वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा पर लेखों की शृंखला पर Introductory लेख

29 मई 2021 का ज्ञानप्रसाद – परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा पर लेखों की शृंखला पर Introductory लेख
हमारी बहुत ही इच्छा थी कि परमपूज्य गुरुदेव की आत्मकथा (ऑटोबायोग्राफी ) पढ़ी जाये,आपके समक्ष प्रस्तुत की जाये, लेख लिखे जाएँ लेकिन जहाँ तक हमारी स्मरणशक्ति और विवेक कार्य करते हैं ” हमारी वसीयत और विरासत ” शीर्षक से पुस्तक में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। गुरुदेव के सबसे प्रिय शिष्य पंडित लीलापत शर्मा जी द्वारा लिखी पुस्तक ” पूज्य गुरुदेव के मार्मिक संस्मरण ” में यह विवरण आता है कि पंडित जी ने कई बार गुरुदेव को अपनी आत्मकथा लिखने का आग्रह किया लेकिन गुरुदेव हर बार टालते ही रहे। गुरुदेव यही कह कर टालते रहे -मैं तो एक साधारण पुरष हूँ मेरी क्या आत्मकथा लिखनी ? एक बार पंडित जी ने बहुत ज़िद की तो गुरुदेव कहने लगे “मैंने क्या आत्मकथा लिखनी है ,अब तो आप ही लिखोगे। ” पंडित जी लिखते हैं कि उस युगदृष्टा ने मुझसे यह कार्य करवाना था और करवा ही लिया।

हम अपने पाठकों को ,ऑनलाइन ज्ञानरथ के सहकर्मियों को सप्रेम कहना चाहेंगें कि आज से हम परमपूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व पर, गुरुदेव के जीवन पर लेखों की एक श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। इस श्रृंखला का प्रत्येक लेख आपको मार्गदर्शन तो देगा ही, आपके दिन -प्रतिदिन के जटिल प्रश्नों के उत्तर देने में भी सहायक होगा। ऐसे प्रश्न जिन्हे हमारे परिजन कई बार हमसे पूछ चुके हैं ,हमने अपनी अल्प -बुद्धि के अनुसार उन प्रश्नों का निवारण भी किया होगा। लेकिन अब आपको यह अमृतपान -ज्ञानपान परमपूज्य गुरुदेव के अपने ही शब्दों में ,अपनी ही लेखनी से पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त होगा। उदाहरण के लिए एक प्रश्न कल ही हम से पूछा गया ” साधना में मेरा मन लगता नहीं है ,भटकन बहुत ही होती है ,गायत्री माता की तीन माला करता हूँ ,क्या इस संख्या को बढ़ा कर 6 कर दूँ ” , करुणा की ,स्नेह की ,अपनत्व की बातें जो हम आपके साथ प्रतिदिन कर रहे हैं ,ऋद्धि और सिद्धि में क्या अंतर् है ,इत्यादि। इस तरह के प्रश्नों के सटीक उत्तर आने वाले लेखों में आपको मिलने वाले हैं। हम अपना पूर्ण प्रयास करेंगें कि इन लेखों को सरल से सरल शब्दावली प्रयोग करते हुए ,गुरुदेव की भावना को ध्यान में रखते हुए आपके समक्ष प्रस्तुत करें।Scan version में मात्र 18 पन्नों की पुस्तिका “प्रज्ञावतार का कथामृत” एक पुस्तक न होकर अमृतपान है। आने वाले लेख इस पुस्तिका पर आधारित होंगें।

तो आइये जाने इस पुस्तक के बारे में :
परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने परिजनों के आग्रह के बावजूद 1970-71 तक कभी भी अपने जीवन के अन्तरंग पक्षों को सबके समक्ष उजागर नहीं होने दिया । उनका जीवन इतना सरल, इतना पारदर्शी था कि सभी उन्हें अपना अभिन्न और आत्मीय स्वजन मानते थे । वे कौन हैं ? क्या हैं ? कितना बड़ा संकल्प अपने साथ लेकर आए हैं ? यह वही समझ पाया जिसने उनके साहित्य का मनन किया, उनकी प्राणचेतना ‘अखण्ड-ज्योति’ पत्रिका का मनोयोगपूर्वक स्वाध्याय किया । पूज्य गुरुदेव ने अपने जैसा ही अपनी सहधर्मिणी माता भगवती देवी को भी ढाल लिया एवं दोनों की हर श्वास लोकहित में ही समर्पित होती रही । दोनों ने मिलकर जिस वटवृक्ष के बीजांकुर की स्थापना एक मिशन के रूप में की, अब वह विशाल रूप लेकर समाज में सबके समक्ष सबकी दृष्टि में आ गया है ।
गायत्री व यज्ञ की धुरी पर तपोमय एवं ब्राह्मणत्व भरा जीवन जीकर सारे समाज के ढाँचे को कैसे जर्जर स्थिति से नये भवन के रूप में खड़ा किया जा सकता है इसका नमूना हमारे परिजन-पाठकगण आने वाले लेखों में भली-भाँति पा सकेंगे । स्थान-स्थान पर घटनाक्रमों के माध्यम से उनकी करुणा भरे अन्त:करण की झलक-झाँकी देखी जा सकती है तो कहीं-कहीं पर दुष्प्रवृत्तियों, मूढमान्यताओं से मोर्चा लेने वाले योद्धा का दर्शन भी किया जा सकता है ।
इस पुस्तक में परमपूज्य गुरुदेव के पूरे जीवनवृत्त को विभिन्न खण्डों में बाँटा है । इनमें से कई घटनाक्रम कई स्थानों पर भिन्न-भिन्न शब्दावली में वर्णित मिल सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि यह अनावश्यक ‘रिपीटिशन’ है । इससे बचा नहीं जा सकता था । इसके बिना उस स्थान पर समझाये जा रहे प्रसंग को भली-भांति आत्मसात किया नहीं जा सकता । उदाहरणार्थ-सहस्रकुण्डी यज्ञ मथुरा (1958 ) का विवरण, दादागुरु से भेंट-साक्षात्कार, युग-परिवर्तन सम्बन्धी घोषणाएँ, उनकी हिमालय यात्राएँ, सूक्ष्मीकरण से जुड़े गुह्य (गुप्त ) प्रसंग स्थान-स्थान पर भिन्न-भिन्न शब्दावलियों में आए हैं । उन्हें उस प्रसंग विशेष के साथ पढ़कर समझने का प्रयास किया जाय । ‘क्रोनोलॉजीकल’ क्रम अर्थात् समयावधि के अनुसार जीवनी उसी की लिखी जा सकती है, जिसके जीवन के साथ बहुमुखी विलक्षणताएँ न जुड़ी हों ।

” किन्तु यदि किसी ने पाँच-पाँच जीवन एक साथ जिए हों, अस्सी वर्ष में स्वयं आठ सौ वर्षों का कार्य एकाकी करके रख दिया हो, नितान्त असम्भव पुरुषार्थ अपनी सहधर्मिणी शक्तिस्वरूपा माता वन्दनीया भगवती देवी शर्मा से सम्पन्न करवा लिया हो एवं दोनों एक प्राण होकर एक मिशन के रूप में लाखों सूजन शिल्पियों के समुदाय को अपनी मानस संततियों के रूप में जन्म देकर अभूतपूर्व कार्य सम्पन्न कर दिया हो एवं वह कार्य अभी भी दोनों सत्ताओं के महाप्रयाण के बाद निरन्तर बढ़ता ही जा रहा हो, शिष्य समुदाय एक विराट जनसमुदाय का रूप लेता चला जा रहा हो, तब उनका जीवनक्रम कैसे समयावधि में बाँधकर लिखा जा सकता है ।”

इसी कारण पाठकगण स्थान-स्थान पर इस समय काल-सीमा के बंधन को तोड़कर इस जीवनक्रम को एक कथामृत के रूप में पढ़ें तो वस्तुत: वह लाभ ले पायेंगे जो भगवत्कथामृत का पान करने से मिलता है।
परमपूज्य गुरुदेव ने 1970 -71 में विदाई की वेला में जब वे गायत्री तपोभूमि, मथुरा छोड़कर हिमालय प्रस्थान कर रहे थे, अपनी अन्त:वेदना अपने सम्पादकीय ‘अपनों से अपनी बात’ में व्यक्त की है । “हमारी जीवन-साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू” नाम से पहली बार आत्मकथा प्रधान लेखनी उन्होंने जनवरी, 1971 की अखण्ड-ज्योति पत्रिका में चलाई । इसी नाम से ‘अपनों से अपनी’ बात लिखी गयी तथा फरवरी, 1971 की अखण्ड-ज्योति पत्रिका में उन्होंने “हमारे दृश्यजीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ” नाम से इसका उत्तरार्द्ध लिखा । यह दोनों लेखों को, जिन्हें संकलित कर इस पुस्तिका में दिया गया है , पढ़कर कोई भी उस संत, आत्मज्ञानी, सिद्धपुरुष के अन्त:करण को, उनकी व्यथा को अनुभूत कर सकता है । समग्र जीवन-वृत्तान्त तो उन्होंने दार्शनिक शैली में जून, 1984 की ‘अखण्ड-ज्योति’ के विशेषांक के रूप में तथा बाद में अप्रैल, 1985 की अखण्ड-ज्योति के जीवनगाथा विशेषांक के रूप में सूक्ष्मीकरण की अवधि में लिखा । यही सब संकलितसम्पादित होकर उनकी आत्म-कथा ‘हमारी वसीयत और विरासत’ के रूप में सामने आया, किन्तु इससे भी पूर्व “चमत्कारों भरा जीवनक्रम एवं उसका मर्म” नाम से एक लेख-माला वे दोनों विशेषांकों के बीच की अवधि में फरवरी व मार्च, 1985 में लिख चुके थे । परिजनों का दबाव था कि बाल्यकाल से अब तक के जीवनवृत्त को विस्तार से दिया जाए, तब अप्रैल, 1985 का अंक लिखा गया । परमपूज्य गुरुदेव के जीवनवृत्त को समग्र रूप से समझने से पूर्व उपर्युक्त चार लेख पढ़ लेना अत्यधिक अनिवार्य है ताकि उनके सांगोपांग स्वरूप को समझा जा सके । विधिवत जीवनवृत्त आरम्भ करने से पूर्व इसलिए हम उनके जीवन से जुड़े, उनकी लेखनी से लिखे गए ये लेख अविकल उसी रूप में दे रहे हैं, ताकि उस विराट व्यक्तित्व के अन्तराल में छिपी उस आत्मसत्ता का दिग्दर्शन ( किसी का परिचय देने की क्रिया) किया जा सके, उनकी संवेदनाओं, उनके मूलभूत चिन्तन के घनीभूत रूप मिशन को समझा जा सके ।

हम समझ सकते हैं कि हमारे सहकर्मी उपर्लिखित पंक्तियों में कुछ उलझन अनुभव कर रहे होंगें परन्तु ऐसी बात नहीं है ,सब कुछ बहुत ही straightforward है ,हमने कई बार इन्हे पढ़ कर ,अखंड ज्योति पत्रिका के वोह वाले अंक जिनका यहाँ वर्णन है चेक किये हैं। हमारा प्रयास सदैव रहता है कि सरलता तो की जाये लेकिन तथ्य सम्पूर्णतया सुरक्षित रहें। इसी तर्क को ध्यान में रखते हुए पिछले कई दिनों से हमारी रिसर्च इस दिशा में चल रही थी।
तो लेखों के परिपेक्ष में इन्ही introductory शब्दों के साथ अपनी वाणी को विराम देते हैं और कामना करते हैं कि आज प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। हमारे सभी सहकर्मी अत्यंत श्रद्धा और परिश्रम के साथ अपने ऑनलाइन ज्ञानरथ में योगदान दे रहे हैं तो हम चाहेगें कि एक दिन का अवकाश किया जाये। तो भारतीय समयसारणी के अनुसार रविवार की सुबह कोई लेख नहीं होगा, इस श्रृंखला का प्रथम लेख हम सोमवार की सुबह प्रस्तुत करेंगें। कल वाले लेख पर 555 कमेंट संख्या ( लेख पोस्ट होने समय ) सभी का आभार।
धन्यवाद् ,जय गुरुदेव

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