27 दिसंबर 2020 का ज्ञानप्रसाद
प्रायः हमें कमेंट करके गायत्री साधना के बारे में प्रश्न किये जाते रहे हैं ,यह कब करनी चाहिए और इसका क्या विधान है। परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री साधना को अत्यंत सरल तरीके से इस लेख में वर्णन किया है आशा है ऑनलाइन ज्ञानरथ के सहकर्मियों को इससे लाभ होगा और यह लाभ तभी पूर्ण समझा जाना चाहिए जब यह गुरुदेव के कथन अनुसार 5 से 25 और 25 से 625 परिजनों तक पहुंचे।
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सामान्य स्तरीय साधना
गायत्री महामन्त्र की सामान्य स्तरीय साधना स्नान, पूजन, जप आदि क्रिया-कलापों से आरंभ होती है। इस स्तर के साधक जब सामने आते हैं, तब उनकी मनोभूमि के अनुरूप यही बताया जाता है कि-
” वे शरीर और वस्त्रों को शुद्ध कर, पवित्र आसन बिछाये, जल और अग्नि का सान्निध्य लेकर बैठे। जल-पात्र पास में रख लें और अगरबत्ती या अग्नि जला लें। गायत्री माता की प्रतिमा, साकार होने पर चित्र के रूप में और निराकार होने पर दीपक के रूप में स्थापित कर लें जिससे माता का सान्निध्य प्राप्त होता रहे। पुष्प, गंध, अक्षत, नैवेद्य जल आदि से पूजा-अर्चा करें।

1.पवित्रीकरण, 2.आचमन, 3.शिखाबंधन, 4.प्राणायाम, 5.न्यास, 6. पृथ्वी पूजन – इन षट्-कर्मों से शरीर, मन और स्थान पवित्र करके माला की सहायता से जप आरंभ करें। ओंठ, जीभ चलते रहें पर ध्वनि इतनी मन्द हो कि पास बैठा हुआ व्यक्ति उसे ठीक तरह सुन-समझ न सके। जब जप पूरा हो जाये तो स्थापित जल-पात्र से सूर्य भगवान को अर्ध प्रदान करे। “
सामान्य साधना का इतना ही विधान है।
क्रिया-कृत्य में-कर्मकाण्ड में जब मन लगने लगे और यह विधि-विधान अभ्यास में आ जाए, उपासना में श्रद्धा स्थिर हो जाये और मन रुचि लेने लगे तब समझना चाहिए कि आरंभिक बाल-कक्षा पूरी हो गई और अब उच्चस्तरीय प्रौढ़ साधना की कक्षा में प्रवेश करने का समय आ गया।
प्रौढ़ साधना में भावना स्तर का विकास करना होता है। प्रथम साधना में व्यथा का अभ्यास-नियमितता का स्वभाव बनाना होता है। नियत समय-नियत संख्या-नियत विधि-व्यवस्था-यह तीन आधार प्राथमिक साधन के हैं। उनकाअभ्यास में ढाल लेना भी कोई कम महत्व की बात नहीं। देखा जाता है कि उपासना करने वाले का समय व्यवस्थित नहीं होता। आलस और गपशप में, व्यर्थ की बातों में समय गंवाते रहते हैं और उपासना के समय में घंटों का हेरफेर कर देते हैं।
औषधि सेवन का और व्यायाम का एक नियत समय होता है। नियत मात्रा, संख्या का भी ध्यान रखना होता है। कभी व्यायाम सवेरे, कभी दोपहर को, कभी रात को किया जाये- कभी 5 बैठक कभी 60 बैठक और कभी-कभी 200 लगाई जायें तो वह व्यायाम उपयोगी न हो सकेगा। इसी प्रकार औषधि-सेवन भी कभी रात में, कभी दिन में, कभी दो-पहर-कभी रत्ती भर, कभी तोला भर, कभी छटांक भर मात्रा खाई जाये तो उससे रोग निवृत्ति में कोई सहायता न मिलेगी।
प्रारंभिक साधकों को जप की चाल नियमित करने के लिए माला का आश्रय लेना पड़ता है। साधारणतया 1 घंटे में 10 माला की उच्चारण गति होनी चाहिए। इसमें थोड़ा अन्तर हो सकता है, पर बहुत अन्तर नहीं होना चाहिए। घड़ी और माला का तारतम्य मिलाकर जप की चाल को व्यवस्थित करना होता है। चाल तेज हो तो धीमी की जाये, धीमी हो तो उसमें तेजी लाई जाये। इस नियंत्रण में उच्चारण क्रम व्यवस्थित हो जाता है। सन्ध्याकाल जप के लिए नियत है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त का काल एक नियमित समय है। इसमें थोड़ा आगे-पीछे किया जा सकता है, पर बहुत अन्तर नहीं होना चाहिए। बात ऐसी नहीं कि अन्य काल में करने से कोई नरक को जायेगा या माता नाराज हो जायेगी। बात इतनी भर है कि समय नियत-नियमित होना चाहिए। नियमितता में बड़ी शक्ति है। जिस प्रकार चाय सिगरेट की अपने समय पर ‘भड़क’ उठती है, वैसी ही भड़क नियत समय पर उपासना के लिए उठने लगे तो समझना चाहिए कि उस क्रम व्यवस्था ने स्वभाव में स्थान प्राप्त कर लिया। नियत विधि व्यवस्था, नियत स्थान, नियत क्रम, नियत सरंजाम जुटाने के लिये जब हाथ नेत्र अभ्यस्त हो जायं तो समझना चाहिये कि प्रारंभिक कक्षा का साधना क्रम पूर्ण हो गया। जब तक ऐसी स्थिति न आये तब तक पूर्वाभ्यास ही जारी रखना होता है। अनुभवी मार्ग-दर्शन, साधकों को तब तक इस प्राथमिक उपासना में ही लगाये रहते हैं जब तक वे समय, संख्या और व्यवस्था इन तीनों क्षेत्रों में नियमित नहीं हो जाते-कर्मकाण्ड-विधि विधान-साधना क्षेत्र का प्रथम सोपान है।
उच्चस्तरीय साधना
उच्चस्तरीय साधना का प्रमुख प्रयोजन है, भावनात्मक विकास, विचारणा एवं चेतना का परिष्कार। इसके लिए आवश्यक कर्मकाण्ड विधि विधान जारी तो रहते हैं पर सारा जोर इस बात पर दिया जाता है कि तन्मयता एवं एकाग्रता बढ़े। आमतौर से साधकों का मन जहाँ-तहाँ भागता फिरता है, चित्त स्थिर नहीं रहता, उपासना के समय न जाने कहाँ-कहाँ के विचार आते हैं। यह स्थिति आत्मिक विकास में प्रथम बाधा है।
इस समस्या का समाधान:
इस समस्या का समाधान करने के लिए उच्चस्तरीय साधना में प्रथम प्रयत्न यह करना पड़ता है कि मन की एकाग्रता हो और हृदयगत तन्मयता बढ़े। यह प्रयोजन पूरा हो जाने पर तीन चौथाई मंजिल पूरी हुई समझनी चाहिए। उच्चस्तरीय साधना की सफलता पूर्वार्ध की क्रियाओं पर आधारित है। उत्तरार्ध में वे विशिष्ट साधनायें करनी पड़ती हैं जो 1. प्राण शक्ति की प्रखरता, 2. शारीरिक तपश्चरण, 3. मानसिक एकाग्रता, 4. भावनात्मक तन्मयता एवं 5. उग्र मनोबल के आधार पर विशिष्ट विधि-विधानों के साथ पूरी की जाती हैं।
आशा करते हैं पाठकों को उत्तरार्ध और पूर्वार्ध का ज्ञान होगा। फिर भी जिन्हें नहीं मालूम पूर्वार्ध first half और उत्तरार्ध second half होता है। उदाहरण के तौर पर 10 वर्ष की अवधि में पहले 5 वर्ष पूर्वार्ध हैं और अगले 5 उत्तरार्ध हैं
ऊपर वाली ऊंची भूमिकाएं अनायास ही नहीं आ जाती, उन्हें छलाँग मार कर प्राप्त नहीं किया जा सकता। छुटपुट कामयाबी की पूर्ति के लिए साधारण अनुष्ठान काम चलाऊ परिणाम उपस्थित कर देते हैं। यह एक प्रकार के सामाजिक उपचार हैं। दर्द बंद करने के लिये कोई नशीली औषधि तत्काल चमत्कारी लाभ दिखा सकती है। पर जिस दर्द को उसके कारणों समेत समूल नष्ट करना हो उसे स्वास्थ्य सुधार की सारी प्रक्रिया आहार बिहार के संशोधन सहित आरंभ करनी होगी और दीर्घ काल तक उस मंजिल पर सावधानी के साथ चलते रहना होगा। ठीक यही बात उपासना के संबंध में है। तात्कालिक संकट निवृत्ति के लिए कोई बीज मंत्र अनुष्ठान, यज्ञ या क्रिया कृत्य काम दें सकता है पर जिस आधार पर मानव जीवन को समग्र रूप में कृतकृत्य बनाया जा सके, ऐसी साधना जो मंजिल दर मंजिल चलने की ही हो सकती है केवल दूरदर्शी साधक ही धैर्यपूर्वक , श्रद्धापूर्वक इस आधार का अवलम्बन ( पालन ) करते हैं।
तीसरा ध्यान सविता ब्रह्म के गायत्री स्वरूप का दर्शन करने का है। प्रातःकाल जिस प्रकार संसार में अरुणिमा युक्त स्वर्णिमा आभा के साथ भगवान सविता अपने समस्त वरेण्य, दिव्य भर्ग ऐश्वर्य के साथ उदय होते हैं उसी प्रकार उस अनन्त आकाश की पूर्व दिशा में से ब्रह्म की महान शक्ति गायत्री का उदय होता है। उसके बीच अनुपम सौंदर्य से युक्त अलौकिक सौंदर्य की प्रतिमा जगद्धातृ गायत्री माता प्रकट होती है। वे हंसती-मुस्कराती अपनी ओर बढ़ती आ रही हैं। हम बालसुलभ किलकारियाँ लेते हुए उनकी ओर बढ़ते चले जाते हैं। दोनों माता-पुत्र आलिंगन आनन्द से आबद्ध होते हैं और अपनी ओर से असीम वात्सल्य की गंगा-यमुना प्रवाहित हो उठती है दोनों का संगम परम पावन तीर्थराज बन जाता है।
हमारे परिजनों में से अधिकाँश ऐसे हैं जिन्हें उपासना मार्ग पर चलते हुए कुछ समय हो गया। भले ही उनका क्रम व्यवस्थित न रहा हो, पर इस दिशा में उनके कुछ कदम जरूर उठे हैं। ऐसे लोग इस उच्चस्तरीय प्रशिक्षण के उपयुक्त होंगे। जिन्होंने एक कदम भी इस ओर नहीं उठाया है, उन्हें कुछ समय ( कम से कम तीन महीने ) अपनी उपासना प्रकृति व्यवस्थित करने में लगाने चाहिएं। देर से जो लोग उपासना करते चले आ रहे हैं पर जो अभी तक नियमित नहीं हो गये उन्हें भी गिनती भूल जाने पर नये सिरे से गिनने का क्रम आरंभ करना चाहिए। यदि लगन सच्ची है और इस मार्ग पर चलने का दृढ़ संकल्प किया गया हो तो ‘नियमितता’ ( Regularity ) का प्रारंभिक अभ्यास तीन महीनों में भी पूरा हो सकता है।
It is just like reorientation before going back to job after a long break.
हर वस्तु समय पर अपना फल देती है। यों शुभ कार्य का प्रारंभ भी तत्काल आनंद उल्लास की एक किरण प्रदान करता है और सन्मार्ग पर चलने की प्रत्यक्ष अनुभूति नकद धर्म की तरह अविलम्ब होती है फिर भी किसी तथ्य के समुचित विकास में कुछ समय तो लगता ही है। आम के पेड़ पाँच वर्ष में फल देते हैं। उच्चस्तरीय साधना के परिपाक में इतना समय तो चाहिए ही।
शुभारंभ के लिए प्रत्येक गायत्री उपासक एक दिन का उपवास करे, दूध फल लेकर रहे। पूजा के पुराने उपकरणों को बदल कर नए सिरे से नवीन वस्तुएं सुसज्जित करें। जिनके घर में पूजास्थली न हो वे एक चौकी पर गायत्री माता का चित्र तथा पूजा के अन्य उपकरण सजा लें। स्थान ऐसा चुनें जहाँ कम से कम खटपट रहती हो और जिसे बार-बार बदलना न पड़े। बन पड़े तो उस दिन घी का अथवा तिल के तेल का अखण्ड दीपक एक दिन के लिये जलाया जाए। पुष्पों से पूजा स्थली सजाई जाए।
उस दिन सूर्योदय से पूर्व उठ कर नित्य कर्म से निवृत्त होकर पूजास्थली पर शाँत चित्त से बैठें और मन ही मन इस प्रतिज्ञा को दैव प्रतिमा के सम्मुख दुहराएं कि-
” मैं नियमित और व्यवस्थित उपासना करूंगा। लकीर नहीं पीटूँगा I साधना से भावनाओं का समावेश कर के उसे सर्वांगपूर्ण बनाऊंगा। मेरी उपासना आत्मिक प्रगति में सार्थक रूप से सहायक हो ऐसा सच्चे मन से प्रयत्न करूंगा। माता मेरी इस प्रतिज्ञा को सफल बनाने में सहायता करे।” आधा घंटा इस संकल्प को ही मनन-चिन्तन किया जाए। अन्त में 108 गायत्री मंत्र माला की सहायता से अथवा उंगलियों पर गिन कर पूरे किए जाएं। अन्त में 24 आहुतियों का हवन किया जाए। यदि हवन का विधान न मालूम हो और संकल्प सामग्री न हो तो 24 घी की आहुतियाँ गायत्री मंत्र से दी जा सकती हैं। अन्त में आरती उतार ली जाये और सूर्य भगवान को जल का अर्ध दिया जाए।
उच्स्तरीय साधना में ध्यान प्रधान हो जायेगा और जप गौण। प्रारंभिक बाल कक्षा में अक्षर लिखना प्रधान कार्य रहता है और पुस्तक पढ़ना गौण माना जाता है उसी प्रकार नियमितता के प्रारंभिक अभ्यास की प्राथमिकता साधना में जप संख्या को प्रधानता दी जाती है। ध्यान के लिए थोड़ा-सा आधार इतना ही रहता है कि गायत्री माता का स्वरूप चित्र या प्रतिमा के रूप में सामने रखकर इसका दर्शन अधखुले नेत्रों से करते रहा जाये ताकि वह स्वरूप ध्यान का आधार बन सके। उच्चस्तरीय साधना में यह क्रम बदल जाता है। ऊंची कक्षाओं के छात्रों में पढ़ना अधिक होता है और लिखना कम। इसी प्रकार उच्चस्तरीय साधना में ध्यान को प्रमुखता देनी पड़ती है। जप को नित्य-कर्म की संज्ञा में रखकर उसे चालू तो रखा जाता है। समय भी उसी पर अधिक लगाया जाता है। इस स्तर की साधना में जप संख्या न्यूनतम एक माला (108 मंत्र) और अधिकतम 5 माला (540 मंत्र) पर्याप्त है। शेष जितना भी समय बचता हो ध्यान में लगाया जाना चाहिए।
ध्यान के लिए जितना समय निर्धारित किया जाये, उसका 1/3 वातावरण का 1/3 भाग उपासक का अपना और 1/3 भाग उपास्य का (गायत्री का ) ध्यान करने में लगाया जाए। साधारणतया आधा घंटा इसके लिए रह जाना चाहिए। इसमें से 10-10 मिनट प्रस्तुत तीनों ध्यान करने में लगायें।
प्रलय के समय बची हुई अनन्त जलराशि में कमल के पत्ते पर तैरते हुए बाल भगवान का चित्र बाजार में बिकता है। यह चित्र खरीद लेना चाहिए और उसी के अनुरूप अपनी स्थिति अनुभव करनी चाहिए।
पहला ध्यान
इस संसार के ऊपर नील आकाश और नीचे नील जल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। जो कुछ भी दृश्य पदार्थ इस संसार में थे वे इस प्रलय काल में ब्रह्म के भीतर तिरोहित हो गई। अब केवल अनन्त शून्य बना है जिनमें नीचे जल और ऊपर आकाश के अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं। यह उपासना भूमिका के वातावरण का स्वरूप है।
दूसरा ध्यान जो एक तिहाई समय में किया जाता है, यह है कि मैं कमल पत्र पर पड़े हुए एक वर्षीय बालक की स्थिति में निश्चिन्त भाव से पड़ा क्रीड़ा-कल्लोल कर रहा हूँ। न किसी बात की चिन्ता है, न आकाँक्षा और न आवश्यकता। पूर्णतया निश्चिन्त, निर्भय, निर्द्वन्द्व, निष्काम जिस प्रकार छोटे बालक की मनोभूमि हुआ करती है, ठीक वैसी ही अपनी है। विचारणा का सीमित क्षेत्र एकाकीपन के उल्लास में ही सीमित है। चारों और उल्लास एवं आनन्द का वातावरण संव्याप्त है। मैं उसी की अनुभूति करता हुआ परिपूर्ण तृप्ति एवं सन्तुष्टि का आनन्द ले रहा हूँ।
माता और पुत्र के बीच क्रीड़ा कल्लोल भरा स्नेह-वात्सल्य का आदान प्रदान होता है। उसका पूरी तरह ध्यान ही नहीं भावना भूमिका से भी उतारना चाहिये। बच्चा माँ के बाल, नाक, कान आदि पकड़ने की चेष्टा करता है, मुँह नाक में अंगुली देता है, गोदी में ऊपर चढ़ने की चेष्टा करता है, हंसता मुस्कराता और अपने आनन्द की अनुभूति उछल-उछल कर प्रकट करता है वैसी ही स्थिति अपनी अनुभव करनी चाहिये। माता अपने बालक को पुचकारती है, उसके सिर पीठ पर हाथ फिराती है, गोदी में उठाती-छाती से लगाती दुलराती है, उछालती है वैसी ही चेष्टायें माता की ओर से प्रेम उल्लास के साथ हंसी मुसकान के साथ की जा रही है ऐसा ध्यान करना चाहिए।
स्मरण रहे केवल उपर्युक्त दृश्यों की कल्पना करने से ही काम न चलेगा वरन् प्रयत्न करना होगा कि वे भावनायें भी मन में उठें, जो ऐसे अवसर पर स्वाभाविक माता पुत्र के बीच उठती उठाती रहती हैं। दृश्य की कल्पना सरल है पर भाव की अनुभूति कठिन है। अपने स्तर को वयस्क व्यक्ति के रूप में अनुभव किया गया तो कठिनाई पड़ेगी किन्तु यदि सचमुच अपने को एक वर्ष के बालक की स्थिति में अनुभव किया गया, जिसके माता के स्नेह के अतिरिक्त और यदि कोई प्रिय वस्तु होती ही नहीं, तो फिर विभिन्न दिशाओं में बिखरी हुई अपनी भावनायें एकत्रित होकर उस असीम उल्लास भरी अनुभूति के रूप में उदय होंगी जो स्वभावतः हर माता और हर बालक के बीच में निश्चित रूप से उदय होती हैं।
प्रौढ़ता भुला कर शैशव ( infant ) का शरीर और भावना स्तर स्मरण कर सकना यदि संभव हो सका तो समझना चाहिये कि साधक ने एक बहुत बड़ी मंजिल पार कर ली।
मन प्रेम का गुलाम है। मन भागता है पर उसके भागने की दिशा अप्रिय से प्रिय भी होती है। जहाँ प्रिय वस्तु मिल जाती है वहाँ वह ठहर जाता है। प्रेम ही सर्वोपरि प्रिय है। जिससे भी अपना प्रेम हो जाए वह भले ही कुरूप या निरूप भी हो पर लगती परम प्रिय है। मन का स्वभाव प्रिय वस्तु के आस-पास मंडराते रहने का है। उपर्युक्त ध्यान साधना में गायत्री माता के प्रति प्रेम भावना का विकास करना पड़ता है फिर उसका सर्वांग सुन्दर स्वरूप भी प्रस्तुत है। सर्वांग सुन्दर प्रेम की अधिष्ठात्री गायत्री माता का चिन्तन करने से मन उसी परिधि में घूमता रहता है। उसी क्षेत्र में क्रीड़ा कल्लोल करता रहता है। अतएव मन को रोकने, वश में करने की एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक आवश्यकता भी इस साधना के माध्यम से पूरी हो जाती है।
इस ध्यान धारणा में गायत्री माता को केवल एक नारी-मात्र नहीं माना जाता है। वरन् उसे सत् चित् आनन्द स्वरूप-समस्त सद्गुणों, सद्भावनाओं, सत्यप्रवृत्तियों का प्रतीक, ज्ञान-विज्ञान का प्रतिनिधि और शक्ति सामर्थ्य का स्रोत मानता है। प्रतिमा नारी की भले ही हो पर वस्तुतः वह ब्रह्म-चेतना क्रम दिव्य ज्योति बन कर ही-अनुभूति में उतरे।
जब माता के स्तन पान का ध्यान किया जाए तो यह भावना उठनी चाहिये कि यह दूध एक दिव्य प्राण है जो माता के वक्षःस्थल से निकल कर मेरे मुख द्वारा उदर में जा रहा है और वहाँ एक धवल विद्युत धारा बन कर शरीर के अंग प्रत्यंग, रोम-रोम में ही नहीं वरन् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय, अन्तःकरण, चेतना एवं आत्मा में समाविष्ट हो रहा है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों में अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोशों में समाये हुए अनेक रोग शाकों कषाय कल्मषों का निराकरण कर रहा। इस पय पान का प्रभाव एक कायाकल्प कर सकने वाली संजीवनी रसायन जैसा हो रहा है। मैं नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, अणु से विभु, क्षुद्र से महान और आत्मा से परमात्मा के रूप में विकसित हो रहा हूँ। ईश्वर के समस्त सद्गुण धीरे-धीरे व्यक्तित्व का अंग बन रहे हैं। मैं दु्रतगति से उत्कृष्टता की ओर अग्रसर हो रहा हूँ। मेरा आत्म-बल असाधारण रूप में प्रखर हो रहा है।
उपासना की समाप्ति
उपर्युक्त ध्यान करने के बाद उपासना समाप्त करनी चाहिये। आरती और सूर्य आदि के पश्चात यह साधना समाप्त हो जाती है। उत्तम तो यह है कि यह उपासना स्नान कर के, धुले वस्त्र पहन कर की जाए। इससे शरीर और मन हल्का रहने से मन ठीक तरह लगता है। फिर भी यदि कोई व्यक्ति अपनी शारीरिक दुर्बलता अथवा साधनों की असुविधा के कारण स्नान करने में असमर्थ हो तो इस कठिनाई के कारण उपासना भी छोड़ बैठना ठीक नहीं। हाथ पैर मुँह धोकर-यथा संभव वस्त्र आदि बदलकर भी साधना की जा सकती है। उपासना का प्रधान उपकरण शरीर नहीं मन है। फिर ध्यान साधना में तो उसी को प्रमुखता है। बाहर से स्नान कर लेने पर भी भीतर तो इस देह में फिर भी गंदगी भरी रहती है। इसलिये शारीरिक शुद्धि की अधिकाधिक व्यवस्था तो की जाए पर उसे इतना अनिवार्य न बनाया जावे कि स्नान न हो सका तो साधना भी छोड़ दी जाए। रोगी, अपाहिज, जरा जीर्ण और असमर्थ व्यक्ति भी जिस साधना को कर सके वस्तुतः वही साधन है। मैले कुचैले गंदे शरीर समेत उत्पन्न हुये नवजात बछड़े की गाय अपनी जीभ से चाट कर उसे शुद्ध कर देती है तो क्या हमारी साध्य माता-स्नान न कर सकने जैसी आपत्तिकालीन असुविधा को क्षमा न कर सकेगी?
इति श्री
परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्री चरणों में समर्पित
One response to “गायत्री महामंत्र के विभिन्न साधना स्तर”
जयगुरुदेव। आपके श्रम को किन शब्दों में कहा जाए समझ नहीं आता। ये लेख 68की अखंड ज्योति में आए हुए हैं। परंतु आपने जिस रूप में पेश किए हैं उसका कोई सानी नहीं।बात घुमा फिरा कर इस पर अटकती है कि आपने किया क्या ओर कितना किया। इससे बढ़कर सरली करण नहीं हो सकता।