वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

कोरोना काल में हमारा आत्मिक शांति का प्रयास

29 अप्रैल 2021 का ज्ञानप्रसाद

आज का लेख हम अपने विवेक और अध्यन से लिख रहे हैं। बहुत से सहकर्मियों के लिए इस लेख में कुछ भी नया न हो क्योंकि यह चिंतन मनन का विषय है। इस कोरोना दानव ने जहाँ हर जगह त्राहि -त्राहि मचा रखी है, कहीं कोई मार्ग दिखाई ही नहीं दे रहा, ऐसा लगता है मानव पूरी तरह से लाचार हो गया है तो ऑनलाइन ज्ञानरथ उस परमसत्ता से ,गुरुसत्ता से निवेदन करके कुछ ,केवल कुछ ही , मानसिक शांति का प्रयास कर रहा है। हर किसी के जीवन में इस तरह की विकट परिस्थितियां आयी होंगीं लेकिन उस परमसत्ता का साथ न छोड़ने में ही लाभ है ,न कि घबराहट में। हम सूर्य भगवान की प्रथम किरण के साथ आपको ज्ञानप्रसाद की भेंट प्रदान करते समय यही आशा करते हैं कि आपका दिन सुखमय हो और अँधेरा गायब हो जाये।


इस लेख में गुरुदेव और पंडित लीलापत जी, गुरुदेव और श्रेध्य डॉक्टर साहिब जी ,गुरुदेव और शुक्ला बाबा , शुक्ला बाबा और मृतुन्जय तिवारी जी के उदाहरण तो दिए हैं लेकिन यह किसी भी गुरु -शिष्य ,भक्त -भगवान की बात हो सकती है -समर्पण ,समर्पण और समर्पण। यह बातें हम सब पर भी लागू होती हैं। केंद्रीय मंत्री श्री रवि शंकर प्रसाद जी ने एक वीडियो में गायत्री परिवार के सदस्यों की संख्या 15 करोड़ बताई है । 2020 की यह वीडियो हमारे चैनल पर लगी हुई है। सुन कर हर्ष और गर्व तो बहुत होता है लेकिन कितनों पर आज का लेख apply होता हैं ,कितने लीलापत जी हैं ,कितने शुक्ला बाबा हैं ? ज़रा सोचिये

इन्ही opening remarks के साथ आइये साथ -साथ चलें आज की ज्ञानतीर्थ यात्रा पर।


गुरु और माली का उत्तरदाईत्व :
एक शिष्य के जीवन को सजाने में ,संवारने में गुरु की वही भूमिका है, जो किसी पौधे के सम्पूर्ण विकास में एक माली की होती है। किस पौधे को कब और कितना खाद और पानी चाहिए, इसे एक माली बखूबी जानता है। एक माली एक नन्हे से पौधे को लगाता है, उसे सींचता है उसे कीड़ों से, पशुओं से, रोगों से बचाता है। तभी तो एक दिन एक नन्हा-सा पौधा ही वृक्ष बनकर आकाश को छूने लगता है।

माली के कारण ही तो एक दिन सारा गुलशन महक उठता है। वैसे ही गुरु भी शिष्य में एक नई चेतना को जन्म देता है। वह उसकी चेतना को अपने ज्ञानामृत से सींचता है। वह उसे भवरोगों से बचाता है, दुर्गुणों से बचाता है। तभी तो एक दिन वह शिष्य अपनी चेतना के शिखर को छू पाता है और ब्रह्म साक्षात्कार कर पाता है। एक दिन शिष्य का जीवन भी गुलशन की तरह महक उठता है। उस परिष्कृत व्यक्तित्व को उपलब्ध शिष्य को देखकर एक गुरु को कैसी आनंदानुभूति होती होगी, उसे शब्दों में बता पाना कैसे संभव है; क्योंकि

“वहाँ तो शब्द भी निःशब्द हो जाते हैं।”

समर्पण :
उस शिखर तक पहुँचने के लिए एक शिष्य को स्वयं को पूर्णतः अपने गुरु के हवाले करना होता है, माली के हवाले करना होता है और अपनी इच्छाओं का, कामनाओं का सर्वथा त्याग करना होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जैसे एक रोगी स्वयं को पूर्णतः एक चिकित्सक के हवाले कर देता है वैसे ही एक शिष्य को भी स्वयं को गुरु के हवाले कर देना होता है; क्योंकि तभी गुरु एक कुशल चिकित्सक की तरह शिष्य की चेतना में अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार कर पाता है। उसके चित्त की वृत्तियों के कारणरूप उसके कर्म-संस्कारों के समूल नाश का, विनाश का मार्ग प्रशस्त कर पाता है।

” पूज्य गुरुदेव ने कितने ही जन्मों तक अपने-आप को दादा गुरु के हवाले किया “

यदि चिकित्सक रोगी की आवश्यक शल्यक्रिया ( सर्जरी ) या चिकित्सा करने के बजाय उसकी इच्छापूर्ति करने में लग जाए, उसे उसकी इच्छानुसार खाने-पीने की छूट दे दे तो फिर न तो रोगी की सही चिकित्सा हो पाएगी और न ही रोगी रोगमुक्त हो सकेगा। रोगी को रोगमुक्त होने के लिए तो चिकित्सक के अनुसार ही चलना होगा ,चिकित्सक के परामर्श को मानना होगा।

” शिष्य को भी अपनी इच्छा से नहीं, गुरु की इच्छा से चलना होता है। गुरु की इच्छा को ही, ईश्वर की इच्छा को ही अपनी इच्छा बनाना होता है तभी तो वह चेतना के शिखर को छू पाता है,”

इसी लिए जब पंडित लीलापत शर्मा जी गुरुदेव के संरक्षण में आए तो वह सब कुछ वही करते आए जैसे गुरुदेव करवाते गए। कई बार गुस्से भी हुए लेकिन माता जी ,गुरुदेव ने अपने आज्ञाकारी बेटे को मना ही लिया। बिल्क़ुल ऐसा ही विवरण श्रद्धेय डॉक्टर साहिब आदरणीय प्रणव पंड्या जी के बारे में भी मिलता है। उनको तो गुरुदेव बार -बार यही कहते सुने गए हैं :

” तू यहाँ मेरे काम के लिए आया हैं यां अपने ?”

अगर शिष्य अपनी इच्छा को ढोते फिरने के चक्कर में पड़ा रहे तो वह छोटा ही बना रह जाता है, फिर वह बीज से वृक्ष नहीं बन पाता। वह फिर अपने जीवन के शीर्ष को नहीं छू पाता और किसी तरह घिसी-पिटी जिंदगी जीकर एक दिन संसार से विदा हो जाता है। पंडित जी के शीर्ष व्यक्तित्व के कारण ही हम उनके बारे में इतनी चर्चा कर रहे हैं। हम इस महान आत्मा के ऊपर कितने ही लेख लिख चुके हैं। जब से उनके द्वारा लिखित पुस्तकें हमारे हाथ में आयी हैं उनके बारे में जानने की जिज्ञासा दिन -प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है अब शुक्ला बाबा जी का पता चला तो उसमें ही डूब गए। अगले दिनों में एक और व्यक्तित्व को आपके समक्ष प्रस्तुत करेंगें -रिसर्च जारी है।

क्या हम भगवान के सच्चे भक्त हैं ?
कहने को तो हम भी स्वयं को अपने गुरु का सच्चा शिष्य मानते हैं; हम भी अपने आप को भगवान का भक्त मानते हैं। हम अपने आप को ईश्वर का, गुरु का, उपासक मानते हैं और अक्सर हम ईश्वरदर्शन के लिए मंदिरों में जाते भी हैं, आश्रमों में जाते भी हैं। अपने आराध्य से, अपने गुरु से मिलते भी हैं, पर वहाँ जाकर भी क्या हम अपने आराध्य का, अपने भगवान का, अपने गुरु का दर्शन कर पाते हैं? क्या हम सचमुच अपने गुरु के दरबार में, ईश्वर के दरबार में उपासक बनकर जा पाते हैं ?

” शायद नहीं। क्योंकि हम भगवान के पास उपासक नहीं याचक (भिखारी) बन कर जाते हैं “

गुरु के समीप बैठकर भी, ईश्वर के समीप बैठकर भी हम उपासना से दूर ही रहते हैं। उनके पास होकर भी हम उनसे दूर ही होते हैं। क्योंकि हम वहाँ भी अपनी छोटी -छोटी, तुच्छ सी इच्छाओं की टोकरी को अपने सिर पर ढोये फिरते हैं। वहाँ हम रोते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, लड़ते हैं , ढेर सारी याचनाएँ करते हैं। इसीलिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है। ईश्वर के समीप जाने का, गुरु के समीप जाने का, बैठने का वास्तविक उद्देश्य तो हमें हमारे गुरु ही बता पाते हैं। उपासना का असली मर्म तो हमारे गुरु ही बता पाते हैं। हमारे आराध्य, हमारे गुरु ही हैं, जो हमें बताते हैं कि

” उपासना याचना नहीं और याचना उपासना नहीं।”

हम ईश्वर के पास जाएँ, अपने गुरु के पास जाएँ, पर याचक बनकर नहीं, उपासक बनकर; दर्शक बनकर नहीं, द्रष्टा बनकर। द्रष्टा का अर्थ है कि हम केवल देख नहीं रहे हैं, अंदर तक देख रहे हैं ,गहराई में जा रहे हैं। तभी तो उनके पास जाने की, उनके पास बैठने की सार्थकता हो सकेगी।

मृतुन्जय तिवारी जी का समर्पण हमने आपको दिखाया। बच्चे ,पत्नी ,माता पिता ,व्यापार कोलकाता महानगर में और स्वयं मस्तीचक जैसे उस छोटे से ग्राम में जहाँ केवल 12 घंटे बिजली आती है। उन्होंने ने भी अपने आप को गुरु के प्रति समर्पित कर दिया है।

उस विराट ईश्वर की प्रतिमा के समक्ष खड़े होकर, उस ब्रह्मज्ञानी गुरु के समक्ष खड़े होकर भी ,उनके पास होकर भी, उनके समीप होकर भी, उनके समीप बैठकर भी उनसे स्वयं को बंधन में बाँधने वाली याचनाएँ क्यों करना? वहाँ तो उनकी विराटता की अनुभूति करनी चाहिए। उनकी विराटता को स्वयं के अंतःकरण के आकाश में उतरते हुए देखना चाहिए।

वहाँ देखना चाहिए कि जैसे हमारे आराध्य, हमारे भगवान, हमारे गुरु के हृदयाकाश में कोटि-कोटि सूर्य, चंद्र व तारे जगमगा रहे हैं, वैसे ही क्या हमारे स्वयं के हृदयाकाश में भी अब ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि के रूप में सूर्य, चंद्र व तारे जगमगाने लगे हैं? क्या हमारे अंतःकरण से अज्ञान का अँधेरा मिटने लगा है? जैसे आकाश में हजारों सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश होता है , वो दिव्य अनुभूति हमें उपासना में करनी है। भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को जब विराट रूप दिखाया तो उसकी आँखें चुंदीआं गयी थीं। इतना प्रकाश ,इतना तेज़ उससे सहन नहीं हो रहा था

क्या हम भगवान में अपना रूप देखते हैं ?
जैसे दर्पण में हम अपने रूप को भली भाँति देख पाते हैं, वैसे ही ईश्वर की, गुरु की प्रतिमाओं में, हम अपने वास्तविक स्वरूप को देख पाते हैं। अपने सोऽहम्, शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् रूप को देख पाते हैं, निहार पाते हैं ? उपासना में ईश्वर के पास बैठकर या गुरु के पास बैठकर हमें स्वयं भी वैसा ही होना है, जैसे कि स्वयं हमारे आराध्य हैं, भगवान हैं, गुरु हैं।

उस विराट ब्रह्मसमुद्र के समीप खड़े होकर, समीप होकर भी उससे बूंद, दो बूंद जल पाने की याचना क्या करना? उस विराट ब्रह्मसमुद्र में उतरकर, डूबकर, उसमें घुल-मिलकर हम स्वयं भी बिंदु से सिंधु, सरिता से सागर क्यों नहीं हो जाएँ? हम उस ब्रह्मसमुद्र के समीप होकर भी स्वयं के अंतस् में भी प्रेम, पवित्रता, करुणा, संवेदना आदि दिव्य गुणों की रसधार क्यों नहीं प्रवाहित कर लें? अपनी आत्मा में ही परमात्मा के सत्-चित्-आनंदस्वरूप की अनुभूति क्यों नहीं कर लें।

वास्तव में ईश्वर दर्शन की, गुरु दर्शन की, ईश्वर के पास, गुरु के पास बैठने की यही तो वास्तविक फलश्रुति है।
समुद्र के पास बैठकर उसकी गहराई, उसकी विराटता की अनुभूति, गंगा के पास बैठकर उसकी शीतलता की अनुभूति, ईश्वर के पास एवं गुरु के पास बैठकर उसकी ब्रह्मानुभूति करना ही तो उपासना है। यही तो सच्ची उपासना है ,सच्ची भक्ति है ,सच्चा समर्पण है ,सच्चा योग है ,ईशदर्शन है और हम स्वयं भी तो ईश्वर अंश ही है। हम स्वय भी तो सुख की राशि हैं तो फिर गुरु से, ईश्वर से याचना क्या करना। अपना जो कुछ है, सो उनका अर्थात परमात्मा का है और उनका जो कुछ है, सो अपना ही तो है। इसीलिए तो हम कहते हैं :

” तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा “

हमें तो बस, ईश्वर के समीप बैठकर, गुरु के समीप बैठकर उनकी ईश्वरीय विराटता का बार-बार स्मरण करना है। उनके दिव्य गुणों का बार-बार स्मरण करना है। तभी तो हमें स्वयं की विराटता का, अपने सत्-चित्-आनंद रूप का स्मरण हो सकेगा, जिसका हमने विस्मरण कर दिया है तो उस विस्मरण का बार-बार स्मरण ही उपासना है।

ऐसी उपासना से हम स्वयं भी ईश्वरमय हो सकते हैं। हम वो बन सकते हैं, हम वो हो सकते हैं जो हमारे आराध्य, हमारे गुरु हमें बनाना चाहते हैं। ऐसे में ,उपासना में, ईश्वर या गुरु के समीप होकर स्वयं को भी उनके ही रंग में क्यों न रँग लें? ईश्वर की विराटता का, ईश्वर की दिव्यता का बार-बार स्मरण कर हम स्वयं भी क्यों न विराट बन जाएँ, दिव्य बन जाएँ, मानव से माधव बन जाएँ? जैसा कि संत कबीर ने प्रस्तुत दोहे में कहा है

” लाली मेरे लाल की, जित देखू तित लाल। लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल “

अर्थात मुझे हर जगह ईश्वरीय ज्योति दिखती है। अंदर, बाहर, हर जगह, लगातार ऐसी दैवी ज्योति देखते देखते मैं भी ईश्वरीय हो गया हूँ। ईश्वर की दिव्यता देख देखकर मैं भी दिव्य हो गया हूँ। उनकी लाली देखकर मैं भी लाल हो गया हूँ। दरअसल इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि मेरे प्रभु का रंग कुछ ऐसा था कि चारों ओर ज्ञानस्वरूप लाली छाई हुई थी। मैंने सोचा मैं भी जाकर देखता हूँ और उनके समक्ष जाते ही वही रंग मेरा भी हो गया।

अस्तु हम भी क्यों न उपासना में बैठकर, आराध्य के पास बैठकर, गुरु के पास बैठकर याचना करने के बजाय स्वयं को ही अपने प्रभु के रंग में रंग लें? और यदि हो सके तो उपासना में बैठकर अपने प्रभु से, गुरु से नित्य यही प्रार्थना भी करें कि हे प्रभु! आप मुझे भी अपने ही रंग में रँग लीजिये क्योंकि हे प्रभु ! मैं स्वयं को किसी और रंग में रंगना ही नहीं चाहता।

इन्ही शब्दों के साथ ,इस आशा से कि कोरोना की विकट स्थिति हमें विचलित नहीं होने देगी, हम आज के ज्ञान प्रसाद को विराम देंगें, क्योंकि हमने अपने आप को उस परमपिता के हवाले कर दिया है -जय गुरुदेव

सूर्य भगवान की प्रथम किरण आपके आज के दिन में नया सवेरा ,नई ऊर्जा और नई उमंग लेकर आए।
जय गुरुदेव परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्री चरणों में समर्पित

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