22 जून 2021 का ज्ञानप्रसाद – तपोभूमि मथुरा में 750 वर्ष पुराणी अखंड अग्नि

तपोभूमि मथुरा प्रवास के दौरान हमारे ह्रदय में एक प्रश्न ने बहुत ही जिज्ञासा उठाई। वह प्रश्न था 750 वर्ष पुरातन अखंड अग्नि के बारे में। इसका प्रमाण तपोभूमि परिसर में नहीं मिला तो वहां कार्यकताओं को पूछा लेकिन संतुष्टि नहीं हुई। कौन था जो इस 750 वर्ष पुरातन अग्नि को यहाँ लाया ,क्या साधन थे जिसके द्वारा इसको लाया गया क्योंकि यह अग्नि है, खतरे की सम्भावना हो सकती थी । कई परिजनों से भी अपनी शंका discuss की परन्तु कोई satisfactory उत्तर नहीं मिला। इसी दुविधा में हमने एक बार फिर “चेतना की शिखर यात्रा” के पन्नों में इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ना आरम्भ किया, इन्ही दिनों युगनिर्माण योजना का जून 2021 अंक भी आ गया। दोनों के अध्यन के उपरांत जो हमें प्राप्त हुआ वह आपके समक्ष है।
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30 मई 1953 से गुरुदेव का 24 दिन का जल उपवास आरम्भ हुआ। गुरुदेव ने अधूरे बने गायत्री माता मंदिर के सामने एक लकड़ी का तख़्त बिछाया, उस पर दरी और चादर बिछाई,धूप से बचने के लिए तिरपाल तान दी।माता जी ने आचार्य श्री को तिलक किया,चरण छूए और तुलसी दल दिया। इन चौबीस दिनों में कई महापुरष आए। गुरुदेव उनसे मिलते भी रहे और थोड़ी बहुत बातें भी करते रहे। 19 से 24 जून का समय गायत्री तपोभूमि के प्राणप्रतिष्ठा की तैयारियों का था। इस समारोह में आने के लिए कई लोगों को निमंत्रण पत्र गए। लगभग सभी ने तत्परता दिखाई। ढाई तीन हज़ार साधकों के आने के सम्भावना बन रही थी। सोचा गया कि सभी के आने के बजाय कुछ परिजन अपने-अपने क्षेत्र में ही काम करें तो अच्छा होगा। गायत्री तपोभूमि की प्राण -प्रतिष्ठा की गूँज मथुरा के बाहर भी तो सुनाई देनी चाहिए। कुछ परिजन 2400 तीर्थों का जल- रज इकठा करने के उपरांत वापिस आने वाले थे। मंदिर के दक्षिण भाग में इनकी स्थापना की जानी थी। मंदिर के उत्तर भाग में 2400 करोड़ गायत्री मंत्र लेखन का संग्रह स्थापित किया जाना था। विश्व का प्रथम गायत्री मंदिर स्थापित होने जा रहा था। जो परिजन तपोभूमि जा चुके हैं उन्होंने अवश्य देखा होगा कि मन्त्र लेखन संग्रह और तीर्थ जल कैसे सुरक्षित रखा हुआ है।
मुख्य कार्यक्रम 20 जून से आरम्भ होने थे। गुरुदेव स्वयं आयोजन में शरीर से बहुत सक्रीय नहीं हो पा रहे थे। जल -उपवास के कारण काफी कमज़ोर हो गए थे। 8 किलोग्राम वज़न कम हो गया था ,बुखार भी था। सभी को लग रहा था गुरुदेव कोई प्रवचन नहीं करेंगें लेकिन फिर भी उनसे पूछना ठीक समझा। आचार्यश्री ने कहा वे अपना सन्देश लिख कर देंगें। शरीर कमज़ोर एवं बुखार होने के बावजूद गुरुदेव की आँखों में तेज झलकता था। 20 जून की सुबह पंडित लाल कृष्ण पंड्या की अध्यक्षता में पंचकुंडीय गायत्री महायज्ञ आरम्भ हुआ। आज कल जहाँ यज्ञशाला है वहां पांच अस्थाई कुंड बनाए गए। तीन दिन चलने वाले गायत्री यज्ञ के इलावा साधना- उपासना के विशेष कार्यक्रम भी शुरू हुए। इन कार्यक्रमों में सवा हज़ार चालीसा पाठ, महामृत्युंजय यज्ञ ,गायत्री सहस्त्रनाम और दुर्गा सप्तशती का पाठ चलता रहा।
अखंड की अग्नि स्थापना :
दो प्रकार की अग्नियां स्थापित की गयीं थीं। एक अरणी मंथन ( इसका उल्लेख आगे है ) से प्रकट की गयी और दूसरी हिमालय से लायी गई विशिष्ट अग्नि। शिव पार्वती की तपस्थली हिमालय में 750 वर्ष पूर्व प्रज्जवलित यह अग्नि एक सिद्ध आत्मा की धूनी से त्रियुगी (तीन युग ) नIरायण मंदिर से लाई गई थी। इस मंदिर का विवरण इस लेख के अंत में देते हैं। यज्ञशाला में इस के प्रकट होने का विधान भी अद्भुत था। इसके बारे में किसी को पता नहीं कि वह कहाँ सुरक्षित थी और कब और किसने लाई। यज्ञ प्रारम्भ होने की संध्या को अनायास ही एक अज्ञात साधु महाराज तपोभूमि में पहुंचे। यद्यपि शाम को ढाई तीन सौ लोग वहां मौजूद थे लेकिन किसी ने भी उन्हें आते हुए नहीं देखा था। साधु महाराज पर लोगों की नज़र तब पड़ी जब वह आचार्यश्री के निकट दिखाई दिए। पुरातन किन्तु साफ सुथरी चीवर ( योगियों की वेश ) धारण किये वह साधु महाराज अपनी उपस्थिति से ही सब को आकर्षित कर रहे थे। सामान्य से दिखने वाले उन सन्यासी महाराज के व्यक्तित्व में अनूठी आभा थी, ऐसी आभा जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। सभी का मानना था कि यह साधु महाराज अचानक ही प्रकट हुए हैं। उनके पास एक कमंडल था। इस कमंडल में से हलकी सी आंच के साथ आभा निकल रही थी। गुरुदेव ने उन साधु महाराज को देखा और देखते ही उठ कर खड़े हो गए। अभी तक जिनके लिए बैठना भी सम्भव नहीं था, उनका तनकर खड़े होना वहां सभी को हैरान कर गया। आचार्यश्री ने उन साधु महाराज को झुककर प्रणाम किया। साधु महाराज ने कहा -यज्ञशाला में इस सिद्धभूमि की अग्नि का भी स्थापित किया जाना है। इसे कभी भी मंद नहीं पड़ना चाहिए, न ही तिरोहित ( ढका हुआ ) होना चाहिए। अग्नि अखंड रहे। कमंडल से निकाल कर साधु महाराज ने वन अग्नि को एक पात्र में रखा। यह दृश्य वहां पर मौजूद सब ने देखा। एकाध ने पूछा भी महाराजश्री कहां से पधारें हैं।
आचार्यश्री ने कहा :
जहाँ से ऋषिसत्तायें इस यज्ञ का संचालन कर रही हैं। हिमालय के अगम्य प्रदेश में सिद्धजन सैंकड़ों वर्षों से तप कर रहे हैं और वहीँ से एक प्रतिनिधि के रूप में इन विभूति का आगमन हुआ है। गुरुदेव ने दादा गुरु के साथ इन सूक्ष्म देहधारियों को हवन करते देखा था। 30 से 80 वर्ष की आयु वाले यह 24 सन्यासी उस हिमालय क्षेत्र में यज्ञ अदि में संलग्न थे और लोक में व्याप्त पतन के निवारण के लिए वहां तप कर रहे हैं। उनकी स्वर और शैली से लगता था यह बहुत ही पुराने युग की बात है।दादा गुरु ने गुरुदेव को बता दिया था इसी तरह का एक साधनात्मक उपक्रम भविष्य में बनने वाले केंद्र में भी चलाना है। ( ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ?)
गुरुदेव अपने आसन से धीरे- धीरे उठे ,पावं में खड़ाऊँ पहनी और पात्र में रखी उस दिव्य अग्नि को लेकर प्रमुख कुंड की तरफ आए ,माता जी भी उनके साथ थीं। उन्होंने 4 समिधायं चुनी ,उन्हें कुंड में स्थापित किया और मंत्रोचार के साथ अग्निदेव का आवाहन किया। कपूर और घी के साथ अग्नि प्रज्वलित की गई और आहुतियाँ दी गयीं। इस अग्नि में धुएं की एक भी रेखा नही थी। निधूर्म अग्नि को यज्ञाचार्यों ने अग्निदेव के प्रसन्न होकर आहुतियाँ ग्रहण करने का प्रतीक बताया। शेष चार कुंडों में भी समिधायें रखीं थीं। इन कुंडों में गुरुदेव ने शमी और पलाश की लकड़ियों को रगड़ कर अग्नि प्रकट की। शमी और पलाश एक विशेष प्रकार की लकड़ी होती है जिसके रगड़ने से चिंगारियां प्रकट होती है। इस प्रक्रिया को अरणी मंथन कहते हैं। गुरुदेव ने कहा था कि दियासिलाई की रगड़ से अग्नि नही प्रकट की जानी है। गुरुदेव ने लकड़ियां पकड़ीं और ऋग्वेद के पाठ करने लगे। पाठ करते ही उन्होंने लकड़ियों को रगड़ा, लोग उत्सुकता से देख रहे थे। लाइटर की तरह छोटी सी लौ उठी ,लोगों की ऑंखें खुली की खुली रह गईं। इस लौ से कुंड में पड़ी समिधाओं का स्पर्श किया ही होगा कि लपटें उठीं। उसके बाद तुरंत घी की आहुतियां दी गयीं। पूज्य गुरुदेव और वंदनीय माता जी प्रमुख कुंड पर बैठे रहे और शेष कार्य सम्पन्न हुआ।
त्रियुगीनारायण मंदिर :
सोनप्रयाग से 12 और नई दिल्ली से 455 किलोमीटर दूर यह मंदिर रुद्रप्रयाग डिस्ट्रिक्ट उत्तराखंड में स्थित है। यह पुरातन मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। हमारे शास्त्रों में इस मंदिर का वर्णन है क़ि भगवान शिव का विवाह माँ पार्वती के साथ इसी पावन स्थान पर हुआ था और भगवान विष्णु इसके साक्षी थे। इस मंदिर के बारे में विशेष बात यह है कि इसके प्रांगण में अग्नि ज्वलंत है जो शिव पार्वती के दिव्य विवाह के समय से अखंड जल रही है। इसलिए इस मंदिर का नाम अखंड धूनी मंदिर भी है। इस मंदिर के प्रांगण में चार कुंड – सरस्वती कुंड, रूद्र कुंड, विष्णु कुंड व ब्रह्म कुंड स्तिथ हैं, जिसमें मुख्य कुंड सरस्वती कुंड है जो पास के तीन जल कुंडों को भरता है। इस मंदिर से जुडी मान्यता है कि मंदिर के आँगन में स्तिथ अग्नि कुंड जहां शिव और पार्वती परिणय सूत्र में बंधे थे उस अग्नि कुंड की ज्वाला वर्षों से जलाई जा रही है। पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु माँ पार्वती के भाई रूप में उपस्थित हुए थे तथा ब्रम्हा जी पुरोहित बने थे। कहते हैं कि जो व्यक्ति इस कुंड में लकड़ी को प्रज्वलित करता है और इसकी राख को अपने पास रखता है तो उनके वैवाहिक जीवन में हमेशा सुख समृद्धि बनी रहती है। वहीँ प्रागण में स्तिथ कुंड के जल से जो एक बार स्नान करता है तो बाँझपन जैसी समस्या से उसे निदान मिल जाता है। कहते हैं कि इस मंदिर का निर्माण आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा किया गया था।
वर्ष 2018 में उत्तराखंड सरकार द्वारा त्रियुगी नारायण मंदिर को डेस्टिनेशन वेडिंग (Destination wedding) के लिए प्रचार प्रसार किया गया। इसके पीछे सरकार तर्क था कि जिस स्थान पर स्वयं भगवान शिव और पार्वती ने विवाह किया हो वहां दूर-दूर से लोग विवाह करने आएंगे। इससे ना सिर्फ उत्तराखंड में पर्यटन बढ़ेगा बल्कि इस क्षेत्र का विकास भी होगा। उत्तराखंड सरकार द्वारा त्रियुगीनारायण मंदिर की डेस्टिनेशन वेडिंग के रूप में घोषणा के बाद FIR सीरियल की प्रसिद्ध टीवी एक्टर कविता कौशिक, प्रदेश के मंत्री धन सिंह रावत, गाजियाबाद की IPS अपर्णा गौतम और नैनीताल के ADM ललित मोहन यहाँ अपने विवाह सम्पन्न कर चुके हैं।
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव