  इतनी बड़ी सृष्टि का रचियता हो , जो उसको चला रहा हो  और अगर उसे समझने की हम चेष्टा करें ( चेष्टा करें !) ,केवल चेष्टा  ही कर सकते हैं क्योंकि इस सृष्टि को समझना अत्यंत कठिन है। जिसमें यह सारी   विशेषताएं भर गयीं उसे ऋतम्भरा कहते हैं। प्रज्ञा  को इंग्लिश में farsighted wisdom भी  कहते हैं और जिस प्रज्ञा में  ऋत आकर बस जाये उसे ऋतम्भरा- प्रज्ञा कहते हैं। वह प्रकृति के सारे भेद को ,गतिविधियों को ,निष्कर्षों को जान जाता है। उसके सारे कर्म ईश्वर के निष्कर्ष/निर्णय  पर ही आधारित होते हैं इसलिए वह सदैव सतकर्म ही करेगा क्योंकि ईश्वर आदर्शों  का एक समुच्य है।  

ऋतम्भरा- प्रज्ञा बुद्धि उस अवस्था में जाकर सोचती है जिसमें ब्रह्म की प्राप्ति होती है। ब्रह्म की प्राप्ति से उत्पन सुख सभी भौतिक( गाड़ी ,बंगला ,बैंक बैलेंस आदि ) सुखों से कहीं अधिक होता है ,कहीं अधिक सुखदाई होता है। 

ऋषियों से लोगों ने पूछा: ऋतम्भरा-प्रज्ञा कैसी  अवस्था होगी क्योंकि हम भी उसे पाने का प्रयास करते हैं , हम भी तो इस अवस्था के  प्रत्याशी हैं ,ठीक उसी तरह जैसे इलेक्शन के प्रत्याशी होते हैं , टिकटार्थी होते हैं।  हमारी भी एक  राजनैतिक पार्टी है जिसका नाम “ऋत” है।  हम उसके टिकटार्थी हैं, हम सोचते हैं कि जब हमें टिकट मिल जाएगी, हम MLA बन जायेंगें, MP बन जायेंगें तो कैसा अनुभव करेंगें , विधान सभा में बैठेंगें , कानून पास करेंगें तो  क्या आनंद होगा , कैसा आनंद होगा ।  तो जब हम ऋतम्भरा प्रज्ञा की क्लास में , अपनी राजनैतिक पार्टी में प्रवेश पा  लेते हैं तो उस आनंद की कल्पना करना भी बहुत कठिन है। 

जय गुरुदेव

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